शनिवार, 21 मई 2016

चुम्बक का रोगों में उपयोग



 परिचय-
        चुम्बक-चिकित्सा के सिद्धान्तों के अनुसार चुम्बक का प्रभाव पेड़-पौधे, सूक्ष्म-जीवाणुओं, पशुओं, मनुष्यों तथा कई प्रकार के जीवाणुओं पर होता है। चुम्बक का प्रभाव कई प्रकार के लोह पदार्थो तथा लोह पदार्थों से बनाई गई वस्तुओं पर भी होता है।

        बाकी चिकित्साओं की तरह चुम्बक चिकित्सा भी एक प्रकार की चिकित्सा प्रणाली की कला है। इस चिकित्सा के द्वारा भी विभिन्न प्रकार की बीमारियों को ठीक किया जाता हैं लेकिन इसके द्वारा इलाज कराने से पहले हमें ये जानने की आवश्यकता है कि चुम्बक का प्रभाव रोगी तथा रोगी के शरीर पर किस तरह से पड़ता है। चुम्बक के अपने गुण तथा उदार दृष्टिकोण के कारण ही, चुम्बक चिकित्सकों को इसके प्रयोग में महान सफलता मिली है। यहां तक कि कैंसर जैसे रोगों में भी चुम्बक चिकित्सा ने विजय पा ली है। यह जानकर आश्चर्य होता है कि कई प्रकार के रोगों को ठीक करने वाले तथा मानवता को सहायता देने वाली कोई न कोई प्राकृतिक शक्ति तो है जो प्राणि वर्ग तथा निर्जीव पदार्थो पर एकछत्र शासन करती है तथा उन सभी प्रश्नों का उत्तर दे सकती है जिनके बारे में चिकित्सा-विज्ञान अब तक सोच रहा है।

      हम जानते हैं कि चुम्बक सभी प्रकार के लोह पदार्थों तथा सभी सजीव पदार्थों को अपनी ओर आकर्षित करती है। इसलिए चुम्बक चिकित्सा के क्षेत्र में चुम्बक का प्रयोग किस प्रकार करे यह जानना बहुत जरूरी है। चुम्बक से रोगी को ठीक करने के अलग-अलग तरीके हैं। यह तरीके कौन-कौन से है यह भी जानना जरूरी है, चुम्बक का प्रयोग रोगी पर कितने समय तक करना चाहिए, चुम्बक से इलाज करते समय रोगी को कैसे बैठाना चाहिए, चुम्बक का प्रयोग किस समय करना चाहिए तथा इसके प्रयोग में कौन-कौन सी सावधानियां बरतनी चाहिए। विभिन्न प्रकार के रोगों में किस प्रकार के चुम्बक का प्रयोग करना चाहिए आदि बातों को जानना बहुत जरूरी है।

        हम जानते हैं कि इस संसार में चुम्बक विभिन्न रूप तथा आकार में पाई जाती है। कुछ छोटे छड़ वाले चुम्बक, तो कुछ चपटे सेरामिक चुम्बक। छोटे छड़ वाले चुम्बक की शक्ति कम पाई जाती है इसलिये चुम्बक चिकित्सा के क्षेत्र में प्रयोग करने के लिए ये चुम्बक बेकार है। इस प्रकार के छोटे चुम्बक अठारहवीं सदी के लोगों के लिए ही उपयोगी होते थे क्योंकि उस समय वायुमण्डल इतना दूषित नहीं था जितना कि आज है। उस समय में मनुष्य के शरीर पर क्रूर छाप छोड़ने वाली एण्टिबायोटिक औषधियां नहीं हुआ करती थी या हुआ करती थी तो उन लोगों को इन औषधियों के बारे में पता नहीं था। उस समय मनुष्य के रोगों को इतनी बुरी तरह नहीं दबाया जाता था और मनुष्य का चरित्र इतना नीचे नहीं गिरा हुआ था।

        आज की चिकित्सा प्रणालियों में रोगों से लड़ने के लिये तेज से तेज दवाइयों की जरूरत पड़ती है और इसी प्रकार हमें रोगों को समूल नष्ट करने के लिये शक्तिशाली चुम्बकों की जरूरत पड़ती है। अत: चुम्बक चिकित्सा प्रणाली में इस बात पर अधिक जोर दिया जाता है कि चुम्बक चिकित्सा में चुम्बकों का रूप, आकार व शक्ति कैसी हो। अब तक चुम्बक चिकित्सा के क्षेत्र में निम्नलिखित तीन प्रकार के चुम्बकों का प्रयोग अधिक मिलता है।

चुम्बक चिकित्सा के क्षेत्र में प्रयोग किये जाने वाले चुम्बक-

शक्तिशाली चुम्बक-

        इस प्रकार के चुम्बक में 2000 गौस की अधिक शक्ति पाई जाती है। इसलिए इनका प्रयोग बच्चों तथा बूढ़ों पर कम और जवानों पर ज्यादा किया जाता है। इन चुम्बकों का प्रयोग मनुष्य की हथेलियों तथा पैर के तलुवों पर किया जाता है। शक्तिशाली चुम्बकों का प्रयोग रोगग्रस्त भाग पर स्थानिक प्रयोग द्वारा किया जाता है।

        शक्तिशाली चुम्बकों का प्रयोग कशेरूका-सन्धिशोथ, सायटिका (गृध्रसी), कमर दर्द, गठिया, कष्टार्तव ( दर्द के साथ होने वाली माहवारी), अकौता, छाजन, पक्षाघात तथा पोलियो आदि रोगों पर किया जाता है।

मध्यम शक्ति के चुम्बक- इस प्रकार के चुम्बक में लगभग 500 गौस की शक्ति पाई जाती है। इन चुम्बकों का प्रयोग बच्चों के इलाज में अधिक किया जाता है। इन चुम्बकों का उपयोग बच्चों की हथेलियों तथा पैरों के तलुवों पर किया जाता है। जवान व्यक्ति भी कुछ रोगों में इन मध्यम शक्ति के चुम्बकों का उपयोग कर सकते हैं।

विभिन्न प्रकार के चुम्बक का चित्र

        मध्यम शक्ति के चुम्बक का प्रयोग निम्नलिखित रोगों में किया जाता है- कान दर्द ,दांत दर्द, कमर दर्द आदि रोग।

टेढ़े कम शक्ति के सेरामिक चुम्बक- इस प्रकार के चुम्बकों की शक्ति लगभग 200 गौस पाई जाती है। इस प्रकार के चुम्बक में कई प्रकार के टेढ़े मेढ़े आकार चुम्बक होते हैं तथा इनके आकार के कारण ही इन चुम्बकों को शरीर के कोमल अंगों जैसे- मस्तिष्क, आंखें, नाक, टांसिलों आदि में होने वाले रोगों में प्रयोग किया जाता है।

        टेढ़े कम शक्ति के सेरामिक चुम्बक का प्रयोग निम्नलिखित रोगों में किया जाता है- बौनापन, गलतुण्डिकाशोथ तथा अनिद्रा आदि रोग।

चुम्बकों का रखरखाव-

        चुम्बक चिकित्सा में पाये जाने वाले शक्तिशाली चुम्बक तथा मध्यम-शक्ति के चुम्बक, स्टील के खोल के अन्दर चारो ओर से (स्टील कवर) ढके होते हैं तथा कवर से ढके होने के कारण ये चुम्बक टूटते नहीं हैं जबकि सेरामिक चुम्बक अगर कठोर धरती पर गिर जाएं तो टूट सकते हैं। सभी प्रकार के चुम्बकों का रख-रखाव सावधानी पूर्वक करना चाहिए।  इन चुम्बकों को धारक के साथ जोड़ कर रखना चाहिए।

धारक- यह एक प्रकार की धातु से बनी पत्ती होती है। धारक चुम्बकों में किसी प्रकार की कमी आने से रोकता है। इसलिये चुम्बकों को इससे जोड़ कर सावधानीपूर्वक रखना चाहिए।

        अगर इन चुम्बकों को अच्छी तरीके से सावधानी-पूर्वक रखा जाये तो इन चुम्बकों की आकर्षण शक्ति काफी समय तक बनाकर रखी जा सकती है। फिर भी इन चुम्बकों का प्रयोग अनेक रोगियों पर करने के बाद इन चुम्बकों की कुछ शक्ति कम हो जाती है। इन चुम्बकों को दुबारा चुम्बकित करके इनकी मूल शक्ति को वापस लाया जा सकता है।

        चुम्बकित जल बनाने के लिये भी अक्सर शक्तिशाली चुम्बकों का प्रयोग किया जाता है क्योंकि इन चुम्बकों में अधिक शक्ति पाई जाती है और इन चुम्बको की आकर्षण शक्ति जल्दी ही जल में प्रवेश कर जाती है। ये चुम्बक पानी को अधिक चुम्बकीय शक्ति प्रदान करते हैं। अन्य दो प्रकार की चुम्बकों की अपेक्षा उसमें अपेक्षित परिवर्तन ला सकते हैं। इन चुम्बकों द्वारा बहुत अधिक मात्रा में जल बनाया जा सकता है क्योंकि इन चुम्बकों पर पानी से भरे हुए बड़े आकार के जार तथा जग भी आसानी से रखे जा सकते हैं।

        चुम्बक चिकित्सा में तीन प्रकार के ही चुम्बकों का प्रयोग किया जाता है फिर भी आवश्यकता पड़ने पर या इन चुम्बकों के न होने पर बेलनाकार तथा चपटे चुम्बकों का प्रयोग किया जा सकता है। लेकिन इन चुम्बकों का प्रयोग अधिक देर तक करने की जरूरत होती है तथा कुछ रोगों की अवस्थाओं में प्रभावित भागों पर उन्हें कपड़े की पट्टी से बांधकर रखने से अधिक लाभ होता है। ताकि ये चुम्बक स्थिर रहे और चुम्बक का प्रभाव रोग पर सीधा पड़े।

चुम्बकों की प्रयोग विधि-

सार्वदैहिक अर्थात हथेलियों तथा तलुवों पर चुम्बक का प्रयोग- इस प्रकार चुम्बक की प्रयोग विधि (सार्वदैहिक प्रयोग) के अनुसार रोगों का इलाज करने के लिये उत्तरी ध्रुव तथा दक्षिणी ध्रुव के चुम्बकों का एक जोड़ा लिया जाता है। उत्तरी ध्रुव वाले चुम्बक को रोगी के शरीर के दाएं भाग पर, आगे की ओर तथा उत्तरी भागों पर लगाया जाता है। जबकि दक्षिणी ध्रुव वाले चुम्बक को शरीर के बाएं भाग पर, पीठ पर या पीठ के निचले भाग पर  लगाया जाता है। अच्छा परिणाम पाने के लिये जब रोग या रोग के फैलाव शरीर के ऊपरी भाग पर हो तो चुम्बकों को हथेलियों पर लगाया जाता है और यदि रोग शरीर के निचले भागों में हो तो चुम्बकों को पैर के तलुवों पर लगाया जाता है। सार्वदैहिक प्रयोग से यह पता नहीं चलता है कि रोग शरीर संक्रामक है या शुद्ध क्रियात्मक या गहरा या उपरस्थित है। इस प्रकार का प्रयोग उन अवस्थाओं में और भी अच्छा है जिनमें रोग शरीर के दोनों ओर हो तथा उसकी जीर्ण प्रकृति हो या उससे सारे शरीर या शरीर का वह भाग प्रभावित हो या जहां उसे निश्चयपूर्वक निर्धारित करना मुश्किल होता है।

(शक्तिशाली चुम्बकों का तलुवों पर प्रयोग)

स्थानिक प्रयोग- स्थानिक प्रयोग में चुम्बकों का प्रयोग शरीर के उस भाग पर किया जाता है जो भाग रोगग्रस्त होता है जैसे- दर्दनाक कशेरूका, आंख, नाक, घुटना, पैर आदि। इस प्रयोग में व्यक्ति के शरीर के रोग की तेजी तथा कमी के अनुसार दो या तीन चुम्बकों का उपयोग किया जाता है। उदाहरण के लिये यदि किसी व्यक्ति के घुटने तथा गर्दन में तेज दर्द हो तो दो चुम्बकों  को अलग-अलग घुटनों पर तथा तीसरे चुम्बक को गर्दन की दर्दनाक कशेरूका पर लगाया जा सकता है। इस प्रयोग विधि में चुम्बकों का प्रयोग शरीर के उस भाग में करते हैं जहां रोगग्रस्त भाग है जैसे- शरीर के घावों तथा दांतों में पीब पड़ने की स्थिति में। इस प्रयोग विधि में उत्तरी ध्रुव का प्रयोग अधिकतर किया जाता है जबकि दक्षिणी ध्रुव का प्रयोग हानिकारक हो सकता है। यदि अंगूठे में तेज दर्द हो तो कुछ अवस्थाओं में कभी-कभी दोनों चुम्बकों के ध्रुवों के बीच अंगूठा रखने से तुरन्त आराम मिलता है ।

(शक्तिशाली चुम्बकों का हथेली पर प्रयोग)

सार्वदैहिक प्रयोग तथा स्थानिक प्रयोग में अन्तर- सार्वदैहिक प्रयोग की अवस्था में रोगी के शरीर के सभी भागों पर ध्यान दिया जाता है जबकि स्थानिक प्रयोग की अवस्था में रोग संक्रमण, सूजन तथा दर्द वाले भागों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। उदाहरण के लिये यदि किसी व्यक्ति की नाक के अन्दर थोड़ा सा मांस बढ़ गया हो या गलतुण्डिका शोथ की अवस्था हो तो चुम्बकों का सार्वदैहिक प्रयोग नहीं करना चाहिए बल्कि इस अवस्था में स्थानिक प्रयोग करना चाहिए। सार्वदैहिक प्रयोग के समय में ऐसा कोई सख्त नियम नहीं है कि बीमार व्यक्ति को एक दिशा में विशेषकर एक ओर मुंह करके बैठाये जबकि स्थानिक प्रयोग में बीमारी की दशा के अनुसार दिशा पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। मान लेते हैं कि किसी व्यक्ति के प्रभावित अंग पर दक्षिणी ध्रुव वाला चुम्बक लगाना है तो रोगी को इस प्रकार बैठाना चाहिए की रोगी का मुंह उत्तर दिशा की ओर हो और अगर उत्तरी ध्रुव वाला चुम्बक लगाना हो तो रोगी का मुंह दक्षिण दिशा की ओर हो।

चुम्बक के प्रयोग में रोगी को बैठाने का तरीका-

        जब चुम्बक का प्रयोग रोगी पर करना हो तो उसे सावधानी पूर्वक किसी कुर्सी पर बैठाना चाहिए। चुम्बक का प्रयोग कभी भी रोगी को जमीन पर बैठाकर नहीं करना चाहिए क्योंकि चुम्बक के प्रयोग के समय रोगी तथा जमीन के बीच में एक पृथक्कारी वस्तु का होना जरूरी होता है। रोगी को कुर्सी पर सावधानीपूर्वक एक विशेष दिशा की ओर बैठाकर उसके हथेलियों पर लगाने के लिए चुम्बकों को मेज पर रखना चाहिए। लेकिन इन चुम्बकों का प्रयोग जब पैर के तलुवों पर करना हो तो चुम्बकों को किसी लकड़ी के पटरे पर रखना चाहिए। फिर रोगी के तलुवों को उस चुम्बक के ऊपर रखना चाहिए। चुम्बक को कभी भी जमीन पर नहीं रखना चाहिए। चुम्बक को सावधानी पूर्वक तख्ते या पटरे पर रखने के बाद रोगी को चुम्बकों के ऊपर अपनी हथेलियां रख देनी चाहिए तथा बाईं हथेली को दक्षिणी ध्रुव वाले चुम्बक पर तथा दाईं हथेली को उत्तरी ध्रुव वाले चुम्बक पर रख देना चाहिए। इस प्रकार चुम्बकों का प्रयोग शरीर के तलुवों पर भी किया जा सकता है जैसे कि दाएं पैर के तलुवों को उत्तरी ध्रुव वाले चुम्बक के ऊपर तथा बाएं पैर के तलुवों को दक्षिणी ध्रुव के ऊपर करना चाहिए। जब रोगी पर चुम्बक का स्थानिक प्रयोग करना हो तो रोगी के शरीर के कपड़े उतरवा देने चाहिए और चुम्बक के धारक को भी हटा देना चाहिए। फिर रोगी के रोगग्रस्त नंगें भाग पर चुम्बक का प्रयोग करना चाहिए। स्थानिक प्रयोग की अवस्था में रोगी के पैर को किसी लकड़ी के तख्त पर रखना चाहिए तथा रोगी से जमीन या दीवार का स्पर्श नहीं होना चाहिए। यदि किसी व्यक्ति की पीठ में दर्द है तो रोगी को किसी चारपाई या लकड़ी के तख्ते पर लिटा देना चाहिए। फिर रोगी के रोग पर चुम्बक का स्थानिक प्रयोग करना चाहिए। स्थानिक प्रयोग में चुम्बक का प्रयोग करने के लिये यदि किसी व्यक्ति की जरूरत पड़ जाये (क्योंकि चुम्बक कभी-कभी ज्यादा भारी होता है) तो उस व्यक्ति को भी किसी तख्ते या पटरे पर खड़ा रखना चाहिए (उस व्यक्ति को जमीन पर कभी भी खड़ा नहीं रखना चाहिए)। ठीक यही चुम्बक का प्रयोग किसी बच्चे पर करने के दौरान करना चाहिए। उदाहरण के लिये यदि किसी बच्चे पर चुम्बक का प्रयोग करना है तो बच्चे की मां को भी किसी लकड़ी के तख्ते या प्लास्टिक के गत्ते या पृथक्कारी वस्तु के ऊपर सावधानी-पूर्वक बैठाना चाहिए। फिर उस बच्चे पर चुम्बक का प्रयोग करना चाहिए। अच्छा परिणाम पाने के लिए चुम्बकों के प्रयोग में बैठने सम्बन्धी नियमों का पालन करना चाहिए।

रोगी पर चुम्बक का प्रयोग करने की अवधि-

        रोगी पर चुम्बक का प्रयोग करने की अवधि रोगी के रोग के अनुसार, रोग होने के समय अनुसार, रोगी के व्यक्तिगत सुग्राह्मता के अनुसार तथा रोगी के चुम्बकित किये जाने वाले अंगों के अनुसार किया जाता है। लेकिन फिर भी बहुत सारे वैज्ञानिकों के परीक्षणों के आधार पर चुम्बकों की प्रयोग की अवधि भी कई सारे व्यक्तियों पर किस तरह करनी चाहिए, तय कर दी गई है। जिस तरह अन्य चिकित्सा पद्धति में दवाई की मात्रा रोगी को दी जाती है ठीक उसी प्रकार चुम्बकों की अवधि भी निर्धारित कर दी गई है ताकि रोगी लम्बे समय तक आवश्यक रूप से चुम्बकों का प्रयोग न कर सके।  

        चुम्बकों के प्रयोग में अधिकतर कई प्रकार के रोगों के लक्षणों के आधार पर चुम्बकों का स्थानिक प्रयोग या सार्वदैहिक प्रयोग 10 मिनट से लेकर 30 मिनट तक अच्छा माना जाता है। उदाहरण के लिये- एक जवान व्यक्ति के जीर्ण आमवाती सन्धिशोथ रोग में पहले एक सप्ताह तक चुम्बकों का प्रयोग केवल 10 मिनट तक करना चाहिए और इस अवधि को धीरे-धीरे 30 मिनट तक बढ़ा देना चाहिए। अन्य रोगों की अवस्था में भी धीरे-धीरे अवधि बढ़ा देनी चाहिए। इस प्रकार की अवधि केवल कुछ उपयोग की जाने वाले चुम्बकों पर ही लागू होती है क्योंकि कुछ चुम्बकों की शक्ति कम पाई जाती है तो कुछ की अधिक जैसे- कुछ चुम्बक 2000 गौस शक्ति तथा कुछ इससे अधिक गौस शक्ति की होती है। इन चुम्बकों की अपनी शक्ति के अनुसार उपयोग की अवधि घटती-बढ़ती रहती है। उदाहरण के लिये यदि मनुष्य के मस्तिष्क जैसे कोमल अंग पर चुम्बक को प्रयोग करना हो तो सबसे पहले प्रयोग की जाने वाली चुम्बक की शक्ति को जान लेना चाहिए तथा कम शक्ति वाले चुम्बक का प्रयोग करना चाहिए और चुम्बक का प्रयोग 10 मिनट से अधिक नहीं करना चाहिए।

       चुम्बक की प्रयोग की अवधि कुछ सुग्राह्मता के अनुसार भी घट-बढ़ सकती है जैसा की कुछ सुग्राही मनुष्य की अवस्था में, वे व्यक्ति चुम्बकों के प्रति अधिक तेजी से प्रभावित होते हैं तथा अपने शरीर में किसी प्रकार की संवेदना महसूस करते हैं। ऐसे व्यक्तियों पर चुम्बकों के प्रयोग की अवधि घटा (लगभग 5 मिनट कर) देनी चाहिए। जबकि इससे भी तेजी से प्रभावित मनुष्य पर चुम्बकों की अवधि और घटाकर (लगभग 2 से 3 मिनट कर) देनी चाहिए।

       चुम्बक चिकित्सा के प्रयोग में चिकित्सकों को चुम्बकों के प्रयोग की अवधि में काफी सावधानी बरतनी चाहिए। अच्छे निर्णय का पालन करना चाहिए नहीं तो अतिसंवेदनशील व्यक्ति कभी-कभी बुरी तरह से प्रभावित हो सकता है। चुम्बक चिकित्सक को चुम्बक का प्रयोग करते समय पहले से ही अपने पास जिंक प्लेट या जिंकम मेटैलिकम नामक होमियोपैथिक औषधि को रखना चाहिए ताकि सूक्ष्मग्राही व्यक्ति पर अधिक प्रतिक्रिया होने पर उन व्यक्तियों पर दवाइयों का प्रयोग कर सके। यह औषधि अतिचुम्बकत्व के मान्य प्रतिषेधक मानी जाती है।

       चुम्बक के प्रयोग में चिकित्सा की सही समय अवधि निर्धारण करने से पहले यह जानना बहुत जरूरी है कि चुम्बकों का प्रयोग किसी अच्छे चुम्बक चिकित्सक की देख-रेख में किया जाये ताकि वह रोगी से यह मालूम कर सके कि उसे किसी विशेष प्रकार की कोई अनुभूति तो नहीं हो रही है या उसका सिर तो नहीं चकरा रहा है या जी तो नहीं मिचला रहा है। यदि किसी सूक्ष्मग्राही व्यक्ति में बहुत अधिक प्रतिक्रिया हो रही है तो उस व्यक्ति पर चुम्बक का प्रयोग तुरन्त बंद कर देना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति चुम्बक का प्रयोग अपने घर पर ही करने को कहे तो उस व्यक्ति को चुम्बक की प्रयोग विधि को अच्छी तरह से बता देना चाहिए। इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि कोई व्यक्ति चाहे कितना ही अधिक स्वस्थ क्यों न हो, उस व्यक्ति पर भी चुम्बक का प्रयोग चुम्बक चिकित्सक की देख-रेख में ही करना चाहिए।

        किसी भी रोगी पर चुम्बक का प्रयोग 24 घण्टे में एक बार ही करना अच्छा माना जाता है। लेकिन बहुत से ऐसे भी जीर्ण रोग तथा शरीर के अंगों के प्रभावित रोग हैं जिनमें चुम्बक का प्रयोग 24 घण्टे में 2 बार करना भी आवश्यक हो सकता है। उदाहरण के लिये घुटने के दर्द या गर्दन की कशेरूका सन्धि की जलन की अवस्था में चुम्बक का प्रयोग सुबह-शाम 10 मिनट तक करना चाहिए। लेकिन इन अवस्थाओं में चुम्बक का प्रयोग 10 मिनट से अधिक नहीं करना चाहिए ।

रोग पर चुम्बक प्रयोग का समय-

        व्यक्ति के रोग को चुम्बक द्वारा ठीक करने के लिये किसी समय-विशेष के नियम का पालन करना जरूरी नहीं है। लेकिन चुम्बक के प्रयोग में सही यही होता है कि इनका प्रयोग सुबह के समय में स्नान तथा शौच करने के बाद या शाम को रोगी की सुविधानुसार उपचार किया जाए। चुम्बक का प्रयोग करने में समय का निर्धारण करने में अच्छी तरह सावधानी बरतनी चाहिए। कुछ रोग ऐसे होते हैं जिनमें चुम्बक का प्रयोग सुबह के समय में करने से बहुत अधिक लाभ मिलता है जैसे- कब्ज तथा बड़ी आंतों की जलन आदि। चुम्बक का प्रयोग आयुर्वेदिक तथा सूचीवेधन चिकित्सा के सिद्धान्तों पर आधारित है।

        आयुर्वेद के अनुसार कई प्रकार के रोगों का इलाज जैसे- सर्दी-जुकाम, खांसी, दन्तपूतिता तथा श्वासनलियों की जलन आदि,  सुबह के समय में करना चाहिए तथा पित्त सम्बन्धी रोगों का इलाज दोपहर के बाद करना चाहिए और अम्लता तथा रुद्धवात आदि रोगों का इलाज शाम को करना चाहिए। मौसम सम्बन्धी नियम से भी पता चलता है कि सुबह के समय में अधिक ठण्ड होती है जिसके कारण शरीर में खांसी के रोग में कफ बढ़ता है तथा दोपहर के समय में गर्मी और पित्त बढ़ती है तथा शाम के समय में हवा चलती है। इसलिए कहने का अर्थ है कि मौसम के अनुसार रोगों का इलाज करना चाहिए। यदि हम मौसम सम्बन्धी नियम का पालन करें तो शरीर का रोग जल्दी ठीक हो जाता है। उदाहण के लिये छाती के रोग में और कफ की अवस्था में चुम्बकों का प्रयोग सुबह के समय में किया जाना चाहिए तथा जिगर, पित्तजनक रोग में चुम्बक का प्रयोग दोपहर बाद किया जाना चाहिए तथा पेट या आंतों के अन्दर हवा बनने के रोग में चुम्बक का प्रयोग शाम को करें तो बहुत अधिक लाभ पहुंचता है। ठीक इसी प्रकार सूचीवेधन चिकित्सा ने भी फेफड़ों, गुर्दो तथा पित्ताशय जैसे बहुत सारे अंगों में जीवन-शक्ति के अनेकों बहाव का समय निर्धारित किया है। किसी भी चुम्बक चिकित्सक को चाहिए कि वह रोगी का इलाज समय निर्धारित नियम के अनुसार करे।

चुम्बक के प्रयोग के समय में सावधानियां-

     कई सारे परीक्षणों के आधार पर तथा कोशिकाओं पर चुम्बकों के प्रभाव तथा बहुत सारी रोगावस्थाओं में चुम्बकों के प्रयोग से पता चला है कि चुम्बकों का प्रयोग साधारण तथा सावधानीपूर्वक करें तो शरीर पर किसी प्रकार का बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है। फिर भी चुम्बक के प्रयोग में शरीर के रक्तसंचार, तापमान आदि के विशेष गुणों के अनुसार कुछ सावधानियां बरतनी चाहिए। चुम्बक के प्रयोग से अधिक से अधिक लाभ उठाने के लिये चुम्बक के प्रयोग में बरतने वाली सावधानियों का अच्छी तरह से पालन करना चाहिए।

चुम्बक के प्रयोग के समय में निम्नलिखित सावधानियां बरतनी चाहिए-

        चुम्बक का प्रयोग खाना खाने के 2 घण्टे बाद करना चाहिए नहीं तो कुछ संवेदनशील व्यक्तियों को उल्टी हो सकती है। यदि भोजन के कुछ समय बाद ही चुम्बक का प्रयोग करना पड़े तो बहुत कम समय के लिये ही चुम्बक का प्रयोग करना चाहिए क्योंकि उस समय शरीर में बहाव की अधिकता पाचक नली की ओर होती है। यदि हो सके तो उस समय चुम्बक का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

        मनुष्य के मस्तिष्क, आंखों तथा हृदय पर शक्तिशाली चुम्बक का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि ये शरीर के इस भाग पर सर्वाधिक अस्थिर चुम्बकी क्षेत्रों को जन्म देते हैं और ये चुम्बक से बुरी तरह से प्रभावित होते हैं। मस्तिष्क जैसे कोमल अंगों पर सेरामिक चुम्बकों का प्रयोग 24 घण्टे में 10 मिनट से ज्यादा नहीं करना चाहिए।

        चुम्बकों का प्रयोग करते समय या प्रयोग के कुछ समय बाद आइस्क्रीम जैसी किसी भी ठण्डी चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए नहीं तो ये शरीर में पाये जाने वाले ऊतकों पर चुम्बकों के प्रभाव को अनावश्यक रूप से नम कर देंगी।

        रोगी पर चुम्बकित जल की मात्रा को अधिक नहीं बढ़ाना चाहिए नहीं तो इससे कभी-कभी शरीर की क्रिया अत्यधिक बढ़ सकती है तथा एक असुविधाजनक स्थिति पैदा हो सकती है। यह याद रखने की बात है कि चुम्बकित जल की तुलना में चुम्बक परिवर्तित गुणों से सम्पन्न होता है। इसलिये चुम्बकित जल को औषधि की मात्रा जैसे ही लेना चाहिए न कि सामान्य जल की तरह। छोटे बच्चों को चुम्बकित जल देने में जल की मात्रा का विशेष ध्यान देना चाहिए।

        गर्भवती स्त्रियों पर शक्तिशाली चुम्बकों का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे गर्भवती स्त्रियों का गर्भपात हो सकता है। कुछ परीक्षणों से ये बात भी सामने आई है कि दो समान ध्रुवों वाले चुम्बकों का प्रयोग करने से अचानक ही स्त्रियों का गर्भपात हो जाता है इसलिये गर्भवती स्त्रियों पर दो उत्तरी तथा दो दक्षिणी ध्रुवों वाले चुम्बकों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। वैसे गर्भवती स्त्रियों पर मध्यम शक्ति तथा सेरामिक चुम्बकों का प्रयोग किया जा सकता है। लेकिन चुम्बक के प्रयोग के समय इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि चुम्बक का प्रयोग गर्भवती स्त्रियों के गर्भ के आस-पास नहीं करना चाहिए।

        कुछ बिजली के उपकरण तथा घड़ियां चुम्बक के प्रभाव से खराब हो जाती है इसलिये इन सामानों को चुम्बक से दूर रखना चाहिए।

        2000 गौस का शक्तिशाली चुम्बक लगभग 10 किलोग्राम लोहा उठा सकता है। इन चुम्बकों में बहुत अधिक शक्ति होती है इसलिये ऐसे दो चुम्बकों को पास में नहीं रखना चाहिए नहीं तो चुम्बक आपस में चिपक जाएंगे। यदि इन चुम्बकों को रखने में असावधानी बरतेंगें तो हमारी उंगलियां दोनो चुम्बकों के बीच में फंस सकती है जिसके कारण अंगुली चिपक जायेगी।

        प्रयोग करने के बाद चुम्बकों के ऊपर धारक को लपेटकर अच्छी तरह संभालकर रखना चाहिए। चुम्बकों को जमीन पर नहीं रखना चाहिए क्योंकि इससे चुम्बक की शक्ति कम हो जाती है। चुम्बकों के साथ बच्चों को नहीं खेलने देना चाहिए। जब चुम्बक की शक्ति कम पड़ जाए तो इसे पुनर्चुम्बकन करके इसकी शक्ति को बढ़ाकर धारक के साथ लपेटकर सावधानी पूर्वक रखना चाहिए।

टॉन्सिल (Tonsils)




  टॉन्सिल्स (गलतुण्डिकाएं) लसीकाभ ऊतक के पिण्ड होते हैं और संयोजी ऊतक के एक कैप्सूल में बन्द रहते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं-

1. फेरेन्जियल टॉन्सिल (Pharyngeal tonsil)- यह टॉन्सिल नाक के पीछे ग्रसनी की ऊपरी पश्च भित्ति में स्थित रहता है। इसे लुस्चकाज़ (Luschka’s) टॉन्सिल एवं एडीनॉयड्स (adenoids) भी कहा जाता है।

2. पैलाटाइन टॉन्सिल (Palatine tonsil)- यह टॉन्सिल ग्रसनी के दोनों ओर गलतोरणिका (fauces) के स्तम्भों के बीच (टॉन्सिलर फोसा) में स्थित रहते हैं।

3. लिंग्वल टॉन्सिल (Lingual tonsil)- यह टॉन्सिल जीभ की जड़ पर स्थित रहते हैं।

        टॉन्सिल्स में अभिवाही (afferent) लसीकीय वाहिकाएं नहीं रहती हैं, जिसके कारण यह लिम्फ नोड्स से अलग रहते हैं। टॉन्सिल्स की अपवाही लिम्फेटिक्स (efferent lymphatics) लसीका में अनेकों लसीका कोशिकाओं (लिम्फोसाइट्स) पहुंचाती है। ये कोशिकाएं टॉन्सिल्स को छोड़ने तथा शरीर के दूसरे भागों में हमला करने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं को नष्ट करने में समर्थ होती हैं। टॉन्सिल्स के साथ मिलकर ये लसीकाभ ऊतक का एक बेण्ड बनाती हैं। यह बेण्ड पाचन एवं श्वसन सस्थानों के ऊपरी प्रवेश स्थलों पर स्थित रहता है। यहां ये बाह्य पदार्थ आसानी से प्रवेश कर सकते हैं। ज्यादातर संक्रामक सूक्ष्म जीवाणु ग्रसनी की परत पर लसीका कोशिकाओं (लिम्फोसाइट्स) द्वारा नष्ट कर दिए जाते हैं। टॉन्सिल्स के अंदर प्लाज्मा कोशिकाओं का मौजूद होना एन्टीबॉडीज़ के निर्माण की तरफ इशारा करती है।

        टॉन्सिल्स वैसे तो अक्सर संक्रमण रोकने का कार्य करते हैं, लेकिन ये खुद भी संक्रमित हो सकते हैं। ऐसे मामलों में, कुछ चिकित्सक इनके उच्छेदन (removal) यानि निकलवाने की सलाह देते हैं।

आ रहा है नया मिड डे अखबार, रिपोर्टर-कैमरामैन की है जरूरत

उत्तर प्रदेश के लखनऊ से जल्द ही एक सांध्य दैनिक अखबार शुरू होने जा रहा है, जिसका नाम है ‘द डेली ग्राफ’ (The daily Graph)। बताया जा रहा है कि यह अखबार पहले हिंदी भाषा में लॉन्च किया जाएगा, लेकिन बाद में इसका अंग्रेजी एडिशन भी शुरू होगा। इस अखबार के लॉन्चिंग की तैयारी लगभग पूरी कर ली गई और इसे आगामी 22 मई को लॉन्च किया जा सकता है। अखबार के मैनेजिंग एडिटर मनोज गौतम ने समाचार4मीडिया को ये जानकारी दी।

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शुक्रवार, 13 मई 2016

जानें सेहत के लिए कितना फायदेमंद है चांगेरी का पत्‍ता




    चांगेरी के पत्‍तों को अम्‍लपत्रिका भी कहा जाता है। इसके अलावा इसे त्रिपत्रिका और खट्टी बूटी भी कहा जाता है। इसके पत्‍ते का स्‍वाद खट्टापन लिये होता है। यह बारहमास पाई जाने वाली बूटी है। बड़ी और छोटी दोनों प्रकार की यह घास खेतों में खरपतवार की तरह उगती है। इसके पीले रंग के छोटे छोटे फूल होते हैं। चांगेरी बहुत से औषधीय गुणों से परिपूर्ण होती है। इसका आयुर्वेद में कई बीमारियों के इलाज के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसके पत्तों में कैरोटीन, कैल्शियम और ओक्सालेट्स जैसे तत्‍व भरपूर मात्रा में होते हैं। साथ ही यह विटामिन सी का भी अच्‍छा स्रोत है। लेकिन ध्‍यान रहें अगर आप गठिया और गाउट से संबंधित किसी भी बीमारी से ग्रस्‍त है तो इसके पत्‍तों के सेवन से बचें। आइए इसके स्‍वास्‍थ्‍य लाभों के बारे में जानकारी लेते हैं।

    मस्‍से दूर करने में मददगार

    चांगेरी के पत्तों को मस्से दूर करने के लिए उपयोग किया जा सकता है। इन पत्तों के एंटी-फंगल, एंटी माइक्रोबियल, और हीलिंग गुणों के कारण यह मस्‍से को आसानी से दूर करता है। मस्‍से होने पर चांगेरी के पत्तों का पेस्ट बनाकर, उसमें पानी की कुछ बूंदें मिला लें। पेस्ट को प्रभावित हिस्से पर लगायें, कुछ मिनटों तक रगड़ें। इस उपाय को दिन में दो बार दोहरायें। अच्छे परिणाम के लिए आप इस पेस्ट में घी भी मिला सकते हैं।

    पेट की समस्‍याओं में लाभकारी

    अपने उत्‍तेजित और एस्ट्रिंजेंट गुणों के कारण यह आहार के प्रति अरुचि में सुधार करता है। चांगेरी के 8-10 पत्तों की कढ़ी बनाकर लेने से पाचनशक्ति (भोजन पचाने की क्रिया) ठीक होकर भूख बढ़ जाती है। पेचिश रोग में चांगेरी के पंचांग के रस में पीपल और उसके रस से चार गुना दही मिलाकर घी डालकर पका लेना चाहिए यह मिश्रण पेचिश के लिए लाभकारी होता है। इसके अलावा 40 से 60 ग्राम चांगेरी के पत्तों के काढ़े में भुनी हुई हींग और मुरब्बा मिलाकर सुबह-शाम रोगी को पिलाने से पेट दर्द ठीक हो जाता है।

    सिरदर्द में फायदेमंद

    अगर आप सिरदर्द की समस्‍या से परेशान है तो चांगेरी के पत्‍ते के दर्द दूर करने वाले गुण आपकी इस समस्‍या को दूर कर सकते हैं। समस्‍या होने पर चांगेरी के रस और प्याज के रस को बराबर मात्रा में मिलाकर सिर पर लेप करने से सिरदर्द दूर हो जाता है।

    दांतों को मजबूत बनाये

    दांतों के मजबूती के लिए आप चांगेरी, लौंग, हल्‍दी, सेंधा नमक और फिटकरी को बराबर मात्रा में मिलाकर बारीक पाउडर बना लें। फिर इससे नियमित रूप से मंजन करें। इससे मसूड़े मजबूत होंगे। अगर आपके मसूड़ों से पस आ रहा है तो चांगेरी के पत्तों के रस से मसूड़ों की मालिश करें या फिर इसके पत्तों के रस में फिटकरी मिलाकर कुल्ले करें। इसके अलावा चांगेरी के 2-3 पत्तों को मुंह में पान की तरह रखने से मुंह की दुर्गंध मिट जाती है।

    त्‍वचा के लिए भी फायदेमंद

    चांगेरी के पत्‍ते त्‍वचा के लिए भी बहुत लाभकारी है। अगर आप चेहरे पर आने वाली झुर्रियों को दूर करना चाहती हैं तो चांगेरी के पत्‍तों के रस में सफेद चंदन घिसकर नियमित रूप से चेहरे पर लगाये। इस उपाय से झुर्रियां दूर और आपकी त्‍वचा स्‍वस्‍थ हो जायेगी।
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बार-बार डकार आ रही है तो हो सकती ये गंभीर बीमारी



    डकार लेना एक प्राकृति क्रिया है और आमतौर पर ऐसा माना जाता है की हमारे द्वारा खाया गया भोजन हजम हो जाने का डाकार एक संकेत होता है। लेकिन वास्तविकता में ऐसा नहीं है, दरअसल जब खाना खाते समय या उसके बाद बार-बार डकार लेने का मतलब है कि खाने के साथ ज्यादा मात्रा में हवा निगल ली गई है। जब हम हवा निगल लेते हैं तो उसी तरह वो बाहर भी निकलती है, जिसे हम डकार कहते हैं। यह पेट से गैस के बाहर निकलने का एक प्राकृतिक तरीका है, और अगर पेट से हवा बाहर न निकले तो यह पेट से संबंधित कई समस्याओं को जन्म दे सकती है, जैसे पेट में तेज दर्द या पेट में अफारा आदि। लेकिन अगर  डकार ज्याद आए तो ये कई बार कुछ बीमारियों का संकेत भी हो सकता है। तो चलिये जानें कि कैसे ज्यादा डकार आना हो सकता है किसी गंभीर बीमारी का इशारा -

    ऐरोफेजिया (Aerophagia) होने पर



    अकसर ऐसा होता है कि हम खाना खाते समय ज्यादा हवा पेट में निगल जाते हैं और फिर डकारें आने लगती हैं। इस स्थिति को ही ऐरोफेजिया की स्थिति कहते हैं। कुछ खाते या पीते समय हवा पेट में चले जाने से अकसर ऐरोफेजिया की स्थिति पैदा हो जाती है। इससे समस्या से बचने के लिए छोटे निवाले लें और मुंह बंद करके धीरे-धीरे खाने को चबा कर निगलें।

    पुरानी कब्ज या बदहज़मी की समस्या


    की अध्ययन इस बात को बता चुके हैं कि जिन लोगों को बहुत ज्यादा डकार आती हैं, उनमें से लगभग 30 प्रतिशत लोगों को कब्ज की समस्या होती है। इस समस्या के होने पर खाने में उपयुक्त मात्रा में फाइबर शामिल करें और ईसबगोल का भी सेवन करें। इसके अलावा हाज़मा खराब होना, जिसे हम बदहज़मी कहते हैं, की वजह से भी ज्यादा डकार आने की समस्या होती है। ऐसे में डकार आने के साथ पेट में दर्द भी हो सकता है।

    डिप्रेशन का संकेत


    तनाव कई समस्याओं का अकेला कराण होता है। तनाव या किसी बड़े भावनात्मक परिवर्तन का प्रभाव हमारे पेट पर भी पड़ता है। कई अध्ययनों में भी ये बात सामने आई है कि लगभग 65 प्रतिशत मामलों में मूड में त्वरित व बड़ा बदलाव या तनाव का बढ़ना ज्यादा डकार आने का कारण बनता है।

    गैस्ट्रोसोफेजिअल रिफ्लक्स डिज़ीज़



    कई बार गैस्ट्रोसोफेजिअल रिफ्लक्स डिज़ीज़ (जीइआरडी) या सीने में तेजड जलन के कारण भी ज्यादा डकार आती हैं। इस बीमारी में आंतों में जलन होने लगती है और आहार नलिका (फूड पाइप) में एसिड बनने लगता है। इसमेंबचाव के लिए खानपान और जीवनशैली में कई सकारात्मक व स्वस्थ बदलाव करने की जरूरत होती है।

    इरिटेबल बाउल सिंड्रोम या पेप्टिक अल्सर

    इरिटेबल बाउल सिंड्रोम होने पर रोगी को कब्ज, पेट दर्द, मरोड़ व दस्त आदि हो सकते हैं। साथ ही इस रोग का एक बड़ा लक्षण बहुत ज्यादा डकारआना भी होता है। दुर्भाग्यवश इरिटेबल बाउल सिंड्रोम का कोई पक्का इलाज अभी तक मौजूद नहीं है। इस समस्या के अलावा पेप्टिक अल्सर के कारण भी ज्यादा डकारे आ सकती हैँ। दरअसल जब आपके पाचन तंत्र को पेट की गैस से और एच.पायलोरी नामक बैक्टीरिया से क्षति पहुंचती है तो डकार आने लगती हैं।
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