मंगलवार, 30 सितंबर 2014

आंत उतरना Hernia




           प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार आंत उतरने की बीमारी एक बहुत ही गंभीर समस्या है। इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति की पाचनशक्ति कमजोर हो जाती है तथा उसे कई प्रकार के पेट के रोग हो जाते हैं।

आंत उतरने के रोग होने के लक्षण:-

     जब किसी व्यक्ति की आंत अपने जगह से उतर जाती है तो उस व्यक्ति के अण्डकोष की सन्धि में गांठे जैसी सूजन पैदा हो जाती है जिसे यदि दबाकर देखा जाए तो उसमें से कों-कों शब्द की आवाज सुनाई देती हैं। आंत उतरने का रोग अण्डकोष के एक तरफ पेड़ू और जांघ के जोड़ में अथवा दोनों तरफ हो सकता है। जब कभी यह रोग व्यक्ति के अण्डकोषों के दोनों तरफ होता है तो उस रोग को हार्निया रोग के नाम से जाना जाता है। वैसे इस रोग की पहचान अण्डकोष का फूल जाना, पेड़ू में भारीपन महसूस होना, पेड़ू का स्थान फूल जाना आदि। जब कभी किसी व्यक्ति की आंत उतर जाती है तो रोगी व्यक्ति को पेड़ू के आस-पास दर्द होता है, बेचैनी सी होती है तथा कभी-कभी दर्द बहुत तेज होता है और इस रोग से पीड़ित व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है। कभी-कभी तो रोगी को दर्द भी नहीं होता है तथा वह धीरे से अपनी आंत को दुबारा चढ़ा लेता है। आंत उतरने की बीमारी कभी-कभी धीरे-धीरे बढ़ती है तथा कभी अचानक रोगी को परेशान कर देती है।

आंत उतरने का कारण:-

          प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार यह रोग व्यक्ति को आन्त्रवृद्धि, पेड़ू में विकृत पदार्थ का अनावश्यक भार जाने के फलस्वरूप, तल-पेट की मांसपेशियों की कमजोरी हो जाने के कारण होता है। आंत में पेट के सारे पाचनतंत्र रहते हैं।

प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार देखा जाए तो आंत निम्नलिखित कारणों से  उतर जाती है-

1. कठिन व्यायाम करने के कारण आंत उतरने का रोग हो जाता है।

2. पेट में कब्ज होने पर मल का दबाव पड़ने के कारण आंत उतरने का रोग हो जाता है।

3. भोजन सम्बन्धी गड़बड़ियों तथा शराब पीने के कारण भी आंत अपनी जगह से उतर जाती है।

4. मल-मूत्र के वेग को रोकने के कारण भी आंत अपनी जगह से उतर जाती है।

5. खांसी, छींक, जोर की हंसी, कूदने-फांदने तथा मलत्याग के समय जोर लगाने के कारण आंत अपनी जगह से उतर जाती है।

6. पेट में वायु का प्रकोप अधिक होने से आंत अपनी जगह से उतर जाती है।

7. अधिक पैदल चलने से भी आंत अपनी जगह से उतर जाती है।

8. भारी बोझ उठाने के कारण भी आंत अपनी जगह से उतर जाती है।

9. शरीर को अपने हिसाब से अधिक टेढ़ा-मेढ़ा करने के कारण आंत अपनी जगह से उतर जाती है।

आंत उतरने से पीड़ित व्यक्ति का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार:-

1. प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार जब किसी व्यक्ति की आंत उतर जाती है तो रोगी व्यक्ति को तुरन्त ही शीर्षासन कराना चाहिए या उसे पेट के बल लिटाना चाहिए। इसके बाद उसके नितम्बों को थोड़ा ऊंचा उठाकर उस भाग को उंगुलियों से सहलाना और दबाना चाहिए। जहां पर रोगी को दर्द हो रहा हो उस भाग पर दबाव हल्का तथा सावधानी से देना चाहिए। इस प्रकार की क्रिया करने से रोगी व्यक्ति की आंत अपने स्थान पर आ जाती है। इस प्रकार से रोगी का उपचार करने के बाद रोगी को स्पाइनल बाथ देना चाहिए, जिसके फलस्वरूप रोगी व्यक्ति की पेट की मांसपेशियों की शक्ति बढ़ जाती है तथा अण्डकोष संकुचित हो जाते हैं।

2. रोगी की आंत को सही स्थिति में लाने के लिए उसके शुक्र-ग्रंथियों पर बर्फ के टुकड़े रखने चाहिए जिसके फलस्वरूप उतरी हुई आंत अपने स्थान पर आ जाती है।

3. यदि किसी समय आंत को अपने स्थान पर लाने की क्रिया से आंत अपने स्थान पर नहीं आती है तो रोगी को उसी समय उपवास रखना चाहिए। यदि रोगी के पेट में कब्ज हो रही हो तो एनिमा क्रिया के द्वारा थोड़ा पानी उसकी बड़ी आंत में चढ़ाकर, उसमें स्थित मल को बाहर निकालना चाहिए इसके फलस्वरूप आंत अपने मूल स्थान पर वापस चली जाती है।

4. प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार इस रोग का उपचार करने के लिए हार्निया की पट्टी का प्रयोग करना चाहिए। इस पट्टी को सुबह के समय से लेकर रात को सोने के समय तक रोगी के पेट पर लगानी चाहिए। यह पट्टी तलपेट के ऊपर के भाग को नीचे की ओर दबाव डालकर रोके रखती है जिसके फलस्वरूप रोगी को बहुत अधिक लाभ मिलता है। इस प्रकार से रोगी का उपचार करने से उसकी मांसपेशियां सख्त हो जाती हैं और रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है। ठीक रूप से लाभ के लिए रूग्णस्थल (रोग वाले भाग) पर प्रतिदिन सुबह और शाम को चित्त लेटकर नियमपूर्वक मालिश करनी चाहिए। मालिश का समय 5 मिनट से आरम्भ करके धीरे-धीरे बढ़ाकर 10 मिनट तक ले जाना चाहिए। रोगी के शरीर पर मालिश के बाद उस स्थान पर तथा पेड़ू पर मिट्टी की गीली पट्टी का प्रयोग लगभग आधे घण्टे तक करना चाहिए। जिसके फलस्वरूप यह रोग ठीक हो जाता है।

5. प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार रोगी व्यक्ति के पेट पर मालिश और मिट्टी लगाने तथा रोगग्रस्त भाग पर भाप देने से बहुत अधिक लाभ मिलता है।

6. इस रोग का इलाज करने के लिए पोस्ता के डोण्डों को पुरवे में पानी के साथ पकाएं तथा जब पानी उबलने लगे तो उसी से रोगी के पेट पर भाप देनी चाहिए और जब पानी थोड़ा ठंडा हो जाए तो उससे पेट को धोना चाहिए। जिसके फलस्वरूप यह रोग ठीक हो जाता है।

निम्नलिखित व्यायामों के द्वारा आंत उतरने के रोग को ठीक किया जा सकता है-

1. यदि आंत उतर गई हो तो उसका उपचार करने के लिए सबसे पहले  रोगी के पैरों को किसी से पकड़वा लें या फिर पट्टी से चौकी के साथ बांध दें और हाथ कमर पर रखें। फिर इसके बाद रोगी के सिर और कन्धों को चौकी से 6 इंच ऊपर उठाकर शरीर को पहले बायीं ओर और फिर पहले वाली ही स्थिति में लाएं और शरीर को उठाकर दाहिनी ओर मोड़े। फिर हाथों को सिर के ऊपर ले जाएं और शरीर को उठाने का प्रयत्न करें। यह कसरत कुछ कठोर है इसलिए इस बात का ध्यान रखें कि अधिक जोर न पड़े। सबसे पहले इतनी ही कोशिश करें जिससे पेशियों पर तनाव आए, फिर धीरे-धीरे बढ़ाकर इसे पूरा करें। इसके फलस्वरूप यह रोग ठीक हो जाता है।

2. प्राकृतिक चिकित्सा से इस रोग का उपचार करने के लिए सबसे पहले रोगी व्यक्ति को सीधे लिटाकर उसके घुटनों को मोड़ते हुए पेट से सटाएं और तब तक पूरी लम्बाई में उन्हें फैलाएं जब तक उसकी गति पूरी न हो जाए और चौकी से सट न जाए। इस प्रकार से रोगी का इलाज करने से रोगी का रोग ठीक हो जाता है।

3. प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार रोगी व्यक्ति का इलाज करने के लिए रोगी के दोनों हाथों को फैलाकर चौकी के किनारों को पकड़ाएं और उसके पैरों को जहां तक फैला सकें उतना फैलाएं। इसके बाद रोगी के सिर को ऊपर की ओर फैलाएं। इससे रोगी का यह रोग ठीक हो जाता है।

4. रोगी व्यक्ति का इलाज करने के लिए रोगी व्यक्ति को हाथों से चौकी को पकड़वाना चाहिए। फिर इसके बाद रोगी अपने पैरों को ऊपर उठाते हुए सिर के ऊपर लाएं और चौकी की ओर वापस ले जाते हुए पैरों को लम्बे रूप में ऊपर की ओर ले जाएं। इसके बाद अपने पैरों को पहले बायीं ओर और फिर दाहिनी ओर जहां तक नीचे ले जा सकें ले जाएं। इस क्रिया को करने में ध्यान इस बात पर अधिक देना चाहिए कि जिस पार्श्व से पैर मुड़ेंगे उस भाग पर अधिक जोर न पड़े। यदि रोगी की आन्त्रवृद्धि दाहिनी तरफ है तो उस ओर के पैरों को मोड़ने की क्रिया बायीं ओर से अधिक बार होनी चाहिए। इस प्रकार से रोगी का उपचार करने से रोगी की आंत अपनी जगह पर आ जाती है।

5. कई प्रकार के आसनों को करने से भी आंत अपनी जगह पर वापस आ जाती है जो इस प्रकार हैं- अर्द्धसर्वांगासन, पश्चिमोत्तानासन, भुजंगासन, सर्वांगासन, शीर्षासन और शलभासन आदि।

6. आंत को अपनी जगह पर वापस लाने के लिए सबसे पहले रोगी को पहले दिन उपवास रखना चाहिए। इसके बाद रोग को ठीक करने के लिए केवल फल, सब्जियां, मट्ठा तथा कभी-कभी दूध पर ही रहना चाहिए। यदि रोगी को कब्ज हो तो सबसे पहले उसे कब्ज का इलाज कराना चाहिए। फिर सप्ताह में 1 दिन नियमपूर्वक उपवास रखकर एनिमा लेना चाहिए। इसके बाद सुबह के समय में कम से कम 1 बार ठंडे जल का एनिमा लेना चाहिए और रोगी व्यक्ति को सुबह के समय में पहले गर्म जल से स्नान करना चाहिए तथा इसके बाद फिर ठंडे जल से। फिर सप्ताह में एक बार पूरे शरीर पर वाष्पस्नान भी लेना चाहिए। इस रोग से पीड़ित रोगी को तख्त पर सोना चाहिए तथा सोते समय सिर के नीचे तकिया रखना चाहिए। इस रोग से पीड़ित रोगी को अपनी कमर पर गीली पट्टी बांधनी चाहिए। इससे रोगी व्यक्ति को बहुत अधिक लाभ मिलता है।

7. इस रोग से पीड़ित रोगी को गहरी नीली बोतल के सूर्यतप्त जल को लगभग 50 मिलीलीटर की मात्रा में रोजाना लगभग 6 बार लेने से बहुत अधिक लाभ मिलता है।

मांस-पेशियों में खिंचाव Strain in the muscles



         कोई व्यक्ति कितना भी स्वस्थ क्यों न हो उसकी मांसपेशियों में कभी न कभी खिंचाव जरूर आ जाता है।
मांसपेशियों में खिंचाव आने पर प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार-
•मांसपेशियों में खिंचाव आने पर रोगी व्यक्ति को पूरी तरह से आराम करना चाहिए।
•रोगी को अपनी मांसपेशियों पर हर 2 घण्टे के अन्तराल पर आधे घण्टे के लिए बर्फ से मालिश करनी चाहिए।
•मांसपेशियों में खिंचाव से पीड़ित रोगी को गर्म तथा ठंडा स्नान करना चाहिए।
•मांसपेशियों में खिंचाव से पीड़ित रोगी को विटामिन `सी´ की मात्रा वाली चीजों का भोजन में अधिक सेवन करना चाहिए।
•मांसपेशियों में खिंचाव आने पर तेल से शरीर की मालिश करनी चाहिए जिसके फलस्वरूप दर्द जल्दी ही ठीक हो जाता है।

मूत्राशय की पथरी Bladder stone



          इस रोग से पीड़ित रोगी के मूत्राशय में पथरी हो जाती है जिसके कारण से रोगी व्यक्ति को बहुत अधिक परेशानी होती है।

मूत्राशय की पथरी के लक्षण-

•इस रोग से पीड़ित रोगी दर्द के कारण चीखने-चिल्लाने लगता है।
•मूत्राशय की पथरी से पीड़ित रोगी अपने लिंग और नाभि को हाथ से दबाए रखता है तथा पेशाब करने के समय में खांसने से वायु के साथ उसका मल भी निकल जाता है। रोगी का पेशाब बूंद-बूंद करके गिरता रहता है।
•रोगी व्यक्ति के पेड़ू में अत्यंत जलन तथा दर्द होता है और उसमें सुई गड़ने जैसी पीड़ा होती है।
•रोगी व्यक्ति के हृदय तथा गुर्दे में भी दर्द होता रहता है।
मूत्राशय की पथरी रोग होने के अनेक कारण हैं-

          मनुष्य के शरीर में रक्त का दूषित द्रव्य गुर्दों के द्वारा छनकर पेशाब के रूप में मूत्राशय में जमा होता रहता है जहां वह मूत्र की नलिकाओं के द्वारा शरीर से बाहर हो जाता है। जब शरीर या मूत्रयंत्रों में किसी प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाने के कारण उनकी कार्य प्रणाली में कोई गड़बड़ी हो जाती है तो मूत्राशय के अन्दर आया हुआ दूषित द्रव्य सूखकर पत्थर की तरह कठोर हो जाता है जिसे मूत्राशय की पथरी का रोग कहते हैं।

          जो पुरुष संभोग क्रिया के समय में अधिक आनन्द प्राप्त करने के लिए स्थानाच्युत या निकलते हुए वीर्य को रोक लेते हैं उन व्यक्तियों का वीर्य रास्ते में ही अटक कर रह जाता है और बाहर नहीं निकल पाता है। जब अटका हुए वीर्य वायु लिंग तथा फोतों के बीच में अर्थात मूत्राशय के मुंह पर आकर सूख जाता है तो वह वीर्य की पथरी कहलाता है।

मूत्राशय की पथरी रोग का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार-

•मूत्राशय की पथरी रोग को ठीक करने के लिए सबसे पहले रोगी व्यक्ति को अपने गुर्दे का उपचार करना चाहिए ताकि गुर्दे का कार्य मजबूत हो सके और मूत्राशय के कार्य में सुधार हो सके।
•रोगी व्यक्ति को उचित भोजन करना चाहिए तथा शरीर की आंतरिक सफाई करनी चाहिए ताकि गुर्दे तथा मूत्राशय पर दबाव न पड़े और उनका कार्य ठीक तरीके से हो सके। ऐसा करने से पथरी का बनना रुक जाता है तथा इसके साथ ही पेट में दर्द या कई प्रकार के अन्य रोग भी नहीं होते हैं तथा शरीर के स्वास्थ्य में भी सुधार हो जाता है।
•रोगी व्यक्ति को 2-4 दिनों तक पानी में नींबू या संतरे का रस मिलाकर पीना चाहिए और उसके बाद 2-3 दिनों तक केवल रसदार खट्टे-मीठे फलों का सेवन करना चाहिए। रोगी व्यक्ति को एनिमा क्रिया करके पेट की सफाई करनी चाहिए। इस प्रकार से उपचार करने से रोगी के गुर्दों के कार्य में सुधार हो जाता है जिसके फलस्वरूप पथरी का बनना बंद हो जाता है।
•मूत्राशय की पथरी रोग से पीड़ित रोगी को सुबह के समय में पानी में 1 नीबू का रस मिलाकर पीना चाहिए तथा इसके बाद नाश्ते में 250 मिलीलीटर दूध पीना चाहिए। फिर इसके बाद एक गिलास पानी में एक नींबू का रस मिलाकर दोपहर के समय में पीना चाहिए। रोगी व्यक्ति को दही और भाजी, सलाद तथा लाल चिउड़ा का फल खाना चाहिए तथा शाम के समय में फलों का रस पीना चाहिए।
•रोगी व्यक्ति को अपनी पाचनक्रिया को ठीक करने के लिए सुबह तथा शाम को टहलना चाहिए तथा हल्का व्यायाम भी नियमित रूप से करना चाहिए। इसके अलावा रोगी को 14 दिनों के बीच में एक बार उपवास रखना चाहिए। इससे रोगी का रोग ठीक हो जाता है।
•पथरी के रोग से पीड़ित रोगी को एक दिन में कम से कम 5-6 गिलास शुद्ध ताजा जल या फल का रस पीना चाहिए।
•पथरी के रोग को ठीक करने के लिए नारियल, ताड़ और खजूर का ताजा मीठा रस, फलों और शाक-सब्जियों का रस, दूध, मखनियां, दही तथा मठा पीना लाभदायक होता है।
•मूत्राशय की पथरी को ठीक करने के लिए और भी कई प्रकार के फल तथा औषधियां हैं जिनका सेवन करने से यह रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है जो इस प्रकार हैं- तरबूज, खरबूज, खीरा, ककड़ी, मक्खन, गूलर, पका केला, चूड़ा, चावल, गेहूं का दलिया, कुलथी का पानी, शहद, किशमिश, पिण्ड खजूर, अंजीर, छुहारा, नारियल की गिरी, मूंगफली तथा बादाम आदि।
•पथरी के रोग से पीड़ित रोगी को मांस, मछली, दाल, अण्डा, चीनी, नमक, पकवान, मिठाई, मिर्च-मसाले, आचार, चटनी, सिरका आदि का सेवन नहीं करना चाहिए।

सोमवार, 29 सितंबर 2014

स्वर यन्त्र में जलन Laryngitis


          इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति को अपने स्वर यन्त्र में जलन होने लगती है जिसके कारण उसका गला खुश्क हो जाता है तथा उसे तर खांसी होने लगती है।

स्वर यन्त्र में जलन होने का कारण-

1. अधिक गाना गाने, चीखने-चिल्लाने तथा जोर-जोर से भाषण देने से रोगी के स्वर यन्त्र में जलन हो जाता है।

2. ठंड लगने तथा सीलनयुक्त स्थान पर रहने के कारण स्वर यन्त्र में जलन हो सकती है।

3. ठंडी चीजों को भोजन में अधिक प्रयोग करने के कारण भी यह रोग सकता है।

4. शरीर के अंदर कोई दूषित द्रव्य जमा हो जाता है तथा जब यह दूषित द्रव्य किसी तरह से हलक में पहुंच जाता है तो स्वर यन्त्र में जलन हो जाती है।

5. अधिक मिर्च-मसालेदार भोजन खाने के कारण या आवश्यकता से अधिक भोजन खाने के कारण भी यह रोग हो सकता है।

स्वर यन्त्र में जलन होने पर प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार-

•स्वर यन्त्र में जलन होने पर उपचार करने के लिए सबसे पहले रोगी व्यक्ति को अपने पेड़ू पर गीली मिट्टी की पट्टी से लेप करना चाहिए तथा इसके बाद एनिमा क्रिया का प्रयोग करके अपने पेट को साफ करना चाहिए।
•स्वर यन्त्र में जलन से पीड़ित रोगी को सुबह तथा शाम को अपने गले के चारों तरफ गीले कपड़े या मिट्टी की गीली पट्टी का लेप करना चाहिए।
•स्वर यन्त्र में जलन से पीड़ित रोगी को अपने गले, छाती तथा कंधे पर गरम या ठंडा सेंक बारी-बारी से करना चाहिए तथा इसके दूसरे दिन उष्णपाद स्नान करना चाहिए।
•स्वर यन्त्र में जलन से पीड़ित रोगी को गरम पानी में हल्का नमक मिलाकर उस पानी से गरारा करना चाहिए और सुबह तथा शाम के समय में 1-1 गिलास नमक मिला हुआ गरम पानी पीना चाहिए।
•स्वर यन्त्र में जलन से पीड़ित रोगी को 1 सप्ताह तक चोकरयुक्त रोटी तथा उबली-सब्जी खानी चाहिए।
•फल और दूध का अधिक सेवन करने से स्वर यन्त्र में जलन का रोग ठीक हो जाता है।
•स्वर यन्त्र में जलन से पीड़ित रोगी को पानी में नींबू का रस मिलाकर दिन में कई बार पीते रहना चाहिए तथा इसके अलावा गहरी नीली बोतल का सूर्यतप्त जल कम से कम 25 मिलीलीटर दिन में 6 बार पीना चाहिए। इस प्रकार से प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार करने से स्वर यन्त्र में जलन ठीक हो जाती है।

कंधे का दर्द Shoulder pain



परिचय-
          वैसे देखा जाए तो कंधों में आर्थराइटिस नहीं पाया जाता है। जब जोड़ों की सरंचना किसी कारण से प्रभावित होती है तो कंधे में दर्द होने लगता है। कंधे में दर्द होने के कारण रोगी व्यक्ति को चलने-फिरने में भी परेशानी होने लगती है।
          कंधे सुन्न पड़ जाने की बीमारी 50 से 75 वर्ष की उम्र के स्त्री-पुरुषों में अधिक पाई जाती है। दर्द के कारण कंधा निष्क्रिय पड़ जाता है।
कंधे में दर्द होने का लक्षण:-
          इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति के कंधे में दर्द होता है तथा उसका कंधा सुन्न पड़ जाता है। रोगी को कंधे में अकड़न भी होने लगती है और जब दर्द तेज हो जाता है तो रोगी व्यक्ति को नींद भी नहीं आती है।

कंधे में दर्द होने का कारण:-

          कंधे के जोड़ तथा इसकी संरचनाओं का तन्त्रिका वितरण मुख्य रूप में पांचवी ग्रीवा-मूल के माध्यम से होता है जो ग्रीवा-कशेरुका से निकलती है। यह कंधे की जड़ तथा ऊपरी बांह के ऊपर फैली हुई त्रिकोणिका मांसपेशी के क्षेत्र में निहित होती है इसलिए अधिकतर इसमें दर्द महसूस होता रहता है।

कंधे में दर्द होने पर प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार:-

•कंधे के दर्द को ठीक करने के लिए रोगी व्यक्ति को सबसे पहले अपने कंधे की मालिश करानी चाहिए तथा गर्म व ठंडी सिंकाई करवानी चाहिए ताकि यदि कंधे के पास की रक्त कोशिकाओं में रक्त जम गया हो तो उस स्थान पर रक्त का संचारण हो सके। इसके फलस्वरूप कंधे का दर्द ठीक हो जाता है।
•रोगी के कंधे के दर्द से प्रभावित भाग को सूर्य की किरणों के पास करके सिंकाई करनी चाहिए क्योंकि सूर्य की पराबैंगनी किरणों में दर्द को ठीक करने की शक्ति होती है। फिर रोगी व्यक्ति को कंधे पर ठंडी सिंकाई करनी चाहिए तथा इसके बाद उस पर मिट्टी की पट्टी का लेप करना चाहिए। इसके फलस्वरूप कंधे के दर्द का रोग ठीक हो जाता है।
•रोगी व्यक्ति को रात के समय में कम से कम 1 घण्टे तक ठंडा लेप कंधे पर करना चाहिए। इसके फलस्वरूप कंधे का दर्द तथा अकड़न ठीक हो जाती है।
•इस रोग को ठीक करने के लिए रोगी व्यक्ति को सुबह के समय में व्यायाम करने से लाभ होता है।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को मांस, मछली तथा अन्य मांसाहारी चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए।
जानकारी-

          इस प्रकार से प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार करने से रोगी व्यक्ति का कंधे का दर्द ठीक हो जाता है।

थाइराइड रोग Thyroid Disease



          जब यह रोग किसी व्यक्ति को हो जाता है तो उसकी थाइराइड ग्रन्थि में वृद्धि हो जाती है जिसके कारण शरीर के कार्यकलापों में बहुत अधिक परिवर्तन आ जाता है। यह रोग स्त्रियों में अधिक होता है। यह रजोनिवृति के समय, शारीरिक तनाव, गर्भावस्था के समय, यौवन प्रवेश के समय बहुत अधिक प्रभाव डालता है।
थाइराइड रोग निम्न प्रकार का होता है-
थाइराइड का बढ़ना-
           इस रोग के होने पर थाइराइड ग्रन्थि द्वारा ज्यादा हारमोन्स स्राव होने लगता है।

थाइराइड के बढ़ने के लक्षण:-

          इस रोग से पीड़ित रोगी का वजन कम होने लगता है, शरीर में अधिक कमजोरी होने लगती है, गर्मी सहन नहीं होती है, शरीर से अधिक पसीना आने लगता है, अंगुलियों में अधिक कंपकपी होने लगती है तथा घबराहट होने लगती है। इस रोग के कारण रोगी का हृदय बढ़ जाता है, रोगी व्यक्ति को पेशाब बार-बार आने लगता है, याददाश्त कमजोर होने लगती है, भूख नहीं लगती है तथा उच्च रक्तचाप का रोग हो जाता है। कई बार तो इस रोग के कारण रोगी के बाल भी झड़ने लगते हैं। इस रोग के हो जाने पर स्त्रियों के मासिकधर्म में गड़बड़ी होने लगती है।

थाइराइड का सिकुड़ना-

          इस रोग के हो जाने पर थाइराइड ग्रन्थि के द्वारा कम हारमोन बनने लगते हैं।

थाइराइड के सिकुड़ने का लक्षण:-

          इस रोग के होने पर रोगी व्यक्ति का वजन बढ़ने लगता है तथा उसे सर्दी लगने लगती है। रोगी के पेट में कब्ज बनने लगती है, रोगी के बाल रुखे-सूखे हो जाते हैं। इसके अलावा रोगी की कमर में दर्द, नब्ज की गति धीमी हो जाना, जोड़ों में अकड़न तथा चेहरे पर सूजन हो जाना आदि लक्षण प्रकट हो जाते हैं।

घेँघा (गलगंड)-

          इस रोग के कारण थाइराइड ग्रन्थि में सूजन आ जाती है तथा यह सूजन गले पर हो जाती है। इस रोग से पीड़ित रोगी के गले पर कभी-कभी यह सूजन नज़र नहीं आती है लेकिन त्वचा पर यह महसूस की जा सकती है।

घेघा (गलगंड) रोग होने के लक्षण:-

        इस रोग से पीड़ित रोगी की एकाग्रता शक्ति (सोचने की शक्ति) कमजोर हो जाती है। रोगी को आलस्य आने लगता है तथा उसे उदासी भी हो जाती है। रोगी व्यक्ति चिड़चिड़ा हो जाता है, मानसिक संतुलन खो जाता है और वजन भी कम होने लगता है। किसी भी कार्य को करने में रोगी का मन नहीं करता है। धीरे-धीरे शरीर के भीतरी भागों में रुकावट आने लगती है।

थाइराइड रोग होने का कारण:-

•यह रोग अधिकतर शरीर में आयोडीन की कमी के कारण होता है।
•यह रोग उन व्यक्तियों को भी हो जाता है जो अधिकतर पका हुआ भोजन करते हैं तथा प्राकृतिक भोजन बिल्कुल नहीं करते हैं। प्राकृतिक भोजन करने से शरीर में आवश्यकतानुसार आयोडीन मिल जाता है लेकिन पका हुआ खाने में आयोडीन नष्ट हो जाता है।
•मानसिक, भावनात्मक तनाव, गलत तरीके से खान-पान तथा दूषित भोजन का सेवन करने के कारण भी यह रोग हो सकता है।
थाइराइड रोगों का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार:-

•थाइराइड रोगों का उपचार करने के लिए रोगी व्यक्ति को कुछ दिनों तक फलों का रस (नारियल पानी, पत्तागोभी, अनन्नास, संतरा, सेब, गाजर, चुकन्दर, तथा अंगूर का रस) पीना चाहिए तथा इसके बाद 3 दिन तक फल तथा तिल को दूध में डालकर पीना चाहिए। इसके बाद रोगी को सामान्य भोजन करना चाहिए जिसमें हरी सब्जियां, फल तथा सलाद और अंकुरित दाल अधिक मात्रा में हो। इस प्रकार से कुछ दिनों तक उपचार करने से यह रोग ठीक हो जाता है।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को कम से कम 1 वर्ष तक फल, सलाद, तथा अंकुरित भोजन का सेवन करना चाहिए।
•सिंघाड़ा, मखाना तथा कमलगट्टे का सेवन करना भी लाभदायक होता है।
•घेंघा रोग को ठीक करने के लिए रोगी को 2 दिन के लिए उपवास रखना चाहिए और उपवास के समय में केवल फलों का रस पीना चाहिए। रोगी को एनिमा क्रिया करके पेट को साफ करना चाहिए। इसके बाद प्रतिदिन उदरस्नान तथा मेहनस्नान करना चाहिए।
•थाइराइड रोगों से पीड़ित रोगी को तली-भुनी चीजें, मैदा, चीनी, चाय, कॉफी, शराब, डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए।
•1 कप पालक के रस में 1 बड़ा चम्मच शहद मिलाकर फिर चुटकी भर जीरे का चूर्ण मिलाकर प्रतिदिन रात के समय में सोने से पहले सेवन करने से थाइराइड रोग ठीक हो जाता है।
•कंठ के पास गांठों पर भापस्नान देकर दिन में 3 बार मिट्टी की पट्टी बांधनी चाहिए और रात के समय में गांठों पर हरे रंग की बोतल का सूर्यतप्त तेल लगाना चाहिए।
•इस रोग को ठीक करने के लिए सबसे पहले रोगी व्यक्ति को उन चीजों का भोजन में अधिक प्रयोग करना चाहिए जिसमें आयोडीन की अधिक मात्रा हो।
•1 गिलास पानी में 2 चम्मच साबुत धनिये को रात के समय में भिगोकर रख दें तथा सुबह के समय में इसे मसलकर उबाल लें। फिर जब पानी चौथाई भाग रह जाये तो खाली पेट इसे पी लें तथा गर्म पानी में नमक डालकर गरारे करें। इस प्रकार से प्रतिदिन उपचार करने से थाइराइड रोग ठीक हो जाता है।
•थाइराइड रोगों को ठीक करने के लिए रोगी व्यक्ति को अपने पेट पर मिट्टी की गीली पट्टी करनी चाहिए तथा इसके बाद एनिमा क्रिया करके अपने पेट को साफ करना चाहिए और इसके बाद कटिस्नान करना चाहिए। इसके फलस्वरूप यह रोग कुछ ही दिनों में ठीक हो जाता है।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को अधिक से अधिक आराम करना चाहिए ताकि थकावट न आ सके और रोगी व्यक्ति को पूरी नींद लेनी चाहिए। मानसिक, शारीरिक परेशानी तथा भावनात्मक तनाव यदि रोगी व्यक्ति को है तो उसे दूर करना चाहिए और फिर प्राकृतिक चिकित्सा से अपना उपचार कराना चाहिए।
•अंत:स्रावी ग्रन्थियों को ठीक करने के लिए कई प्रकार की यौगिक क्रियाएं तथा योगासन हैं। जिनको प्रतिदिन करने से यह रोग ठीक हो जाता है। ये यौगिक क्रियाएं तथा योगासन इस प्रकार हैं- योगमुद्रासन, प्राणायाम, योगनिद्रा, शवासन, पवनमुक्तासन, सुप्तवज्रासन, मत्स्यासन आदि।

टॉन्सिल वृद्धि



          इस रोग के कारण रोगी के गले की तुण्डिका बढ़ जाती है। वैसे यह कोई रोग नहीं है बल्कि यह कई प्रकार के रोगों के होने का लक्षण है। इस रोग को टॉन्सिल वृद्धि कहते हैं।
          टॉन्सिल एक प्रकार की ग्रन्थि है जो शरीर के निस्सरण संस्थान के बहुमूल्य अंग है। प्रकृति के अनुसार टॉन्सिल की रचना इस प्रकार की है जो शरीर को मल रहित बनाकर शुद्ध करता है। जब टॉन्सिल वृद्धि हो जाए उस समय टॉन्सिल को काटकर फेंक देना अच्छा नहीं होता बल्कि इसका प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार कराना लाभदायक होता है।
टॉन्सिल वृद्धि होने का कारण:-

•टॉन्सिलों के बढ़ने और फूलने का मुख्य कारण शरीर में विषैले पदार्थों का अधिक मात्रा में जमा हो जाना है। इसलिए इस रोग का उपचार करने के लिए सबसे पहले पेट को साफ करना आवश्यक है।
•जब शरीर में दूषित द्रव्य जमा हो जाते हैं तो वह टॉन्सिल-वृद्धि, घेंघा, फोड़े-फुन्सी आदि कई रूपों में शरीर से बाहर निकलने की कोशिश करते हैं जिससे रोगी व्यक्ति को बहुत अधिक परेशानी होती है।
•टॉन्सिल वृद्धि के और भी अन्य कारण हो सकते हैं जैसे- पानी में भीगना, अत्यधिक परिश्रम करना, बंद हवा में सांस लेना, समय-समय पर ठंड लग जाना तथा स्वरयन्त्र को सांस लेने के लिए अधिक काम में लेना आदि।
टॉन्सिल वृद्धि का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार:-

•जब तक टॉन्सिल का रोग कम न हो जाए तब तक 2-2 घण्टे के बाद केवल फलों का रस या शाक तथा सब्जियों का रस पीना चाहिए तथा दिन में 3-4 बार फल भी खाने चाहिए और दूध पीना चाहिए।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को सुबह के समय में फल खाने चाहिए तथा दूध पीना चाहिए। रोगी को दोपहर को चोकर वाले आटे की रोटी, उबली सब्जी, मीठा दही या मट्ठा और सलाद तथा कच्ची साग-सब्जियों का सेवन करना चाहिए इसके बाद शाम को दूध पीना चाहिए तथा फलों का सेवन करना चाहिए।
•जब तक यह रोग ठीक न हो जाए तब तक प्रतिदिन कम से कम 3-4 लीटर पानी पीना चाहिए।
•इस रोग का उपचार करने के लिए जब तक फलों का रस पी रहे हो तब तक सुबह के समय में शौच करने के बाद अपने पेड़ू पर आधा घंटे तक गीली मिट्टी की पट्टी रखने के बाद डेढ़ लीटर गुनगुने पानी से एनिमा क्रिया करनी चाहिए ताकि पेट साफ हो जाए। एनिमा क्रिया में जिस पानी का उपयोग कर रहे हो उस पानी में नींबू का रस मिलाना बहुत ही लाभदायक होता है।
•इस रोग का उपचार कराते समय रोगी का वजन घट सकता है क्योंकि सामान्य भोजन न मिल पाने से वजन घट जाता है। लेकिन रोगी व्यक्ति को घबराना नहीं चाहिए क्योंकि जब रोग ठीक हो जाए तब रोगी व्यक्ति को उपयुक्त भोजन मिलने के कारण से उसका वजन सामान्य हो जाता है। रोगी व्यक्ति को प्रतिदिन शाम के समय में भोजन करने के बाद और सोने से पहले अपनी कमर पर गीली पट्टी लगानी चाहिए। इस पट्टी को रातभर बंधे रहने देना चाहिए। रोगी व्यक्ति को सप्ताह में 1 दिन हाट एप्सम साल्टबाथ लेना भी आवश्यक है। जिस दिन इस पट्टी का प्रयोग कर रहे हो उस दिन कमर पर गीली पट्टी नहीं लगानी चाहिए। इस प्रकार से उपचार करने से टॉन्सिल वृद्धि रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है।
•रोगी को दिन में कम से कम 2 बार टॉन्सिल, गला, हलक तथा गर्दन पर लगभग 10 मिनट के लिए भाप देनी चाहिए। उसके बाद गर्म पानी में नींबू का रस निचोड़कर उस पानी से कुल्ला करना चाहिए और इसके बाद लगभग 2 घण्टे तक अपने गले के चारों तरफ टॉन्सिल को ढकते हुए गीले कपड़े की लपेट या मिट्टी की पट्टी लगानी चाहिए। यह पट्टी रात को सोने के समय लगानी चाहिए तथा पूरी रात पट्टी को बांधे रखना चाहिए।
•कागजी नींबू के रस तथा शहद को मिलाकर अंगुली से मुंह के अन्दर की तरफ टॉन्सिलों पर सुबह और शाम को लगाना चाहिए जिससे बहुत अधिक लाभ मिलता है। इस प्रकार से मालिश करते समय यदि रक्त या मवाद निकले तो निकलने देना चाहिए डरना नहीं चाहिए। इस प्रकार से उपचार करने के बाद ताजे मक्खन को गर्दन पर लगभग 20 मिनट तक ऊपर की ओर मालिश भी करनी चाहिए। अन्दर की ओर मालिश करने के लिए कागजी नींबू के रस और शहद के स्थान पर साधारण नमक और गोबर की राख का भी उपयोग किया जा सकता है। लेकिन इस रोग में नींबू का रस और शहद का उपयोग बहुत ज्यादा लाभकारी होता है।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को प्रतिदिन सुबह के समय में अपने मुंह को खोलकर सूरज के सामने बैठना चाहिए और नीले शीशे के टुकड़े को अपने चेहरे के सामने इस प्रकार रखना चाहिए कि सूर्य की रोशनी इस शीशे से निकलकर टॉन्सिलों पर पड़े। इस प्रकार से उपचार कम से कम 7 मिनट तक करना चाहिए। इसके साथ-साथ रोगी को प्रतिदिन नीली बोतल के सूर्यतप्त जल को लगभग 25 मिलीलीटर लेकर की मात्रा में लेकर कम से कम 6 बार सेवन करना चाहिए तथा इसके साथ-साथ पीले रंग की बोतल के सूर्यतप्त जल को सेवन भी करना चाहिए।
•इस रोग से पीड़ित रोगी को सादा और शुद्ध भोजन करना चाहिए तथा भोजन में दही, मट्ठा, ताजी साग-सब्जियों का प्रयोग करना चाहिए।  रोगी को मिर्च-मसाला, नमक, तेल, चीनी, चाय, कॉफी, पॉलिश, मैदा, अचार आदि का अधिक प्रयोग नहीं करना चाहिए।
•टॉन्सिल वृद्धि से पीड़ित रोगी को कई प्रकार की दूसरी चीजों से परहेज करना चाहिए जो इस प्रकार हैं- नशीली चीजें, चावल, रबड़ी, गेहूं तथा तली-भुनी चीजें आदि।
•टॉन्सिल वृद्धि से पीड़ित को अधिक बोलने से बचना चाहिए।

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