सोमवार, 25 अप्रैल 2016

दुर्घटना तथा प्राकृतिक आपदाओं के समय प्राथमिक चिकित्सा


FIRST AID AT THE TIME OF ACCIDENTS AND NATURAL DISASTER

          आधुनिक युग में औद्योगिक विस्तार तथा शहरीकरण के कारण दुर्घटनाओं की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। गाड़ियों तथा मशीनों के संचालन से दुर्घटनाओं की संख्या में और भी वृद्धि हो गई है। कई बार बड़ी दुर्घटनाओं जैसे- रेल, हवाई जहाज तथा बसों के अलावा प्राकृतिक आपदाएं जैसे- आग लग जाना, भूकंप आ जाना, बाढ़ आ जाना, महामारी का प्रकोप या झगड़े में घायलों की संख्या बहुत बढ़ जाती है।

प्राथमिक सहायता के लिए सुविधाएं जुटाना- इन व्यवस्थाओं के लिए प्राथमिक चिकित्सा के प्रबन्ध बहुत लम्बे चौड़े मापदण्ड पर किए जायेंगे या जिनकी आवश्यकता है जैसा कि-

•स्कूलो, कालेजों तथा सार्वजनिक जगहों पर प्राथमिक सहायता डिब्बा, पट्टियों, खपच्चियों तथा स्ट्रेचरों की जरूरत।
•उपरोक्त जगहों पर सहायता देने के लिए प्राथमिक चिकित्सा प्रशिक्षित कर्मचारियों का प्रबन्ध जो व्यक्तियों या घायलों को अस्पताल भेजने से पहले प्राथमिक सहायता दे सकें।
•इन व्यक्तियों का समय-समय पर जीवन बचाने की विधियों, कृत्रिम-श्वास क्रिया तथा सी.पी.आर. का अभ्यास करवाने का प्रबन्ध।
•उपरोक्त जगहों पर नियुक्त व्यक्तियों को नियमानुसार प्रशिक्षण देना।
•अतिरिक्त स्थान बनाने के लिए कमरे या बरामदों को ध्यान में रखना।
•अतिशीघ्र प्रशिक्षित प्राथमिक चिकित्सकों को बुलाना तथा और अधिक व्यक्तियों का प्रबन्ध करना।
•उन व्यक्तियों के लिए भोजन तथा पानी का प्रबन्ध करना।
•कम्बल, चादर, तकिए आदि का इन्तजाम करना।
•गाड़ियों तथा एम्बूलेन्स को इकट्ठा करना।
•खपच्चियों तथा स्ट्रेचर की प्राप्ति तथा साधनकुशलता का प्रयोग करना।
•सम्भव हो तो छोटे-छोटे खानपान का प्रबन्ध।
•घायलों के लिए बिस्तर बनाना तथा उनके कपड़े बदलने का अभ्यास करवाना।

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

अचानक प्रसव होने की दशा में क्या करें What to do while sudden delivery




          अक्सर होता है कि गर्भ ठहरने के कुछ समय बाद स्त्रियां अपना नाम प्रसव कराने के लिए किसी अस्पताल या प्राइवेट नर्सिंग होम में दर्ज करा लेती है या फिर किसी दाई आदि से बात करके रखती है कि डाक्टर ने इस दिन की बच्चे के जन्म की तारीख दे रखी है। लेकिन कभी ऐसा हो कि अचानक ही प्रसव का दर्द उठने लगे या अस्पताल आदि ले जाने से पहले ही बच्चा पैदा होने लगे तो ऐसी हालत में घबराना नहीं चाहिए बल्कि तसल्ली से काम लेना चाहिए।

ऐसी अवस्था पैदा होने पर निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए और इस प्रकार से करना चाहिए-

•सबसे पहले एक बिस्तर का इंतजाम कर लेना चाहिए जो कि बिल्कुल भी गुदगुदा नहीं होना चाहिए। अगर जल्दबाजी में इस तरह का बिस्तर उपलब्ध न हो पाए तो जमीन पर चटाई आदि बिछा लेनी चाहिए। इस बिस्तर के ऊपर एक मोमजामा डालकर सफेद चादर बिछा लेनी चाहिए।
•इसके बाद गर्भवती स्त्री को पीठ के बल इस बिस्तर पर लेट जाना चाहिए और बिल्कुल भी नहीं घबराना चाहिए।
•गर्भवती स्त्री के पैर इस समय एक-दूसरे से अलग रहेंगें और उसके घुटने मुड़ें रहेंगें। जब प्रसव के दौरान बच्चे का सिर नजर आने लगे तो स्त्री को अपने पैरों को उठा लेना चाहिए। इस समय स्त्री द्वारा जोर लगाना जरूरी है लेकिन इसके लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है क्योंकि ऐसा स्वयं ही हो जाता है।
•अगर घर में डिटोल मौजूद हो तो उसे गर्भवती स्त्री के योनिद्वार पर लगा दें। इससे स्त्री को किसी तरह का इंफैक्शन होने की गुंजाइश नहीं रहती।
•बच्चे का जन्म होने के बाद उसे वहीं नीचे बिछाए हुए बिस्तर पर लिटा देना चाहिए। कभी-कभी नाल काफी छोटी होती है। आंवल जब तक बाहर न निकल आए तब तक बच्चे को ज्यादा दूर नहीं रखना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से नाल खिंचने का डर रहता है।
•अक्सर बच्चा पैदा होते ही रोना शुरू कर देता है। उसकी आंख, कान और मुंह तुरंत साफ करने चाहिए।
•बच्चे का सिर स्त्री के सामने नहीं होना चाहिए क्योंकि बच्चा पैदा होने के बाद स्राव तेज हो जाता है। ऐसी हालत में तेज स्राव से बच्चे को बचाना चाहिए।
•प्रसव कराने वाले कमरे में उबलता हुआ पानी तैयार रहना चाहिए और उस पानी में नाल काटने का सामान जैसे- एक कैंची और कई परतों में धागे के दो टुकड़े भी उबलते रहने चाहिए।
•ऊपरी सफाई करने के बाद बच्चे को तुरंत किसी कंबल या तौलिए से ढक देना चाहिए। मां के गर्भ का अंधेरा छोडकर बच्चा बाहर खुले में आ जाता है तो उसे यहां नितांत अलग तापमान का सामना करना पड़ता है। ऐसी हालत में उसकी सुरक्षा का पूरा प्रबंध करना चाहिए।
•अगर डाक्टर या नर्स या दाई आदि प्रसव कराने के लिए उपलब्ध न हो तो किसी चिमटी आदि से खौलते पानी में से धागे को पकड़कर निकाल लेना चाहिए। इसके बाद नाभि से लगभग 8 इंच की दूरी पर नाल को बांध लेना चाहिए। एक बात का ध्यान रखें कि नाल में दो जगह गांठ पड़ेगी, दूसरी गांठ आंवल की दिशा में पड़नी चाहिए। दोनों ही गांठें मजबूत और कसकर बंधी हुई होनी चाहिए।
•इसके बाद उबलते हुए पानी में से कैंची को निकालकर नाल काट लेनी चाहिए। एक बात का ध्यान रखें कि इन सारे कामों को करते समय बहुत ही सावधानी बरतनी चाहिए।
•नाल कटने के बाद बच्चे को अलग किया जा सकता है। इसके बाद आंवल निकलने का इंतजार कीजिए। आंवल को बाहर निकालते समय गंदे हाथों का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे संक्रमण होने का डर रहता है।
•आंवल के निकलने के बाद गर्भाशय ऊपर से गेंद की तरह उभरा हुआ नजर आता है। उसकी मालिश करनी चाहिए।
•इस समय अगर प्रसूता स्त्री की इच्छा किसी गर्म पेय पदार्थ पीने का करती है तो उसे हरीरा आदि पिलाया जा सकता है।

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प्रसव के बाद स्त्रियों के शरीर में हमेशा के लिए बदलाव Permanent changes in women body after delivery


          प्रसव अर्थात बच्चे के जन्म के बाद के बाद स्त्रियों के शरीर में कुछ बदलाव आना स्वाभाविक है। इन बदलावों के लिए अगर स्त्री अपने शरीर की शुरु से ही देखभाल करें तो यह बदलाव इतन कम होते हैं कि कोई स्त्री को देखकर यह बता ही नहीं सकता कि वह पहले कभी गर्भवती रह चुकी है। स्त्रियों के शरीर में छोटे-छोटे बदलाव निम्नलिखित है-

एनीमिया (खून की कमी)-

बच्चे को जन्म देने के बाद स्त्री के शरीर में रक्त की कमी होने के दो प्रमुख कारण होते हैं-

1. प्रसव के समय रक्त का अधिक मात्रा में निकल जाना।

2. स्त्री द्वारा गर्भावस्था में अपने रक्त की जांच न करवाना।

          गर्भावस्था का समय बढ़ने के साथ-साथ स्त्री को सन्तुलित आहार न मिलने के कारण उसके चेहरे पर कभी-कभी झाईंयां भी पड़ जाती हैं। ऐसी अवस्था में स्त्री को प्रसव के 3 महीने बाद तक लौह पदार्थयुक्त भोजन देना बहुत जरूरी होता है। इसके साथ ही उसे कैप्सूल, गोलियां या पीने की दवा भी सेवन के लिए दी जा सकती हैं।

प्रसव के बाद त्वचा में बदलाव-

          जिन स्त्रियों की त्वचा खुश्क होती है उनकी त्वचा बच्चे को जन्म देने के बाद और भी अधिक खुश्क हो जाती है। इसके लिए त्वचा पर किसी अच्छे तेल का प्रयोग करना चाहिए। जिन स्त्रियों का वजन अधिक होता है, उनके शरीर पर पके हुए लाल रंग के घाव दिखाई पड़ने लगते हैं। इस कारण अपने वजन को बढ़ने नहीं देना चाहिए।

वजन-ba

          गर्भावस्था के दौरान लगभग सभी स्त्रियों को वजन पहले से अधिक बढ़ जाता है। इस अवस्था में स्त्रियों का वजन 8 किलो से 12 किलो तक बढ़ता है, जिसमें शरीर पर चर्बी का जमाव, शरीर में अधिक पानी का जमाव, बच्चे, बच्चेदानी और एमनीओटिक द्रव का वजन प्रमुख होता है। प्रसव के बाद भी स्त्री का वजन अधिक बना रहता है। बच्चे के जन्म के 3 महीने तक यदि स्त्री लगातार अपने बच्चे को स्तनपान कराती है तो उसका बढ़ा हुआ वजन पहले जैसा हो जाता है। परन्तु अधिक चिकनाईयुक्त भोजन करने, मेवे आदि के सेवन के कारण स्त्री का वजन बढ़ता चला जाता है। यदि स्त्री व्यायाम आदि नहीं करती हैं तो भी उसका शरीर भारी और भद्दा दिखने लगता है।

          दूसरी ओर कुछ स्त्रियां अपने शरीर के आकार और सुन्दरता को बनाये रखने के लिए बच्चे को दूध पिलाना पसन्द नहीं करती हैं। इसके साथ ही वे भोजन भी कम मात्रा में करती हैं।

शौचक्रिया-

          प्रसव के बाद सामान्य तौर पर स्त्रियों को कब्ज की शिकायत रहती है। भोजन करने के तौर-तरीकों में बदलाव लाकर कब्ज की शिकायत हमेशा के लिए दूर की जा सकती है। कब्ज को दूर करने के लिए ईसबगोल की भूसी या गोलियों का सेवन नहीं करना चाहिए क्योंकि आप जैसा अपनी आन्तों को देते रहेंगे, आन्ते वैसी ही बन जाएगी। अधिक मात्रा में तरल पदार्थों, हरी सब्जियां, दही, दाले तथा अन्य द्रवों का प्रयोग करने से कब्ज की शिकायत दूर हो जाती हैं।

प्रसव के बाद स्त्रियों के बाल-

          प्रसव के बाद बालों का टूटना, पतला होना, बालों का सफेद होना, बालों का न बढ़ना आम बात है। लेकिन प्रतिदिन बालों की अच्छी तरह से देख-भाल करने से बालों के यह सभी दोष दूर किये जा सकते हैं।

प्रसव के बाद स्त्रियों के दांतों की स्थिति-

          प्रसव के बाद स्त्री के दांतों की चमक में कमी आ जाती है। दांतों में दरारे पड़ना, दांतों में छेद हो जाना, मसूड़ों का सूजना व मवाद का आना आदि स्त्री के लिए प्रमुख समस्याएं होती है। इससे बचने के लिए गर्भावस्था में मसूड़ों की मालिश तथा दांतों को साफ रखना चाहिए। इससे दांतों के विकारों से छुटकारा मिलता है।

वेरीकोस धमनियां-

          स्त्री में गर्भावस्था के समय हर बार वेरीकोस धमनियां बनती है। लगातार गर्भावस्था के कारण यह काफी बढ़ जाती है तथा शरीर में हानि देती हैं। पैरों में वेरीकोस धमनियां ठीक होने में अधिक समय लगता है परन्तु फिर भी गुनगुने नमकीन पानी की सिंकाई, पैरों को सदैव ऊपर करके बैठना, सोते समय पैरों के नीचे तकिया रखकर सोना, शौच क्रिया के लिए अधिक देर तक न बैठना तथा अधिक देर तक खड़े रहने से लाभ होता है। वेरीकोस धमनियों का आपरेशन करके तथा इंजेक्शन द्वारा भी ठीक किया जा सकता है।

प्रसव के बाद शरीर की त्वचा पर दाग-

          गर्भावस्था में स्त्री के स्तन, पेट और जांघों की त्वचा खिंच जाती है। इस खिंचाव के कारण स्त्री के शरीर की त्वचा पर हल्के रंग के दाग दिखाई पड़ने लगते हैं। जिन स्त्रियों का वजन अधिक होता है या जिन स्त्रियों के दो बच्चे होते हैं, उन स्त्रियों के शरीर की त्वचा पर दाग बहुत अधिक मात्रा में दिखाई पड़ते हैं।

          प्रतिदिन व्यायाम और शरीर की मालिश करने से स्त्रियों का वजन नियन्त्रित रहता है। वजन नियन्त्रित होने से त्वचा पर दाग कम मात्रा में होते हैं। त्वचा के दाग-धब्बों को दूर करने के लिए प्लास्टिक सर्जरी भी की जा सकती है।

स्तनों में बदलाव-

          गर्भावस्था में लगातार हार्मोन्स में परिवर्तन के कारण स्त्रियों के स्तन भारी और लम्बे हो जाते हैं। इस अवस्था में अगर स्तनों की ठीक प्रकार से देखभाल न की जाए तो इनका आकार बदल जाता है। स्तन ढीले या लटक जाने पर दुबारा पहले जैसे नहीं हो पाते हैं। इसलिए स्तनों की सही तरीके से देखभाल करनी चाहिए।

          इससे स्तनों के निप्पल का रंग गहरा होना तथा उसके पास की त्वचा पर दाग का रंग हमेशा के लिए ठीक हो जाता है।

पैरों में बदलाव-

          अधिक शारीरिक थकान, देर तक खड़े होकर काम करना, ज्यादा दूरी तक पैदल चलना तथा ढके जूते पहनने के कारण स्त्री के पैर खराब हो जाते हैं। गर्भावस्था में शरीर के लिंगामेंट मांसपेशियों तथा दो हडि्डयों के बीच बांधने वाली नलिकाएं ढीली हो जाती है जिससे पैरों के आकार में बदलाव हो जाता है।

चाल में बदलाव-

          गर्भावस्था में हार्मोन्स के कारण तथा प्रसव के बाद हडि्डयों का आकार बदल जाता है। इस कारण स्त्री की चाल में भी परिवर्तन आ जाता है। इसकी वजह से उसकी कमर तथा कूल्हों में दर्द रहता है। इस दर्द से छुटकारा पाने के लिए प्रसव के बाद स्त्री को हल्का व्यायाम करने से लाभ मिलता है।

बवासीर-

          गर्भावस्था के समय स्त्रियों में बवासीर उभर आते हैं। वैसे तो यह साधारण बात है। प्रसव के समय यह बवासीर अधिक बढ़ जाते हैं लेकिन प्रसव के बाद धीरे-धीरे खुद ही कम भी हो जाते हैं। बवासीर के कारण स्त्री को उठने-बैठने तथा दैनिक कार्यों में अधिक दर्द तथा कष्ट होता है। यदि प्रसव के बाद भी बवासीर बना रहता है तो इसकी चिकित्सा शीघ्र ही करानी चाहिए। बवासीर की चिकित्सा इन्जैक्शन, ऑपरेशन, लेजर चिकित्सा तथा अधिक साफ-सफाई व दवाईयों द्वारा किया जा सकती है।

मूत्र की शिकायत-

          गर्भावस्था के बाद ज्यादातर स्त्रियों का अपने मूत्र पर से नियन्त्रण खो जाता है। खांसने या छींकने पर भी उनका मूत्र निकल जाता है। इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए स्त्रियों को रोजाना हल्के व्यायाम करने चाहिए।

पैरानियम-

          पैरानियम वहीं जगह है जहां प्रसव होने के बाद स्त्री को टांके लगाये जाते हैं। टांकों के दाग, मांसपेशियों का मोटापन और दर्द कुछ दिनों तक बना रहता है। धीरे-धीरे समय बीतने और व्यायाम करने पर टांकों का दर्द समाप्त हो जाता है। इसके बावजूद भी कुछ स्त्रियों को संभोग क्रिया के समय दर्द महसूस होता है। इस प्रकार की समस्या होने पर अपने डॉक्टर को तुरन्त दिखाना चाहिए।

          यदि बच्चे के जन्म के बाद स्त्री को टांके लगते हैं तो टांकों के निशान इसके किनारों पर देखे जा सकते हैं। योनि में बच्चे के जन्म के बाद घाव होने से छाले आदि देखे जा सकते हैं। इन घावों से पानी की तरह एक तरल पदार्थ रिस-रिसकर निकलता रहता है जिससे जलन और सूजन भी होती है।

बच्चेदानी-

          प्रसव के बाद स्त्री की बच्चेदानी भी पहले की तुलना में बड़ी और मोटी हो जाती है। प्रथम मासिक स्राव होने के समय अधिक रक्त निकलता है। इसी तरह लगभग 6 महीने तक अधिक रक्तस्राव तथा अधिक समय तक मासिक स्राव होने के कारण धीरे-धीरे बच्चेदानी का आकार सामान्य हो जाता है। यह हार्मोन्स के बदलाव के कारण होता है। कुछ स्त्रियों को मासिकस्राव के समय कुछ दर्द होता है तथा कुछ स्त्रियों में दर्द नहीं होता है।

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गर्भावस्था के दौरान होने वाली सामान्य तकलीफें और समाधान

गर्भावस्था के दौरान होने वाली सामान्य तकलीफें और समाधान

वेरीकोस वेन-
        स्त्रियों में गर्भावस्था से पहले और कभी-कभी गर्भावस्था के बाद पैरों में नीले रंग की बड़ी-बड़ी नसें दिखाई पड़ने लगती हैं। इन्हीं को ’वेरीकोस वेन’ कहा जाता है।

        जैसे-जैसे गर्भावस्था का समय आगे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे स्त्री के शरीर के विभिन्न अंगों जैसे- स्तनों के निप्पल, एरीओला, योनि का बाहरी भाग तथा मलद्वार की त्वचा काली होने लगती है। इसके साथ ही साथ दोनों गालों तथा माथे के बीच के हिस्से की त्वचा पर काले दाग और झाईयां दिखाई पड़ने लगती है। इन्हें कोलास्मा कहते हैं। त्वचा के काले होने के कारण त्वचा के नीचे मेलेनिन नाम का पिगमेंट इकट्ठा होने लगता है। यह परिवर्तन शरीर में उत्तेजित द्रव के कारण होता है।

        गर्भावस्था में नाभि से नीचे एक काले रंग की लकीर दिखाई पड़ने लगती है जिसे लिनिया नाइग्रा कहते हैं। इस लाइन के दोनों तरफ त्वचा के नीचे वसा के कारण छोटी-छोटी चांदी के समान आकार की सफेद लाईन दिखाई पड़ने लगती है, जिसे स्ट्राइग्रबिडोरम कहते हैं। यह निशान पेट, स्तन और जांघों पर भी हो जाते हैं। प्रसव के बाद मांसपेशी के खिंचाव के कारण यह निशान शरीर पर हमेशा के लिए बन जाते हैं। स्त्रियों के शरीर में उत्तेजित द्रव ए.सी.टी.एच के बढ़ते ही शरीर में यह बदलाव होता है।

        गर्भावस्था में बड़ी-बड़ी नसें जैसे ईनफीरियर, विनाकावा, फिमोरल वेन, सैफनस वेन आदि पर दबाव पड़ने के कारण यह नसें दिखाई देने लगती हैं क्योंकि रक्त शरीर के ऊपरी भाग में सरलता से नहीं लौट पाता है। साथ ही साथ इन नसों के वाल्व भी कमजोर हो जाते हैं। इसमें रक्त और ऊपर की ओर आने की स्थिति में नहीं होता है। गर्भ के कारण रक्त को पैरों की मांसपेशियों में लौटते समय अधिक रुकावट होती है। इस रुकावट के कारण पैरों की नसें जो पतली दीवारों और त्वचा के पास होने के कारण शीघ्र ही दिखाई पड़ने लगती है, वैरीकोस नसें कहलाती हैं।

        ऐसी स्थिति में स्त्री को अधिक से अधिक आराम करना चाहिए। अधिक देर तक खडे़ नहीं होना चाहिए तथा अपने एक पैर को दूसरे पैर के ऊपर नहीं रखना चाहिए। सोते समय पैरों को थोड़ा सा ऊपर करके सोना चाहिए। कुर्सी पर बैठकर अपने पैरों को जमीन पर इधर-उधर चलाते रहना चाहिए जिससे पैरों की मांसपेशियों का व्यायाम हो सके।

        स्त्री की यह वेरीकोस नसें चूंकि हृदय से लगभग 12 मीटर दूर होती है। इस कारण उन पर अधिक रक्त का दबाव होता है। जिससे कारण कभी-कभी यह फूलकर त्वचा के बाहर उभर आती है। उभरने के साथ-साथ यह फैलती जाती है तथा कम स्थान होने के कारण टेढ़ी-मेढ़ी दिखाई पड़ती है और इनमें अधिक दर्द होता है। इन नसों में प्रत्येक 15 सेंटीमीटर की दूरी पर एक वाल्व होता है जो रक्त के भरने के कारण ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर पाता है। यह वाल्व आकार में छोटा तथा जोड़ों में होता है जो धमनियों की दीवार के आमने-सामने लगा होता है।

गर्भावस्था में बवासीर की शिकायत-

        गर्भावस्था का समय बीतने के साथ-साथ बच्चे के वजन, स्थान के कारण और बच्चेदानी के वजन के कारण कूल्हे की धमनियों पर दबाव पड़ता है। सभी धमनियों में रक्त इकट्ठा होना शुरू हो जाता है। धमनियां जो मलद्वार के पास होती हैं। उनके फैलने के कारण वह मोटी-मोटी दिखाई पड़ने लगती है। इसे ही बवासीर कहते हैं।

        बवासीर दो प्रकार की होती है। जो बवासीर मलद्वार के अन्दर की ओर होती है उसे अन्दर की बवासीर कहते हैं। जो बाहर की ओर होती है उसे बाहर की बवासीर कहतें है। बवासीर को हैमेराईड भी कहा जाता है।

बवासीर होने के कारण-

•कब्ज की शिकायत होने पर मलत्याग के समय स्त्री को अधिक जोर लगाना पड़ता है जिससे कारण बवासीर हो जाती है।
•बार-बार मलत्याग करने तथा मलत्याग के समय देर तक बैठने की आदत के कारण भी बवासीर की शिकायत हो जाती है।
•बवासीर के कारण स्त्री के शरीर की मांसपेशियां ढीली और कमजोर हो जाती है। जिस कारण शरीर में रक्त का संचार नहीं हो पाता है।
•परिवारिक माहौल होने के कारण स्त्री सही समय पर भोजन नहीं कर पाती हैं। सही समय पर भोजन का सेवन न करने के कारण उन्हें बवासीर की शिकायत हो जाती है।
•गर्भावस्था के दौरान बच्चे के सिर का दबाव रक्त की धमनियों पर पड़ता है जिसके कारण स्त्री बवासीर से पीड़ित हो जाती है।
•गर्भावस्था में बच्चेदानी के दबाव के कारण भी स्त्री को बवासीर की शिकायत हो जाती है।
•स्त्री के पेट की धमनियों पर बच्चे और बच्चेदानी का दबाव पड़ना भी बवासीर होने का प्रमुख कारण होता है।
        बवासीर जब शुरू होने को होती है तो स्त्री को अपने मलद्वार पर जलन और अधिक खुजली होती है। धीरे-धीरे यह धमनियां बढ़ती हैं तथा मांसपेशियों की सतह से लटकना शुरू कर देती हैं। यही बवासीर होती है। मलत्याग करने के बाद यह और अधिक फैल जाती है। यह इतनी बाहर निकल आती है कि इनको हाथों की अंगुलियों द्वारा धीरे-धीरे दबाकर अन्दर करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में ध्यान रखना चाहिए कि हाथों के नाखून इसमें न लगने पाये क्योंकि रक्त निकलने की आशंका होती है। कुछ बवासीर की नसों में रक्त का जमाव भी हो जाता है। इस प्रकार की बवासीर को रक्त वाली बवासीर कहते हैं। इसके पनपने के कारण स्त्री को बहुत अधिक दर्द होता है।

बवासीर की चिकित्सा-

        गर्भावस्था के दौरान कब्ज होने के कारण बवासीर हो जाती है। इस कारण कब्ज की चिकित्सा बहुत ही आवश्यक होती है। कब्ज की शिकायत होने पर भोजन को शीघ्र ही बदल देना चाहिए। बवासीर को गुनगुने पानी से धोकर मलहम का प्रयोग करना चाहिए। मलत्याग करने के बाद पानी में पोटैशियमपरमैगनेट को डालकर मलद्वार की सिंकाई करनी चाहिए और ट्यूब को हाथ में लगाकर उसे अन्दर की ओर धकेलना चाहिए।

        बवासीर से पीड़ित रोगी को शौचक्रिया में कम समय तक बैठना चाहिए। अधिक से अधिक आराम करने पर भी यह अन्दर चला जाता है। शरीर को बेहोश करने वाले इन्जेक्शन, अन्य दवाइयों के द्वारा या ऑपरेशन करके बवासीर का इलाज किया जाता है। गर्भावस्था में ऑपरेशन या इंजैक्शन की सहायता से बवासीर की चिकित्सा नहीं करना चाहिए क्योंकि यह मां और बच्चे दोनों के लिए हानिकारक होता है।

        साधारण बवासीर गर्भावस्था के बाद स्वयं ही ठीक हो जाती है। परन्तु ध्यान रखना चाहिए कि इस दौरान स्त्री का वजन सन्तुलित रहना चाहिए तथा सन्तुलित मात्रा और नियमित समय पर भोजन करना चाहिए।

गर्भावस्था में शरीर की मांसपेशियों में ऐंठन-

        महिलाओं के शरीर में कैल्शियम, विटामिन `बी`, `ई` तथा लवण आदि की कमी के कारण गर्भावस्था के अन्त में मांसपेशियों में ऐंठन होने लगती है। यह मुख्य रूप से दोनों पैरों में अधिक होती है। मांसपेशियों में ऐंठन के समय दोनों पैरों के अंगूठों को अन्दर की तरफ मोड़कर मांसपेशियों को दबाना और मोड़ना चाहिए तथा मांसपेशियों कर मालिश करनी चाहिए।

        स्त्रियों को भोजन में अधिक मात्रा में कैल्शियम, विटामिन, दूध तथा दूध से निर्मित पदार्थ, हरी पत्तेदार सब्जियां, सलाद, दालें आदि का अधिक मात्रा में उपयोग करना चाहिए। मांसपेशियों के ऐंठन होने पर नींबू पानी में नमक डालकर सेवन करने से लाभ मिलता है। हाई ब्लडप्रेशर होने की स्थिति में नमक का सेवन नहीं करना चाहिए तथा डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए।

        मांसपेशियों की ऐंठन को रोकने के लिए पैर को घुटनों और जोड़ों से कई बार मोड़ने का प्रयास करना चाहिए। इससे पैरों के जोड़ों से मांसपेशियों तक का पूर्ण व्यायाम हो जाता है। इसके अतिरिक्त एड़ियों के बल चलना, पंजों के बल चलना तथा पैरों के किनारों पर अधिक वजन देकर चलने से भी लाभ होता है। मांसपेशियों की ऐंठन की अवस्था में थोडे़ समय टहलना लाभकारी होता है।

गर्भावस्था के दौरान पूर्ण सांस ले पाना-

        जैसे-जैसे गर्भ में बच्चा बढ़ता जाता है वैसे-वैसे बच्चेदानी का आकार भी ऊपर की ओर बढ़ने लगता है। इससे फेफड़ों पर अधिक दबाव के कारण सांस पूर्ण रूप से बाहर नहीं आ पाती है। गर्भ में जुड़वां बच्चे होने पर स्त्री को सांस लेने में काफी परेशानी होती है। गर्भ में जुड़वां बच्चे होने पर जब स्त्री बैठी होती हैं तो उसे सांस लेने में अधिक रुकावट प्रतीत होती है। इसके लिए स्त्री को अधिक से अधिक विश्राम करना चाहिए। सांस लेने में परेशानी होने पर जमीन पर न बैठना, कन्धों को अधिक मोड़कर कार्य करना, वजन उठाकर चलना आदि कार्यों को नहीं करना चाहिए।

दिल की धड़कन बढ़ जाना-

        गर्भावस्था के दौरान दिल की तेज धड़कन स्वयं को महसूस होना, चलने, बोलने आदि में सांस और धड़कनों का अधिक हो जाना आम बात है। हृदय का प्रमुख कार्य ऑक्सीजन युक्त रक्त मां और बच्चे के शरीर को प्रदान करना होता है। इस कारण दिल की धड़कन बढ़ जाती है। अधिक कार्य करने से हृदय की मांसपेशियां भी बढ़ जाती है जिसके कारण हृदय को लगभग 35 प्रतिशत से 40 प्रतिशत अधिक कार्य करना पड़ता है।

चक्कर घबराहट और अधिक नींद का आना-

        स्त्रियों के शरीर में अच्छी प्रकार से ऑक्सीजनयुक्त रक्त न पहुंच पाने के कारण अधिक चक्कर, घबराहट आदि की शिकायत होना आम बात होती है। ऐसी स्त्रियों का ब्लडप्रेशर भी लो होता है। मस्तिष्क तक कम मात्रा में रक्त पहुंचने के कारण स्त्रियों को अधिक थकान, सुस्ती और अधिक नींद आती है। गर्भावस्था में प्रथम तीन महीनों में अक्सर स्त्री का ब्लडप्रेशर सामान्य ब्लडप्रेशर की तुलना में कम होता है। इस कारण स्त्री को चक्कर भी आ सकते हैं। इस कारण स्त्री कार्य करते समय गिर सकती हैं और उसके शरीर को हानि हो सकती है। ऐसी अवस्था में स्त्री को अधिक सावधानी बरतनी पड़ती है। लो ब्लडप्रेशर से मां और बच्चे के शरीर को कोई हानि नहीं होती है। खुली हवा में धीरे-धीरे घूमना चाहिए तथा अपने आप को दूषित वातावरण से दूर रखना चाहिए। लम्बी यात्रा अधिक थकान वाले कार्य या फिर काफी देर बैठना स्त्री के लिए हानिकारक हो सकता है।

खुजली और जलन-

        गर्भावस्था में स्त्री के शरीर पर खुजली और जलन आम बात होती है। इस प्रकार की खुजली स्त्री के पेट और कभी-कभी हाथ-पैरों पर भी हो जाती है। खुजली होने पर त्वचा में लाल रंग के दाने दिखाई पड़ने लगते हैं। जैसे-जैसे गर्भावस्था बढ़ती जाती है। त्वचा भी खिंचती जाती है। इसकी वजह से शरीर में जलन और खुजली होती है। इसको गर्भावस्था में एलर्जी कहते हैं। इस प्रकार की एलर्जी में नारियल का तेल, ऑलिव आयल या फिर कैलाड्रिल लोशन का प्रयोग किया जा सकता है। दो चम्मच ग्लिसरीन, दो चम्मच गुलाबजल और आधा चम्मच नींबू का रस मिलाकर त्वचा पर लगाने से त्वचा मुलायम हो जाती है और त्वचा की खुजली और जलन भी मिट जाती है।

        गर्भावस्था के दौरान स्त्री की योनि में जलन और खुजली अक्सर हो जाती है। योनि और कूल्हे की मांसपेशियों में अधिक रक्तसंचार होने के कारण छोटे से छोटे आम कीटाणु भी खुजली पैदा कर देते हैं। इस खुजली और जलन से गर्भ में बच्चे को कोई हानि नहीं होती है परन्तु स्त्री को अधिक कष्ट होता है। इस कष्ट से छुटकारा पाने के लिए गुनगुने पानी में एन्टीसेप्टिक दवा (डिटोल) की कुछ बूंदे डालकर स्त्री को अपने योनिद्वार को 3-4 बार अच्छी तरह से धो लेना चाहिए।

चप्पल, जूते और सैण्डल से पैरों में दर्द-

        ऊंची एड़ी वाली सैंडल आदि पहनने से पैरों और पिण्डलियों में दर्द होना स्त्रियों के लिए एक सामान्य बात है लेकिन गर्भावस्था में स्त्री को ऊंची एड़ी के सैंडल आदि का प्रयोग न करके सामान्य चप्पलों का प्रयोग करना चाहिए। इससे स्त्री के फिसलने और गिरने का डर नहीं रहता है। घर पर भी स्त्री के लिए बिना एड़ी वाले साधारण चप्पल ही अच्छी रहती है।

        पैर शरीर का वह अंग है जो हृदय से दूर है। इस कारण रक्त का संचार पैरों में देरी से पहुंचता है और देर से ही लौटता है। इस कारण पैरों का खास ख्याल रखना जरूरी होता है। पैरों में लगी हुई चोट काफी देर से भर पाती है। खासकर उन स्त्रियों में जिनका ब्लडप्रेशर हाई हो, जिन्हे मधुमेह हो या जिनके शरीर में विषैलापन हो।

        शरीर का सम्पूर्ण भार पैरों द्वारा ही वहन किया जाता है। गर्भावस्था में शरीर के लिंगामेंट और मांसपेशियां ढीली हो जाने के कारण पैर फैल जाते हैं। पैरों की हडि्डयों में 3 प्रकार की कमानियां होती है। दो कमानियां जो आगे से पीछे की ओर होती है तथा एक कमानी एक तरफ से दूसरी तरफ को होती है। जिनको आर्चेज कहते हैं। यदि यह अधिक फैल जाती है तो स्त्री के पैरों में हमेशा के लिए दर्द की शिकायत हो सकती है।

        पैरों की देखभाल के लिए नियमित रूप से गर्म पानी में नमक डालकर पैरों को साफ करके मालिश करनी चाहिए। गर्भावस्था में चलते समय छोटे-छोटे कदम रखकर ही चलना चाहिए।

नाक से सांस का न आना-

        गर्भावस्था में हार्मोन्स अधिक होने के कारण नाक के साईनस की दीवारों पर सूजन आ जाती है। यह सूजन म्यूकस मैमब्रेन में होती है। इसके कारण सांस लेने में कठिनाई हो जाती है। यह परेशानी गर्भावस्था के समय पूर्ण समय तक देखी गई है लेकिन बच्चे के जन्म के बाद यह शिकायत स्वयं ही दूर हो जाती है। इसके लिए लम्बी सांस का व्यायाम करना उचित होता है।

नाक से खून का निकलना-

        ब्लडप्रेशर अधिक होने के कारण कभी-कभी स्त्री की नाक से रक्तस्राव होने लगता है परन्तु यदि ब्लडप्रेशर ठीक हो और फिर भी नाक से रक्त आये तो इसका प्रमुख कारण नाक का दब जाना या हार्मोन्स के कारण नाक की दीवारों का रक्तसंचार बढ़ जाना होता है। कई बार तो नाक में उंगली डालने से भी नाक से खून निकलना शुरू हो जाता है। इसके लिए नाक में दवा की बूंदों या वैसलीन का प्रयोग किया जा सकता है।

कमर दर्द-

        आमतौर पर गर्भावस्था में स्त्रियों के शरीर का वजन बढ़ता चला जाता है जिसका प्रभाव स्त्री की मांसपेशियों और मुख्य रूप से कमर की हडि्डयों पर पड़ता है। स्त्री के शरीर में कमर दर्द होने का कारण कैल्शियम और प्रोटीन का कम मात्रा में होना है। इस कारण गर्भावस्था के दौरान स्त्री के भोजन में कैल्शियम तथा प्रोटीन की मात्रा अधिक होनी चाहिए और समय के अनुसार उसे हल्का व्यायाम करना चाहिए। शरीर का वजन सन्तुलित रखना चाहिए। स्त्री को गर्भावस्था के दौरान झुककर कार्य नहीं करना चाहिए। यह भी कमर दर्द का एक प्रमुख कारण होता है। शरीर का वजन दोनों पैरों पर एक समान मात्रा में रखना चाहिए तथा मांसपेशियों को खींचकर हल्का व्यायाम करना चाहिए। सोते या लेटते समय एक छोटा तकिया कमर के नीचे कुछ समय के लिए लगाया जा सकता है। इससे स्त्री को आराम और राहत मिलती है। स्त्री को सोते समय ढीले और सूती कपड़े पहनने चाहिए।

        जैसे-जैसे गर्भावस्था का समय बढ़ता जाता है वैसे-वैसे कूल्हे की हडि्डयों के लिंगामैंट (अस्थिबंध) (यह दो जोड़ों को बांधती है) स्वयं ही ढीली पड़ने लगते हैं। इसके कारण स्त्री के कूल्हों में दर्द होता है। इससे बचने के लिए स्त्री को अधिक से अधिक आराम करना चाहिए या फिर प्रतिदिन के कार्य के बीच में आराम करके कमर और कूल्हों को आराम देना चाहिए। कई बार दर्द कूल्हे की हडि्डयों से पैर के पीछे की ओर भी चला जाता है। इस अवस्था में अधिक से अधिक आराम तथा हल्के व्यायाम करने चाहिए।

स्तनों में दर्द-

        गर्भाशय में बच्चे का आकार बढ़ने से मां के पेट का आकार बढ़ना एक स्वाभाविक बात है। इस कारण 6 महीने के बाद स्तनों के नीचे और स्तनों में दर्द हो सकता है। पेट के अन्य अंगों जैसे- लीवर, पेट, आंतों आदि पर भी दबाव पड़ता है।

स्त्री के पेट और टांगों में दर्द-

        गर्भ में धीरे-धीरे बच्चे का विकास होता रहता है तथा कूल्हे की हडि्डयों के जोड़ भी मुलायम होते जाते हैं। जिससे प्रसव के समय बच्चे को अधिक स्थान मिल सके और हडि्डयां सरलता से पीछे की ओर ढकेली जा सके। इस कारण स्त्री के पेट और टांगों में दर्द होना स्वाभाविक होता है।

हाथ-पैर की अंगुलियों का सुन्न हो जाना और सूजन आना-

        गर्भावस्था में स्त्री के शरीर में रक्त का संचार कम हो जाता है। इस दौरान स्त्री का वजन बढ़ना भी स्वाभाविक होता है जिसकी वजह से उसके हाथ-पैरों में सूजन आ जाती है। यह सूजन शरीर में पानी की अधिक मात्रा के कारण होती है, इसको एड़िमा कहते हैं। इस एकत्रित द्रव के कारण नसों और मांसपेशियों पर दबाव पड़ता है, जिसकी वजह से हाथ-पैरों की अंगुलियां सुन्न हो जाती है। चूंकि रात्रि में द्रव इकट्ठा होता रहता है। इस कारण सुबह के समय शरीर में सूजन अधिक होती है। इसके बाद जैसे ही स्त्री किसी कार्य में लग जाती हैं वैसे ही उसकी सूजन कम होना शुरू हो जाती है। स्त्रियों के शरीर में यह सूजन चेहरे-हाथ-पैर तथा जोड़ों आदि में अधिक होती है। पहनने वाले कपडे़ चुस्त होने से या ब्लडप्रेशर हाई होने से भी सूजन अधिक होती है। इस कारण स्त्रियों को खाने में कम मात्रा में नमक और प्रोटीन युक्त पदार्थों का सेवन करना चाहिए। गर्भावस्था में अधिक देर तक बैठना, यात्रा करना या फिर देर तक खडे़ होना ठीक नहीं होता है। फिर भी सूजन में कमी न हो तो इसका कारण गुर्दे की कमजोरी हो सकती है। ऐसा होने पर डाक्टर की सलाह जरूर लेनी चाहिए।

कच्चे चावल मुल्तानी मिट्टी, कोयला, इमली या कच्चे आम खाने की इच्छा होना-

        गर्भावस्था के दौरान शरीर में कैल्शियम, प्रोटीन, लौह पदार्थ, विटामिन और लवण आदि की कमी के कारण अक्सर स्त्री ऐसे पदार्थों का सेवन करने लगती हैं जो शरीर के लिए हानिकारक होते हैं जैसे- मुल्तानी मिट्टी, कोयला, खट्टी चीजें, कच्चे चावल, इमली आदि। स्त्रियों की इस आदत को पाईका कहते हैं।

शरीर में थकान और दर्द-

        सन्तुलित भोजन, पूरी नींद तथा मानसिक शान्ति गर्भावस्था में स्त्री के शरीर के लिए लाभकारी होती है। खून की कमी होने के कारण शरीर में थकान और दर्द बना रहता है। इस स्थिति में स्त्री के लिए 9-10 घंटों की नींद लेना जरूरी होता है। यदि कोई स्त्री एकसाथ इतनी नींद न ले सके तो उसके लिए दोपहर को सोना भी जरूरी होता है।  इससे उसे अपने शरीर की अन्य तकलीफों से भी राहत मिलती है।

मानसिक अशान्ति का होना-

        गर्भावस्था के समय अधिक हार्मोन्स बनने के कारण स्त्री कभी तो अचानक खुश हो जाती है और कभी अचानक ही दुखी हो जाती है। इसलिए स्त्री को हमेशा शान्तचित्त रहना चाहिए और हर बात को समझदारी से समझना चाहिए।

नींद का कम आना-

        गर्भावस्था के दौरान शरीर में विभिन्न प्रकार के बदलाव, मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार की उलझनें तथा पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक चिन्ताओं के कारण स्त्री को रात के समय नींद नहीं आती है। इसके कारण स्त्री को अनिद्रा की शिकायत हो जाती है। ऐसी अवस्था में स्त्री को अपनी मानसिक परेशानियों और चिंताओं के बारे में अपने पति और घर वालों से बातें करनी चाहिए, जिससे उसका मन हल्का हो जाता है।

        रात में पेशाब करने के लिए बार-बार उठना भी गर्भावस्था में स्त्री के लिए सामान्य बात है लेकिन इससे स्त्री की नींद टूट जाती है और उसे दुबारा से नींद बहुत ही मुश्किल से आती है। इसलिए स्त्री को रात में सोने से पहले पेशाब कर लेना चाहिए और चाय-कॉफी आदि तरल पदार्थों का कम से कम मात्रा में उपयोग करना चाहिए।

        गर्म दूध, गर्म पानी की सिंकाई गुनगुने पानी में लाहौरी नमक से पैरों की पिण्डलियों की सिंकाई, तेल की हल्की मालिश करने से स्त्री को लाभ होता है और नींद भी अधिक आती है। दिन में योगा, व्यायाम तथा लम्बी सांस का अभ्यास करने से भी रात को अच्छी नींद आती है।

        यदि स्त्री को यह महसूस हो कि दिन में सोने से रात को पूरी नींद नहीं आती तो दिन में उसे केवल आराम ही करना चाहिए। लेटते समय दोनों करवटों से लेटते रहना चाहिए। कुछ समय सीधा लेटना भी लाभकारी होता है, इससे भोजन का शीघ्र पाचन होता है।

        गर्भावस्था के पहले 3 महीने में स्त्री में जी मिचलाना तथा उल्टी होना आदि विकार पैदा हो जाते हैं क्योंकि इस दौरान स्त्री के शरीर के हार्मोन्सों में बदलाव होता रहता है। इसके अगले 3 महीनों में मां को पेट में बच्चे की हलचल महसूस होने लगती है। इस कारण भी सोते समय मां की नींद टूट जाती है। गर्भावस्था के समय जैसे-जैसे समय व्यतीत होता जाता है वैसे-वैसे स्त्री के पेट के आकार में वृद्धि होती है। इसके अलावा स्त्री में मूत्र का अधिक आना, सांस लेने में कठिनाई होना, पेट में तकलीफ होना, बार-बार भूख का लगना, दस्तों का लगना, खुजली, थकान, दर्द आदि तकलीफें होने लगती है। इसके कारण स्त्री की नींद पूरी नहीं हो पाती है जो मस्तिष्क और नसों में थकान उत्पन्न करती है। इसलिए स्त्रियों को जब मस्तिष्क और नसों की कमजोरी होती है तो उसे रात में सपने आने लगते हैं।

        स्त्रियों को अपनी इस शिकायत को डाक्टर को दिखाना चाहिए। गर्भावस्था के प्रारम्भ में डाक्टर स्त्री को नींद की गोलियां नहीं देते हैं लेकिन इसके बाद हल्की नींद की दवाईयां सेवन करने के लिए देते हैं।

गर्भावस्था के दौरान सिर दर्द-

        गर्भावस्था की अवधि के दौरान शारीरिक परेशानी, पारिवारिक और मानसिक तनाव, गर्भावस्था की चिन्ताएं तथा ब्लडप्रेशर आदि कारणों से सिर दर्द हो सकता है। इसमें स्त्रियों के सिर में दर्द, आंखों के ऊपर दर्द, रोशनी से सिर दर्द, नज़र की कमजोरी आदि प्रमुख कारण होते हैं। हल्की दवा लेने से इनमें आराम आ जाता है। सिर दर्द को दूर करने के लिए नींद की दवा खाने से हानि हो सकती है।

पसलियों में दर्द-

        गर्भावस्था का समय बढ़ने के साथ-साथ बच्चेदानी का बढ़ना भी स्वाभाविक होता है। 32 से 36 सप्ताह में बच्चेदानी की ऊपरी सतह लगभग पसलियों के नीचे की सतह को दबाने लगती है जिसके कारण स्त्री के दाहिनी तरफ अधिक दर्द होता है क्योंकि बच्चेदानी दाहिनी तरफ अधिक बढ़ती है। कभी-कभी तो दर्द दोनों ओर ही बराबर बना रहता है। बैठने में दर्द, लेटने या चलने की तुलना में अधिक होता है।

        स्त्रियों को हमेशा अपने मूत्राशय को खाली करके रखना चाहिए जिससे बच्चेदानी का दबाव पसलियों पर कम बना रहे। जैसे ही बच्चे का सिर कूल्हे कि हडि्डयों में जाकर जमता है, दर्द स्वयं ही कम हो जाता है क्योंकि इस अवस्था में बच्चेदानी कुछ नीचे और आगे आ जाती है। परन्तु यह अवस्था स्त्रियों में गर्भावस्था के 36 सप्ताह के बाद आती है। दूसरी या तीसरी गर्भावस्था में इस प्रकार का दर्द स्वयं ही कम हो जाता है।

गर्भावस्था के दौरान यात्रा-

        यदि स्त्री का स्वास्थ्य तथा गर्भावस्था ठीक हो वह सामान्य यात्रा कर सकती है। यात्रा करने के लिए सबसे उपयुक्त और सुरक्षित साधन ट्रेन ही होता है क्योंकि गर्भवती स्त्री पैरों को ऊपर करके बैठ सकती है या स्थान मिलने पर लेट सकती हैं। जहां तक बस के द्वारा यात्रा करने का प्रश्न है, इसमें अचानक शरीर को झटका लगने की संभावना होती है तथा पैर को लटकाकर बैठना पड़ता है, जिससे पैरों में सूजन होना स्वाभाविक होता है। हवाई जहाज से यात्रा करने पर गर्भवती स्त्री को उल्टियां भी हो सकती हैं या हृदय भी खराब हो सकता है। रिक्शा या आटो रिक्शा में बैठने से पहले उसे धीरे से चलने के लिए कहना चाहिए। यदि किसी स्त्री का एक बार गर्भपात हो चुका हो तो उस स्त्री को जहां तक हो सके यात्रा नहीं करनी चाहिए।

पैदल चलना और घूमना-

        गर्भावस्था का सबसे अच्छा व्यायाम पैदल चलना, घूमना तथा खुली हवा में लम्बी सांस लेना होता है। इस दौरान धीरे-धीरे चलना, घूमना और व्यायाम करना चाहिए। तेज चलने या अधिक चलने की वजह से होने वाली थकान गर्भवती स्त्रियों के लिए हानिकारक हो सकती है। टहलते समय स्त्रियों को ऊंची एड़ी वाली सैण्डिलों को नहीं पहनना चाहिए।

गर्भावस्था में दवा का उपयोग-

        बिना अपने डाक्टर की राय लिए कोई भी दवा यदि गर्भवती स्त्री सेवन करती हैं तो यह उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकती है।

गर्भावस्था के दौरान धूम्रपान-

        गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों के लिए धूम्रपान करना बहुत ही हानिकारक होता है। 4 महीने के गर्भ से ही इसका प्रभाव बच्चे पर पड़ना शुरू हो जाता है। इसके प्रयोग से शरीर और मस्तिष्क के विकास में रुकावट आने लगती है। जिसकी वजह से बच्चे की मांसपेशियां और शरीर की हडि्डयां भी कमजोर हो जाती है। यदि कोई स्त्री सिगरेट पीती है तो उसका होने वाला बच्चा कमजोर होता है क्योंकि सिगरेट के धुंए से स्त्री के शरीर में विटामिन `बी` की कमी हो जाती है जो बच्चे और मां दोनों के लिए हानिकारक होती है। सिगरेट के धुएं से मां और बच्चे के शरीर में ऑक्सीजन उचित मात्रा में नहीं पहुंच पाती है और सिगरेट के धुएं में निकोटिन और मोनोक्साइड होते हैं, जो एक प्रकार का जहर होता है। यह शरीर को बहुत अधिक हानि पहुंचाते हैं जिससे रक्त के लाल सेल नष्ट हो जाते हैं। कम ऑक्सीजन से बच्चे का संबन्ध जो ओवल द्वारा होता है वह छूटने लगता है, जिससे बच्चे का न बढ़ना, बच्चे के शरीर में जन्म से कमी होना, मस्तिष्क का अविकसित होना, बच्चे का पेट में मर जाना, समय से पहले बच्चे का होना, बच्चेदानी की झिल्लियों का फटना, बच्चे में कमजोरी का आना, रक्तस्राव या ब्लडप्रेशर का अधिक होना, बच्चे के कानों का रोग और बच्चे का ऊंचा सुनना, दौरों की शिकायत होना, मां के सांस रोग के कारण बच्चे में रोग या फिर गर्भपात भी हो सकता है।

        जिन स्त्रियों के पति एक ही कमरे में गर्भवती स्त्री के साथ सिगरेट पीते हैं। वे इसके धुएं से अपनी पत्नी और होने वाले बच्चे को बीमारी से ग्रस्त कर देते हैं।

गर्भावस्था में शराब का प्रयोग-

        जो स्त्रियां गर्भावस्था के दौरान शराब का सेवन करती है, उनके होने वाले बच्चे के शरीर में बचपन से ही शारीरिक बनावट में कमी आ सकती है जैसे- बच्चे के शरीर की नसों का कमजोर होना, शरीर का विकास न होना तथा बच्चे के दूध के सेवन में कमी आना, बच्चे द्वारा मां का दूध नहीं खींच पाना, बच्चे का वजन कम होना, मस्तिष्क की कमजोरी चेहरे की बनावट में कमजोरी तथा कभी-कभी बच्चे के ऊपर होंठ तथा तालु में दरारे होना आदि विभिन्न विकार हो सकते हैं।

गर्भावस्था के दौरान तम्बाकू का सेवन-

        इसके प्रयोग से बच्चे का कमजोर होना, बच्चे का वजन तथा कद छोटा होना मुख्य लक्षण सामने आते हैं। तम्बाकू के सेवन से गर्भ में पल रहे बच्चे को बहुत ही हानि होती है। तम्बाकू के सेवन से निकोटिन नामक विषैला पदार्थ मां और बच्चे के शरीर में एकत्रित हो जाता है, जिससे गर्भ में बच्चे के शरीर को रक्त कम मात्रा में मिलता है तथा ओवल का आकार बढ़ने लगता है। तम्बाकू के सेवन से बच्चे का जन्म समय से पहले हो जाता है तथा बच्चे के जन्म के बाद गर्भाशय से अधिक मात्रा में रक्तस्राव होता है।

साइकिल चलाना-

        आमतौर पर गर्भावस्था के दौरान साइकिल चलाने से स्त्री को कोई हानि नहीं होती है परन्तु गर्भावस्था के प्रारम्भ में साइकिल चलाते समय यदि स्त्री गिर जाएं तो इससे उसे रक्तस्राव हो सकता है। गिरने से गर्भाशय की एमनीओटिक थैली से एमनीओटिक द्रव भी बह सकता है जिसके कारण गर्भपात या बच्चे का जन्म समय से पहले भी हो सकता है। इसलिए गर्भावस्था के दौरान जहां तक हो सके साइकिल नहीं चलानी चाहिए।

वाहन चलाना-

        गर्भावस्था के दौरान घुड़सवारी करना और गाड़ी चलाना हानिकारक होता है। लेकिन जरूरत पड़ने पर गर्भवती स्त्री सावधानी पूर्वक सड़क के गड्ढों को बचाकर गाड़ी चला सकती हैं। इस बात का विशेष ध्यान रखें कि गाड़ी चलाते समय अचानक ब्रेक लगाने, टायर का पंचर होने से उत्पन्न झटकों के कारण गर्भवती स्त्री के पेट में चोट लग सकती है।

गर्भावस्था में चोट लगना या गिर जाना-

        गर्भावस्था के अन्तिम 3 महीनों में स्त्री अगर किसी कारण से का गिर जाती है तो यह मां और बच्चे दोनों के लिए हानिकारक हो सकता है। यदि स्त्री पेट के बल गिरती है तो उसे और अधिक हानि होती है। कूल्हे के बल, हाथ के बल या कंधे के बल गिरने से गर्भ में बच्चे को हानि होती है। पेट में कोई नुकीली वस्तु या अधिक चोट लगने से एमनीओटिक थैली का द्रव बह सकता है जिसके कारण स्त्री का गर्भपात या बच्चे का जन्म समय से पहले भी हो सकता है। गर्भावस्था के दौरान गिरने या चोट लगने पर शीघ्र ही डाक्टर को दिखाना चाहिए।

गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों का तैरना-

        तैरना स्वास्थ्य के लिए बहुत ही लाभकारी होता है। गर्भवती स्त्री साफ पानी में तैर सकती हैं। गन्दे पानी में तैरने से विभिन्न प्रकार की खाज-खुजली शरीर में हो जाती है। तैरते समय अधिक ऊंचाई से कूदना, देर तक पानी में तैरकर शरीर को थका डालना तथा अधिक ठण्डे पानी में तैरना गर्भवती महिलाओं के लिए हानिकारक हो सकता है।

गर्भवती स्त्रियों की छाती में जलन-

         गर्भावस्था के दौरान बच्चे के दबाव के कारण पेट में भोजन आने की मात्रा काफी कम हो जाती है। भोजन अधिक या सामान्य रूप से लेने के कारण कई बार भोजन स्त्री के गले में आने लगता है। कभी-कभी तेज मसलों और चिकनाईयुक्त भोजन या एसिडिटी के कारण स्त्री की छाती में जलन होने लगती है। इस कारण गर्भवती स्त्री को थोड़ी-थोड़ी मात्रा में कई बार भोजन करना चाहिए तथा भोजन को पचाने के लिए थोड़ा-बहुत टहलना भी चाहिए।

गर्भावस्था के दौरान पेट में गैस बनना-

        गर्भावस्था में आंतो पर बच्चे के दबाव और हार्मोन्स के कारण  स्त्री के पेट में गैस बनने लगती है। क्योंकि भोजन आंतों में धीरे-धीरे ही आगे बढ़ पाता है जिस कारण पेट में गैस बनने की प्रक्रिया स्वाभाविक है।

पतले दस्त-

        गर्भावस्था के दौरान अधिक मात्रा में भोजन, अधिक फल या मेवे आदि का सेवन करने से गर्भवती स्त्री को दस्त लगना शुरू हो जाते हैं। इसलिए गर्भवती स्त्री को हमेशा सन्तुलित मात्रा में ही भोजन का सेवन करना चाहिए। शरीर में ताकत पैदा करने वाली दवाईयों का अधिक मात्रा में सेवन, लौह पदार्थ या प्रोटीन की अधिकता से भी शरीर में दस्त होने शुरू हो जाते हैं। पतले दस्त के समय गर्भवती स्त्रियों को दही का सेवन करना चाहिए।

गर्भावस्था में उल्टी-

        गर्भावस्था में हार्मोन्स के कारण और बच्चे के दबाव के कारण स्त्री की आंतों में भोजन काफी समय तक बना रहता है। समय के अनुसार चूंकि भोजन पेट में आगे नहीं बढ़ पाता है, इस कारण पेट का फूलना, पेट में गैस का बनना, पाचन शक्ति का कमजोर होना, शरीर से पाचक द्रव अधिक मात्रा में निकलना, एसीडिटी का होना, भोजन से कम मात्रा में लाभदायक पदार्थों का शोषण होना, कब्ज की शिकायत होना प्रमुख हैं। इसके कारण स्त्रियों को उल्टी होती है या हृदय में विकार उत्पन्न होते हैं। यह एक सामान्य समस्या है। तेज खुशबू भी मन को खराब कर सकती है। स्त्रियों को गर्भावस्था के दौरान तले-भुने पदार्थ तथा चाय, कॉफी का सेवन हानिकारक होता है। भोजन को थोड़ा-थोड़ा सा करके खाना चाहिए तथा भोजन गर्म और मीठी चीजों को कम से कम मात्रा में उपयोग करना चाहिए।

        गर्भावस्था का समय बीतने के साथ-साथ उल्टी ठीक होने लगती है क्योंकि शरीर में हार्मोन्स की मात्रा गर्भावस्था के शुरू की तुलना में काफी कम होती है।

        तुलसी की चाय, बिना दूध की हरी चाय, नींबू वाली चाय, कोई टाफी या पिपरमेंट की गोलियां तथा एक छोटी इलायची के सेवन से उल्टी के बाद मन को शान्ति मिलती है।

        गर्भावस्था के दौरान कुछ स्त्रियों को उल्टियां अधिक आती है तथा लगभग 12 सप्ताह के बाद भी बनी रहती है। ऐसी अवस्था को हाईपरईमेसिस कहते हैं। अधिक उल्टियों के कारण स्त्री को भोजन बिल्कुल भी नहीं पच पाता है। ऐसी स्थिति में उसे ग्लूकोज को घोलकर धीरे-धीरे प्रयोग करना चाहिए या हॉस्पिटल में जाकर ग्लूकोज की बोतले लगवायी चाहिए। इसके लिए डॉक्टर की राय लेनी जरूरी होती है। अधिक उल्टियों से पेशाब में एसिड अधिक आता है। ऐसी स्थिति को किटोसिस कहते हैं।

मुंह में थूक अधिक आना-

        मुंह में थूक पैदा करने वाली ग्रन्थियों के अधिक कार्य करने से मुंह में अधिक थूक आने लगता है। कभी-कभी तो इतनी अधिक मात्रा में थूक आता है कि बातें करते समय यह मुंह से निकलने लगता है। इससे मुंह साफ करते-करते रूमाल भी गीला हो जाता है। गर्भावस्था का समय बीतने के साथ-साथ मुंह से थूक आना कम होने लगता है। मुंह में अधिक थूक आने का कोई प्रमुख कारण नहीं होता है।

बेहोशी का आना-

        गर्भावस्था में स्त्री का ब्लडप्रेशर लो हो जाता है। कभी-कभी स्त्री को चक्कर और बेहोशी सी महसूस होने लगती है। कुछ स्त्रियां तो बेहोशहोकर जमीन पर गिर जाती है। बेहोशी होने के प्रमुख कारण शरीर में रक्त की कमी का होना या बच्चेदानी में अधिक रक्त का होना होते हैं। इस कारण ऑक्सीजनयुक्त रक्त महिलाओं के शरीर में कम हो जाता है और स्त्री बेहोश हो जाती है। जैसे ही स्त्री का सिर जमीन पर आता है वैसे ही रक्त मस्तिष्क में पहुंचने लगता है और उसे होश आ जाता है। ज्यादा देर तक खड़े होने के कारण या फिर अधिक यात्रा के कारण भी रक्त मस्तिष्क तक कम मात्रा में पहुंच पाता है और स्त्री बेहोश हो जाती हैं।

        स्त्रियों को चक्कर आने पर तुरन्त बैठ जाना चाहिए तथा लम्बी-लम्बी सांस लेनी चाहिए ताकि अधिक से मात्रा में ऑक्सीजन उनके शरीर में प्रवेश कर सके। इससे उनका ब्लडप्रेशर भी सामान्य हो जाता है।

इन्टरट्रीगो-

        स्त्री के शरीर के मोड़ों और किनारे की त्वचा जब लाल हो जाती है तो यह अवस्था इन्टरट्रीगो कहलाती है। गर्भावस्था में शरीर भारी होने के कारण स्त्री के स्तनों और जांघों के बीच की त्वचा, पेट और टांगों के बीच तथा बगलों में यह अवस्था मुख्य रूप से पाई जाती है। अधिक पसीना आने के कारण या फिर साफ-सफाई की कमी के कारण यह रोग हो जाता है। इस कारण सफाई के साथ-साथ ढीले और सूखे कपड़े पहने तथा पाउडर आदि का उपयोग करें।

कब्ज का होना-

        गर्भावस्था के अन्तिम महीने में स्त्री को अधिकतर कब्ज की शिकायत हो जाती है। इसका मुख्य कारण बच्चे का आंतो पर दबाव होता है। इसी के साथ-साथ शरीर की मांसपेशियां भी ढीली हो जाती हैं। स्त्रियों के शरीर में से एक हार्मोन्स भी निकलता है (रिलैक्सीन) जिससे प्रसव के समय मांसपेशियां ढीली हो जाती है। इसी के कारण आंतों में भोजन समय अनुसार आगे नहीं बढ़ पाता तथा स्त्रियों को कब्ज की शिकायत हो जाती है। कब्ज के कारण ही बवासीर उत्पन्न होती है।

गर्भावस्था के दौरान मूत्र अधिक मात्रा में आना-

        गर्भावस्था में बच्चेदानी का दबाव मूत्राशय की थैली पर पड़ने के कारण कम मात्रा में ही पेशाब एकत्र हो पाता है। इस कारण स्त्रियों को बार-बार पेशाब करने जाना पड़ता है। इसका इलाज बच्चे के जन्म के बाद ही होता है या फिर स्त्री को कम मात्रा में द्रव पदार्थों का प्रयोग करना चाहिए।

पेशाब के रास्ते बीमारियों का होना-

        स्त्रियों में मूत्रद्वार, योनि और मलद्वार काफी पास-पास होते हैं। यदि स्त्रियां इन अंगों की अधिक मात्रा में साफ-सफाई नहीं रखती है तो उसे पेशाब के रास्ते विभिन्न रोग हो जाते हैं। स्त्रियों में पेशाब की नलिका पुरुष की नलिका की तुलना में छोटी होती है। इसी कारण इस द्वार से रोग पेशाब की थैली तक आसानी से चले जाते हैं। इस रोग को सिस्टाईटिस कहा जाता है।

        इस रोग में पेशाब करने पर स्त्री को दर्द और जलन होने लगती है तथा पेशाब का द्वार लाल और सूजने लगता है। स्त्रियों का पेशाब, पीले रंग का, जलनदार या फिर रक्त वाला भी आ सकता है। कभी-कभी गर्भावस्था में स्त्रियां मल त्यागने के बाद अपने अंगों को ठीक प्रकार से नहीं धो पाती हैं या धोते समय हाथ योनि या मूत्र द्वार पर लगने से बीमारियां स्वयं ही पैदा हो जाती हैं। इसलिए मलद्वार को सामने की ओर से न धोकर हमेशा पीछे की ओर से धोना चाहिए। यदि पीछे से मलद्वार को धोने के लिए आपका हाथ न पहुंच रहा हो तो यह कार्य सावधानी से करना चाहिए। मलद्वार को गर्म पानी से धोना और सिंकाई करना लाभकारी होता है।

        इसलिए रोग हो जाने पर डॉक्टर से सलाह लेकर चिकित्सा करनी चाहिए। पानी अधिक मात्रा में पिएं और खाने वाले सोडे को पानी में डालकर पिएं। ऐसी स्थिति में भोजन के रूप में दही की लस्सी तथा फलों के रस का सेवन करना अधिक लाभकारी होता है।

गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों का ब्लडप्रेशर-

        गर्भावस्था के दौरान स्त्री का अधिक वजन, पारिवारिक वातावरण में अशान्ति का होना, मानसिक परेशानियां तथा नींद ठीक प्रकार से न आने के कारण स्त्री का ब्लडप्रेशर अधिक हो जाता है। ब्लडप्रेशर अधिक होना गर्भावस्था में मां और बच्चे दोनों के लिए हानिकारक हो सकता है। इसके कारण गर्भ में बच्चे के शरीर का अविकसित रह जाना, बच्चे का गर्भ के अन्दर ही मर जाना तथा बच्चे के जन्म (डिलीवरी) में अधिक रक्तस्राव होता है। ऐसी स्थिति में स्त्री को अधिक से अधिक आराम , अपने वजन को सन्तुलित रखना, मस्तिष्क को शान्त रखना चाहिए तथा भोजन में नमक और चिकनाईयुक्त खाद्य-पदार्थों तथा सूखे मेवे जैसे (ड्राईफ्रूट्स) का कम से कम मात्रा में सेवन करना ही लाभकारी होता है।

        गर्भावस्था की अवधि के दौरान स्त्रियों को अपने वजन और ब्लडप्रेशर की जांच करवाते रहना चाहिए ताकि इलाज में सावधानी रखी जा सके। गर्भवती स्त्रियों का ब्लडप्रेशर सामान्य रूप में अधिक से अधिक 120 तथा कम से कम 70 होना चाहिए। यदि स्त्रियों में ब्लडप्रेशर अधिक से अधिक 140 तथा कम से कम 90 तक हो जाए तो शीघ्र ही इसका इलाज करवाना चाहिए। वरना यह हानिकारक हो सकता है। ऐसी स्थिति में कुछ स्त्री रोग विशेषज्ञ गर्भावस्था का समय पूरा होने से पहले ही करा देते हैं।

गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों की आंखों में लेन्स लगाना-

        गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों के शरीर में द्रव पदार्थ अधिक मात्रा में एकत्र होना शुरू हो जाता है। इसके कारण स्त्रियों के शरीर के विभिन्न अंगों जैसे- हाथ-पैर, चेहरे आंखों में भी सूजन आ जाती है। आंखों की सूजन के कारण आंखों में कान्टेक्ट लेंस सही प्रकार से नहीं लग पाते है और न ही उनकी कार्यक्षमता ही ठीक हो पाती है। गर्भावस्था के बाद जब स्त्रियों के शरीर में एकत्र हुआ द्रव धीरे-धीरे कम हो जाता है तो स्वयं ही लेंस ठीक स्थान ले लेते हैं तथा सूजन भी ठीक हो जाती है।

        स्त्रियों को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि जब भी वे डॉक्टर के पास जाए तो डॉक्टर को पहले ही बता देना चाहिए कि आप आंखों में लेंस लगाते हैं। क्योंकि कभी-कभी गर्भावस्था के दौरान डॉक्टर आपकी आंखों को देखता है। इस कारण कहीं चोट, कोई, घाव, या आपको आंख में अल्सर न हो जाए।

        ऑपरेशन के समय भी बेहोश करने वाले डॉक्टर को यह मालूम होना चाहिए कि आप आखों में लेंस लगाती हैं। ऑपरेशन के समय लेंस का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

गर्भावस्था के दौरान आंखों के सामने अंधेरा छाना-

          गर्भावस्था में स्त्री की आंखों के सामने अंधेरा होने लगता है या उसे ऐसा प्रतीत होता है कि कोई काले रंग की वस्तु एक ओर से दूसरी ओर को जा रही है। जब स्त्री अपनी निगाह को दूसरी ओर घुमाती हैं तो यह परछाईं और गेंद की आकृति कुछ समय के लिए दूर हो जाती है। थोड़ी देर बाद यह फिर दिखाई पड़ने लगती है। कुछ स्त्रियों में इसके कारण सिर दर्द होने लगता है। यह असामान्य रोग अधिक रक्तचाप के कारण होता है। इसलिए शीघ्र ही अपने डॉक्टर को दिखाना चाहिए। 

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गर्भावस्था के दौरान गर्भवती स्त्री की शारीरिक जांचे Some important tests/examinations


 गर्भावस्था के दौरान गर्भवती स्त्री की विभिन्न प्रकार की शारीरिक जांचे की जाती हैं जैसे-
पेट की जांच-
          पेट की जांच करने पर पेट पर कोई घाव, निशान, बच्चे का आकार, उसका पेट में स्थान, बच्चे का हिलना-डुलना, सिर का स्थान, गर्भाशय का आकार और समय के अनुरूप बढ़ने आदि की पूरी जानकारी मिलती है। गर्भवती स्त्री के पेट की जांच गर्भावस्था के दौरान कई बार की जाती है।

बच्चे के दिल की धड़कन की जांच-

          गर्भ में बच्चे के दिल की धड़कन स्टेथिस्कोप अथवा फीटल डौपलर द्वारा सुनी जा सकती है। फीटल डौपलर बिजली या बैटरी द्वारा चलने वाली एक छोटी सी मशीन होती है। इसको मां के पेट पर लगाकर गर्भाशय में पल रहे बच्चे की दिल की धड़कन को सुना जा सकता है। बच्चे का दिल एक मिनट में 120 से 160 बार तक धड़कता है।

गर्भवती महिलाओं के योनि की जांच-

          गर्भधारण के लगभग 37 सप्ताह बाद स्त्री की योनि की जांच की जाती है। योनि की जांच करके स्त्री रोग विशेषज्ञ निम्नलिखित बातों की जानकारी लेती हैं-

1. योनि की जांच करने से गर्भाशय में बच्चे के आकार और स्थान के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

2. कूल्हे की हडि्डयों के आकार और बनावट के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

3. गर्भावस्था का आकार, प्रकार और समय के अनुसार गर्भावस्था की स्थिति के बारे में जानकारी होती है।

4. गर्भाशय में कोई रसौली, सूजन या मांस आदि के होने के बारे में पता चलता है।

5. योनि और गर्भाशय में किसी रोग का होना।

नोट-  योनि की जांच बार-बार नहीं करानी चाहिए।

हाथ और पैरों की जांच-

          गर्भवती स्त्री में रक्त की कमी, सांस का रोग, हृदय का रोग, आदि के बारे में उसके हाथ और हाथ के नाखूनों द्वारा समझा जा सकता है। स्त्री घर में किस प्रकार का कार्य करती है यह भी हाथों से मालूम किया जा सकता है। हाथों और अंगुलियों में सूजन हो जाने पर, कई रोगों का विचार डॉक्टर के सामने आने लगता है। पैरों में वेरीकोस नलिकाएं और सूजन भी देखी जा सकती है।

गर्भवती स्त्री के रक्त की जांच-

          हीमोग्लोबिन रक्त का वह लाल भाग होता है जो शरीर में ऑक्सीजन को ले जाता है। यह मां और बच्चे दोनों के लिए आवश्यक होता है। इसकी कमी को एनीमिया कहते हैं, जिसके लिए डॉक्टर स्त्री को लौह युक्त दवाईयां देते हैं। इसकी जांच अवश्य ही करवानी चाहिए।

          हीमोग्लोबिन को ग्राम या प्रतिशत में जाना जाता है। शरीर में यह 14.7 ग्राम होने पर इसे हम 100 प्रतिशत कहते हैं। स्त्री के शरीर में यह 11 से 13 ग्राम होना जरूरी होता है जिससे स्त्री एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दे सकती है। यदि यह 11 ग्राम से कम होता है तो बच्चे को पूर्ण गर्भावस्था में कम रक्त और ऑक्सीजन मिलने के कारण जन्म लेने वाला बच्चा शारीरिक रूप से कमजोर और कम वजन का पैदा होता है।

गर्भवती स्त्री के ब्लड ग्रुप की जांच-

          स्त्री के ब्लड ग्रुप के बारे में भी जानकारी होना जरूरी होता है, जिससे प्रसव के समय रक्त की आवश्यकता पड़ने पर इसे उपलब्ध किया जा सके। साथ-साथ ही आर.एच फेक्टर भी करवाना चाहिए। रक्त को चार प्रमुख ग्रुपों में बांटा गया है- A, B, AB, O जो निगेटिव या पॉजिटिव होता है। निगेटिव होने पर बच्चे के जन्म लेते ही मां को एन.टी.डी. का टीका लगाया जाता है जिससे अगले होने वाले बच्चे को किसी तरह की हानि या स्त्री को गर्भपात न हो।

रुबेला और वायरल रोगों की जांच-

          रक्त द्वारा जर्मन मीजल्स रूबेला की जांच करवानी चाहिए। इस रोग के कारण भी बच्चे में कई दूसरे रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इसके साथ-साथ हैपीटाईटिस की भी जांच करवानी चाहिए।

वैनेरल डिजीज रिसर्च लैब्रोरेट्रीज-

          गर्भवती स्त्री में इसकी जांच कराने से वेनेरल रोग का पता चल जाता है। यह रोग संभोग क्रिया द्वारा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में जा सकता है जैसे- सिफलिस रोग। यह रोग पुरुषों से स्त्रियों को हो सकता है या फिर स्त्रियों से पुरुषों में हो सकता है। इसलिए गर्भधारण से पहले यह जरूरी होता है कि स्त्री या पुरुष में कोई इस रोग से पीड़ित तो नहीं है। इसलिए दोनों को ही इसकी जांच करवानी चाहिए। इस बीमारी में भी बच्चे का विकास ठीक प्रकार से नहीं होता है। इस जांच के लिए दोनों को अपने डॉक्टरों से परामर्श लेना चाहिए।

एल्फा फीटो प्रोटीन की जांच-

          स्त्रियों के रक्त द्वारा यह जांच की जाती है। इसका सही समय 16 से 18 सप्ताह का होता है। बच्चे के विकास में यदि कोई भी रुकावट होती है तो इस जांच से मालूम चल जाता है। यह प्रोटीन बच्चे के लीवर द्वारा बनता है तथा ओवल द्वारा मां के रक्त में आ जाता है। जांच के ठीक न आने पर दो सप्ताह के बाद दुबारा जांच करवाकर अपने डॉक्टर की राय अवश्य ले लेनी चाहिए।

एच.आई.वी (एड्स)-

          एच.आई.वी वायरस की जांच रक्त द्वारा करवायी जाती है। इस जांच से स्त्री या उसके होने वाले बच्चे को ही नहीं बल्कि डॉक्टरों और हॉस्पिटल के अन्य कर्मचारियों को भी लाभ होता है। एच.आई.वी का वायरस उन स्त्रियों में पाया जा सकता है जो एक से अधिक व्यक्तियों के साथ संभोग क्रिया करती हैं या उनके पति एक अधिक स्त्रियों के साथ यह क्रिया करते हों। दूषित रक्त और संक्रमित इंजेक्शन के प्रयोग से भी यह वायरस फैलता है।

गर्भावस्था में स्त्री के मूत्र की जांच-

          गर्भवती स्त्री के मूत्र की जांच एक आवश्यक जांच होती है। इसके द्वारा मुख्यत: प्रोटीन, ग्लूकोज या पस के बारे में जानकारी करते हैं। यदि मूत्र से संबंधित कोई रोग इस जांच में आ जाए तो उसका इलाज जल्द से जल्द कराना चाहिए तथा शूगर आदि को नहीं बढ़ने देना चाहिए। इसके लिए डॉक्टर की राय अवश्य ही लेनी चाहिए। इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि मूत्र को इकट्ठा करने के लिए आपका बर्तन या शीशी साफ होनी चाहिए और मूत्र के बीच की धार को ही जांच के लिए एकत्र करना चाहिए ताकि जांच के बाद सही रिपोर्ट आ सके।

अल्ट्रासाउन्ड-
          अल्ट्रासाउन्ड आवाज की वह तरंगे हैं जिनके द्वारा बच्चे की हडि्डयां और मांसपेशियां ठीक प्रकार से देखी जा सकती है। अल्ट्रासाउन्ड के समय स्त्री को अधिक से अधिक पानी पीना चाहिए ताकि उसका मूत्राशय पूर्ण रूप से भरा रहे। ऐसा करने से अल्ट्रासाउन्ड की रिपोर्ट पूरी तरह से ठीक आती है। इस जांच में पेट के निचले भाग पर एक चिकना द्रव भी लगाया जाता है तथा मशीन का प्रोब उस पर घुमाते हैं। इससे ध्वनि तरंगों द्वारा गर्भ में बच्चे का आकार, प्रकार, दिल की धड़कन व उसका कुछ हिलना-डुलना व अन्य क्रियाओं को टी.वी की स्क्रीन पर देखा जा सकता है। अल्ट्रासाउन्ड में द्रव का भाग कुछ अधिक गाढे़ रंग का तथा बच्चे का रूप जैसा आकार सफेद रंग का दिखाई पड़ता है जो चीज दिखने में जितनी ठोस होती है वह उतनी ही सफेद दिखाई पड़ती है। यह जांच गर्भावस्था में कई बार करवाई जा सकती है। इस जांच से मां और बच्चे कोई हानि नहीं होती है जबकि एक्स-रे द्वारा जांच करवाना मां और बच्चे दोनों के लिए हानिकारक होता है।

गर्भावस्था में अल्ट्रासाउन्ड की भूमिका-

1. अल्ट्रासाउन्ड द्वारा गर्भ मे पल रहे बच्चे की उम्र का पता लगाया जाता है।

2. गर्भ में बच्चे के विकास के बारे में जानकारी प्राप्त की जाती है।

 3. अल्ट्रासाउन्ड करने से बच्चे के शारीरिक आकार-प्रकार की जानकारी मिल सकती है।

 4. अल्ट्रासाउन्ड द्वारा बच्चे के शरीर की विभिन्न त्रुटियों, रूप और बनावट तथा अन्य रोगों के बारे में पता चलता है।

5. अल्ट्रासाउन्ड से बच्चे की हृदय की धड़कन के बारे में पता चलता है।

6. इसके द्वारा बच्चे के गुर्दे अथवा मस्तिष्क की कमियां तथा अन्य रोगों के बारे में पता चलता है।

7. अल्ट्रासाउन्ड द्वारा गर्भ में पल रहें जुड़वां बच्चे की जानकारी मिल सकती है।

8. अल्ट्रासाउन्ड से गर्भ में बच्चे का स्थान पता चलता है।

9. गर्भ में ओवल के स्थान के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

10. एमनीओटिक द्रव की मात्रा मालूम होती है।

11. जिगर और पित्त की थैली के रोगों की जानकारी मिलती है।

एम्नीयोसेनटैसिस-

          एम्नीयोसेनटैसिस की जांच सभी स्त्रियों के लिए अनिवार्य नहीं होती है। यह जांच लगभग 14-16 सप्ताह में की जाती है। इस जांच में स्त्री के पेट का अल्ट्रासाउन्ड करते हैं तथा उसकी देख-रेख से बच्चेदानी से एमनीओटिक द्रव सुई द्वारा बाहर निकाला जाता है। इस द्रव की जांच में फीटल सैल देखे जाते हैं। जिसके द्वारा बच्चे के शरीर की बनावट, रीढ़ की हडि्डयों की बनावट, मस्तिष्क रोग तथा अन्य रोगों की जानकारी ली जाती है। इस जांच में अल्ट्रासाउन्ड का प्रयोग आवश्यक होता है ताकि सुई ठीक स्थान पर डाली जा सके तथा ओवल या बच्चे को सुई न लगे।

          स्त्री में इस जांच से कुछ हानियां भी हो सकती हैं। कई बार सुई द्वारा बाहर का रोग गर्भाशय में प्रवेश कर सकता है। इसके लिए बहुत ही साफ-सफाई की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही इस जांच से स्त्री को गर्भपात भी हो सकता है। इसलिए इस जांच से पहले सभी पहलुओं पर ध्यान देना जरूरी होता है।

एमनिऔसिन्टैसिस के संकेत-

1. यदि स्त्री रोग विशेषज्ञ बच्चे में कोई कमी महसूस करें।

2. यदि पहले हुए बच्चे में कुछ शारीरिक कमी हो।

3. यदि परिवार के सभी बच्चे त्रुटिपूर्ण होते हों।

4. यदि स्त्री की आयु 35 वर्ष से अधिक हो।

          एमनिऔसिन्टैसिस या ए.एफ.पी. द्वारा अगर मालूम चले कि बच्चे में किसी प्रकार की शारीरिक त्रुटि है तो अच्छा होगा कि स्त्री को गर्भपात करा लेना चाहिए। रोगग्रस्त बच्चे को पालने से अच्छा गर्भपात करा लेना चाहिए। स्त्री को यदि गर्भावस्था के शुरू के 3-4 महीनों में खसरा, छोटी माता , या फिर सिफलिस आदि रोग हो भी तो गर्भपात करवा लेना चाहिए। गर्भपात उसी हॉस्पिटल में करवाना चाहिए जहां सभी सुविधाएं उपलब्ध हों।

कैरीओनिक विलस की जांच-

1. यदि स्त्री रोग विशेषज्ञ गर्भ में पल रहे बच्चे में कोई कमी महसूस करती हैं।

2. यदि परिवार में जन्म लेने वाले बच्चे की शारीरिक बनावट में कोई कमी हो।

3. अगर स्त्री ने इससे पहले भी कभी त्रुटिपूर्ण बच्चे को जन्म दिया हो।

4. अगर पति के परिवार में किसी त्रुटिपूर्ण बच्चे का जन्म हुआ हो।

टैटनेस का इंजैक्शन-

          गर्भावस्था के दौरान मां को टैटनेस का इंजैक्शन अवश्य देना चाहिए। यह इंजैक्शन मां और बच्चे दोनों की टेटनेस रोग से रक्षा करता है। यह इंजेक्शन दो या तीन बार लगाया जाता है। कुछ स्त्री रोग विशेषज्ञ यह इंजैक्शन गर्भावस्था के तीसरे, छठे और नौवें महीने में देते हैं और कुछ सातवें और आठवें महीने में देते हैं।

गर्भ में बच्चे का लिंग-

          जब स्त्री के अण्डे से पुरुष के शुक्राणु मिलते हैं तो सम्पूर्ण बच्चे का निर्माण होता है। उसमें स्त्री के अण्डे के 23 क्रोमोजोम्स और पुरुष के शुक्राणु के भी 23 क्रोमोजोम्स होते हैं। इस प्रकार 46 क्रोमोजोम्स मिलकर 23 जोडे़ बनाते हैं। स्त्री के सेक्स क्रोमोजोम्स `x` होते हैं तथा पुरुष के क्रोमोजोन्स `x` व `y` प्रकार के होते हैं। जब पुरुष के `x` स्त्री के `x` से मिलते हैं तो लड़की पैदा होती है। जिसे `x`, `x` कहते हैं। पुरुष का `y` जब स्त्री के `x` से मिलता है। तब `x`,`y` बनता है जिससे लड़के का जन्म होता है।

          कुछ डॉक्टरों के अनुसार गर्भ में बच्चे का लिंग स्त्री के भोजन से निर्धारित होता है। लगभग 80 प्रतिशत लोगों को इस कार्य में भोजन करने से सफलता प्राप्त हो सकती है। भोजन में अधिक स्टार्च, दूध , दूध से बनी चीजें, कम नमक तथा कैल्शियम की गोलियां खाने से लड़की पैदा होती है तथा अधिक नमक, मांस, फल तथा बहुत कम दूध व दूध से बनी चीजें तथा एक गोली पोटैशियम की खाने से लड़का पैदा होता है।

          कुछ विशेषज्ञ यह मानते हैं कि जिन व्यक्तियों में एक से अधिक स्त्रियों के साथ सेक्स क्रिया की लालसा होती है, उनमें लड़का पैदा होने की संभावना अधिक रहती है।

          कुछ लोगों के अनुसार यदि संभोग से पहले स्त्री अपनी योनि को सोडाबाइकार्बोनेट से धो लें तो लड़का पैदा होता है। इसके लिए एक चम्मच सोडाबाइकार्बोनेट लगभग आधा लीटर गुनगुने पानी में डालकर योनि को अन्दर तक धोने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसा करने के बाद सेक्स क्रिया करने से लड़के का जन्म होता है। दूसरी तरफ एक चम्मच सफेद सिरका तथा आधा चम्मच गुनगुने पानी से योनि को धोने के बाद सेक्स करने से लड़की पैदा होती है।

          कुछ लोगों के अनुसार गर्भ में बच्चे के लिंग का निर्धारण संभोग करने के समय पर निर्भर करता है। इस विचार में कहा जाता है कि अण्डे के बनते ही यदि संभोग 48 घंटे में किया जाए तो होने वाले बच्चा लड़का होता है। यदि 48 घंटे के बाद संभोग करते हैं तो लड़की पैदा होती है।

          उपयुक्त बात की सच्चाई को जानने के लिए अण्डे बनते ही 48 घंटे में तीन बार संभोग करें तथा पूरे माह गर्भ के ठहरने का इन्तजार करें। यदि गर्भ न रुका हो तो इसी प्रकार अगले महीने भी करना चाहिए। इससे इच्छानुसार बच्चे की प्राप्ति होती है। अण्डे बनने को स्त्रियां भलीभान्ति अल्ट्रासाउन्ड पर देखकर पता कर सकती हैं। स्त्रियों के शरीर के तापमान से भी यह मालूम किया जा सकता है कि उनके शरीर में अण्डे बन रहें हैं या नहीं बन रहे हैं क्योंकि स्त्रियों के शरीर का तापमान अण्डे बनने से पहले कम होता है तथा अण्डे बनने पर एक डिग्री बढ़ जाता है।

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मंगलवार, 29 सितंबर 2015

बालों में नारियल तेल फायदा न करे तो लगाएं अरंडी का तेल



अगर आप बालों में केवल नारियल या बादाम का तेल ही लगाती हैं और आपको फिर भी फायदा नहीं हो रहा है तो, अपना तेल बद डालिये। बालों को स्‍वस्‍थ रखने के लिये आप उनमें अरंडी का तेल लगा सकती हैं। अरंडी को अंग्रेजी में कैस्‍टर ऑइल भी बोलते हैं।

अगर आपके बाल रूखे हैं, उनमें रूसी है या फिर दो मुंहे हो गए हैं और शाइन पूरी तहर से खतम हो चुकी है तो, आपको अरंडी का तेल ही लगाना चाहिये। आप चाहें तो अरंडी के तेल में जैतून का तेल या अन्‍य तेल भी मिक्‍स कर सकती हैं।

अरंडी का तेल काफी पौष्‍टिक होता है, जिसमें मौजूदा तत्‍व बालों के अदंर तक समा कर उसे मजबूती प्रदान करते हैं। अगर आप चाहती हैं कि आपके बालों की सभी समस्‍याएं दूर हो जाएं तो अरंडी के तेल से एक बार एक्‍सपेरिमेंट करना ना भूलियेगा। अब आइये जानते हैं अंरडी के तेल को किस प्रकार से लगाया जा सकता है।


बालों की ग्रोथ बढाए

आरंडी तेल को जैतून या नारियल तेल के साथ मिक्‍स कर के लगाने से बालों की ग्रोथ होती है। इसे 3 से 8 घंटो के लिये हफ्ते में तीन बार लगाएं।

चमकदार बालों के लिये यह तेल बालों में प्राकृतिक कोटिंग कर के बालों को चमकीला और स्‍मूथ बनाता है। आप इसे गरम कर के सिर में लगा सकती हैं।

बालों का झड़ना रोके बालों को झड़ने से रोकने के लिये सिर पर 30 मिनट तक के लिये इस तेल से मसाज करें और फिर बालों को धो लें।
दो मुंहे बालों से बचाए इस तेल में विटामिन ई, ओमेगा 6 फैटी एसिड और जरुरी अमीनो एसिड पाए जाते हैं। यह तेल बालों को दो मुंहा होने से बचाता है। इसे लगाने के लिये थोड़े से जोजोबा ऑइल में इस तेल की थोड़ी सी मात्रा मिलाइये और नहाने से पहले बालों में लगाइये।

रूसी भगाए कैस्‍टर ऑइल में एंटी वाइरल, एंटी बैक्‍टीरियल और एंटी फंगल गुण होते हैं जिससे रूसी की समस्‍या दूर होती है। इस तेल को ऑलिव ऑइल तथा कुछ बूंद नींबू के रस के साथ मिला कर लगाएं। फिर उसके आधे घंटे के बाद नहा लें।

बालों में नमी बढाए अगर आपके बाल रूखे और फिजी हैं तो आपको आरंडी के तेल को गरम कर के सिर पर लगाना चाहिये। इससे आप के बाल मोटे भी हो जाएंगे।
प्राकृतिक कंडीशनर थोड़े से कैस्‍टर ऑइल को एलोवेरा जैल, शहद और नींबू के रस में मिलाइये। इसे बालों की जड़ों से शुरु कर के बालों के आखिर तक लगाइये। फिर 30 मिनट के बाद बालों को धो लीजिये।

सोमवार, 28 सितंबर 2015

बालों की सभी परेशानियों को दूर करे ये 3 आयुर्वेदिक तेल


 क्‍या आप जानते हैं कि हमारी दादी-नानी के बाल अभी तक इतने लंबे और मजबूत क्‍यूं हैं? ऐसा इसलिये क्‍योंकि वे अपने बालों को आयुर्वेदिक तेलों से मसाज किया करती थीं। गरम तेल से सिर को अच्‍छी प्रकार से मसाज करने पर आपके बालों में भी जान आ जाएगी। आयुर्वेदिक तेलों में आपको गुड़हल का तेल, तुलसी या फिर आवंले का तेल ही प्रयोग करना चाहिये। आज हम आपको बताएंगे कि इन सभी तेलों का प्रयोग कैसे करना है।
 अगर आप इन्‍हें भली प्रकार से रखेंगी तो यह तेल कई सालों तक चल सकते हैं। इन्‍हें एयर टाइट कंडेनर में ही रखें और सूरज की धूप ना पड़ने दें।
1 गुडहल तेल
 यह तेल बालों को पतला होने तथा झड़ने से रोकता है। इसे तैयार करने के लिये विधि पढ़ें - सामग्री- 3-4 गुड़हल के फूल, मुठ्ठीभर उसकी पत्‍तियां, 1 चम्‍मच मेथी दाना और नारियल तेल। विधि - गुड़हल और पत्‍तियों को मिक्‍सी में पीस कर पेस्‍ट बना कर एक बरतन में डालें। फिर उसमें नारियल तेल डाल कर गरम करें। इस पेस्‍ट को लगातार चलाती रहें। फिर इसमें मेथी दाना डाल कर कुछ सेकेंड गरम करें। आपका तेल तैयार है, इसका जब भी प्रयोग करें, हल्‍का सा गरम कर लें।

तुलसी तेल
बालों में चमक और जड़ से मजबूती प्रदान करने के लिये यह तेल लगाएं। सामग्री- तुलसी पावडर, नारियल तेल, पानी और मेथी दाना। विधि- 2 चम्‍मच तुलसी पावडर में थोड़ा सा पानी मिक्‍स कर के पेस्‍ट बनाएं। एक बरतन में नारियल तेल गरम करें, जब तेल में उबाल आने लगे तब उसमें तुलसी पेस्‍ट डालें। तेल को चलाती रहें। फिर इसमें मेथी के दाने डालें। जब हो जाए तब तेल को छान कर किसी शीशी में भर लें। तेल को हमेशा गरम कर के प्रयोग करना चाहिये।

 आंवला तेल [आमला और कडी पत्‍ते से बनाइये बालों को काला करने वाला तेल] बालों का झड़ना, असमय सफेद होना या फिर अन्‍य बालों की समस्‍याओं के लिये आंवले का तेल काफी लाभकारी है। इसे बनाने की विधि जानें- सामग्री- आंवला पावडर, नारियल तेल और पानी।
 विधि - एक बरतन में, आंवला पावउर और पानी मिक्‍स कर के 15 मिनट तक उबालें। आंच बंद करें और इस तेल को ठंडा होने दें।फिर इसे छान कर किनारे रखें। अब अलग से जरा सा आंवला पावडर ले कर थोड़ा सा पानी मिला कर पेस्‍ट बनाएं। अब एक दूसरे बरतन में, तैयार किया हुआ आंवले का पानी, नारियल तेल और पेस्‍ट मिलाएं। इसे आंच पर रखें और इसे तब तक उबालती रहें जब तक कि यह गाढ़ा पेस्‍ट ना बन जाए। इसे लगातार चलाना होता है। उसके बाद स्‍टोव बंद कर दें। अब आप इस तेल को हल्‍का ठंडा हो जाने के बाद सिर पर लगा सकती हैं।

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