शुक्रवार, 6 मई 2011

Bimari 4

संतरे का शरबतः

संतरे का शरबतः पाव किलो संतरे के रस में एक किलो मिश्री चाशनी बनाकर काँच की बोतल में रखें। ताजे संतरे न मिलने पर इसका उपयोग करें।

सावधानीः कफजन्य विकार, त्वचारोग, सूजन व जोड़ों के दर्द में तथा भोजन के तुरंत बाद संतरे का सेवन न करें। संतरा खट्टा न हो, मीठा हो इसकी सावधानी रखें।



मुँहासे व चेहरे के दाग

संतरे के ताजे छिलकों को पीसकर लेप करने से मुँहासे व चेहरे के दाग मिट जाते हैं, त्वचा का रंग निखरता है।



पायरिया

पायरिया (दाँत से खून, मवाद आना) में संतरे का सेवन व उसकी छाल के चूर्ण का मंजन लाभदायी है।


Bimari 3

बिवाइयाँ

हाथ पैर में बिवाइयाँ फटी हों तो उसमें बरगद का दूध लगाने से ठीक हो जाती हैं।



दाँत का दर्द

दाँतों में बड़ का दूध लगाने से दाँत का दर्द समाप्त हो जाता है।



बल-वीर्यवर्धक,मासिक स्राव तथा खूनी बवासीर में

स्वप्नदोष आदि रोगों में बड़ का दूध अत्यन्त लाभकारी है। सूर्योदयक से पूर्व 2-3 बताशों में 3-3 बूँद बड़ का दूध टपकाकर उन्हें खा जायें। प्रतिदिन 1-1 दिन बूँद मात्रा बढ़ाते जायें। 8-10 दिन के बाद मात्रा कम करते-करते अपनी शुरूवाली मात्रा पर आ जायें। यह प्रयोग कम से कम 40 दिन अवश्य करें। बवासीर, धातु-दौर्बल्य, शीघ्र पतन, प्रमेह, स्वप्नदोष आदि रोगों के लिए यह अत्यंत लाभकारी है। इससे हृदय व मस्तिष्क को शक्ति मिलती है तथा पेशाब की रूकावट में आराम होता है। यह प्रयोग बल-वीर्यवर्धक व पौष्टिक है। इसे किसी भी मौसम में किया जा सकता है। इसे सुबह-शाम करने से अत्यधिक मासिक स्राव तथा खूनी बवासीर में रक्तस्राव बंद हो जाता है।


Bimari 1

गर्भस्थापन के लिएः

ऋतुकाल में यदि वन्ध्या स्त्री पुष्य नक्षत्र में लाकर रखे हुए वटशुंग (बड़ के कोंपलों) के चूर्ण को जल के साथ सेवन करे तो उसे अवश्य गर्भधारण होता है। - आयुर्वेदाचार्य शोढल



बल-वीर्य की वृद्धिः

बड़ के कच्चे फल छाया में सुखा के चूर्ण बना लें। बराबर मात्रा में मिश्री मिलाकर रख लें। 10 ग्राम चूर्ण सुबह-शाम दूध के साथ 40 दिन तक सेवन करने से बल-वीर्य और स्तम्भन (वीर्यस्राव को रोकने की) शक्ति में भारी वृद्धि होती है।



निम्न रक्तचाप में

10 बूँद बरगद का दूध, लहसुन का रस आधा चम्मच तथा तुलसी का रस आधा चम्मच इन तीनों को मिलाकर चाटने से निम्न रक्तचाप में आराम मिलता है।


Bimari 2

गाँठ

शरीर में कहीं गठान हो तो प्रारम्भिक स्थिति में तो गाँठ बैठ जाती है और बढ़ी हुई स्थिति में पककर फूट जाती है।



अतिसार में

दूध को नाभि में भरकर थोड़ी देर लेटने से अतिसार में आराम होता है।



चोट-मोच और गठिया रोग में

चोट-मोच और गठिया रोग में सूजन पर इसके दूध का लेप करने से आराम मिलता है। यह सूजन को बढ़ने से रोकता है।

Bimari

खून बढ़ाने के लिए

  • खून बढ़ाने के लिए, गन्ने का रस पियें
  • बेल का फल सूखा कर उस के गुदे का चूर्ण में मिश्री मिला कर लेने से भी खून सी बढ़ोतरी होती है ।


फोड़े-फुंसियाँ

फोड़ा-फुंसी है तो पालक+गाजर+ककड़ी तीनों को मिला कर उस का रस ले लें अथवा नारियल का पानी पियें तो फोड़ा पुंसी में आराम होता है ।



पित्तजन्य / गर्मी के कारण बीमारियाँ

धनिया, आंवला, मिश्री समभाग पीस के रख दें........एक चम्मच रात को भिगो दें और सुबह मसल के पियें तो सिर दर्द में आराम हो जायेगा, नींद अच्छी आएगी, मूत्र दाह, नकसीर में आराम होगा, लू से रक्षा होगी और पेट भी साफ रहेगा ।

गर्मी या पित्त के कारण सिर दर्द
गर्मी में सिर दर्द होता हो, कमजोरी हो तो सूखा धनिया पानी में पीस/घिस के माथे पे लेप करने से सिर दर्द में आराम होता है ।



त्वचा के रोग एवं घमोरियां

जिनको को पहले निमोनिया जैसी गंभीर बीमारी हो गयी हो, जिन को चमड़ी के रोग हों या घमोरियां हो वो नीम के फूल १० ग्राम मिश्री मिला कर पियें ।

बरगद का 5 ग्राम दूध महानारायण तेल में मिलाकर मालिश करें।

बड़ की छाल और काली मिर्च दोनों 100-100 ग्राम पीसकर 250 ग्राम सरसों के तेल में पकायें फिर लकवाग्रस्त अंग पर लेप करें

problem

सिरदर्द में

सिरदर्द होता हो तो दायाँ नथुना बंद करके बाएं नथुने से श्वास लो अथवा दायें नथुने से श्वास लेके बाएं नथुने से छोड़ो । इससे सिरदर्द में आराम होगा ।

जन्मदिवस पर दूध (१० ग्राम), गुड़ (१ ग्राम), काले तिल (१ चुटकी) का मिश्रण करके चिरंजीवियों (हनुमानजी, भीष्म पितामह, अश्वथामा, मार्कंडेय, परशुराम, विभीषण, कृपाचार्य और बलि) का आवाहन करके उसका आचमन करने वाला व्यक्ति चिरंजीवी होता है ।




दस्त व संग्रहणी में

पलाश का 1 से 3 ग्राम गोंद मिश्रीयुक्त दूध अथवा आँवले के रस के साथ लेने से बल एवं वीर्य की वृद्धि होती है तथा अस्थियाँ मजबूत बनती हैं और शरीर पुष्ट होता है।

यह गोंद गर्म पानी में घोलकर पीने से दस्त व संग्रहणी में आराम मिलता है।




बवासीर में

बवासीर में पलाश के पत्तों की सब्जी घी व तेल में बनाकर दही के साथ खायें।



रक्तस्राव

नाक, मल-मूत्रमार्ग अथवा योनि द्वारा रक्तस्राव होता हो तो छाल का काढ़ा (50 मि।ली.) बनाकर ठंडा होने पर मिश्री मिला के पिलायें।

आँत्रवृद्धि

छाल व पत्तों द्वारा उपचारः बालकों की आँत्रवृद्धि (Hernia) में छाल का काढ़ा (25 मि।ली.) बनाकर पिलायें।



बिच्छूदंश

पलाश के बीज आक (मदार) के दूध में पीसकर बिच्छूदंश की जगह पर लगाने से दर्द मिट जाता है।



कृमि

पलाश के बीजों द्वारा उपचारः पलाश के बीजों में पैलासोनिन नामक तत्त्व पाया जाता है, जो उत्तम कृमिनाशक है। 3 से 6 ग्राम बीज-चूर्ण सुबह दूध के साथ तीन दिन तक दें। चौथे दिन सुबह 10 से 15 मि।ली. अरण्डी का तेल गर्म दूध में मिलाकर पिलायें, इससे कृमि निकल जायेंगे।

आँख आने पर

रतौंधी की प्रारम्भिक अवस्था में फूलों का रस आँखों में डालने से लाभ होता है।

आँख आने पर (Conjunctivitis) फूलों के रस में शुद्ध शहद मिलाकर आँखों में आँजें।



प्रमेह (मूत्र-संबंधी विकारों) में

प्रमेह (मूत्र-संबंधी विकारों) में पलाश के फूलों का काढ़ा(50 मि.ली.) मिलाकर पिलायें।




महिलाओं के मासिक धर्म में अथवा पेशाब में

महिलाओं के मासिक धर्म में अथवा पेशाब में रूकावट हो तो फूलों को उबालकर पुल्टिस बना के पेड़ू पर बाँधें। अण्डकोषों की सूजन भी इस पुल्टिस से ठीक होती है।


ग्रीष्म ऋतु में

ग्रीष्म ऋतु में सूर्य अपनी किरणों द्वारा शरीर के द्रव तथा स्निग्ध अंश का शोषण करता है, जिससे दुर्बलता, अनुत्साह, थकान, बेचैनी आदि उपद्रव उत्पन्न होते हैं। उस समय शीघ्र बल प्राप्त करने के लिए मधुर, स्निग्ध, जलीय, शीत गुणयुक्त सुपाच्य पदार्थों की आवश्यकता होती है। इन दिनों में आहार कम लेकर बार-बार जल पीना हितकर है परंतु गर्मी से बचने के लिए बाजारू शीत पदार्थ एवं फलों के डिब्बाबंद रस हानिकारक हैं। उनसे लाभ की जगह हानि अधिक होती है। उनकी जगह नींबू का शरबत, आम का पना, जीरे की शिकंजी, ठंडाई, हरे नारियल का पानी, फलों का ताजा रस, दूध आदि शीतल, जलीय पदार्थों का सेवन करें। ग्रीष्म ऋतु में स्वाभाविक उत्पन्न होने वाली कमजोरी, बेचैनी आदि परेशानियों से बचने के लिए ताजगी देने वाले कुछ प्रयोगः

धनिया पंचकः धनिया, जीरा व सौंफ समभाग मिलाकर कूट लें। इस मिश्रण में दुगनी मात्रा में काली द्राक्ष व मिश्री मिलाकर रखें।

उपयोगः एक चम्मच मिश्रण 200 मि.ली. पानी में भिगोकर रख दें। दो घंटे बाद हाथ से मसलकर छान लें और सेवन करें। इससे आंतरिक गर्मी, हाथ-पैर के तलुवों तथा आँखों की जलन, मूत्रदाह, अम्लपित्त, पित्तजनित शिरःशूल आदि से राहत मिलती है। गुलकंद का उपयोग करने से भी आँखों की जलन, पित्त व गर्मी से रक्षा होती है।

ठंडाईः जीरा व सौंफ दो-दो चम्मच, चार चम्मच खसखस, चार चम्मच तरबूज के बीज, 15-20 काली मिर्च व 20-25 बादाम रात भर पानी में भिगोकर रखें। सुबह बादाम के छिलके उतारकर सब पदार्थ खूब अच्छे से पीस लें। एक किलो मिश्री अथवा चीनी में चार लिटर पानी मिलाकर उबालें। एक उबाल आने पर थोड़ा-सा दूध मिलाकर ऊपर का मैल निकाल दें। अब पिसा हुआ मिश्रण, एक कटोरी गुलाब की पत्तियाँ तथा 10-15 इलायची का चूर्ण चाशनी में मिलाकर धीमी आँच पर उबालें। चाशनी तीन तार की बन जाने पर मिश्रण को छान लें, फिर ठंडा करके काँच की शीशी में भरकर रखें।

उपयोगः ठंडे दूध अथवा पानी में मिलाकर दिन में या शाम को इसका सेवन कर सकते हैं। यह सुवासित होने के साथ-साथ पौष्टिक भी हैं। इससे शरीर की अतिरिक्त गर्मी नष्ट होती है, मस्तिष्क शांत होता है, नींद भी अच्छी आती है।

आम का पनाः कच्चे आम को पानी में उबालें। ठंडा होने के बाद उसे ठंडे पानी में मसल कर रस बनायें। इस रस में स्वाद के अनुसार गुड़, जीरा, पुदीना, नमक आदि मिलाकर खासकर दोपहर के समय इसका सेवन करें। गर्मियों में स्वास्थ्य-रक्षा हेतु अपने देश का यह एक पारम्परिक नुस्खा है। इसके सेवन से लू लगने का भय नहीं रहता ।

गुलाब शरबतः डेढ़ कि.ग्रा. चीनी में देशी गुलाब के 100 ग्राम फूल मसलकर शरबत बनाया जाय तो वह बाजारू शरबतों से पचासों गुना हितकारी है। सेक्रीन, रासायनिक रंगों और विज्ञापन से बाजारू शरबत महंगे हो जाते हैं। आप घर पर ही यह शरबत बनायें। यह आँखों व पैरो की जलन तथा गर्मी का शमन करता है। पीपल के पेड़ की डालियाँ, पत्ते, फल मिलें तो उन्हें भी काट-कूट के शरबत में उबाल लें। उनका शीतलतादायी गुण भी लाभकारी होगा।

अपवित्र पदार्थों से बने हुए, केमिकलयुक्त, केवल कुछ क्षणों तक शीतलता का आभास कराने वाले परंतु आंतरिक गर्मी बढ़ाने वाले बाजारू शीतपेय आकर्षक रंगीन जहर हैं। अतः इनसे सावधान!

बुधवार, 4 मई 2011

पक्षाघात- कुछ विशिष्ट आयुर्वेदिक क्रियाएं

आज के प्रगतिशील वैज्ञानिक युग में सी.टी. स्कैन, एम.आर.आई जैसे महत्वपूर्ण परीक्षणों की वजह से पक्षाघात की गंभीरता हम समझ सकते हैं। आधुनिक चिकित्सा शास्त्र में पक्षाघात के रोगियों के लिये आपातकालीन चिकित्सा भी की जाती है जैसे मल मूत्र पर नियंत्रण न होने पर कैथेटर लगाना, निगलने में असमर्थता होने पर रायल्स टयूब लगाकर टयूब लगाकर रुग्ण को सहारा दिया जाता है पर सभी प्रकार की आपात्कलीन चिकित्साएं देने पर आखिर रूग्ण का क्या हाल होगा। इसका उत्तर यही है कि आधुनिक चिकित्सक केवल फिजियोथिरेपी के सहारे रुग्ण को छोड़ देते हैं।
आपात्कालीन चिकित्सा निपटाने के पश्चात कभी-कभी रूग्ण के सगे संबंधी उसे नीम हकीम के चक्कर में ले जाते हैं। नीम हकीम उसकी सभी प्रकार की जीवन रक्षक एलोपैथी औषधि बंदकर अपनी ही औषधि देते हैं। ऐसे में रोगी को कुछ न कुछ हानि होने की संभावना अवश्य होती है। हो सकता है लकवे का दूसरा आघात भी हो, इसलिए रुग्ण को किसी योग्य आयुर्वेद चिकित्सक के मार्गदर्शन में चिकित्सा देने की आवश्यकता है क्योंकि ये नीम हकीम पक्षाघात के हर रुग्ण को एक ही प्रकार की चिकित्स देते हैं। ऐसे रोगी में कारणानुरूप चिकित्सा कराना आवश्यक होता है।
आयुर्वेदिक चिकित्सक होने के नाते मेरे मतानुसार लकवाग्रस्त रोगी को फिजियोथिरेपी के साथ-साथ रुग्ण पर ऐसी ाियाएं करनी चाहिये जिससे मस्तिष्क में रक्तसंचार की आपूर्ति होती रहे व मस्तिष्कगत नाड़ी कोषों को चेतना मिलती रहे। इस प्रकार की चिकित्सा आयुर्वेद के पंचकर्म से ही संभव है।
पंचकर्म की महत्वपूर्ण ाियाओं से पक्षाघात का मरीज स्वयं अपने दैनिक कार्य भलीभांति कर सकता है। ये ाियाएं शिरोधारा, नस्य, स्ेहन, स्वेदन, पिंड स्वेद, पिषींचल धारा, बस्ति व मृदुविरेचन है। इन सभी ाियाओं को करने से शरीर की नसों व मांसपेशियों को पुष्टि व ताकत मिलती है जिससे रूग्ण चलने-फिरने में कुछ प्रतिशत समर्थ हो जाता है। पक्षाघात का मुख्य कारण मस्तिष्क गत होता है, अत: इसमें शिरोधारा लाभदायी है। शिरोधारा में रूग्ण के ललाट प्रदेश पर औषधियुक्त तेल इत्यादि की धारा विशिष्ट प्राियानुसार गिराई जाती है। शिरोधारा से ब्लडप्रेशर व मानसिक तनाव कम होता है। पक्षाघात के रुग्ण में नस्य के अंतर्गत विशिष्ट प्रािया द्वारा नाक में औषधिद्रव्य डालते हैं जिसके परिणाम आश्चर्यजनक पाए गये हैं।
लकवाग्रस्त रूग्णों में औषधियुक्त तैलों से मालिश (स्ेहन) योग्य चिकित्सक के मार्ग दर्शन में करना चाहिये क्योंकि मांसपेशियों व नसों का उद्गम व निवेश स्थान, चिकित्सक को ही मालूम रहता है, अत: योग्य चिकित्सक के मार्गदर्शन में ही वैज्ञानिक पध्दति से मालिश करनी चाहिये। पिंषीचल स्वेद में प्रभावित अंग में कोष्ण तैल की धारा गिराते हैं जिससे मांसपेशियों का पोषण होकर ताकत आती है।
पिंड स्वेद में चावल, औषधियुक्त काढ़े की पोटली बनाकर प्रभावित अंग पर घर्षण करते हैं जिससे मांसपेशियों में रक्तप्रवाह बढ़कर स्ायु, मज्जा व मांस धातु को बल मिलता है। इस पिंड स्वेद के परिणाम पोलियो रोग में लाभदायी पाए गये हैं। पक्षाघात का अंतर्भाव वातव्याधि में होता है। वात व्याधि के लिये बस्ति आधी चिकित्सा कही है इसलिये पक्षाघात के रुग्णों में बस्ति कर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। बस्तिकर्म में गुद मार्ग द्वारा विशिष्ट औषधियां प्रविष्ट की जाती हैं। लकवाग्रस्त रोगी में विरेचन के अंतर्गत विशिष्ट प्रािया द्वारा जुलाब देते हैं जिससे मस्तिष्कगत धमनियों में रुकावटें दूर होती हैं।
हमारा एक युवा रुग्ण श्री नितिन गलानी लकवाग्रस्त होकर आया था जो चलने-फिरने, उठने-बैठने में असमर्थ व शय्या पर ही था। आरोग्यधाम में उपलब्ध निरंतर 21 दिन की विशिष्ट चिकित्सोपाम से ठीक होकर स्वयं पैदल चलकर अपने घर गया। इस तरह पंचकर्म की इन विशिष्ट ाियाओं से अनेक वातविकार व लकवाग्रस्त रूग्ण लाभान्वित हो रहे हैं। पक्षाघात के रोगी में सबसे अहम् होता है आत्मविश्वास का अभाव, अत: मानसिक सांत्वना देकर व्यायाम फिजियोथिरेपी कर्म के लिये प्रेरित करना चाहिये। औषधि व उक्त विशिष्ट ाियाओं से पक्षाघात के रूग्ण कुछ प्रतिशत में पुन: अपनी दैनिक चर्या कष्टरहित व्यतीत कर सकते हैं। ये विशिष्ट ाियाएं सेरिब्रल पाल्सी व पोलियो में भी लाभदायी पायी गयी हैं।


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