सोमवार, 13 अप्रैल 2015

कुछ वनौषधियों Aayurweda herbs


1- मुलहठी, मुलैठी, (यष्टिमधु)  इसका काण्ड और मूल मधुर होने के कारण यष्टि मधु कहा जाता है। मधु क्लीतक, जेठीमध तथा लिकोरिस इसके अन्य नाम हैं। इसका बहुवर्षायु झाड़ी लगभग डेढ से दो मीटर ऊंची होती है। जड़ें गोल लम्बी और झुर्रीदार फ़ैली होती हैं। जड़ और काण्ड से कई शाखाएं निकलती हैं। पत्तियां संयुक्त और अण्डाकार होती हैं, जिनके अग्रभाग नुकीले होते हैं। फ़ली छोटी ढाई सेंटीमीटर लम्बी चपटी होती है। जिसमें दो से लेकर पांच वृक्काकार बीज होते हैं।  इस वृक्ष की जड़ को सुखा कर छिलके साथ एवं बिना छिलके के भी प्रयोग में लाया जाता है।
आचार्य सुश्रुत के अनुसार मुलैठी दाहनाशक, पिपासा नाशक होती है।  आचार्य चरक इसे छदिनिग्रहण (एन्टीएमेटिक) मानते हैं। भाव प्रकाश के अनुसार यह वमन नाशक और तृष्णाहर है।  डॉ जियों एन कीव के अनुसार यह तिक्त या अम्लोत्तेजक पदार्थ के खा लेने पर होने वाली पेट की जलन, दर्द आदि को दूर करती है।  युनानी चिकित्सा में मुलैठी का प्रयोग पाचक योगों में किया जाता है। यकृत रोगों में भी यह लाभ कारी है।

ताजा मुलैठी में 50 प्रतिशत जल होता है, जो सुखाने पर मात्र 10 प्रतिशत रह जाता है। इसका प्रधान घटक ग्लिसराईजीन है, जिसके कारण यह मीठी होती है। ग्लिसराईजीन इस पौधे की जड़ों में होता है। आधुनिक वैज्ञानिकों के प्रयोगों ने साबित किया है कि मुलैठी की जड़ का चूर्ण पेट के व्रणों व क्षतों पर (पेप्टिक अल्सर सिन्ड्रोम) कारगर असर डालता है और जल्दी भरने लगे हैं। डी आर लारेंस के अनुसार पेप्टिक अल्सर जल्दी भरने का कारण इसमें मौजुद ग्लाईकोसाईड तत्व है। पेट के अल्सर के भरने के साथ यह मरोड़ के निवारण में मदद करती है।  अब तक पाश्चात्य जगत में मुलैठी के अमाशय एवं आंत्रगत प्रभावों पर 30 रिपोर्ट प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके प्रयोग से अमाशय की रस ग्रंथियों से ग्लाईकोप्रोटीन्स नामक रस का स्राव बढ जाता है जो जीव कोषों के जीवनकाल को बढाता है। छोटी मोटी टूट फ़ूट को तुरंत ठीक कर देता है।
खून की उल्टी में 1 से 4 माशा तक तक मुलैठी चूर्ण को  दूध एवं शहद के साथ लिया जा सकता है। हिचकी में मुलैठी का चूर्ण शह्द में मिलाकर नाक में ट्पकाया जाता है और 5 ग्राम खिलाया जाता है। पेट दर्द, प्यास में भी यह तुरंत लाभ देता है।

2- आंवला

संस्कृत में आंवले को आमलकी, आदिफ़ल, अमरफ़ल, धात्रीफ़ल आदि नामों से सम्मानित किया जाता है। कहा जाता है कि इसी का प्रयोग करके चव्यन ॠषि ने पुनर्यौवन को प्राप्त किया था। इस कारण यह चव्यनप्राशअवलेह का मुख्य घटक भी है जो चिरकालीन सर्वपुरातन योग है।  निघण्टु में ग्रंथकार ने सही ही लिखा है।
हरीतकीसमं धात्रीफ़लं किन्तु विशेषत:। रक्त पित्तप्रमेहघ्रं परं वृष्ण रसायनम्॥
आवंला के अधिक कहने की आवश्यकता नही है, इसका प्रभाव सर्वविदित है। आंवला के औषधिय गुणों की प्रशंसा सभी ने की है। चरक के मतानुसार आँवला तीनों दोषों का नाश करने वाला, अग्निदीपक और पाचक है। कामला, अरुचि तथा वमन में विशेष लाभकारी है। यह मेध्य है एवं नाडियों तथा इन्द्रियों का बल बढाने वाला पौष्टिक रसायन है। सुश्रुत के अनुसार पित्तशामक और पिपासा शांत करने वाली औषधियों में अग्रणी माना जाता है। आंवला अम्लपित्त, रक्तपित्त, अजीर्ण एवं अरुचि की एकाकी एवं सफ़लतम औषधि है। डॉ बनर्जी कहते हैं कि आमाशय के अधिक अम्ल उत्पादन करने पर तथा गर्भवती स्त्रियों  के वमन आदि में आंवल सबसे अच्छी और निरापद औषधि है।

आंवले बहुत सारे औषधीय तत्व होते हैं इसमें सबसे अधिक विटामीन सी पाई जाती है, ध्यान देने योग्य है कि आंवला सुखाने पर इसकी गुणवत्ता में कोई अंतर नहीं आता। इसका सफ़ल प्रयोग स्कर्वी निरोध में किया गया है। स्कर्वी बिटामीन सी से होने वाला रोग है, जिसके कारण शरीर में कहीं से भी रक्त स्राव हो जाता है। मसूड़े सूज जाते हैं, हड्डियाँ अपने आप टूटने लगती हैं। सारे शरीर में कमजोरी और चिड़चिड़ाहट होने लगती है। स्कर्वी रोग को दूर करने की क्षमता की दृष्टि से एक आंवला दो संतरों के समक्ष ठहरता है। प्रतिदिन भोजन में 10 मिली ग्राम विटामीन सी मिलता रहे तो यह रोग नहीं होता। पर रोग की अवस्था में 100 मिली ग्राम प्रतिदिन देना जरुरी होता है। इंद्रीय दुर्बलता, मस्तिष्क दौर्बल्य, बवासीर, हृदय रोग, अन्य रक्त वमन, खाँसी, श्वांस, तथा महिलाओं के प्रमेह रोगों में के साथ क्षय, शरीर शोथ तथा कुष्ठ जैसे चर्म रोगों में वैद्य इसका सफ़लतम प्रयोग करते हैं।

हरीतकी (हरड़) हर्रा

हरीतकी को वैद्यों ने चिकित्सा साहित्य में सम्मान देते हुए उसे अमृतोपम औषधि कहा है। राजवल्ल्भ निघण्टु के अनुसार -यस्य माता गृहे नास्ति, तस्य माता हरीतकी। कदाचित कुप्यते माता, नोदरस्था हरीतकी॥ अर्थात हरीतकी मनुष्यों का माता समान हित करने वाली है। माता तो कभी-कभी कुपित भी हो जाती है परन्तु उदर स्थित अर्थात खाई हुई हरड़ कभी अपकारी नहीं होती
आयूर्वेद के ग्रंथकार हरीतकी की इसी प्रकार स्तुति करते हैं और कहते हैं कि - तु हर(महादेव) के भवन में उत्तपन्न हुई है, इसलिए अमृत से भी श्रेष्ठ है।
हरस्य भवने जाता, हरिता च स्वभावत:। हरते सर्वरोगांश्च तस्मात प्रोक्ता हरीतकी॥ अर्थात श्री हर के घर में उत्पन्न होने से हरित वर्ण की होने से, सब रोगों का नाश करने में समर्थ होने से इसे हरीतकी कहते हैं।
हरड़ दो प्रकार की होती है, छोटी और बड़ी। छोटी हरड़ का उपयोग अधिक निरापद माना जाता है। इसे बाल हर्रे भी कहते हैं।
चरक संहिता के अनुसार हरड़ त्रिदोष हर व अनुलोमक है, यह संग्रहणी शूल, अतिसार (डायरिया) बवासीर तथा गुल्म का नाश करती है, एवं पाचन अग्निदीपन में सहायक होती है। किसी हरण को खाने, सुंघने या चूने मात्र से तीव्र रेचन क्रिया होने लगती है। हिमालय व तराई में उत्पन्न होने वाली चेतकी नामक हरड़ इतनी तीव्र है कि इसकी छाया में बैठने मात्र से ही दस्त होने लगते हैं।  यह शास्त्रोक्ति कहाँ तक सत्य है, इसकी परीक्षा शुद्ध चेतकी हरड़ प्राप्त होने पर ही की जा सकती है, परन्तु वृहद आंत्र संस्थान पर इसके प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। यह दुर्बल नाड़ियों को सबल बनाती है। कब्ज की राम बाण औषधी है, ड़ेढ से तीन ग्राम हरड़ को सेंधा नमक के साथ दी जा सकती है। बवासीर और खूनी पेचिस में  चरक के अनुसार हरड़ का चूर्ण व गुड़ दोनो गौमुत्र में मिला कर रात्रि भर रखना चाहिए और प्रात: रोगी को पिलाना चाहिए इसे दही मट्ठे के साथ भी दिया जा सकता है। अर्श की सूजन एवं दर्द कम करने के लिए स्थान विशेष पर हरड़ को जल में पीस कर लगाते हैं। इससे रक्त स्राव रुकता है और मस्से सूखते हैं।
वैसे हरड़ कफ़ पित्त वात तीनों के रोगों में काम आती है, सेंधा नमक के साथ कफ़ज, शक्कर के साथ पित्तज एवं घी के साथ वातज रोगों में लाभ पहुंचाती है। व्रणों में लेपन के रुप में, मुंह के छालों में क्वाथ से कुल्ला करके, मस्तिष्क दुर्बलता में चूर्ण के रुप में, रक्त विकार शोथ में उबाल कर, श्वास रोग में चूर्ण, जीर्ण ज्वरों में भी इसका प्रयोग होता है। जीर्ण काया, अवसाद ग्रस्त मन: स्थिति, लंबे समय तक उपवास में, पित्ताधिक्य वाले तथा गर्भवती स्त्रियों के लिए इस औषधि का निषेध है।

बिल्व (बेल)

कहा गया है -रोगान बिलत्ति-भिनत्ति इति बिल्व। रोगों को नष्ट करने की क्षमता के कारण बेल के फ़ल को बिल्व कहा गया है। इसके अन्य नाम शाण्डिलरु (पीड़ा निवारक) श्री फ़ल, सदाफ़ल इत्यादि। मज्जा बिल्वकर्कटी कहलाती है और सूखा गुदा बेलगिरी।
आचार्य चरक एवं सुश्रुत दोनो ने ही बेल को उत्तम संग्राही माना है।  फ़ल वात शामक होते हैं। चक्रदत्त बेल को पुरानी पेचिस, दस्तों एवं बवासीर में बहुत लाभकारी मानते हैं। डॉ नादकर्णी ने इसे गेस्ट्रोएण्टेटाईटिस एवं हैजे के एपीडेमेक प्रकोपों में अत्यंत लाभकारी एवं अचूक औषधि माना है। विषाणु के प्रभाव को निरस्त करने की इसमें क्षमता है। पुरानी पेचिस, अल्सरेटिव कोलाईटिस जैसे जीर्ण असाध्य रोग में भी यह लाभ करता है। पका फ़ल हल्का और रेचक होता है। यह रोग निवारक ही नहीं स्वास्थ्यवर्धक भी है। पाश्चात्य जगत में इस औषधि पर काफ़ी काम हुआ है।
आंखों के रोगों में पत्र का स्वरस, उन्माद अनिद्रा में मूल का चूर्ण, हृदय की अनियमितता में फ़ल, शोथ रोगों में पत्र स्वरस का का प्रयोग होता है। श्वांस रोगों में एवं मधुमेह में भी पत्र का स्वरस सफ़लता पूर्वक प्रयोग होता है। सामान्य दुर्बलता के लिए टानिक के समान प्रयोग काफ़ी समय होता आ रहा है। समस्त नाड़ी संस्थान को शक्ति देता है तथा कफ़ वात के प्रकोपों को शांत करता है।

अर्जुन (पार्थ)

इसे धवल, ककुभ और नदीसर्ज भी कहते हैं, कहुआ तथा सादड़ी नाम से भी जाना जाता है।  यह सदाहरित वृक्ष है छत्तीसगढ अंचल में काफ़ी पाया जाता है।  इसकी छाल उतार देने पर वह फ़िर आ जाती है और इसकी छाल का ही प्रयोग होता है। एक वृक्ष में छाल तीन साल के चक्र में मिलती है। प्राचीन वैद्यों में वागभट्ट हैं जिन्होने पहली बार इस औषधि के हृदय रोग में उपयोगी होने की विवेचना की है। उसके बाद चक्रदत्त और भाव मिश्र ने इसे हृदयरोगों की अनुभूत औषधि माना। चक्रदत्त कहते हैं कि घी दूध या गुड़ के साथ जो अर्जुन की त्वचा के चूर्ण का नियमित प्रयोग करता है उसे हृदय रोग, जीर्ण ज्वर, रक्त पित्त कभी नहीं सताते, वह चिरंजीवी होता है।
अभी तक अर्जुन से प्राप्त विभिन्न घटकों का प्रभाव जीवों पर देखा गया है। इससे वर्णित गुणों की पुष्टि होती है। अर्जुन से हृदय की मांस पेशियों को बल मिलता है। स्पंदन ठीक एवं सबल होता है तथा उसकी प्रति मिनट गति भी कम हो जाती है। स्ट्रोक वाल्युम और कार्डियक आऊटपुट बढती है। अधिक रक्त स्राव होने पर कोशिकाओं के टूट्ने के खतरे में स्तंभक की भूमिका निभाता है। रक्तवाही नलिकाओं में थक्का नहीं बनने देता तथा बड़ी धमनी से प्रति मिनट भेजे जाने वाले रक्त के आयतन में वृद्धि करता है। इस प्रभाव के कारण यह शरीर व्यापी तथा वायु कोषों में जमे पानी को मूत्र मार्ग से बाहर निकाल देता है।
कफ़ पित्त शामक है, स्थानीय लेप के रुप में बाह्र्य रक्तस्राव  तथा व्रणों में पत्र स्वरस या त्वक चूर्ण प्रयोग करते हैं। खूनी बवासीर में खून बहना रोकता है। वक्षदाह व जीर्ण खांसी में लाभ पहुंचाता है। पेशाब की जलन, श्वेतप्रदर तथा चर्म रोगों में चूर्ण लिए जाने पर लाभकारी। हड्डी टूटने पर छाल का रस दूध के साथ देते हैं। इससे रोगी को आराम मिलता है सूजन व दर्द कम होता है। शीघ्र ही सामान्य स्थिति में आने में मदद मिलती है।

पुनर्नवा

पुन: पुनर्नवा भवति। जो फ़िर से प्रतिवर्ष नया हो जाए अथवा शरीरं पुनर्नवं करोति। जो रसायन एवं रक्त वर्धक होने के कारण शरीर को नया बना दे उसे पुनर्नवा कहते हैं। पुनर्नवा  एक सामान्य रुप से पाई जाने वाली घास है। जो सड़कों के किनारे उगी मिल जाती है। इसके फ़ूल सफ़ेद होते हैं। गंध उग्र और स्वाद तीखा होता है, उल्टी लाने वाला गाढा दूध समान द्रव्य इसमें से तोड़ने पर निकलता है। उपरोक्त गुणों द्वारा सही पौधे की पहचान कर ही प्रयुक्त किया जाता है।
आचार्य चरक ने पुनर्नवा पात्र को शरीर शोथ में अति लाभकारी बताया है। धनवंतरि निघन्टुकार ने पुनर्नवा को हृदय रोग, कास, उरक्षत और मुत्रल में भी उपयोगी बताया है। पुनर्नवा से मुत्र का प्रमाण दुगना हो जाता है हृदय संकोचन के साथ धमनियों में रक्त प्रवाह बढने से शोथ दूर होती है। यह हृदय की मांस पेशियों की कार्य क्षमता को बढाता है। इसमें पाए जाने वाला पोटेशियम नाईट्रेट लवण इतना प्रभावी है कि इसकी औषधि की उपयोगिता हृदय रोग में प्रमाणित होती है। एलोपैथी में शोथ उतारने के लिए जो दवाईयां दी जाती हैं उससे पोटेशियम की कमी हो जाती है पर पुनर्नवा मुत्रल होने के साथ पोटेशियम की कमी नहीं होने देता। मधु के साथ पुनर्नवा का प्रयोग अधिक उत्तम माना गया है।
नेत्रों के रोग में स्वरस लाभ कारी अंत: प्रयोगों में अग्निमंदता, वमन, पीलिया रोग, स्त्रियों के रक्त प्रदर में लाभकारी है। पेशाब की जलन, पथरी तथा पेशाब के मार्ग में संक्रमण कारण उत्पन्न होने वाले ज्वर में यह तुरंत लाभ पहुंचाता है।  सभी प्रकार के सर्प विषों का यह एन्टीडोट है। श्वेत पुनर्नवा का ताजा भाग इसी कारण आपात्कालीन उपचार के लिए हमेशा पास रहना चाहिए। यह एक रसायन एवं बल वर्धक टानिक भी है। विशेषकर महिलाओं के लिए सर्वश्रेष्ठ पुष्टिवर्धक माना गया है।

ब्राह्मी

यह मुख्यत: जलासन्न भूमि पर पाई जाती है इसलिए इसे जल निम्ब भी कहते हैं। बुद्धि वर्धक होने के कारण इसे ब्राह्मी नाम दिया गय। महर्षि चरक के अनुसार ब्राह्मी मानस रोगों की अचूक एवं गुणकारी औषधि है। अपस्मार रोगों में विशेष लाभ करती है।  सुश्रुत के अनुसार ब्राह्मी का उपयोग मस्तिष्क विकृति, नाड़ी दौर्बल्य, अपस्मार, उन्माद, एवं स्मृति नाश में किया जाना चाहिए। भाव प्रकाश के अनुसार ब्राह्मी मेधावर्धक है। हिस्टीरिया जैसे मनोरोगों में ब्राह्मी तुरंत लाभ करती है तथा सारे लक्षण मिट जाते हैं। पागलपन एवं मिर्गी के दौरे के लिए डॉ नादकर्णी ब्राह्मी पत्तियों का स्वरस घी में उबाल कर दिए जाने पर पूर्ण सफ़लता का दावा करते हैं। जन्मजात तुतलाने वाले व्यक्ति के इलाज में ब्राह्मी सफ़लता पूर्वक कार्य करती है।
यह प्रकृति का श्रेष्ठ वरदान है, किसी न किसी रुप में इसका नियमित सेवन किया जाए तो हमेशा स्फ़ूर्ति से भरी प्रफ़ुल्ल मन: स्तिथि बनाए रखती है।

शंखपुष्पी

शंख के समानाकृति वाले श्रेत पुष्प होने के कारण इसे शंखपुष्पी कहते हैं। यह सारे भारत में पथरीली और वन भूमि पर पाई जाती है। यह उत्तेजना शामक प्रभाव रक्तचाप पर भी अनुकूल प्रभाव डालती है। तनाव जन्य उच्च रक्त चाप की स्थिति में शंखपुष्पी अत्यंत लाभकारी है।  आदत डालने वाले ट्रैंक्विलाईजर्स की तुलना में यह अधिक उत्तम है क्योंकि यह तनाव का शमन कर  दुष्प्रभाव रहित निद्रा लाती है।  यह कफ़ वात शामक मानी जाती है। शय्या पर मुत्र करने वाले बच्चों को रात्रि के समय शंखपुष्पी चूर्ण देने से लाभ पहुंचता है। यह दीपक एवं पाचक है, पेट में गए हुए विष को बाहर निकालती है। गर्भाशय की दुर्बलता के कारण जिनको गर्भ धारण नहीं होता या नष्ट हो जाता है उसके उपचार में पुरातन काल से इसका प्रयोग होता आया है। ज्वर और दाह में शांतिदायक पेय के रुप में पेशाब की जलन में डाययुरेटिक की तरह प्रयुक्त होती है। इसे जनरल टानिक के रुप में भी उपयोग में लाया जाता है।

निर्गुण्डी

निर्गुडाति शरीर रक्षति रोगेभ्य: तस्माद निर्गुण्डी। अर्थात जो रोगों से शरीर की रक्षा करती है वह निर्गुण्डी कहलाती है। इसे सम्हालू या मेऊड़ी भी कहते हैं। आचार्य चरक इसे विषहर वर्ग की महत्वपूर्ण औषधि मानते हैं। किसी भी प्रकार के बाहरी भीतरी सूजन के लिए इसका उपयोग किया जाता है। यह औषधि वेदना शामक और मज्जा तंतुओं  को शक्ति देने वाली है। वैसे आयुर्वेद में सुजन उतारने वाली और भी कई औषधियों का वर्णन आता है पर निर्गुण्डी इन सब में अग्रणी है और सर्वसुलभ भी।  इसके अतिरिक्त तंतुओं में चोट पहुचने, मोच आदि के कारण आई मांसपेशियों की सूजन में भी यह लाभकारी है। लम्बे समय से चले आ रही जोड़ों के सूजन तथा प्रसव के गर्भाशय की असामान्य सूजन को उतारने में निर्गुंडी पत्र चमत्कारी है। गठिया के दर्द में भी लाभकारी है।  अंड्शोथ में इसके पत्तों को गर्म करके बांधते हैं, कान के दर्द में पत्र स्वरस लाभ दायक है। लीवर की सूजन तथा कृमियों को मारने में भी इसका प्रयोग होता है।

शुंठी (सोंठ)

शुष्क होने से इसे शुंठी, अनेक विकारों का शमन करने में समर्थ होने के कारण महौषधि, विश्व भेषज कह जाता है।  कच्चा कंद अदरक नाम से घरेलु औषधि के रुप में सर्वविदित है। आचार्य सुश्रुत ने इसकी महत्ता बताते हुए पिपल्यादि और त्रिकटुगणों में इसकी गणना की है।  यह शरीर के संस्थान में समत्व स्थापित कर जीवन शक्ति और रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढाती है। हृदय श्वांस संस्थान से लेकर नाड़ी संस्थान तक यह समस्त अवयवों की विकृति को मिटाकर अव्यवस्था को दूर करती है। शुंठी सायिटिका की सर्वश्रेष्ठ औषधि है, क्योंकि इसकी तासीर गर्म है। पुराने गठिया रोग में यह अत्यंत लाभदायी है। अरुचि, उल्टी होने की इच्छा, अगिन मंदता, अजीर्ण एवं पुराने कब्ज में यह तुरंत लाभ पहुंचाती है। यह हृदयोत्तेजक है जो ब्ल्डप्रेशर सही करती है। खाँसी, श्वांस रोग, हिचकी में भी लाभ देती है। कफ़ निस्सारक है अत: ब्रोंकाईटिस आदि में तो विशेष लाभकारी है। विशेषकर प्रसवोत्तर दुर्बलता से शीघ्र लाभ दिलाती है।
यह एक गर्म औषधि है, अत: इसका प्रयोग कुष्ठ व पीलिया, शरीर में कहीं भी रक्तस्राव होने की स्थिति और गर्मी में नहीं करना चाहिए।

नीम (निम्ब)

निम्ब सिन्चति स्वास्थ्यं इति निम्बम अर्थात जो स्वास्थ्य को बढाए, वह नीम कहलाता है।  इसकी महिमा का जितना बखान किया जाए उतना ही कम है। वायु को शुद्ध करने में यह सर्वाधिक योगदान करता है।  चरक एवं सुश्रुत दोनो ने इसे चर्मरोग एवं रक्त शोधन हेतु उत्तम औषधि माना है। निघंटुकार कहते हैं कि नीम तिक्त रस, लघु गुण, शीत वीर्य व क्टु विपाककी होने से कफ़ व पित्त को शांत करता है। कण्डूरोग, कोढ, फ़ोड़े फ़ुंसी, घाव, आदि में लेप द्वारा लाभ करता है। रक्त शोधक होने के कारण यह व्रणों और शोथ रोगों में लाभ पहुंचाता है। मुंह से लिए जाने पर यह पाचन संस्थान में कृमिनाशक, यकृदोत्तेजक प्रभाव डालता है। शोथ मिटाता है तथा श्वांस रोग खाँसी में आराम देता है, मधुमेह, बहुमूत्र रोग में भी इसे प्रयुक्त करते हैं। विषम जीर्ण ज्वरों में इसके प्रयोग का प्रावधान है।

सारिवा

इसे अनन्तमूल, गोपव्ल्ली, कपूरी के नाम से भी जाना जाता है। आचार्य सुश्रुत ने सारिवादिगण की प्रधान औषधि इसे ही माना है।  रक्त शुद्धि और धातु परिवर्तन के लिए अनन्तमूल बहुत उपयोगी है। यह औषधि रक्त के उपर अपना सीधा प्रभाव दिखाती है। इसके द्वारा त्वचान्तर्गत रक्त वाहिनियों का विकास होता है जिससे रक्त प्रवाह ठीक गति से होने लगता है।  बाह्र्य प्रयोगों में आंख की लाली आदि संक्रमण रोगों में रस डालते हैं तथा शोथ संस्थानों पर लेप करते हैं। यह अग्निदीपक पाचक है। अरुचि और अतिसार में लाभ पहुंचाती है। खाँसी सहित श्वांस रोगों में यह उपयोगी है, महिलाओं के प्रदर, अनियमित मासिक धर्म आदि रोगों में लाभकारी है।  यह त्रिदोषनाशक तथा किसी भी प्रकार के ज्वार प्रधान रोगों के निवारणार्थ  तथा जीवन शक्ति को बढाने हेतु प्रयुक्त किया जा सकता है।

चिरायता

वनों में पाए जाने वाले तिक्त द्रव्य के रुप में होने के कारण किराततिक्त भी कहते हैं, किरात व चिरेट्ठा इसके अन्य नाम हैं। इसे लगभग सभी विद्वानों ने सन्निपात, ज्वर, व्रण रक्त, दोषों  की सर्वश्रेष्ठ औषधि माना है यह एक प्रकार की प्रति संक्रामक औषधि है जो ज्वर करने वाले मूल कारणों का निवारण करती है। यह कोढ कृमि तथा व्रणों को मिटाता है। संस्थानिक  बाह्य उपयोग के रुप में यह व्रणों को धोने, अग्निमंदता, अजीर्ण, यकृत विकारों में आंतरिक प्रयोगों के रुप में, रक्त विकार, उदर तथा कृमियों के निवार्णार्थ, शोथ एवं ज्वर के बाद दुर्बलता हेतु भी प्रयुक्त होता है। इसे उत्तम सात्मीकरण टानिक भी माना जा सकत है।

गिलोय (अमृता)

यह समस्त भारतवर्ष में पायी जाती है, इसे गुडूची, अमृता, मधुपर्णी, तंत्रिका, कुण्डलिनी जैसे नाम दिए हैं आयुर्वेद में इसे ज्वर की महानौषधि मानते हुए जीवन्तिका नाम दिया है।  चरक ने इसे मुख्यत: वात हर माना है। इसे त्रिदोषहर रक्त शोधक, प्रतिसंक्रामक, ज्वरघ्न मानते हैं। विभिन्न अनुपानों के प्रयोग से यह सभी दोषों का शमन कर रक्त का शोधन करती है। यहा पाण्डुरोग तथा जीर्णकास निवारक है। कुष्ठ रोग का निवारण तथा कृमियों को मारने का काम भी करती है। टायफ़ाईड जैसे जीर्ण मौलिक ज्वर में इसका प्रभाव आश्चर्यजनक है। मलेरिया ज्वर में कुनैन से होने वाली विकृतियों को रोकने में सफ़ल है। हृदय की दुर्बलता, रक्त विकार, निम्न रक्तचाप में उपयोग में लाई जाती है। ऐसा कहा जाता है कि यह शुक्राणुओं के बनने की एवं उनके सक्रीय होने की प्रक्रिया को बढाता है। यह औषधि एक समग्र काया कल्प योग है।

अशोक

जिस वृक्ष के नीचे बैठने से शोक नहीं होता उसे अशोक कहते हैं अर्थात जो स्त्रियों के समस्त शोकों को दूर भगाता है वह दिव्य औषधि अशोक ही है। इसे हेमपुष्प (स्वर्ण वर्ण के फ़ूलों से लदा) तथा  ताम्रपल्लव नाम से संस्कृत साहित्य में पुकारते हैं। आचार्य सुश्रुत के अनुसार योनि दोषों की यह एक सिद्ध औषधि है। ॠषि कहते हैं कि यदि कोई स्त्री स्नानादि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र पहन कर अशोक की आठ कलियों  का सेवन नित्य करे तो वह मासिक धर्म संबंधी समस्त क्लेशों से मुक्त हो जाती है।  उसके बांझ पन का कष्ट दूर होता है और मातृत्व की इच्छा पूर्ण होती है। अशोक की छाल रक्त प्रदर में, पेशाब रुकने तथा बंद होने वाले रोगों को तुरंत लाभ देती है। अशोक का प्रधान प्रभाव पेट के नीचले भाग - गुर्दों, मुत्राशय एवं योनिमार्ग पर होता है। यह फ़ैलोपिन ट्यूब को सुदृढ बनाती है। जिससे बांझ पन मिटता है। शुक्ल पक्ष में वसंत की छठी को अशोक के फ़ूल दही के साथ खाने से गर्भ स्थापना होती है ऐसा शास्त्रों का अभिमत है। मुत्रघात व पथरी में, पेशाब की जलन में बीजों को शीतल जल में पीस कर मिलाते हैं, पुरुष के सभी प्रकार के मूत्रवाही संस्थान रोगों में अशोक का प्रयोग लाभकारी होता है।

गौक्षुर (गोखरु)

वनों मे पाई जाने वाली यह छुरी के समान तेज कांटे वाली औषधि गौआदि पशुओं के पैरों में चुभ कर उन्हे क्षत कर देती है। इसलिए इसे गौक्षुर कहते हैं। इसे श्वदंष्ट्रा, चणद्रुम, स्वादु कंटक एवं गोखरु नाम से भी जाना जाता है। आचार्य चरक इसे मूत्र विरेचन द्रव्यों में प्रधान मानते हुए कहा है - मूत्रकृच्छानिलहराणाम अर्थात यह मूत्र कृच्छ (डिसयुरिया) विसर्जन के समय होने वाले कष्ट में उपयोगी महत्वपूर्ण औषधि है। अश्मरी भेदन में (पथरी को तोड़ना, मूत्र मार्ग से ही बाहर निकालना) हेतू भी इसे उपयोगी माना गया है। इसका सीधा असर मूत्रेन्द्रिय की श्लेष्म त्वचा पर पड़ता है। सुजाक रोग, वस्तिशोथ (पेल्विक इन्फ़्लेमेशन) में भी गोखरु तुरंत अपना प्रभाव दिखाता है।  गर्भाशय को शुद्ध करता है तथा वन्ध्याआत्व को मिटाता है। इस प्रकार से यह प्रजनन अंगों की बलवर्धक औषधि है। इसके अतिरिक्त यह नाड़ी दुर्बलता, नाड़ी विकार, बवासीर, खाँसी तथा श्वांसरोग में लाभकारी है।  यह नपुंसकता निवारण तथा बार बार होएन वाले गर्भपात में भी सफ़लता से प्रयोग होता है।

शतावर

इसे शतमली, शतवीर्या, बहुसुताअ भी कहते हैं। वीर्य वृद्धि, शुक्र दुर्बलता, गर्भस्राव, रक्त पदर, स्तन्य क्षय में यह उपयोगी है। स्त्रियों के लिए उत्तम रसायन है स्तन्य वृद्धि तथा दूध की मात्रा बढाने के लिए इसका उपयोग होता है।  स्वप्न दोष के लिए दूध में उबाल कर इसकी जड़ देते हैं। अनिद्रा रोग, शिरोशूल, वात व्याधि, मिर्गी के रोग, मुर्च्छा, हिस्टीरिया की भी यह अचूक औषधि है।

अश्वगंधा

इसे असगंध एवं बाराहरकर्णी भी कह्ते हैं, कच्ची जड़ से अश्व जैसी गंध आती है इसलिए इसे अश्वगंधा या वाजिगंधा भी कहते हैं। यह उत्तम वाजिकारक औषधि है इसका सेवन करने से अश्व जैसा उत्साह उत्पन्न होता है। आचार्य चरक ने इसे उत्कृष्ट वल्य माना है, एवं सभी प्रकार के जीर्ण रोगियों, क्षय शोथ अदि के लिए उपयुक्त माना है। शिशिर ॠतु में कोइ वृद्ध इसका एक माह भी सेवन करता है तो वह युवा बन जाता है। इसका मूल चुर्ण दूध या घी के साथ निद्रा लाता है तथा शुक्राणुओं में वृद्धि कर एक प्रकार के कामोत्तेजक की भूमिका निभाता है, परन्तु शरीर पर इसका कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। सूखा रोग की यह चिरपरिचित औषधि है।

सोमवार, 6 अप्रैल 2015

महिलाओं के कुछ बड़े ऑप्रेशन Some major operations of women




हिस्ट्रीक्टमी-
          हिस्ट्रक्टमी ऑप्रेशन में स्त्री की बच्चेदानी में कोई खराबी जैसे-´ टयूमर, रसौली या कैंसर हो जाने या हार्मोन्स की गड़बड़ी होने के कारण या ज्यादा खून के बहने के कारण उस अंग को काटकर निकाल दिया जाता है। चूंकि बच्चेदानी के निकाल दिए जाने से मासिकधर्म बंद हो जाता है, इसलिए इस ऑप्रेशन को अक्सर 40 साल की उम्र के बाद ही किया जाता है।

मायोमेक्टमी-

        कभी-कभी स्त्री को छोटी उम्र में ही रसौली आदि हो जाने के कारण बच्चे को जन्म देने में परेशानी होती हैं इसलिए इसमे पूरे गर्भाशय को ना निकालकर केवल रसौली को ही निकाला जाता है। इस क्रिया को मायोमेक्टमी कहते हैं।

बैट्रोसस्पेंशन-

          अगर किसी स्त्री की बच्चेदानी ठीक है, पर बार-बार बच्चे को जन्म देने या ज्यादा बार गर्भपात होने की वजह से अपनी जगह से खिसक गई है, जिसकी वजह से उसे काफी परेशानी हो रही है तब भी ऑप्रेशन के द्वारा बच्चेदानी को निकाला नहीं जाता बल्कि उसे अपनी सही जगह पर वापस लगा दिया जाता है। ऑप्रेशन की इस क्रिया को बैट्रोसस्पेंशन कहा जाता है।

          आजकल मेडिकल ने नई तकनीक खोज निकाली है जिसमे बिना खोले पेट का ऑप्रेशन किये बगैर योनि के रास्ते से बच्चेदानी को बाहर निकाल दिया जाता है। लेकिन ये स्त्री की हालत और डॉक्टर पर निर्भर करता है कि `हिस्ट्रक्टमी वैजाइनल´ होगी या `एबडैमनल´। अक्सर `हिस्ट्रक्टमी वैजाइनल´ में 14-15 दिन तथा `एबडैमनल´ (पेट खोलकर) हिस्ट्रक्टमी में 10-12 दिन हॉस्पिटल में रहना होता है। इस ऑप्रेशन के 6 महीने तक ज्यादातर ऐसे कामों से पूरी तरह बचना चाहिए जिससे कि नीचे योनि की तरफ वजन पड़ता हो जैसे- बार-बार सीढ़ियों से नीचे-ऊपर उतरना-चढ़ना, भारी बाल्टी या सामान उठाना आदि।

          अक्सर स्त्रियां ऑप्रेशन के नाम से ही डर जाती है लेकिन यह डर पूरी तरह से बेकार है। पूरी उम्र दुख, पीड़ा सहते हुए जीवन बिताने से तो अच्छा है कि एक ही बार ऑप्रेशन करवाकर हर दुख-दर्द को एक ही बार मे खत्म कर दिया जाए और अपनी बाकी की जिन्दगी को हंसते-खेलते हुए बिताया जाए।

ऑप्रेशन के बाद की शिकायतें-

        अक्सर स्त्रियों को ऑप्रेशन के बाद कुछ परेशानियां पैदा हो जाती है पर ये परेशानियां ज्यादातर वहमबाजी के कारण या ऑप्रेशन के बाद पूरी तरह से आराम न कर पाने या किसी तरह की लापरवाही बरतने से हो सकती है। बहुत सी स्त्रियां हिस्ट्रक्टमी को इसके लिए दोषी मानती है पर ये ठीक नहीं है। ऐसी परेशानियां किसी भी ऑप्रेशन के बाद की गई लापरवाही के कारण हो सकती है।

        ऑप्रेशन के बाद स्त्रियों का पेट बाहर निकलना या मोटापा बढ़ने की शिकायते भी आम होती है। मीनूपाज के समय मासिकधर्म बंद हो जाने के कारण यूं भी स्त्री के शरीर मे थोड़ा बहुत फर्क आता है पर ये शिकायत भी ज्यादातर ऑप्रेशन के बाद हर समय लेटे रहने या हर समय खाते रहने से ही होती है क्योंकि बहुत सी स्त्रियां सोचती है कि ऑप्रेशन के बाद काम बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए और शरीर मे कमजोरी न आ जाए इसलिए हर समय कुछ न कुछ खाते रहना चाहिए। इन्ही कारणों से उनका मोटापा बढ़ जाता है नहीं तो हिस्ट्रक्टमी के बाद स्त्री अपनी पूरी जिन्दगी सामान्य तरीके से जी सकती है तथा संभोगक्रिया में भी वो पूरी तरह नार्मल रह सकती है बल्कि इस ऑप्रेशन के कारण संभोग क्रिया करते समय उसके मन मे बच्चा ठहर जाने का डर भी नहीं रहता जिससे वो संभोगक्रिया को पूरी तरह बिना किसी डर के कर सकती है। इसलिए अगर स्त्रियों को ये ऑप्रेशन कराने की जरूरत पड़े तो उन्हे बिना किसी डर या झिझक के ये ऑप्रेशन करवा लेना चाहिए।

ओबेरियाटमी-

        `हिस्ट्रक्टमी´ में सिर्फ बच्चेदानी को ही निकाला जाता है, ओवरीज या डिंब-ग्रन्थियों को नहीं। लेकिन कभी-कभी इस जगह पर भी ट्यूमर हो जाने से ओवरीज को बाहर निकालना जरूरी हो जाता है पर इससे भी डरने की कोई जरूरत नहीं है। एक ओवरीज को बाहर निकाल देने से दूसरी काम करती रहती है। अगर दोनो ओवरीज हटा दी जाती है तो हार्मोन्स की कमी को दवाईयों या इजैंक्शनों के द्वारा पूरा किया जाता है और अपनी बाकी की जिन्दगी को साधारण तरीके से जिया जा सकता है। लेकिन ऑप्रेशन होने के बाद पूरी तरह सावधानी बरतना और डॉक्टर के कहे अनुसार चलना बहुत जरूरी है। स्त्री की हालत के अनुसार ही ये सम्भव हो सकता है जिसमे खराबी हो, सिर्फ वो ही एक ही ओवरी निकाली जाएं तथा किसी ओवरी में छोटा सा टयूमर हो तो सिर्फ टयूमर को ही निकाला जाए ओवरी को नहीं। ऐसे में ऑप्रेशन की इस क्रिया को `ओवेरियन सिस्टैक्टमी´ कहते हैं।

एक्टोपिक प्रेग्नेंसी-

        एक्टोपिक प्रेग्नेंसी का मतलब होता है किसी-किसी मामलों में स्त्री के गर्भ का बच्चेदानी में ठहरकर गर्भनली मे गलत तरह से ठहर जाना। इसी कारण से इसे `टयूबल प्रेग्नेंसी´ भी कहते है। जब टयूब के अन्दर गर्भ के बढ़ने और फैलने की कोई संभावना नहीं तो स्वाभाविक है कि बढ़ने की कोशिश में वो दर्दनाक हालात पैदा करेगा। इसमें अक्सर 1 महीने के बाद ही मुश्किल पैदा हो जाती है। कभी दर्द, कभी खून बहना, कभी तेज ना सहने वाला दर्द और उल्टियां। ऐसी किसी तरह की परेशानी होने पर तुरन्त ही जांच करवानी चाहिए तथा जितनी जल्दी हो सकें इस गर्भ को ऑप्रेशन करवाकर निकलवा देना चाहिए। ये ऑप्रेशन कुछ बड़ा ही होता है पर उसके बाद जिस स्त्री का ऑप्रेशन होता है वो जल्द ही ठीक हो जाती है। यहां एक बात और भी ध्यान रखना जरूरी है कि दूसरा गर्भधारण जल्दी नहीं होना चाहिए और जब भी हो डॉक्टर को पहले गर्भ के बारें मे पूरी तरह बताकर उसकी जांच करवा लेनी चाहिए।

हिस्ट्रोटमी-

          हिस्ट्रोटमी की जरूरत तभी पड़ती है, जबकि स्त्री के गर्भ मे बच्चा लगभग 4 महीने से ऊपर का हो गया हो और किन्ही कारणों से उसे निकालना जरूरी हो, क्योंकि इस बढ़े हुए गर्भ को फिर से योनि के रास्ते से निकालने मे मुश्किल पैदा हो जाती है और उसे पेट का ऑप्रेशन करके ही निकालना पड़ता है। इसलिए डॉक्टर के बोलते ही कि गर्भपात 12 हफ्तों के बाद ही करा लेना चाहिए क्योंकि 12 से 16 सप्ताह के बीच भी वो इतना आसान नहीं रह जाता पर उसके बाद हिस्ट्रोटमी का सहारा लेना ही पड़ता है। ऑप्रेशन करने के बाद टांकों के खुलने तक 10 दिन तक अस्पताल में रहना, बाद में कम से कम 6 सप्ताह तक आराम करना तथा 3 महीने तक भारी काम न करना जैसी बातों पर ध्यान देना जरूरी है। अगला गर्भाधान जल्द न हो इस बात का ध्यान भी रखना भी जरूरी है।

टयूबैक्टमी-

        इन सारे बड़े आप्रेशनों में सबसे आसान और छोटा ऑप्रेशन है `टयूबैक्टमी´ यानि स्त्रियों की नसबन्दी करना ताकि आगे उनको गर्भधारण न हो। अक्सर लोग संभोग क्रिया करते समय कण्डोम आदि का सही से इस्तेमाल नहीं करते, जिसके कारण स्त्री को गर्भ ठहर जाता है और वह बार-बार गर्भपात कराती रहती है। लेकिन बार-बार गर्भपात बिल्कुल ठीक नहीं है गर्भपात जब ज्यादा ही मजबूरी हो तभी करना चाहिए। इसलिए 2-3 बच्चों के बाद परिवार नियोजन के लिए पुरुषों को `वासैक्टमी´ और स्त्रियों को `टयूबैक्टमी´ करा लेने की सलाह दी जाती है पर यह जानना भी जरूरी है कि इस ऑप्रेशन के बाद नसबन्दी पति या पत्नी दोनो में से किसी एक ही करानी चाहिए।

          `टयूबैक्टमी´ अगर आखिरी बच्चे को जन्म देने के अगले दिन ही करवा ली जाए तो ज्यादा आसानी रहती है। इसके लिए स्त्री को दो बार समय निकालने की जरूरत भी नहीं होती है। इसलिए अस्पतालों में दूसरे या तीसरे बच्चे के बाद साथ ही `टयूबैक्टमी´ या नसबन्दी करने के लिए बोला जाता है।

           इस ऑप्रेशन में पेट का लगभग 2 इंच हिस्सा ही खोला जाता है और नसबन्दी करके 2-3 टांके लगा दिए जाते हैं। जब तक टांके खुलते है ज्यादा से ज्यादा 6-7 दिन अस्पताल में रहना होता है बाद में 2 हफ्ते तक स्त्री को पूरा आराम करना होता है, उसके बाद घर के या बाहर के सारे साधारण काम किए जा सकते हैं। सिर्फ 3 महीने तक ज्यादा वजन उठाने वाले या ज्यादा थकान वाले काम से बचना चाहिए। आजकल की आधुनिक तकनीक में लेपरोस्कोप के द्वारा सिर्फ 1 सेमीमीटर चीरा लगाने से ऑप्रेशन हो जाता है। यह ऑप्रेशन बच्चे का जन्म होने के 10-12 दिन बाद या मासिकधर्म के आने के बाद कराना चाहिए।

जानकारी-

        बहुत सी स्त्रियां सोचती है कि नसबन्दी करवाने के बाद वो ज्यादा भारी काम नहीं कर सकती या वजन नहीं उठा सकती पर ये सब वहम है। अगर नसबन्दी के बाद व्यायाम और भोजन में सन्तुलन रखा जाए और डॉक्टर की हिदायतों का पालन किया जाए तो स्त्री का स्वास्थ्य बिल्कुल ठीक रह सकता है।

विभिन्न रोगों में उपयोग हरड़


1. मुंह के छाले:

•छोटी हरड़ को पानी में घिसकर छालों पर 3 बार प्रतिदिन लगाने से मुंह के छाले नष्ट हो जाते हैं।
•छोटी हरड़ को बारीक पीसकर छालों पर लगाने से मुंह व जीभ के छाले मिट जाते हैं।
•छोटी हरड़ को रात को भोजन करने के बाद चूसने से छाले खत्म होते हैं।
•पिसी हुई हरड़ 1 चम्मच रोज रात को सोते समय गर्म दूध या गर्म पानी के साथ फंकी लें। इससे छालों में आराम मिलता है।
2. गैस:

•छोटी हरड़ एक-एक की मात्रा में दिन में 3 बार पूरी तरह से चूसने से पेट की गैस नष्ट हो जाती है।
•छोटी हरड़ को पानी में डालकर भिगो दें। रात का खाना खाने के बाद चबाकर खाने से पेट साफ हो जाता और गैस कम हो जाती है।
•हरड़, निशोथ, जवाखार और पीलू को बराबर मात्रा में पीसकर चूर्ण बना लें। इसमें से आधा चूर्ण सुबह और शाम खाना खाने के बाद खाने से लाभ मिलता है।
3. घाव:

•हरड़ को जलाकर उसे पीसे और उसमें वैसलीन डालकर घाव पर लगायें। इससे लाभ पहुंचेगा।
•3-5 हरड़ को खाकर ऊपर से गिलोय का काढ़ा पीने से घाव का दर्द व जलन दूर हो जाती है।
4. एक्जिमा: गौमूत्र में हरड़ को पीसकर तैयार लेप को रोजाना 2-3 बार लगाने से एक्जिमा का रोग ठीक हो जाता है।

5. बच्चों के पेट रोग (उदर): हर हफ्ते हरड़ को घिसकर एक चौथाई चम्मच की मात्रा में शहद के साथ सेवन कराते रहने से बच्चों के पेट के सारे रोग दूर हो जाते हैं।

6. बुद्धि के लिए: भोजन के दौरान सुबह-शाम आधा चम्मच की मात्रा में हरड़ का चूर्ण सेवन करते रहने से बुद्धि और शारीरिक बल में वृद्धि होती है।

7. भूख बढ़ाने के लिए: हरड़ के टुकड़ों को चबाकर खाने से भूख बढ़ती है।

8. पतले दस्त: कच्चे हरड़ के फलों को पीसकर बनाई चटनी एक चम्मच की मात्रा में 3 बार सेवन करने से पतले दस्त बंद हों जाएंगे।

9. गर्मी के फोड़े, व्रण: त्रिफला को लोहे की कड़ाही में जलाकर उसकी राख शहद मिलाकर लगाना चाहिए।

10. शनैमेह पर: त्रिफला और गिलोय का काढ़ा पिलाना चाहिए।

11. अण्डवृद्धि:

•सुबह के समय छोटी हरड़ का चूर्ण गाय के मूत्र के साथ या एरण्ड के तेल में मिलाकर देना चाहिए या त्रिफला दूध के साथ देना चाहिए।
•त्रिफला के काढ़े में गोमूत्र मिलाकर पिलाना चाहिए।
12. खांसी:

•हरड़ और बहेड़े का चूर्ण शहद के साथ लेना चाहिए।
•हरड़, पीपल, सोंठ, चाक, पत्रक, सफेद जीरा, तन्तरीक तथा कालीमिर्च का चूर्ण बनाकर गुड़ में मिलाकर खाने से कफयुक्त खांसी ठीक हो जाती है।
13. दर्द: हरड़ का चूर्ण घी और गुड़ के साथ देना चाहिए।

14. आंख के रोग:

•त्रिफला का चूर्ण 7-8 ग्राम रात को पानी में डालकर रखें। सुबह उठकर थोड़ा मसलकर कपड़े से छान लें और छाने हुए पानी से आंखों को धोएं। इससे कुछ ही दिनों के बाद आंखों के सभी तरह के रोग ठीक हो जाएंगे।
•त्रिफला चूर्ण के साथ आधा चम्मच हरड़ का चूर्ण घी के साथ लें। इससे नेत्रों के रोगों में लाभ मिलता है।
15. पेशाब की जलन:

•हरड़ के चूर्ण में शहद मिलाकर चाटकर खाने से, पेशाब करते समय होने वाला जलन और दर्द खत्म हो जाता है।
•हरड़ के चूर्ण को मट्ठे के साथ रोज खाने से पेशाब के रोग ठीक हो जाते हैं।
16. गैस के कारण पेट में दर्द: हरड़ का चूर्ण 3 ग्राम गुड़ के साथ खाने से गैस के कारण पेट का दर्द दूर हो जाता है।

17. आन्त्रवृद्धि:

•हरड़ों के बारीक चूर्ण में कालानमक, अजवायन और हींग मिलाकर 5 ग्राम की मात्रा में सुबह-शाम हल्के गर्म पानी के साथ खाने या इस चूर्ण का काढ़ा बनाकर पीने से आन्त्रवृद्धि की विकृति खत्म होती है।
•हरड़, मुलहठी, सोंठ 1-1 ग्राम पाउडर रात को पानी के साथ खाने से लाभ होता है।
18. आंख आना: हरड़ को रात को पानी में डालकर रखें। सुबह उठकर उस पानी को कपड़े से छानकर आंखों को धोने से आंखों का लाल होना दूर होता है।

19. श्वास या दमा रोग:

•सोंठ और हरड़ के काढ़े को 1 या 2 ग्राम की मात्रा तक गर्म पानी के साथ लेने से श्वास रोग ठीक हो जाता है।
•हरड़, बहेड़ा, आमला और छोटी पीपल चारों को बराबर मात्रा में लेकर उसका चूर्ण तैयार कर लेते हैं। इसे एक ग्राम तक की मात्रा में शहद के साथ मिलाकर चाटने से श्वासयुक्त खांसी खत्म हो जाती है।
•हरड़ को कूटकर चिलम में भरकर पीने से श्वास का तीव्र रोग थम जाता है।
20. मलेरिया का बुखार: हरड़ का चूर्ण 10 ग्राम को 100 मिलीलीटर पानी में पकाकर काढ़ा बना ले। यह काढ़ा दिन में 3 बार पीने से मलेरिया में फायदा होता है।

21. वात-पित्त का बुखार: हरड़, बहेड़ा, आंवला, अडूसा, पटोल (परवल) के पत्ते, कुटकी, बच और गिलोय को मिलाकर पीसकर काढ़ा बना लें, जब काढ़ा ठण्डा हो जाये तब उसमें शहद डालकर रोगी को पिलाने से वात-पित्त का बुखार समाप्त होता है।

22. भगन्दर:

•खदिर, हरड़, बहेड़ा और आंवला का काढ़ा बनाकर इसमें भैंस का घी और वायविडंग का चूर्ण मिल कर पीने से किसी भी प्रकार का भगन्दर ठीक होता है।
•हरड़, बहेड़ा, आंवला, शुद्ध भैंसा गूगल तथा वायविडंग इन सबका काढ़ा बनाकर पीने से तथा प्यास लगने पर खैर का रस मिला हुआ पानी पीने से भगन्दर नष्ट होता है।
23. दांतों का दर्द: दांतों में शीतादि रोग (ठण्डा लगना) होने पर हरड़, बहेड़ा, आंवला, सोंठ और सरसों का तेल इन सबका काढ़ा बनाकर प्रतिदिन दो से तीन बार कुल्ला करने से शीतादि रोग नष्ट होता है।

24. बुखार: हरड़ 20 ग्राम, कुटकी 20 ग्राम, अमलतास 20 ग्राम और रसौत 20 ग्राम को बराबर मात्रा में लेकर कूटकर, 500 मिलीलीटर गर्म पानी में उबाल लें। जब एक-चौथाई पानी बच जाने पर, छानकर शीशी में भर दें। इस काढ़े में 20 ग्राम शहद मिलाकर रख लें। इसे 2-2 घंटे के अन्तर से दिन में 2 से 3 बार पीने से बुखार मिट जाता है।

25. दांत साफ और चमकदार बनाना: हरड़ के चूर्ण से मंजन करने से दांत साफ होते हैं और चमकदार बनते हैं।

26. दांत मजबूत करना: हरड़ और कत्था को मिलाकर चूसें। इससे दांत मजबूत होते हैं।

27. आंखों की खुजली और ढलका: पीली हरड़ के बीज के दो भाग, बहेड़ा की मींगी के 3 भाग और आंवले के बीजों की गिरी के 4 भाग को लेकर इन सबको पीसकर और छानकर पानी के साथ गोलियां बना लें। इन गोलियों को पानी के साथ घिसकर आंखों में काजल की तरह लगाने से आंखों की खुजली और ढलका समाप्त हो जाता है।

28. गुदा चिरना: पीली हरड़ 35 ग्राम को सरसों के तेल में तल लें और भूरे रंग का होने पर पीसकर पाउडर बना लें। उस पाउडर को एरण्ड के 140 मिलीलीटर तेल में मिला लें। रात को सोते समय गुदा पर 10 से 20 मिलीग्राम की मात्रा में लगायें। इससे गुदा चिरने का विकार दूर होता है।

29. कांच निकलना (गुदाभ्रंश): छोटी हरड़ को कूट-पीसकर चूर्ण बना लें। यह चूर्ण 2-2 ग्राम की मात्रा में सुबह-शाम हल्के गर्म पानी के साथ लें। इसको पीने से कब्ज नष्ट होती है और मलद्वार से गुदा (कांच) बाहर नहीं आता।

30. जीभ और मुंख का सूखापन: हरड़ का काढ़ा बनाकर पीने से मुंह के सभी रोग ठीक होते हैं तथा मुंह का सूखापन दूर होता है।

31. गर्भाशय के कीडे़: गर्भाशय में कीडे़ पड़ गये हो तो हरड़, बहेड़ा और कायफल तीनों को साबुन के पानी के साथ सिल पर महीन पीस लेते हैं फिर उसमें रूई का फोहा भिगोकर तीन दिनों तक योनि में रखना चाहिए। इस प्रयोग से गर्भाशय के कीड़े नष्ट हो जाते हैं।

32. पलकें और भौहें: हरड़ का छिलका, 10 ग्राम माजूफल को पानी में पीसकर पलकों के ऊपर लगाएं इससे पलकों को लाभ होता है।

33. योनि की जलन और खुजली: बड़ी हरड़ की मींगी (बीज, गुठली) और माजूफल दोनों को एक समान मात्रा में लेकर बारीक पीसकर शीशी में रख लें। इस चूर्ण को पानी में घोलकर योनि को धोने से योनि की जलन और खुजली नष्ट हो जाती होती है।

34. कब्ज (कोष्ठबद्वता):

•बड़ी हरड़ को पीस लें। 5 ग्राम चूर्ण को हल्के गर्म पानी के साथ सेवन करने से कब्ज़ (कोष्ठबद्वता) दूर होती है।
•बड़ी पीली हरड़ का छिलका 6 ग्राम को काला नमक या लाहौरी नमक आधा ग्राम में मिलाकर कूटकर रख लें। इसे सोने से पहले पानी के साथ लेने से पेट साफ होता है।
•काबुली हरड़ को रात में पानी में डालकर भिगों दे। सुबह इसी हरड़ को पानी में रगड़कर नमक मिलाकर एक महीने तक लगातार पीने से पुरानी से पुरानी कब्ज मिटती जाती है।
•हरड़, सनाय और गुलाब के गुलकन्द की गोलियां बनाकर खाने से मलबंद (कब्ज) दूर होती है।
•10 भाग हरड़, 20 ग्राम बहेड़ा और 40 भाग आंवला आदि को मिलाकर चूर्ण बना लें। रात को सोते 1 चम्मच चूर्ण दूध या पानी के साथ लेने से लाभ होता है।
•हरड़ की छाल 10 ग्राम, बहेड़ा 20 ग्राम, आंवला 30 ग्राम, सोनामक्खी 10 ग्राम, मजीठ 10 ग्राम और मिश्री 80 ग्राम को मिलाकर चूर्ण बनाकर रख लें। फिर 10 ग्राम मिश्रण को शाम को सोने से पहले सेवन करने कब्ज नष्ट होती है।
•छोटी हरड़ और 1 ग्राम दालचीनी मिलाकर पीसकर चूर्ण बना लें, इसमें 3 ग्राम चूर्ण हल्के गर्म पानी के साथ रात में सोने से पहले लेने से कब्ज (कोष्ठबद्वता) को समाप्त होती है।
•छोटी हरड़ 2 से 3 रोजाना चूसने से कब्ज मिटती है।
•छोटी हरड़ को घी में भून लें। फिर पीसकर चूर्ण बना लें। दो हरड़ों का चूर्ण रात को सोते समय पानी के सेवन करने से शौच खुलकर आता है।
•छोटी हरड़, सौंफ, मिश्री को बराबर मात्रा में लेकर पीस लें। इसमें से एक चम्मच चूर्ण रात को सोते समय पानी के साथ सेवन करने से लाभ होता है।
•छोटी हरड़ का आधा चम्मच चूर्ण सुबह-शाम भोजन के बाद और सोते समय 1 चम्मच की मात्रा में जल के साथ सेवन से पेट साफ होगा।
•हरड़, बहेड़े और आंवले को बराबर मात्रा में लेकर कूट-पीसकर बारीक चूर्ण बनाकर रखें। इस चूर्ण को त्रिफला चूर्ण कहते है। रात्रि को 5 ग्राम त्रिफला चूर्ण गर्म जल या दूध के साथ सेवन करने से कब्ज नष्ट होती है।
•हरड़ सुबह-शाम 3 ग्राम गर्म पानी के साथ खाने से पेट के कब्ज में फायदा मिलता है और बवासीर रोग में भी लाभ होता है।
35. मसूढ़ों की सूजन: हरड़, बहेड़ा व आंवला 10-10 ग्राम लेकर मोटा-मोटा कूट लें। इसके कूट को 800 मिलीलीटर पानी में उबालें। जब 200 मिलीलीटर पानी बचे तो 30 से 60 मिलीलीटर पानी से दिन में 2 से 3 बार गरारे करें। इससे मसूढ़ों की सूजन ठीक होती है।

36. गर्भनिरोध: हरड़ की मींगी (बीज, गुठली) 40 ग्राम की मात्रा में लेकर उसमें मिश्री मिलाकर रख लें। इसे तीन दिनों तक सेवन करने से स्त्रियों को मासिक-धर्म नहीं आता है। इसके परिणामस्वरूप गर्भ ठहरने की संभावना बिल्कुल समाप्त हो जाती है।

37. वमन (उल्टी): हरड़ को पीसकर उसमें शहद मिलाकर चाटने से उल्टी आना बंद हो जाती है।

38. काली (छोटी हरड़, बाल हरड़, जौ हरड़ जंग हरड़) हरड़ : काली हरड़ को पानी से धोकर किसी साफ कपड़े से पोंछकर साफ करके रख लें। सुबह और शाम खाना खाने के बाद एक हरड़ को मुंह में रखकर चूसने से यह कई रोगों में लाभ देती है-जैसे- पेट की गैस की शिकायत दूर करती है। भूख लगने लगती है। पाचन शक्ति को बढ़ाती है। जिगर (लीवर) और आंतड़ियों की गैस समाप्त करती है। खून को साफ करती है। त्वचा के रोगों को दूर करती है। दांत को मजबूत बनाती है और आंखों के चश्मे का नम्बर भी कम करने में सहायता करती है तथा इससे उपयोग से सिगरेट पीने की आदत भी छूट जाती है।

39. मलबंद: छोटी हरड़, मरोड़फली, जवाखार और निशोथ को मिलाकर बराबर मात्रा में लेकर बारीक मात्रा में पीसकर छान लें। इस बने चूर्ण को 3 से 6 ग्राम तक की मात्रा में देशी घी में मिलाकर चाटने से उदावर्त्त रोग दूर होते हैं।

40. दस्त:

•हरड़ का पिसा हुआ बारीक चूर्ण 50 ग्राम, सेंधानमक 10 ग्राम को लेकर पीसकर चूर्ण बनाकर रख लें, इस चूर्ण को 1-1 चम्मच की मात्रा में सुबह और शाम ताजे पानी के साथ पीने से लाभ मिलता है।
•रात को सोने से पहले हरड़ का मुरब्बा खाकर ऊपर से दूध पी लें, इससे सुबह उठने पर शौच साफ आती है।
41. हिचकी का रोग: हरड़ के चूर्ण को गर्म पानी के साथ खाने से हिचकी मिट जाती है।

42. कान से कम सुनाई देना: आधी कच्ची जोगी हरड़ के चूर्ण को सुबह और शाम फांकने से बहरेपन का रोग दूर हो जाता है।

43. संग्रहणी (पेचिश): हरड़, छोटी पीपल, सोंठ और चित्रक (चीता) इन सभी का चूर्ण बनाकर मट्ठे (लस्सी) के साथ पीने से संग्रहणी अतिसार दूर हो जाता है।

44. पेट का फूलना: हरड़ 10 ग्राम, छोटी पीपल 10 ग्राम और निशोथ़ 10 ग्राम को बराबर मात्रा में लेकर इसे थूहर के दूध में पीसकर छोटी-छोटी गोलियां बना लें। इसे रोजाना सुबह 1 से लेकर 2 गोलियां खाने से आनाह (पेट का फूलना) और पेट में कब्ज की बीमारियां मिट जाती हैं।

45. बवासीर (अर्श):

•काली हरड़ 200 ग्राम लेकर उसे 20 ग्राम घी में डालकर भून लें। उसमें थोड़े-सा आंवला का रस और गन्धक डालकर अच्छी तरह से मिला लें। रोजाना रात को सोते समय 6 ग्राम मिश्रण गर्म दूध के साथ पीयें।
•75 ग्राम हरड़ के छिलके को कूट-छानकर इसमें 3 ग्राम गुड़ मिलाकर रोज खाली पेट लें। 21 दिन लगातार खाने से बवासीर में आराम मिलता है।
•छोटी हरड़, पीपल और सहजने की छाल का चूर्ण बनाकर उसी मात्रा में मिश्री मिलाकर खायें। इससे बादी बवासीर ठीक होती है।
46. चोट: हरड़, आमला, रसोत 50-50 ग्राम कूट छानकर 5-5 ग्राम सुबह-शाम पानी के साथ लेने से खून का बहना बंद होता है और लाभ भी होता है।

47. आंव रक्त (पेचिश): काली हरड़, को गाय के घी में भूनकर पीस लें। फिर इसमें इसी के बराबर मात्रा में मिश्री मिलाकर खाने से दस्त के साथ आंव आना बंद हो जाता है।

48. अग्निमान्द्यता (अपच): छोटी हरड़ 2 दाने, मुनक्का 4 दाने, अंजीर के 2 दाने का काढ़ा बनाकर सोने से पहले पीने से लाभ मिलता है।

49. जिगर का रोग:

•बड़ी हरड़ को पीसकर चूर्ण बना लें और उसमें पुराना गुड़ और हरड़ का चूर्ण मिलाकर 1-1 ग्राम की गोलियां बनाकर सुखा लें। 1-1 गोली सुबह-शाम लें, इसे 30-40 दिनों तक लगातार सेवन से बढे़ हुए यकृत रोग से राहत मिलती है।
•2 ग्राम बड़ी हरड़ का चूर्ण गुड़ के साथ सेवन करने से यकृत वृद्धि  मिट जाती है।
50. श्वेतप्रदर: हरड़, आंवला और रसौत को बराबर मात्रा में लेकर इसका चूर्ण बना लें, इसे 3-6 ग्राम की मात्रा में सेवन करने से श्वेतप्रदर मिट जाता है।

51. अल्सर: 2 छोटी हरड़ और 4 मुनक्का के दाने लेकर उनकी चटनी पीस लें और रोजाना सुबह के समय खाएं।

52. अम्लपित्त:

•बड़ी हरड़ को पीसकर उसका चूर्ण बना लें। इसमें 180 मिलीग्राम जवाखार मिलाकर सुबह और शाम 3-3 ग्राम की मात्रा में सेवन करने से लाभ होता है।
•हरड़ का चूर्ण 6 ग्राम में 6 ग्राम शहद, गुड़ या दाख (मुनक्का) को मिलाकर सेवन करने से तीन दिन में ही अम्लपित्त से छुटकारा पाया जा सकता है।
•हरड़ के 2 ग्राम चूर्ण को शहद के साथ मिलाकर पिलाने से बच्चों के अम्लपित्त में लाभ होता है।
•हरड़, छोटी पीपल, दाख (मुनक्का), धनिया, जवासा और मिश्री या चीनी को बराबर मात्रा में लेकर अच्छी तरह कूट लें। इस बने चूर्ण को 3 से 4 ग्राम की मात्रा में शहद के साथ मिलाकर सेवन करने से `श्लेश्मपित्त´ और `अम्लपित्त´ समाप्त हो जाते हैं।
•हरड़, दाख (मुनक्का), छोटी पीपल, जवासा, धनिया और मिश्री को बराबर मात्रा में लेकर पीसकर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण को शहद के साथ मिलाकर सेवन करने से अम्लपित्त में लाभ होता है।
•हरड़ एक चम्मच की मात्रा में 2 किशमिश के साथ लेने से अम्लपित्त ठीक हो जाता है।
53. गला बैठना: छोटी हरड़ का चूर्ण बनाकर 6 ग्राम चूर्ण को गाय के दूध में मिलाकर सेवन करें। इसका प्रयोग 7 से 8 दिनों तक करने से गला बैठना व गले का दर्द तथा खुश्की आदि ठीक हो जाती है।

54. रक्तप्रदर की बीमारी: 10-10 ग्राम हरड़ आंवले और रसौत को लेकर कूट-पीसकर चूर्ण बना लें, इसके 5 ग्राम चूर्ण को पानी के साथ सेवन करने से रक्तप्रदर की बीमारी नष्ट जाती है।

55. जलोदर: हरड़, सोंठ, देवदारू, पुनर्नवा और गिलोय को बराबर मात्रा में लेकर काढ़ा बना लें। इस काढे़ में शुद्ध गुग्गुल और गाय के पेशाब को मिलाकर पीने से जलोदर की बीमारी समाप्त हो जाती है।

56. मधुमेह का रोग: त्रिफला (हरड़ बहेड़ा, आंवला,) जामुन की गुठली, करेले के बीज, मेथी के दाने। सभी 50-50 ग्राम की मात्रा में लेकर 100 ग्राम गुड़मार में कूट-पीसकर मिला लें और सुबह नाश्ते के बाद 2 चम्मच पानी के साथ सेवन करें। इससे मधुमेह से आराम मिलता है।

57. मोटापा दूर करना:

•हरड़ 500 ग्राम, 500 ग्राम सेंधानमक, 250 ग्राम कालानमक और 20 ग्राम ग्वारपाठे के रस को मिलाकर अच्छी तरह पीसें, जब रस सूख जाए तो इसे 3 ग्राम की मात्रा में रात को गर्म पानी के साथ सेवन करने से मोटापे के रोग में लाभ होता है।
•हरड़, बहेड़ा, आंवला, सोंठ, कालीमिर्च, पीपल, सरसों का तेल और सेंधानमक मिलाकर 6 महीने तक लगातार सेवन करने से मोटापा, कफ और वायु (गैस) की बीमारियां समाप्त होती जाती हैं।
58. गिल्टी (ट्यूमर): हरड़, रेण्डी के बीज, रेण्डी का तेल और सिरका-पीसकर एकत्र कर लें। इसके बाद गर्म करके गिल्टी पर बांधें। इससे नई गिल्टी जल्दी सही हो जाती है तथा पुरानी गिल्टी जल्दी पककर फूट जाती है। इससे शीघ्र आराम हो जाता है।

59. जुकाम: 6 ग्राम बड़ी हरड़ के छिलकों के चूर्ण को शहद में मिलाकर चाटने से जुकाम ठीक हो जाता है।

60. पेट के कीड़े:

•हरड़, कबीला, सेंधानमक और बायविंडग को बराबर मात्रा में लेकर अच्छी तरह पीसकर बारीक चूर्ण बना लें, फिर इस तीन ग्राम चूर्ण को छाछ के साथ सेवन करने से पेट के कीड़े मिट जाते हैं।
•हरड़ और बायविंडग को बराबर मात्रा में पीसकर थोड़ी-सी मात्रा में गर्म पानी के साथ रोजाना सुबह और शाम फंकी के साथ सेवन करने से लाभ होता है।
•बड़ी हरड़ का छिलका 10 ग्राम, बायविंडग 10 ग्राम, कालानमक 10 ग्राम को बराबर मात्रा में बारीक पीसकर चूर्ण बनाकर रख लें। 2 ग्राम चूर्ण को दिन में 2 बार सुबह और शाम गर्म पानी के साथ पीने से पेट के कीडे़ समाप्त हो जाते हैं।
•बड़ी हरड़ को पानी में घिसकर उसमें सुहागा का फूल मिलाकर खुराक के रूप में देने से बच्चों के अजीर्ण (पुरानी कब्ज) रोग में लाभ होता है और पेट के कीड़े मर जाते हैं।
61. सभी प्रकार के दर्द: हरड़, बहेड़ा, आंवला और राई को बराबर मात्रा में पीसकर चूर्ण बना लें, फिर चूर्ण को 3 से 6 ग्राम की मात्रा में लेकर देशी घी और शहद के साथ चाटने से `आमशूल´ और अन्य कई प्रकार के रोगों से छुटकारा मिलता है।

62. स्तनों की गांठे (रसूली): बड़ी हरड़, छोटी पीपल और रोहितक की छाल को लेकर पकाकर काढ़ा बना लें, फिर इसी काढ़े में यवाक्षार 120 मिलीग्राम से लेकर 240 मिलीग्राम की मात्रा में सुबह और शाम पीने से स्तनों में होने वाली रसूली मिट जाती है।

63. वायु का गोला (गुल्म):

•हरड़ के चूर्ण को गुड़ में मिलाकर दूध के साथ सेवन करने से पित्त के कारण होने वाली गुल्म में लाभ होता है।
•बड़ी हरड़ का चूर्ण और अरण्डी के तेल को गाय के दूध में मिलाकर पीने से वात (वायु) गुल्म में लाभ होता है।
64. नाक के रोग: हरड़ का काढ़ा बनाकर नाक में डालने से पीनस (जुकाम) के रोग में आराम आ जाता है।

65. पेट में दर्द होना

•हरड़ का चूर्ण 3 ग्राम की मात्रा में गुनगुने पानी के साथ पीने से पेट की कब्ज के कारण होने वाले दर्द में लाभ होता है।
•छोटी हरड़ को पीसकर चूर्ण बनाकर रख लें, फिर 1 चुटकी की मात्रा में गर्म पानी के साथ मिलाकर पीयें।
•हरड़ का बारीक पिसा हुआ चूर्ण 1 चम्मच गर्म पानी के साथ फंकी के रूप में लेने से पेट के दर्द में लाभ होता है।
•6 ग्राम हरड़, बहेड़ा 6 ग्राम और राई को पीसकर पानी के साथ पीने से कब्ज के कारण होने वाले पेट के दर्द में लाभ होता है।
•काली (छोटी) हरड़ के चूर्ण में आधा चम्मच गुड़ मिलाकर प्रतिदिन सुबह खायें। इसे खाने के आधे घंटे के बाद पानी के साथ पीने से बहुत लाभ पहुंचता है।
•पिसी हुई हरड़ 1 चुटकी, आधा चुटकी पीपल में सेंधानमक मिलाकर सेवन करने से लाभ होता है।
•हरड़ को बारीक पीसकर बने चूर्ण को शहद के साथ चाटें।
66. गठिया रोग:

•60 ग्राम हरड़ का छिलका, 40 ग्राम मीठी सुरंज और 20 ग्राम सौंठ को कूट-छानकर चूर्ण बना लें। इस 3 ग्राम चूर्ण को रोजाना सुबह-शाम गर्म पानी के साथ लेने से गठिया रोग ठीक होता है।
•हरड़ और सोंठ 3-3 ग्राम की मात्रा में जल के साथ लेने से घुटनों के तेज दर्द में लाभ होता है।
•20 से 40 ग्राम हरीतकी (हरड़) का चूर्ण घी के साथ सुबह-शाम सेवन करने से ठण्ड के कारण उत्पन्न गठिया दूर होती है।
67. उपदंश: हरड़ का छिलका, आंवला 10-10 ग्राम सुहागा भुना 5 ग्राम पीसकर उपदंश के जख्मों पर छिड़कने से लाभ मिलेगा।

68. योनि संकोचन:

•बड़ी हरड़ का बीज और माजूफल को मिलाकर चूर्ण बनाकर योनि में रखें, फिर 20 मिनट के बाद संभोग करें। इससे योनि टाईट-सी लगती है।
•हरड़, धाय के फूल, बहेड़ा, आंवला, जामुन की छाल, लोहसार, घी और मुलहठी को एक साथ मिलाकर पीसकर चूर्ण बना लें। इसे थोड़े दिनों तक योनि पर लेप लगाने से योनि काफी सख्त हो जाती है।
69. चक्कर आना: एक हरड़ का मुरब्बा इसमें लगभग 3 ग्राम धनिया और लगभग 1 ग्राम छोटी इलायची को पीसकर सुबह और शाम को खाने से चक्कर आना बंद हो जाता है।

70. खाज-खुजली:

•चकबड़, हरड़ और कांजी को बराबर मात्रा में लेकर पीसकर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण को खुजली वाले स्थान पर लगाने से लाभ होता है।
•दूब, हरड़, सेंधानमक, चकबड़ और बनतुलसी को लेकर अच्छी तरह से पानी के साथ पीस लें। फिर इसे खुजली वाले स्थान पर लगाने से खुजली दूर हो जाती है।
•दो चम्मच पिसी हुई हरड़ को 2 गिलास पानी में उबालकर छान लें। इस पानी के अन्दर रूमाल को भिगोकर शरीर में जहां पर भी खुजली हो वहां पर उस स्थान को साफ करने से खुजली चलना दूर हो जाती है।
71. त्वचा के रोग:

•हरड़, दूध, सेंधानमक, चकबड़ और बनतुलसी को बराबर मात्रा में लेकर कांजी में मिलाकर पीस लें। इसे दाद, खाज और खुजली पर लगाने से लाभ होता है।
•हरड़ और चकबड़ को कांजी के साथ पीसकर लेप करने से दाद ठीक हो जाता है।
72. सिर चकराना: हरड़ को पीसकर इतनी ही मात्रा में गुड़ मिलाकर मटर के दाने के बराबर गोलियां बनाकर रख लें और रोज़ाना सुबह गर्मी के मौसम में नाश्ते के बाद दो गोली खाकर पानी पीयें। ऐसा करने से गर्मी से होने वाले रोगों से बचा जा सकता है।

73. विसर्प (छोटी-छोटी फुंसियों का दल बनना): हरड़, बहेड़ा, आंवला, पद्याख, खस, लाजवन्ती, कनेर की जड़ और अनन्त-मूल का लेप करने से कफज-विसर्प रोग ठीक हो जाता है।

74. हृदय रोग:

•हरीतकी फल मज्जा और वचा को बराबर मात्रा में मिलाकर चूर्ण बना लें। इस 1 ग्राम चूर्ण को 4 से 6 ग्राम शहद के साथ दिन में दो बार सुबह-शाम सेवन करें।
•हरीतकी फल मज्जा, वचा प्रकन्द, रास्ना मूल, शटी, पुश्करमूल, पिप्पलीफल व शुंठी बराबर लेकर बारीक पीसकर चूर्ण बना लें। यह चूर्ण 3 से 6 ग्राम की मात्रा में 100 से 250 मिलीलीटर दूध के साथ दिन में दो बार सेवन करें।
•हरीतकी फल मज्जा, त्रिवृत्, शटी, बला व पुश्कर मूल व शुंठी को  एक समान मात्रा में लेकर चूर्ण बना लें। इसकी 2 ये 4 ग्राम की मात्रा 7 से 14 मिलीलीटर गौमूत्र या 50 मिलीलिटर गर्म पानी के साथ दिन में दो बार लेना चाहिए।
•50 ग्राम हरीतकी फल मज्जा, 100 ग्राम कृष्णलवण, 500 ग्राम घी, 2 किलो पानी में तब तक धीमी आंच पर उबालें जब तक 500 ग्राम की मात्रा में शेष न रह जाये। इसे 12 से 24 ग्राम की मात्रा में 50 ग्राम शर्करा के साथ दिन में दो बार सेवन करना चाहिए।
75. गांठ (गिल्टी): हरड़, मुण्डी, कचनार की छाल और विजयसार का काढ़ा बराबर मात्रा में लेकर उसमें शहद मिलाकर पिलाने से गले की गांठों में लाभ होता है।

76. गुल्यवायु हिस्टीरिया:

•बड़ी हरड़ के चूर्ण और गुलकन्द को गर्म पानी के साथ देने से हिस्टीरिया रोग ठीक हो जाता है।
•बड़ी हरड़ और सनाय की पत्तियां लगभग 50-50 ग्राम और 15 ग्राम कालानमक को कूट-छानकर लगभग 10-12 ग्राम की मात्रा में इस चूर्ण को गर्म पानी के साथ रात को सोते समय देना चाहिए। इससे दस्त लग जाते हैं और गैस बनना बंद हो जाती है।
77. कुष्ठ: हरड़, बायविडंग सेंधानमक, बावची के बीज, सरसों, करंज और हल्दी को बराबर मात्रा में लेकर गाय के पेशाब के साथ मिलाकर पीस लें। इसको लगाने से कुष्ठ (कोढ़) रोग समाप्त हो जाता है।

78. नाखून के रोग: नाखून में खुजली उत्पन्न होने पर बड़ी हरड़ को सिरके में घिसकर प्रतिदिन 2 से 3 बार लेप करने से नाखूनों की खुजली दूर हो जाती है।

79. पीलिया रोग:

•हरड़ को गाय के मूत्र में पकाकर खाने से पीलिया रोग और सूजन मिट जाती है।
•बड़ी हरड़ का छिलका 100 ग्राम और 100 ग्राम मिश्री को मिलाकर चूर्ण बना लें। यह 6-6 ग्राम दवा सुबह-शाम ताजे पानी के साथ खाने से पीलिया मिट जाता है।
•बड़ी हरड़ पांच ग्राम को करेले के पत्तों के रस में घिसकर पीने से पाण्डु (पीलिया) रोग मिट जाता है।
•बड़ी हरड़ को गोमूत्र में भिगोकर फिर गोमूत्र में ही मिलाकर सेवन करने से कफज पाण्डु रोग दूर होता है।
•हरड़ की छाल, बहेड़े की छाल, आंवला, सोंठ, कालीमिर्च, पीपल, नागरमोथा, बायबिडंग, चित्रक। सब एक-एक चुटकी मात्रा में लेकर पीसकर मिला लें। इसकी चार खुराक बना लें। दिन भर में चारों खुराक शहद के साथ सेवन करें। इसी अनुपात में पन्द्रह दिन की दवा तैयार कर लें। यह प्रसिद्ध योग है।
•हरीतकी चूर्ण को गोमूत्र के साथ आधा चम्मच की मात्रा में लेना चाहिए।
80. दाद: चकबड़ और हरड़ को कांजी के साथ पीसकर दाद पर लगाने से दाद ठीक हो जाता है।

81. फीलपांव (गजचर्म): 5 ग्राम हरड़ के चूर्ण को घी में भूनकर गाय के पेशाब के साथ लेने से फीलपांव के रोगी को लाभ मिलता है।

82. कुष्ठ (कोढ़): छोटी हरड़ और समुद्रफेन खाने से कोढ़ का रोग समाप्त हो जाता है।

83. बच्चों का बुखार: 1 छोटी हरड़, 2 चुटकी आंवले का चूर्ण, 2 चुटकी हल्दी और नीम की 1 कली को एक साथ मिलाकर काढ़ा बना लें और बच्चे को पिला दें।

84. पसीने का अधिक आना: हरड़ को बारीक पीस लें। जहां पसीना अधिक आता हो, वहां पर इसकी मालिश करें। मालिश करने के बाद 10 मिनट बाद नहा लें। इससे ज्यादा पसीना आना बंद हो जाता है।

85. बालरोग (बच्चों के विभिन्न रोग):

•हरड़, बच और कूठ के चूर्ण को शहद में मिलाकर धुले हुए चावल या मां के दूध के साथ देने से तालुकंटक रोग शांत होता है।
•20 ग्राम अजवाइन, 20 ग्राम छोटी हरड़, 20 ग्राम सौंफ, 20 ग्राम पीपल, 20 ग्राम सोंठ, 20 ग्राम पांचों नमक, 20 ग्राम गोल मिर्च, 20 ग्राम नींबू का रस, 80 ग्राम आक (मदार) के फूलों की कली को लेकर पीस लें और कपड़े से छानकर बेर के बराबर गोली बनाकर सुबह और शाम को बच्चे को खिलाने से लाभ होता है।
•हरड़, बच तथा मीठा कूठ- इन्हें पानी में पीसकर लुगदी जैसा बना लें। फिर इसे शहद में मिलाकर मां के दूध के साथ मिलाकर पिलाने से `तालुकंटक´ रोग दूर हो जाता है। (इस रोग में बच्चे के मुंह का तालु नीचे की ओर लटक जाता है जिसके कारण बच्चा दूध नहीं पी पाता है)
•हरड़, बहेड़ा, आंवला, लोध्र, पुनर्नवा, अदरक, कटेरी, तथा कटाई को पीसकर पानी में मिलाकर गर्म करके हल्का-सा गर्म गर्म पलकों पर लेप करने से पलकों पर होने वाला दर्द, मवाद बहना और `कुकूणक´ रोग (बच्चों का अपनी आंखों को मसलते रहना) दूर हो जाता है।
•बच्चे को कब्ज हो तो बड़ी हरड़ (जो साधारण हरड़ से बहुत बड़ी होती है तथा जिसे लोग काबुली हरड़ भी कहते है) को जरा सा घिसकर उसके ऊपर कालानमक गर्म पानी में मिलाकर पिला दें।
86. सिर का दर्द:

•लगभग 10-10 ग्राम की बराबर मात्रा में हरड़, आंवला, बहेड़ा, सुगन्धवाला और सिर धोने की सज्जी को लेकर अलसी के तेल में मिलाकर गाढ़ा लेप बना लें। इस लेप को सिर में लगाने से सिर का दर्द दूर हो जाता है।
•10 बड़ी हरड़ लेकर उसकी छाल को निकालकर 3 दिन तक पानी में भिगोकर धूप में रख दें। चौथे दिन उसमें 11 हरड़ की छाल कूटकर डाल दें और 3 दिन तक फिर धूप में रहने दें। अब इसमें 500 ग्राम शक्कर मिलाकर शर्बत बनाकर पीने से सिर के दर्द के साथ ही साथ गर्मी के कारण होने वाली अन्य बीमारियां भी ठीक हो जाती हैं।
87. आग से जलने पर: हरड़ को पानी में पीसकर उसमें क्षारोदक और अलसी का तेल मिलाकर शरीर के जले हुए भाग पर लगाने से जख्म जल्दी भरकर ठीक हो जाता है।

88. शारीरिक सौन्दर्यता: खूबसूरत बनने के लिए हरड़ का हमारे जीवन में बहुत ही खास स्थान है। हरड़ की फंकी को गर्म पानी के साथ हर 3 दिन के बाद दो चम्मच रात को सोते समय लेने से शरीर के जहरीले पदार्थ बाहर निकल जाते हैं। हरड़ खुद ही रसायन वाला द्रव्य है जिससे शरीर में हर समय चुस्ती-फुर्ती बनी रहती है।

89. जलन और घाव: हरड़ को जलाकर बारीक पीस लें और वैसलीन में मिलाकर शरीर के जले हुए भागों पर लगायें। इससे जलन कम होती है और जख्म भी भर जाते हैं।

90. दीर्घजीवी या लम्बी उम्र : 40 किलो की मात्रा में हरड़, 4 किलो की मात्रा में गोखरू का पंचांग और लगभग 10 किलो की मात्रा में पंवाड़ के बीजों को अच्छी तरह से बारीक पीसकर इसका चूर्ण बना लें। इसके बाद इसमें लगभग 40 लीटर की मात्रा में भांगरे के रस को मिलाकर घोंटे, जब भांगरे का रस अच्छी तरह से मिल जाए तो इसमें लगभग 11 किलो की मात्रा में गुड़ मिलाकर बारीक घोट लें। इसके बाद इसमें 10 किलो की मात्रा में शहद लेकर थोड़ा-थोड़ा कर मिलायें। इस तैयार मिश्रण में से बड़े आकार के लड्डू बना लें। इन लड्डुओं को रोजाना एक-एक कर सुबह खाली पेट खायें। इन लड्डुओं को खाने से चेहरा लाल, चेहरे और बदन की झुर्रियां नष्ट होती है, बाल और आंखों की नज़र तेज हो जाती है। इसका सेवन लगभग एक वर्ष  तक करना चाहिए।

91. बलगम (कफ): हरीतकी चूर्ण सुबह-शाम काले नमक के साथ खाने से कफ खत्म हो जाता है।

92. नाड़ी का दर्द: नाड़ी में घाव होने पर निशोथ, काली निशोथ, त्रिफला, हल्दी तथा लोध्र बराबर मात्रा में लेकर बारीक पीसकर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण में इससे चार गुना घी और घी में चार गुना पानी मिलाकर अच्छी तरह से आग पर पकायें, जब केवल घी शेष बचे तो उसे उतारकर छान लें। इस तैयार मिश्रण को दूध में मिलाकर पीने से `पित्तज´ के कारण उत्पन्न नाड़ी का घाव ठीक हो जाता है।

93. स्तनों की घुण्डी का फटना: हरीतकी (हरड़) को पानी में पीसकर शहद के साथ मिलाकर स्तनों की जख्मी चूंची (घुण्डी) पर लगाने से जख्म जल्दी भरने लग जाते हैं।

94. कण्ठमाला: छोटी हरड़ को पीसकर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण को 4 ग्राम सोते समय लेने से आराम मिलता है।

95. शरीर को मजबूत बनाना: लगभग 100-100 ग्राम की मात्रा में हरड़ का छिलका और पिसा हुए आमला को लेकर इसमें 200 ग्राम की मात्रा में चीनी मिलाकर बारीक पीसकर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण को सुबह के समय लगभग 10 ग्राम की मात्रा में 250 मिलीलीटर हल्के गर्म दूध में एक चम्मच घी डालकर लेने से शरीर मजबूती होता है।

96. शरीर में सूजन:

•लगभग 50 मिलीलीटर हरड़ का काढ़ा और 5 ग्राम गुग्गुल के काढ़े को मिलाकर पीने से नाभि के नीचे के हिस्से (मूत्राशय) में होने वाली सूजन दूर हो जाती है।
•300 मिलीलीटर पानी में 5-5 ग्राम की मात्रा में हरड़ का छिलका, हल्दी, देवदारू, सोंठ, सांठी की जड़, चित्रक, गिलोय और भारंगी को मोटा-मोटा कूटकर रात्रि को सोते समय भिगोयें और सुबह उठकर इसे गर्म करें, फिर एक चौथाई पानी रहने पर इसे छानकर हल्का गर्म रोगी को पीने को दें। इसी प्रकार इस मिश्रण को सुबह 300 मिलीलीटर जल में भिगोकर शाम को उबालें, जब यह एक चौथाई शेष बचे तो हल्के गर्म पानी को पीने से पूरे शरीर की सूजन ठीक हो जाती है।
•लगभग 50-50 ग्राम की मात्रा में हरड़ के छिलके, सोंठ, पीपल और गुड़ को एक साथ लेकर पीस लें। इसे 10-10 ग्राम की मात्रा में सुबह और शाम को पानी के साथ लेने से सभी प्रकार की सूजन दूर हो जाती है।
97. गले की सूजन:

•छोटी हरड़ चूसने से गले के रोगों में काफी आराम मिलता है।
•हरड़ के काढ़े में शहद मिलाकर पीने से गले के सारे रोगों में आराम आता है।
98. श्लेष्मपित्त-

•बराबर मात्रा में हरड़, जवासा, धनिया, मुनक्का, चीनी और पीपल को लेकर इन सबको पीसकर इनका चूर्ण बनाकर रख लें और लगभग 3 या 4 ग्राम की मात्रा में इस चूर्ण को शहद के साथ श्लेश्म पित्त के रोगी को चटाने से लाभ मिलता है।
•पीली हरड़ को 25 ग्राम की मात्रा में और बहेड़े के चूर्ण को 50 ग्राम की मात्रा में मिलाकर चने के आकार की गोलियां बना लें, रोजाना सुबह ताजे जल के साथ एक गोली को लेने से सभी प्रकार के पित्त रोग खत्म हो जाते हैं।

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

चुनें अपने लिए फायदेमेंद साबुन Choose your beneficial soap


बाजार में उपलब्ध कई प्रकार के साबुन आपको भ्रमित भी करते हैं कि आखिर कौन-सा साबुन आपके लिए बेहतर होगा क्योंकि कोई भी एक साबुन ऐसा नहीं है जो हर स्किन टाइप को सूट करे। हरेक का स्किन टाइप अलग होता है और उन्हें अपने टाइप के अनुसार ही इनका चुनाव करना होता है।

ऑयली स्किन

त्वचा सीबम का निर्माण करती है जो कि एक नेचुरल ऑयल है। हरेक में इसके निर्माण की मात्रा में अंतर पाया जाता है। अत्यधिक एक्टिव सिबेशस ग्लैंड के कारण स्किन ऑयली हो जाती है और एक्ने की समस्या होती है। इस प्रकार की त्वचा वाले लोगों को नियमित रूप से अपने चेहरे को धोते रहना चाहिए लेकिन स्ट्रॉन्ग सोप का इस्तेमाल करने से बचें।

साबुन खरीदने से पहले उसके पैकेट पर लिखी सामग्री पढ़ना ना भूलें, जिसमें सी सॉल्ट, ओटमील, ब्राउन शुगर या पिच जैसी चीजें हों तो वह और भी फायदेमंद होगा। ये आपकी त्वचा पर जेंटल होंगे साथ ही अतिरिक्त ऑयल हट जाएगा। यदि स्किन अधिक सेंसिटिव न हो तो माइल्ड एक्सफोलिएट सोप का प्रयोग कर सकते हैं।

ड्राय स्किन

सीबम त्वचा के लिए अच्छा माना जाता है लेकिन इसका स्राव बहुत अधिक या बहुत कम नहीं होना चाहिए। यदि सीबम का निर्माण जरूरी सीमा से भी कम मात्रा में हो तो ड्राय त्वचा की शिकायत हो सकती है।

जब आप ड्राय स्किन के लिए सोप का सिलेक्शन कर रहे हों तो इस बात का ध्यान रखें कि उसमें त्वचा को नमी पहुंचाने वाले तत्व ना हों। ऐसा साबुन चुनें जिसमें ग्लिसरीन हो तो इस प्रकार की त्वचा के लिए काफी फायदेमंद होगा। यह नमी प्रदान करने वाला तत्व है।

नॉर्मल स्किन

यह कॉम्बिनेशन स्किन से उलट होती है। इस प्रकार की स्किन ना तो बहुत ड्राय होती है और ना ही बहुत ऑयली। आप ड्राय स्किन सोप भी इस्तेमाल ना करें और ना ही ऑयली स्किन सोप। आपके लिए हर्बल सोप फायदेमंद हो सकता है।

ऑल स्किन टाइप वाले रहें इस प्रकार के साबुन से दूर

    ऐसे साबुन जिसमें एसिड तत्व या पीएच वैल्यू काफी हाई हो।

    अत्यधिक कैमिकल वाले साबुन से भी बचना चाहिए।

    गोरापन दिलाने का वादा करने वाले साबुन से बचकर रहें। इसमें कैमिकल की मात्रा काफी अधिक हो सकती है।

    अत्यधिक खुशबू वाला साबुन लगाने से भी बचें।

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प्रीमैच्योर बेबीज को होती हैं कई परेशानियां(Baby)



गर्भावस्था का पूर्ण समय 37 हफ्तों का होता है और यदि इससे पहले बच्चे का जन्म हो रहा है तो वो प्रीमैच्योर कहलाते हैं। समय से पूर्व पैदा होने वाले बच्चों में सिर्फ समय का अंतर नहीं होता बल्कि उन्हें सेहत से जुड़ी कई सारी परेशानियां भी होती हैं। कई बार इस प्रकार पैदा हुए बच्चों को अधिक दिनों तक अस्पताल में रखने की जरूरत भी पड़ जाती है और इन्हें जीवनपर्यंत सेहत से जुड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

बच्चों के मस्तिष्क पर प्रभाव

प्रीमैच्योर बच्चे को लंबे समय तक शारीरिक और मानसिक विकास में परेशानी का सामना करना पड़ता है। मस्तिष्क से जुड़ी कई सारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है जैसे,

    शारीरिक विकास, सीखने की क्षमता

    दूसरों के साथ संवाद करने की कला

    खुद का ध्यान रखना

लंबे समय में होने वाली परेशानी ये हो सकती है

    व्यवहार से जुड़ी परेशानी, इसमें एडीएचडी या अटेंशन हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर जैसी परेशानी शामिल है और एंग्जाइटी।

    न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर जैसे सेरेब्रल पाल्सी, जो मस्तिष्क को प्रभावित करते हंै, स्पाइनल कॉर्ड और पूरे शरीर में नर्व्स से जुड़ी समस्या।

    ऑटिज्म, जो कई डिसऑर्डर का ग्रुप होता है, जिसका प्रभाव बच्चे के बोलने, सामाजिक क्षमताओं और व्यवहार पर पड़ता है।

फेफड़ों पर पड़ता है असर

समय से पूर्व पैदा हुए बच्चों को फेफड़ों और सांस से जुड़ी परेशानी होती है, जिसमें शामिल है :

    अस्थमा, सेहत से जुड़ी परेशानी जो सांस नली को प्रभावित करते हैं और सांस लेने में परेशानी होती है।

    ब्रोन्कोपल्मोनरी डिस्प्लेजिया नामक समस्या हो जाती है जो फेफड़ों से जुड़ी क्रॉनिक डिसीज है। इसकी वजह से फेफड़ों का आकार या तो असामान्य होता है या फिर उनमें सूजन होती है। समय के साथ फेफड़े ठीक हो जाते हैं लेकिन अस्थमा जैसे लक्षण जीवनभर नजर आते हैं।

ये परेशानियां हो सकती हैं

आंतों से जुड़ी परेशानी

आंत भोजन पचाने में आपकी मदद करते हैं। प्रीमैच्योर पैदा होने वाले बच्चों में कई बार आंतों से जुड़ी परेशानी होती है, कई बार आंत ब्लॉक होने तक की नौबत आ जाती है। यदि सर्जरी द्वारा आंतों के कुछ हिस्से निकाल दिए जाएं तो इससे भविष्य में भोजन से पोषक तत्व प्राप्त करने में परेशानी हो सकती है।

आंखों में परेशानी

रेटिनोपैथी ऑफ प्रीमैच्योरिटी के कारण बच्चों को देखने में परेशानी महसूस होती है। प्रीमैच्योर बच्चों में सामान्य बच्चों की तुलना में आंखों से

जुड़ी परेशानी अधिक होती है।

इन्फेक्शन का खतरा

प्रीमैच्योर बच्चों में इन्फेक्श्न का खतरा अधिक रहता है। इसमें निमोनिया, मेनिनजाइटिस जैसे इन्फेक्शन शामिल हैं।

सुनने में होती है समस्या

जो बच्चे समय से पूर्व पैदा होते हैं उनमें सुनने की क्षमता आम बच्चों की तुलना में अधिक प्रभावित होती है।

दांतों की समस्या

दांतों का अधिक उम्र में निकलना, दांतों के रंग में बदलाव या विकसित होने वाले दांत टूटे हुए या अपनी जगह से हटे हुए निकलते हैं।
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शुक्रवार, 27 मार्च 2015

पेट (abdominal diseases) की बीमारियों का अचूक उपाय है परवल, इसके हैं 7 फायदे


 परवल भारत के हर राज्य में सब्जी के तौर पर खाया जाता है। दिखने में यह कुंदरू की तरह होता है, लेकिन आकार में उससे थोड़ा बड़ा। बाजार में परवल लगभग सभी मौसम में बिकते हुए देखा जा सकता है। सब्जियों के तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाला परवल आदिवासियों के लिए किसी दवा से कम नहीं है। शहरी लोग इसके शायद इसके कई सारे औषधीय गुणों से वाकिफ नहीं हैं। इसकी सब्ज़ी और पत्ते भी बहुत फायदे करते हैं। इसमें पेट की कई बीमारियों का इलाज छिपा है। ये जल्दी चोट भी ठीक करता है।
तो चलिए आज जानते हैं किस तरह हिन्दुस्तानी आदिवासी परवल को अपनी हेल्थ की बेहतरी के लिए उपयोग में लाते हैं। परवल का वानस्पतिक नाम ट्रायकोसेन्थस डायोका है और इसे अंग्रेजी भाषा में पोईंटेड गोर्ड कहते हैं। अक्सर कई फलों और सब्जियों का अलग-अलग मौसम में सेवन करना ठीक नहीं माना जाता है, लेकिन सेहत के लिए उत्तम गुणों से भरपूर होने की वजह से आदिवासी परवल का साल भर सेवन करते हैं। हमारी सीरीज़ 'सेहत का खजाना' में आज हम परवल के बारे में जानेंगे।
परवल की सब्जी पेट की बीमारियों का अचूक उपाय
परवल की सब्जी खाने से पेट की सूजन दूर हो जाती है। जिन लोगों को पेट में अक्सर पानी भर जाने की शिकायत होती है, उनके लिए परवल वरदान है। आदिवासी हर्बल जानकारों के अनुसार परवल की सब्जी खाते रहने से पेट से जुड़ी कई प्रकार की समस्याओं में आराम मिलता है।

परवल और हरी धनिया से मर जाते हैं पेड़ के कीड़े
परवल और हरे धनिया की पत्तियों की समान मात्रा (20 ग्राम प्रत्येक) लेकर, उसे कुचलकर रात भर पानी में भिगोएं और सुबह इसे छानकर तीन हिस्से करके प्रत्येक हिस्से में थोड़ा-सा शहद डालकर दिन में 3 बार पीने से पेट के कीड़े मर जाते हैं।
परवल का जूस मोटापा करता है दूर
आदिवासी मानते हैं कि परवल के फलों का जूस तैयार कर लिया जाए और इसमें थोड़ी मात्रा में सौंफ और हींग का पिसा हुआ चूर्ण मिला लिया जाए और सेवन किया जाए, तो मोटापा दूर होने लगता है। परवल का ताजा तैयार जूस ताकत और ऊर्जा देता है।

परवल के रस का लेप सिरदर्द में फायदेमंद
सिरदर्द होने पर परवल के रस का लेप लगाना चाहिए। परवल को कुचलकर इसका रस निकालें और उसे माथे पर लगाएं। ज्यादा दर्द होने पर परवल की पत्तियों को तोड़कर उनका भी रस तैयार कर उपयोग में लाया जा सकता है। जड़ों का रस भी सिरदर्द में राहत दिलाता है।

घाव सूखाने में मददगार परवल के पत्ते
परवल के पत्तों को पीसकर इसका लेप मवाद युक्त फोड़ें- फुंसियों और घावों पर लगाने से वो जल्दी सूख जाते हैं। अगर शरीर में ज्यादा फोड़े-फुंसी हो जाएं, तो कम मसालों से तैयार की गई परवल की सब्जी को 15 दिनों तक लगातार खाने से काफी आराम मिलता है। आदिवासियों के अनुसार परवल खून साफ करने में बहुत कारगर होता है।

त्वचा के रोग मिटाने के लिए खाएं पका हुआ परवल
पातालकोट के आदिवासी मानते हैं कि पका हुआ परवल खाने से त्वचा के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं। मध्यभारत में आदिवासी परवल का अचार तैयार करते हैं। माना जाता है कि परवल का अचार स्वादिष्ट होने के साथ- साथ सेहत के लिए भी काफी फायदेमंद होता है।
परवल की जड़ों से साफ होता है पेट
अपच, कब्ज या अन्य किसी वजह से पेट की सफाई जरूरी हो, तो परवल की जड़ों को पानी में उबालकर एक गिलास पीने से पेट की सफाई हो जाती है। डांग- गुजरात के आदिवासियों के अनुसार इस फॉर्मूले का सेवन रात को सोने से पहले करना चाहिए।

नुस्खे, ये करेंगे तो सालों तक बूढ़े नहीं दिखेंगे




वर्तमान समय में अनियमित जीवन शैली, नींद की कमी, पर्यावरण में मौजूद रसायन, धूल के कण, प्रदूषण आदि की वजह से कई लोग समय से पहले ही बूढ़े दिखाई देने लगते हैं। त्वचा पर असमय झुर्रियां आना भी ऐसा ही एक लक्षण है, जो बुढ़ापे की तरफ इशारा करता है। जब ऐसा कम उम्र में होता है तो आईने के सामने जाने से भी डर लगने लगता है। साथ ही, आत्मविश्वास में जबरदस्त कमी आने लगती है। खाने में पोषक तत्वों की कमी, तैलीय और मिर्च युक्त खाद्य पदार्थों, ज्यादा चाय-कॉफी और एल्कोहल आदि के सेवन से भी यह समस्या हो सकती है।

भागदौड़ और तनाव भरे जीवन में लोगों का ध्यान परंपरागत हर्बल नुस्खों से दूर होता जा रहा है। आहिस्ता-आहिस्ता रसायनयुक्त घातक उत्पादों ने घर-घर तक अपनी पहुंच बना ली है। अब वक्त आ चुका है जब कि हमें अपनी जड़ों तक जाना होगा। हमें सदियों से चले आ रहे परंपरागत हर्बल ज्ञान अपनाने की कवायद शुरू करनी होगी।
इस लेख के जरिए हम कुछ चुनिंदा हर्बल नुस्खों का जिक्र करेंगे, जिनका उपयोग कर आप झुर्रियों से छुटकारा पा सकते हैं।

1. सेब को कुचल कर उसमें कुछ मात्रा में कच्चा दूध मिलाएं। इस पेस्ट को चेहरे पर लगाएं। जब सूख जाए तो इसे धो लें। ऐसा सप्ताह में कम से कम चार बार करें, बहुत जल्दी असर दिखाई देने लगेगा।
2. दो टमाटर पीस लें। पीसे हुए टमाटर में तीन चम्मच दही और दो चम्मच जौ का आटा मिलाएं। चेहरे पर इस मिश्रण को कम से कम 20 मिनट के लिए लगाकर रखें। यह त्वचा में कसाव लाता है, जिससे झुर्रियां कम होने लगती हैं। इस उपाय को सप्ताह में दो बार कम से कम एक माह तक उपयोग में लाना चाहिए।
3. रात सोने जाने से पहले संतरे के दो चम्मच रस में दो चम्मच शहद मिलाकर 20 मिनट तक लगाकर रखें। इसके बाद में साफ कॉटन को दूध में डुबोकर चेहरे की सफाई करें। यह नुस्खा नियमित रूप से अपनाएं, फायदा दिखने लगेगा।
4. बरगद की हवाई जड़ों में एंटी-ऑक्सीडेंट सबसे ज्यादा पाए जाते हैं। इसलिए ये जड़ें झुर्रियां दूर करने में बहुत उपयोगी हैं। हवा में तैरती ताजी जड़ों के सिरों को काटकर पानी में कुचल लें। इस रस का चेहरे पर लेप करें। झुर्रियां दूर होने लगेंगी।

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