सोमवार, 25 अप्रैल 2016

ड्रैसिंग और पट्टी DRESSING AND BANDAGE



          किसी भी तरह के घाव का उपचार करने में ड्रैसिंग का बहुत महत्व माना जाता है। घाव की ड्रैसिंग कर देने से उसमें संक्रमण होने की आशंका कम हो जाती है और उससे होने वाला रक्तस्राव नियंत्रित हो जाता है। ड्रैसिंग करने से घाव के और अधिक गहरा होने का खतरा कम हो जाता है तथा घाव जल्दी भर भी जाता है।

          उच्च कोटि की ड्रैसिंग का कीटाणुओं से मुक्त होना बहुत जरूरी है। अगर ड्रैसिंग में कीटाणु होंगे तो संक्रमण फैलने के अवसर अधिक बढ़ सकते हैं। ड्रैसिंग में रंध्र या छिद्र होने चाहिए, जिनसे घाव से निकलने वाले स्राव तथा पसीना आदि बाहर निकल सके।

          बाजार में ऐसी कीटाणु मुक्त ड्रैसिंग मिलती हैं जिसे आसानी से घाव पर चिपकाया जा सकता है। इसमें सूती कपड़े का अवशोषक (तरल पदार्थ को सोखने वाले) गॉज का एक पैड होता है, जिसे एक चिपकने वाले पदार्थ की मदद से घाव पर रखा जाता है। ऐसी ड्रैसिंग को घाव पर चिपकाने से पहले उस घाव के आसपास के क्षेत्र को पूरी तरह सुखा दिया जाता है। फिर ड्रैसिंग के सारे किनारों को मजबूती से दबा दिया जाता है।                             

         वैसे प्राथमिक उपचार में चिपकने वाली (एडहेसिव) ड्रैसिंग बहुत सही होती है लेकिन वह हर समय और हर जगह उपलब्ध नहीं होती। इसलिए कई बार प्राथमिक उपचारकर्ता को अन्य प्रकार की ड्रैसिंग, जैसे- रूमाल, कपड़े इत्यादि को भी ड्रैसिंग के रूप में इस्तेमाल करना पड़ता है।

          बाजार में ऐसी ड्रैसिंग भी मिलती है जो कीटाणु मुक्त तो होती है लेकिन चिपकने वाली नहीं। इसमें गॉज की परतों पर रूई की गद्दी लगी होती है और ये एक गोल रोलर पट्टी से बंधी होती है, जिससे वे अपने स्थान से खिसक नहीं पातीं। ये ड्रैसिंग एक सुरक्षात्मक आवरण में सील होती हैं। इस प्रकार की, पहले से तैयार कीटाणु मुक्त ड्रैसिंग, अलग-अलग आकारों में, कैमिस्ट की दुकान पर आसानी से मिल जाती हैं।

          आमतौर पर गंभीर घावों की ड्रैसिंग करने के लिए गॉज का इस्तेमाल किया जाता है। गॉज मुलायम होती है, उसे आसानी से मोड़ा जा सकता है और वह घावों से निकलने वाले रक्त आदि स्रावों को आसानी से सोख लेती है। वैसे तो यह ड्रैसिंग घाव पर चिपक जाती है लेकिन इससे रक्त के थक्के बनने में मदद मिलती है और घाव जल्दी ठीक हो जाता है। जब गॉज का उपयोग ड्रैसिंग की तरह किया जाता है तब उस पर रूई की एक-दो परतें रख दी जाती हैं।

          किसी भी तरह की दुर्घटना होने पर अगर दुर्घटनास्थल पर ड्रैसिंग का बंदोबस्त न हो पाए तो ऐसी स्थिति में प्राथमिक उपचार के दौरान घाव पर किसी भी साफ और मुलायम कपड़े का उपयोग किया जा सकता है। रूमाल ज्यादातर हर व्यक्ति के पास रहता है उसका भी उपयोग घाव पर किया जा सकता है लेकिन गॉज को घाव पर से खिसकने न देने के लिए उस पर पट्टी बांध देनी चाहिए।

घावों की ड्रैसिंग करते समय कुछ सावधानियां बरतनी जरूरी होती हैं जैसे-

•घाव की ड्रैसिंग करने से पहले अपने हाथों को साबुन से अच्छी तरह से धो लेना चाहिए।
•घाव को हाथ से या ड्रैसिंग के किसी ऐसे भाग से न छुएं, जो बाद में घाव के संपर्क में नहीं आएगा।
•घाव या ड्रैसिंग के ऊपर या आसपास खांसे नहीं क्योंकि इससे जीवाणु घाव अथवा ड्रैसिंग में जा सकते हैं।
•घाव को रूई की काफी मात्रा से ढक दें। यदि रूई ड्रैसिंग से कुछ बाहर निकली रहे तो अच्छा है। इन दोनों को घाव पर ठीक प्रकार रखने के लिए ऊपर से पट्टी बांध दें।
•अगर ड्रैसिंग घाव के साथ चिपक जाए तो उसे छुड़ाने की कोशिश न करें बल्कि उस हिस्से को कैंची से काट दें, जो आसानी से अलग हो सकता हो।
पट्टी बांधना (Bandaging)- चोट, मोच, हड्डी टूट जाना आदि की स्थिति में शरीर के क्षतिग्रस्त भागों पर पट्टी बांधने की जरूरत पड़ती है।

निम्नलिखित कारणों से भी पट्टी बांधी जा सकती है-

•घाव या चोट लगे अंग को संक्रमण (Infection) तथा बाहरी धूल आदि के दुष्प्रभाव से बचाने के लिए पट्टी की जाती है।
•खून को बहने से रोकने के लिए पट्टी की जाती है।
•शरीर के किसी भाग पर दबाव डालकर, वहां रक्त-संचालन की गति को धीमा करने के लिए पट्टी बांधी जाती है।
•शरीर के चोट खाये हुए किसी अंग या किसी भाग की पेशिय़ों तथा रक्तवाहिनी-नसों को सहारा देने के लिए पट्टी की जाती है।
•चोट खाये हुए भाग को हिलने-डुलने से रोकने के लिए पट्टी बांधी जाती है।
•सूजन तथा जोड़ की गति को कम करने के लिए पट्टी की जाती है।
•टूटी हुई या अपने स्थान से हट गई हड्डी को जोड़ने या सही स्थान पर बैठा देने के बाद, उसे दुबारा अपने स्थान से न हटने देने के लिए पट्टी की जाती है।
•अगर घाव की ‘ड्रैसिंग’ की गई हो या उस स्थान पर रूई, कपड़ा अथवा खपच्ची को रखा गया हो, तो उसे अपनी जगह से न हटने देने के लिए पट्टी बांधी जाती है।
•ठंडे या गर्म सेंक के लिए पट्टी बांधी जाती है।
नोट- घाव पर अच्छी तरह पट्टी तब तक नहीं बांधी जा सकती जब तक कि उसका पहले कई बार अभ्यास न कर लिया गया हो। इसलिए पट्टी बांधने की विधियों का अभ्यास पहले ही कर लेना चाहिए, ताकि जरूरत के समय पट्टी को ठीक तरह से बांधा जा सके।

पट्टियों की किस्में

पट्टियों के मुख्य दो भेद हैं-

•मरहम पट्टी।
•सामान्य पट्टी।
मरहम पट्टी- किसी चोट ग्रस्त अंग को ढकने के लिए जिन साधनों का उपयोग किया जाता है, उन्हें ‘मरहम पट्टी’ या ‘ड्रेसिंग’ कहा जाता है।

प्राथमिक उपचार करने के दौरान दो प्रकार की ‘ड्रेसिग’ प्रयोग में लाई जाती है-

•सूखी मरहम पट्टी।
•गीली मरहम पट्टी।
सूखी मरहम पट्टी- इसका उपयोग घाव की सुरक्षा, घाव को भरने में सहायता पहुंचाने तथा घाव पर इच्छित-दबाव डालने के लिए किया जाता है।

          इस प्रकार के घावों के लिए सबसे अधिक भरोसेमंद मरहम-पट्टी कीटाणु-रहित फलालेन का वह टुकड़ा होता है, जो सामान्य पट्टी के साथ सिला रहता है। इस प्रकार की मरहम-पट्टी मोमी कागज में बन्द करके लिफाफे में रखी जाती है। इसे एलोपैथिक की दवाईयां बेचने वाली दुकान से खरीदा जा सकता है। मरहम-पट्टी जिस लिफाफे के अंदर बन्द रहती है, उसके ऊपर उसको प्रयोग करने की विधि भी छपी रहती है।

          यदि उपरोक्त प्रकार की कीटाणु-रहित मरहम-पट्टी उपलब्ध न हो तो घाव को ढकने के लिए साफ फलालेन के कपड़े के एक टुकड़े को भी प्रयोग में लाया जा सकता है। दुर्घटना घटित होने के बाद अगर फलालेन का टुकड़ा भी उपलब्ध न हो तो उस समय साफ धुले हुए रूमाल या बिना छपे साफ तथा सफेद कागज के टुकड़े से भी काम चलाया जा सकता है, लेकिन कपड़े, रूमाल या कागज आदि का प्रयोग सिर्फ उतने ही समय तक के लिए किया जाना चाहिए, जब तक कि कीटाणु-रहित मरहम-पट्टी उपलब्ध न हो सके।

गीली मरहम पट्टी- यह पट्टी भी दो प्रकार की होती है।

•ठंडे सेंक वाली।
•गर्म सेंक वाली।
1- ठंडे सेंक वाली मरहम पट्टी- इस प्रकार की पट्टी को दर्द के समय आराम पहुंचाने, सूजन को कम करने या आन्तरिक रक्तस्राव को रोकने के लिए लिए प्रयोग में लाया जाता है।

          साफ रूमाल या फलालेन के टुकड़े की चार परत बनाकर ठंडे पानी में भिगोकर चोट-ग्रस्त अंग पर रखना ही इसकी विधि है। पट्टी को गीला तथा ठंडा बनाये रखने के लिए उसे समय-समय पर बदलते रहना भी जरूरी है।

2- गर्म सेंक वाली मरहम पट्टी- इस प्रकार की पट्टी का प्रयोग घाव के कारण होने वाले दर्द को कम करने के लिए किया जाता है। साफ रूमाल या फलालेन के टुकड़ों की चार परत बना कर, उसे गर्म पानी में भिगोने के बाद निचोड़ लें। इसके बाद उसे प्रभावित अंग पर रख दें। यह मरहम-पट्टी जितने ज्यादा समय तक गर्म रखी जा सके, उतने समय तक रखनी चाहिए।

जानकारी- प्राथमिक उपचार के दौरान मरहम पट्टी करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ठंडे सेंक वाली मरहम-पट्टी के अलावा गर्म सेंक वाली मरहम-पट्टी को चोट-ग्रस्त अंग पर ही रखा जाए, अगर पट्टी उस स्थान से बाहर निकली रहेगी, तो वह बाहरी त्वचा के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकती है।।

सामान्य पट्टियां-

सामान्य पट्टियां कई प्रकार की होती है जैसे-

•लम्बी पट्टियां।
•तिकोनी पट्टियां।
•बहुपुच्छी पट्टियां।
•चिपकने वाली पट्टियां।
लपेटी जाने वाली लम्बी पट्टियां- इन पट्टियों को मारकीन के कपड़े द्वारा इच्छित लम्बाई तथा चौड़ाई में तैयार कराया जा सकता है। ऐसी पट्टियों को तैयार कराने के बाद गोलाई में लपेटकर, सुरक्षित रख देना चाहिए, ताकि उनमें बाहरी गन्दगी, धूल, कीटाणु आदि का प्रवेश न हो तथा जरूरत के समय प्रयोग करने में भी सुविधा बनी रहे।

          कैमिस्ट की दुकानों पर भी इस प्रकार की पट्टियां मिलती हैं। ये पट्टियां कीटाणु-रहित जालीदार पतले कपड़े (Gauze) बोरिक-वस्त्र (Boric-Lint) फलालेन आदि से बनी होती है। ये पट्टियां सामान्यतः 5 मीटर लम्बी होती हैं तथा विभिन्न चौड़ाईयों में आती हैं। ये रोल में लिपटी होती हैं, इसलिए इन्हें ‘लुढकी-पट्टी’ भी कहा जाता है।

          इन पट्टियों को मशीन या हाथ से लपेटकर सख्त कर दिया जाता है। जब पट्टी के थोड़े भाग को लपेट दिया हो तथा कुछ भाग खुला हो, तब लिपटे हुए भाग को ‘सिरे वाला हिस्सा’ तथा बाकी भाग को ‘खुला हिस्सा’ कहा जाता है।

          इन पट्टियों का प्रयोग करने से पहले अपने हाथों को साबुन या किसी कीटाणु-नाशक घोल से धोकर साफ कर लेना चाहिए। साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पट्टी का प्रयोग करते समय आपकी श्वास-वायु उन पर सीधी न पड़े।

          प्रयोग करने के बाद जो पट्टी बाकी बचे, उसे कागज में लपेटकर, दुबारा इस्तेमाल करने के लिए सुरक्षित रख देना चाहिए।

          अचानक पड़ने वाली जरूरत के समय अगर बाजार में मिलने वाली या तैयार की गई पट्टियां उपलब्ध न हों तो घर के ही किसी बारीक, लेकिन साफ कपड़े को लम्बाई में फाड़कर भी पट्टी तैयार की जा सकती है। घरेलू कपड़ों से पट्टी तैयार करने के लिए सूती धोती या साड़ी का प्रयोग में लाना बहुत अच्छा रहता है। रेशमी या दूसरे किसी प्रकार के कपड़े की पट्टी का प्रयोग ठीक नहीं रहता है।

          धोती या साड़ी में से पट्टी निकालते समय उनके किनारे वाले भाग को छोड़ देना चाहिए।

          सामान्यतः कोहनी या भुजा पर बांधने के लिए ढाई इंच चौड़ी तथा पांच मीटर लम्बी पट्टी काफी रहती है। टांगों पर बांधी जाने वाली पट्टी की चौड़ाई तो ढाई इंच ही काफी रहेगी लेकिन उसकी लम्बाई आठ से दस मीटर होनी चाहिए। अगर एक ही पट्टी इतनी लम्बी न हो तो दो पट्टियों को जोड़कर उन्हें लम्बा बनाया जा सकता है।             

          पेट या छाती पर बांधने के लिए 5 इंच चौड़ी तथा 10-12 मीटर लम्बी पट्टी का होना जरूरी है। अगर लम्बाई के लिए दो पट्टियों को आपस में सुई-धागे से सीने की सुविधा न हो तो उस स्थिति में एक पट्टी के समाप्त हो जाने पर, उसी के ऊपर दूसरी पट्टी को लपेट देने के बाद पट्टी को आगे बांधना शुरू कर देना चाहिए। लेकिन दो पट्टियों को जोड़ने के लिए उनमें गांठ नहीं लगानी चाहिए क्योंकि इससे पीड़ित व्यक्ति को परेशानी हो सकती है तथा गांठ के कारण पट्टी के अपने स्थान से हट जाने की सम्भावना भी अधिक रहती है।

      लटकाने वाली तिकोनी पट्टी- बांह में चोट आ जाने पर उन्हें लटकाने के लिए इन पट्टियों का उपयोग किया जाता है। बांह की हड्डी के टूट जाने पर हाथ को पेट के या छाती के सहारे मुड़ा रखने की जरूरत होने पर या बांह, हथेली, अंगुली, अंगूठा आदि में कोई ऐसा जख्म हो जाने पर जिससे कि उसके नीचे लटकने पर खून अधिक निकलने की सम्भावना हो, तब उसे ऊंची रखने के लिए भी इस पट्टी का प्रयोग किया जाता है। अंग्रेजी में इस प्रकार की पट्टिय़ों को ‘स्लिंग’ (Sling) कहा जाता है।

         ऐसी पट्टियों को तैयार करने के लिए मजबूत कपड़े का होना जरूरी है, ताकि वह बांह के वजन को अच्छी तरह सहन कर सके। इसलिए इस कार्य के लिए लट्ठा या किसी ऐसे ही दूसरे मजबूत कपड़े को उपयोग में लेना चाहिए।

         38 इंच वाले कपड़े के चौकोर टुकड़ों को दोनों भागों में बांटकर कर्णवत् (Diognal) काटने से दो तिकोनी पट्टियां तैयार हो जाती हैं।        

         जरूरत अनुसार पट्टी को जितनी लटकाना हो, उसी के अनुसार छोटी-बड़ी पट्टी तैयार की जा सकती हैं।

तिकोनी पट्टी को निम्नलिखित तीन अंगों में बांटा जा सकता है-

•आधार (Base) या सबसे लम्बा किनारा।
•(साइड्स) (Sides) या दोनों किनारों के छोर।
इसके तीनों कोनों में से ऊपर वाले सिरों को ‘नोंक (Point) और बाकी कोनों को अन्तिम कोना’ (Ends)  कहा जाता है।

तिकोनी पट्टी का प्रयोग निम्नलिखित रूपों में किया जाता है-

•खुली पट्टी के रूप में- इसे छाती या चौड़े भाग पर एक ही पट्टी के रूप में लगा दिया जाता है।
•चौड़ी पट्टी के रूप में- इस तरीके में पट्टी के सिरे के नीचे ‘बेस’ के बीच में लाकर, उसी दिशा में तह लगाकर बांध देते हैं।
•संकरी पट्टी के रूप में- इस तरीके में पूर्वोक्त चौडी़ पट्टी की एक तह दुबारा उसी दिशा में लगा दी जाती है।
•जरूरत अनुसार चौड़ी या संकरी पट्टी बनाने के लिए तिकोनी पट्टी के दोनों सिरों को मिलाकर आधा कर लिया जाता है।
बहुपुच्छी पट्टियां- इन पट्टियों को फलालेन या साफ कपड़ों द्वारा जरूरत अनुसार तैयार कर लिया जाता है। लेकिन कपड़ा चाहे जैसा sभी हो, वह इतना लम्बा जरूर होना चाहिए कि जिस अंग पर पट्टी लगानी हो, उसके चारों ओर उसे डेढ़ बार लपेटा जा सके तथा चौड़ा इतना हो कि घाव वाले स्थान की पूरी हड्डियों को ढक लें।

          कपड़े के दोनों सिरों को इस प्रकार से काटना चाहिए कि सभी पट्टियां चौड़ाई के बराबर तथा एक दूसरे के प्रति समानान्तर रेखा में कपड़े के बीचों-बीच से निकल जायें और वे सब चौड़ाई के बराबर की हों, लेकिन कपडों का मध्य भाग मुड़ा हुआ रहना चाहिए। बांधे जाने वाले अंग के आधार पर इसकी चौड़ाई 2 से 4 इंच तक रखी जा सकती है।

          बहुपुच्छी पट्टी तैयार करने की दूसरी विधि में कपड़े की पट्टियों को समानान्तर रेखा में इस प्रकार रख दिया जाता है कि हर पट्टी, दूसरी पिछली पास वाली पट्टी के एक तिहाई भाग को अपने नीचे दबाये रहे। इस तरह रखने के बाद पट्टियों को उनके केन्द्र के दोनों ओर कुछ दूर तक सिल दिया जाता है या पट्टियों को केन्द्र के आर-पार वैसे ही कपड़े को रखकर सिल देते हैं।   

          इस पट्टी को करने का मुख्य लाभ यह है कि घाव की जांच तथा मरहम-पट्टी बदलने की क्रिया रोगी को बिना किसी तरह का कष्ट पहुंचाए ही पूरी की जा सकती है।

चिपकाने वाली पट्टियां- ये पट्टियां Leuco Plast Blasto या Plast के रूप में मिलती है। इन्हें कैमिस्ट की दुकान से खरीदा जा सकता है। सामान्य फोड़े, फुन्सी आदि पर इन्हें वैसे ही चिपका दिया जाता है। अगर किसी अंग के घाव आदि पर रूई या गॉज आदि को सही स्थान पर बनाए रखना हो और वहां सामान्य पट्टी न बांधी जा सके तो इनका उपयोग अच्छा रहता है।

उदाहरण- अगर गाल पर कोई छोटी फुंसी पककर फूट गयी हो और उस स्थान पर दवाई लगाने के बाद रूई से ढक दिया गया हो तो उस रूई को सही स्थान पर बनाए रखने की बजाय चिपकने वाली पट्टी का प्रयोग करना अच्छा रहेगा।

पट्टी बांधने के प्रकार- पट्टी तीन प्रकार से बांधी जाती है-

(1) सख्त (Hard),

(2) सम (Uniform)

(3) ढीली (Loose)।

1. सख्त पट्टी बांधना- शरीर के जिन अंगों में अधिक दबाव (Pressure) की जरूरत होती है, वहां सख्त (Hard) पट्टी बांधी जाती है जैसे- नितंब, जंघामूल, बगल, बाहुमूल, सिर आदि मांसल भागों में,

2. सम पट्टी बांधना- पीठ, पार्श्व, गला, पेट, छाती, मुंह, लिंग तथा अंगुली आदि में सम (Uniform) प्रकार की पट्टी बांधी जाती है ताकि वह न अधिक ढीली और न ही अधिक सख्त ही रहे।

3. संक्षेप में जिस पट्टी को कसकर बांधा गया हो लेकिन वह पट्टी अपने कसाव के कारण रोग-ग्रस्त स्थान पर न तो दर्द पैदा करें और न उक्त-संचालन में ही बाधा डाले (अर्थात् जिसके कसाव के कारण अंग नीले न पड़ जाये) उसे ‘सख्त-बन्ध’ जो न ढीला और न कसा हो, उसे ‘सम-बन्ध’ तथा जो ढीला हो उसे ‘शिथिल-बन्ध’ कहा जाता है।

पट्टियों की गांठ बांधना- पट्टियों को लपेटने के बाद उनके आखिरी सिरे पर गांठ लगाई जाती है। गांठ को चोट-ग्रस्त स्थान से कुछ दूरी पर ही बांधना चाहिए, ताकि उसके कारण रोगी को कोई असुविधा न हो।

गांठ दो प्रकार की होती हैं-

1. रीफ गाँठ (Reef knot)

2. ग्रैनी गाँठ (Grainy knot)।      

रीफ गांठ- पट्टी के सिरों को स्थिर रखने के लिए यह ‘गोंठ’ सबसे अच्छी मानी जाती है। रीफ गांठ लगाने के लिए सबसे पहले पट्टी के दोनों सिरों को दोनों हाथों से पकड़ ले। फिर दाएं हाथ के सिरे को बाएं हाथ के सिरे के नीचे से निकालकर ऊपर ले आए तथा इसे चक्कर दे दें। इसके बाद फिर बाएं हाथ के सिरे को नीचे से निकालकर दूसरा चक्कर दे दें। इस प्रकार जो गांठ लगती है, उसे ‘रीफ-गांठ’ कहते हैं। 

     रीफ गांठ लगाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि पीड़ित की त्वचा पर उसका अधिक दबाव न पड़े और न उसके कारण उसे किसी कष्ट का अनुभव हो। अगर गांठ लगाने पर पीड़ित को कष्ट होने की आशंका हो तो उसकी त्वचा के नीचे रूई आदि ही एक नर्म गद्दी भी लगा देनी चाहिए। गांठ लगाने के बाद उसके किनारों को अंदर की ओर मोड़कर अदृश्य कर देना चाहिए।

ग्रेनी-गांठ- यह सामान्य गांठ मानी जाती हैं। यह गांठ अक्सर जल्दी फिसल जाती है तथा शरीर में गढ़ती भी है, इसलिए इसे न बांधना ही ठीक है। अगर किसी विशेष परिस्थिति-वश यही गांठ लगानी पड़े तो इसे चोट वाले स्थान से दूर ही बांधना चाहिए।

          आजकल गांठ को स्थिर रखऩे के लिए गांठ बांधने की बजाय ‘सेफ्टी पिन’ तथा चिपकने वाली ‘टेप’ का प्रयोग किया जाता है।

स्लिंग (Sling)-  ऊपरी-भुजाओं को सहारा देने या आराम पहुंचाने तथा पीड़ित गर्दन, कन्धे और सीने के हिलने-डुलने से भुजाओं पर जो खिंचाव उत्पन्न होता है, उसे कम करने के लिए विभिन्न प्रकार की स्लिंग का प्रयोग किया जाता है। स्लिंग के लिए तिकोनी पट्टी प्रयोग में लायी जाती है।

भुजा लटकाने वाली स्लिंग- पसलियों की हड्डियां टूट जाने, घाव होने, हाथ या कन्धे में चोट लगने या भुजा की हड्डी टूट जाने की स्थिति में पीड़ित अंग पर खपच्चियां बांधी जाती हैं, तब इस स्लिंग को प्रयोग में लाया जाता है।   

          इस स्लिंग को लगाने के लिए सबसे पहले एक तिकोनी पट्टी लेकर पीड़ित व्यक्ति के मुंह की ओर खड़े हो जाएं। फिर पट्टी के एक किनारे को पीड़ित के उस कंधे पर रखें, जिस ओर चोट न लगी हो। इस किनारे का सिरा चोट-ग्रस्त कंधे की ओर रहना चाहिए। फिर उस किनारे को चोट-ग्रस्त भाग की ओर (गर्दन के ऊपर से) के कंधे पर से लाकर सामने लटका देना चाहिए। पट्टी का सिरा चोट-ग्रस्त भुजा की कोहनी तक पहुंच जाना चाहिए तथा उस भुजा के अगले हिस्से को पट्टी की स्लिंग के बिल्कुल मध्य भाग में रख दिया जाना चाहिए। फिर दूसरे किनारे को ऊपर उठाकर भुजा के अगले भाग को पट्टी में रखे तथा पहले सिरे से ‘रीफ गांठ’ लगाकर हंसली की हड्डी के ऊपर बांध दें।

          अब स्लिंग के कोहनी वाले सिरों को आगे की ओर लाकर सेफ्टीपिनों द्वारा स्लिंग के अगले भाग के साथ जोड़ दें। ऐसा करने से पट्टी के खिसकने की संभावना नहीं रहती। पट्टी को इस तरह से लगाना चाहिए कि उसका बेस हाथ की छोटी अंगुली के नाखून की जड़ तक जा पहुंच सके तथा बाकी अंगुलियों के नाखून खुले रहें। स्लिंग लगाने के बाद यह भी देख लेना चाहिए कि कलाई कोहनी की सीध में या उससे कुछ ऊंची रहे।

          बाकी अंगुलियों के झोली के बाहर निकले रहने का लाभ यह होता है कि उनके नाखूनों को देखकर चोट-ग्रस्त हाथ के रक्त परिभ्रमण का अनुमान लगाया जा सकता है।

हाथ की पतली स्लिंग- यह स्लिगं कलाई तथा हाथ को सहारा देने के लिए होती है, लेकिन इसके सहारे कोहनी भी अच्छी तरह से लटकी रहती है। कलाई, कंधे या हाथ में सामान्य चोट लगने पर इसे बांधा जाता है।

लगाने की विधि- स्वस्थ हाथ की ओर वाले कंधे की तरफ चौड़ी पट्टी का एक सिरा लेकर, उसे गर्दन के पीछे से इस तरह घुमाकर लाएं कि वह चोट-ग्रस्त कलाई वाले कंधे के ऊपर आ जाये।

          हाथ को कोहनी से मोड़कर चोट-ग्रस्त कलाई को पट्टी के मध्य-भाग में इस प्रकार रखना चाहिए कि छोटी उंगली का आधा भाग बाहर निकला रहे। इसके बाद लटकने वाले सिरे को पहले वाले सिरे से बांध दें।

कालर-कफ स्लिंग- इस प्रकार की स्लिंग का प्रयोग मुख्यतः हंसली की हड्डी टूट जाने पर कलाई को सहारा देने के लिए किया जाता है।

लगाने की विधि- रोगी की कोहनी को मोड़कर भुजा के अगले हिस्से को सीने पर इस तरह रखें कि उसके हाथ की अंगुलियां दूसरे कन्धे का स्पर्श करती रहें। फिर कलाई को ‘क्लोव-हिच-गांठ’ (Clove-Hitch knot) द्वारा रोगी की हड्डी के ऊपरी भाग में गांठ लगा दें।

          ‘क्लोव-हिच-गांठ’ (Clove-Hitch knot) लगाने के लिए सबसे पहले एक संकरी पट्टी लेकर फंदा बना लें। फिर एक और फंदा बनाकर उसे पहले फंदे के ऊपर रखें। इसके बाद दूसरे फंदे को पहले फंदे के पीछे की ओर घुमाएं। इस प्रकार ‘क्लोव-हिच-गांठ’ (Clove-Hitch knot) लग जाती है।

सेण्टजॉन झोली- हंसली की हड्डी टूट जाने पर हाथ को अच्छी तरह ऊपर उठाये रखने के लिए इस प्रकार की स्लिंग बांधने से पीड़ित व्यक्ति को बहुत आराम मिलता है तथा उसका हाथ भी ऊपर उठा रहता है।

लगाने की विधि- चोट-ग्रस्त ओर के हाथ को छाती पर इस प्रकार रखें कि उसकी हथेली छाती की हड्डी पर रहे तथा अंगुलियां स्वस्थ कंधे की ओर रहें।

          फिर तिकोनी पट्टी को खोलकर उसके बाकी भाग को दाएं हाथ में तथा पट्टी के एक सिरे को बाएं हाथ में पकड़कर, पट्टी को मोड़े हुए हाथ पर इस तरह रखें कि पट्टी का बाकी भाग कोहनी से दूर रहे तथा बाएं हाथ से पकड़ा हुआ सिरा दाएं कंधे पर रहें (यदि चोट बाँयी ओर लगी है, तो)।

          फिर नीचे लटकते हुए सिरे को कोहनी के नीचे से मोड़ते हुए पीठ की ओर ले जाएं तथा स्वस्थ कंधे पर ले जाकर, वहां पहले से रखे हुए सिरे में बांध दें। पट्टी की सिकुड़नों को सावधानी से दूर करके, शीर्ष भाग को कोहनी के सामने की ओर मोड़कर पिन लगा देनी चाहिए।

          यदि दुर्घटना-स्थल पर तिकोनी पट्टियां न मिले तो पीड़ित हिस्से वाली बांह को मोड़कर सावधानी से हथेली को छाती पर रखकर या कमीज की बांहों को सेफ्टीपिनों द्वारा कोट से अटका देना चाहिए.

अन्य प्रकार की स्लिंग- जरूरत अनुसार और भी कई प्रकार की स्लिंग तैयार की जा सकती है जैसे- आस्तीन के कपड़े से सेफ्टीपिन लगाकर चोट के निचले भाग को ऊपर उठाकर पिन लगा देना तथा रोगी के बटनदार कोट अथवा वास्केट में उसका हाथ रख देना। इस प्रकार की पट्टियों को ‘पिन-पट्टी’ कहा जाता है।

          इस प्रकार ही बैल्ट, रूमाल या टाई का प्रयोग भी स्लिंग के रूप में किया जा सकता है।

          आकस्मिक-दुर्घटना के स्थान पर जो भी वस्तु मिले उसी से स्लिंग बनाकर पीड़ित अंग को राहत पहुंचाने की कोशिश करनी चाहिए।

विभिन्न प्रकार की पट्टियां बांधना- जरूरत अनुसार शरीर के किसी भी भाग में पट्टी बांधी जा सकती है। अलग-अलग भागों में पट्टियां बांधने की विधि भी अलग-अलग है।

लम्बी पट्टी का प्रयोग- लम्बी पट्टी का प्रयोग करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-

•पट्टी को प्रयोग करने से पहले यह देख लेना चाहिए कि वह बेलनाकार रूप में अच्छी तरह कसकर लपेटी गई हो।
•जिस स्थान पर पट्टी बांधनी हो, वहां उसके खाली छोर के बाहरी भाग को प्रयोग में लेना चाहिए।
•पट्टी का खुला हुआ भाग बाह्य-त्वचा के सम्पर्क में रहना चाहिए।
•पट्टी को नीचे से ऊपर की ओर भीतरी भाग से बाहरी भाग की ओर बांधना चाहिए, लेकिन सीने पर लम्बी पट्टी को नीचे से ऊपर की ओर तथा पेट पर ऊपर से नीचे की ओर बांधना चाहिए।
•सारी लम्बी पट्टियां चक्करदार तरीके से ही बांधी जाती हैं। बांधते समय पट्टी के हर चक्कर को इस प्रकार से डालना चाहिए कि वह पहले चक्कर की लगभग एक तिहाई सतह को ढकता चला जाये।   
•कुछ चक्करदार पट्टियों में पट्टी को हर चक्कर के बाद मोड़ते हुए लपेटा जाता है। ऐसी पट्टियों को बांधते समय हमेशा यह ध्यान में रखना चाहिए कि पट्टी को हमेशा एक ही स्थान पर मोड़ा जाए ये तथा मोड़ वाला स्थान हमेशा अंग के बाहरी भाग की ओर ही रहें। लपेटते समय पट्टी को कसकर पकड़ना चाहिए लेकिन मोड़ते समय कुछ ढ़ीला कर देना चाहिए। मोड़ने के बाद फिर कस लेना चाहिए। मोड़ते समय भी पट्टी को कुछ दूर तक ही खुला रहना चाहिए, अन्यथा वह ठीक से नहीं बंध सकेगी।
•पट्टी को कसते हुए समान रूप में बांधना चाहिए, लेकिन उसे इतना अधिक भी नहीं कसना चाहिए कि रक्त का संचारण ही रुक जाये। बंधी हुई पट्टी पर हाथ फेरने से अगर उसके किनारे मुड़ जाएं तो यह समझना चाहिए कि पट्टी ढीली बंधी है।
•रोगी के शरीर के बाएं तरफ वाले अंग में पट्टी बांधनी हो तो शुरुआत में पट्टी का बेलन बांधने वाले दाएं हाथ में तथा सिरा बाएं हाथ में होना चाहिए। इस प्रकार अगर दाएं अंग पर पट्टी बांधनी हो तो पट्टी का बेलन बाएं हाथ में तथा सिरा दाएं हाथ में रखना चाहिए। बांधते समय पट्टी के बेलन को बाएं हाथ से दाएं हाथ में रखना चाहिए। बांधते समय बेलन को बाएं से दाएं हाथ तथा दाएं से बाएं हाथ में बदलना भी पड़ता है।
•पट्टी बांधते समय पट्टी के बेलन को घुमाने की दिशा हमेशा ही अंग के अंदर की ओर से बाहर की ओर रहनी चाहिए।
•पट्टी को अगर किसी घाव आदि पर बांधना हो तो पहले उस पर दवाई आदि लगाने के बाद ही ऊपर से पट्टी बांधी जाती है।
•लम्बी पट्टी यदि बेलनाकार बनी हुई नहीं हो तो उसे बांधने में बहुत परेशानी हो सकती है और वह ठीक से बंध भी नहीं पाती। बेलनाकार पट्टी को अच्छी तरह फैलाकर बिना मोड़ के सीधा बांधा जा सकता है। लम्बी पट्टी को बेलनाकार बनाने का कार्य हाथ या मशीन द्वारा किया जा सकता है।      
नोट- कुछ दिनों के अभ्यास से पट्टी को हाथ द्वारा भी बेलनाकार लपेटने में निपुणता प्राप्त की जा सकती है।

लम्बी पट्टी बांधने के प्रकार-

•सामान्य घुमाव की पट्टी (Simple Spiral)।
•उल्टे घुमाव की पट्टी (Reversed Spiral)।
•अंग्रेजी के अंक 8 जैसी पट्टी (Figure-of 8 type Spiral)।
•अंक 8 की सुधरित रीति वाली ‘स्पाइका पट्टी’ (Spaica Spiral)।
सामान्य घुमाने की पट्टी- यह पट्टी शरीर के उस भाग पर बांधी जाती है, जिसकी मोटाई एक समान हो जैसे- अंगुली, कलाई, भुजा का अगला हिस्सा या टांग का निचला भाग।

           इस किस्म की पट्टी जिस स्थान पर भी बांधनी हो, पहले उसे सीधा कर लेना चाहिए। इसके बाद पट्टी बांधने की शुरूआत करनी चाहिए। फिर इस लपेट को आगे बढ़ाते जाना चाहिए, ताकि चोट-ग्रस्त भाग ढकता हुआ चला जाए।  

उल्टे घुमाव की पट्टी- इस प्रकार की पट्टी में कई घुमाव (पेच) देने की जरूरत पड़ती है। इन घुमावों में लम्बी पट्टी जब अंग के चारों ओर घूम जाती है, तब वह अपने ऊपर से मुड़ जाती है।

          इस प्रकार की पट्टी उन अंगों पर बांधी जाती है, जिनकी मोटाई एक जैसी नहीं होती या फिर कहीं कम और कहीं ज्यादा होती है।

           ऐसे अंगों पर सामान्य-घुमाव की पट्टी नहीं बांधी जा सकती और यदि बांध भी दी जाती है तो ठहर नही पाती है। इसलिए इन पर उल्टे घुमाव की पट्टी ही बांधनी चाहिए।

अंग्रेजी के अंक ‘आठ’ 8 जैसी पट्टी- इस विधि में पट्टी को रोग-ग्रस्त अंग के चारों ओर एक बार नीचे और फिर ऊपर ले जाते हुए तिरछा बांधा जाता है। इस प्रकार की पट्टी बाँधने से जो फंदे बनते हैं वे अंग्रेजी के अंक 8 जैसे आकार के होते हैं।

          इस प्रकार की पट्टी किसी अंग के जोड़ अथवा जोड़ के समीप वाले स्थान पर बांधी जाती है- जैसे कोहनी तथा घुटने।

          इस विधि में जोड़ के ऊपर तथा निचले भाग तक पट्टी का कपड़ा आ जाना चाहिए। इस प्रकार बांधने से पट्टी के खिसकने की सम्भावना कम रहती है। पट्टी को नीचे से ऊपर ले जाते समय कपड़े की दूरी जहां तक हो सके, अधिक रहनी चाहिए।

स्पाइका पट्टी- यह पट्टी भी अंग्रेजी के अंक आठ जैसी ही होती है, लेकिन इसे ज्यादा सुधरे रूप में अर्थात गेंहू की बाल जैसी रचना में बांधा जाता है।

          कंधे, जांघ, हाथ के अंगूठे तथा पांव के अंगूठे पर दबाव डालने के लिए इस प्रकार की पट्टी बांधी जाती है।

नोट- एक बार प्रयोग में लाई जा चुकी, गन्दी या उलझी हुई पट्टी को उपयोग में नहीं लेना चाहिए।

तिकोनी पट्टी का प्रयोग करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-

•इस पूरी पट्टी को मोड़कर पहले पतली पट्टी बना लें। फिर उसे मेज या किसी दूसरी साफ जगह पर बिछाकर तथा दोनों किनारों को पकड़कर, इस प्रकार मोड़े कि दोनों सिरे पट्टी के बीच में एक-दूसरे से मिल जायें। इस विधि से मोड़ी हुई पट्टी के दोनों सिरों को एक बार दुबारा मोड़कर किसी डिब्बे आदि में सुरक्षित बन्द करके रख लें। इस विधि से मोड़कर रखी गई पट्टी को अपनी जेब में रखकर, कहीं बाहर भी आसानी से ले जाया सकता है।
•तिकोनी पट्टी को बांधने से पहले उसकी स्वच्छता एवं कीटाणु-शून्यता के बारे में निश्चित हो लेना चाहिए। गन्दी, मैली या बहुत पुरानी पट्टी का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
•तिकोनी पट्टी को बांधने के बाद उसके सिरों में हमेशा ‘रीफ-गांठ’ ही लगानी चाहिए और यह ध्यान भी रखना चाहिए कि गांठ ठीक घाव वाले स्थान के ऊपर न लगाई जाये, अन्यथा वह घाव में चुभेगी और रोगी को कष्ट पहुंचाएगी।
•तिकोनी पट्टी को एकबार प्रयोग में लाने के बाद साबुन से धोकर तथा सुखाकर, दुबारा भी प्रयोग में लाया जा सकता है.
बहुपुच्छी पट्टियों का प्रयोग- बहुपुच्छी पट्टी को जरूरत के अनुसार विभिन्न आकार-प्रकारों में तैयार किया जा सकता है। उदाहरण के लिए बहुपुच्छी पट्टी पेट पर बांधने के लिए सबसे अच्छी मानी जाती है।

          इसे तैयार करने के लिए 12 इंच लम्बा तथा इतना ही चौड़ा एक मोटा कपड़ा ले लें। फिर उस कपड़े को दोनों तरफ से पांच-पांच पट्टियों की सिलाई द्वारा जोड़ दें। इनमें से हर पट्टी की लम्बाई 36 इंच से 48 इंच तक तथा चौड़ाई 5 इंच होनी चाहिए। पट्टियों की सिलाई करते समय यह विशेष ध्यान रखना चाहिए कि एक पट्टी के एक तिहाई भाग को छोड़कर, शेष दो तिहाई भाग के ऊपर दूसरी पट्टी की सिलाई पड़े। इसी में दो पट्टियां नीचे की ओर भी जोड़ देनी चाहिए।

          इस प्रकार की पट्टी को बांधने के लिए पीडित के दोनों बगलों में दो व्यक्तियों को खड़ा होना पड़ता है। पट्टी के मध्य भाग को पीड़ित के पेट पर रखने के बाद पहला व्यक्ति उसे अपनी ओर खींच लेता है। इसके साथ ही दूसरा व्यक्ति पट्टी को पीठ की मध्य रेखा से दूर पहुंचा देता है और दूसरा व्यक्ति पीड़ित को अपनी ओर खींचता है तथा पहला व्यक्ति पट्टी को पीठ की मध्य-रेखा से दूर पहुंचा देता है। इसी प्रकार हर बार पट्टी को पेट के ऊपर घुमाया जाता है। अन्त में हर पट्टी को अलग-अलग गांठ लगाकर या सेफ्टीपिन द्वारा बांध दिया जाता है। सबके अन्त में पट्टी के निचले दोनों सिरों को नीचे से घुमाकर, पीठ की ओर बांध दिया जाता है। इस विधि से पट्टी अपने स्थान से खिसकती नहीं है।

•सिर पर बांधने के लिए अंग्रेजी के अक्षर ’L’ टाइप की पट्टी अच्छी रहती है। इस प्रकार की पट्टी तैयार करने के लिए दो इंच चौड़ाई वाली दो इच्छित लम्बाई की पट्टियों को लेकर उनके दोनों सिरों को अंग्रेजी के ’L’ अक्षर की तरह सिलाई कर लिया जाता है।
•मलद्वार तथा लिंग के बीच वाले स्थान पर बांधने के लिए ’T Type’ की पट्टी अच्छी रहती है। इस पट्टी को बीच से सिलाई द्वारा जोड़ लिया जाता है। फिर सिले हुए भाग को पीड़ित की पीठ की मध्य रेखा के पास रखकर, ऊपर वाले सिरे को पेट पर घुमाकर बांधा जाता है तथा नीचे वाले सिरे को मलद्वार के ऊपर से लाकर पेट के सामने बांध दिया जाता हैः-
चिपकने वाली पट्टी का प्रयोग-

•चिपकने वाली पट्टियां अंग्रेजी दवाईयां तैयार करने वाली विभिन्न कम्पनियों द्वारा तैयार की जाती हैं, और उन्हें विभिन्न नामों जैसे- (Leuko Plast, Blasto plast, Flexo Plast, Adhesive Tape आदि) से बेचा जाता है। इन्हें अंग्रेजी दवा बेचने वालों की दुकान से खरीदा जा सकता है। ये पट्टियां अलग-अलग लम्बाइयों तथा चौड़ाईयों में प्राप्त होती हैं। इसलिए जरूरत अनुसार जिस आकार की पट्टी उचित हो, उसे ही लेना चाहिए।
•इस प्रकार की पट्टियों का मुख्य लाभ यह है कि बन्ध न हो तो ढीला हो पाता है और न अपने स्थान से खिसकता ही है। ये पट्टियां बन्ध वाले स्थान को अच्छा सहारा देती हैं।
•इनको प्रयोग करने के फलस्वरूप कभी-कभी त्वचा पर खुजली भी महसूस होती है तथा पट्टी को हटाते समय दर्द भी होता है।
•इस प्रकार की पट्टी को शरीर के उन्हीं स्थानों पर लगाना चाहिए, जहां पर बाल न हों। अगर बालों वाली जगह पर यह पट्टी लगानी हो तो पहले उसे स्थान से बालों को हटा देना चाहिए।       
•इस पट्टी को सूखी त्वचा पर ही लगाना चाहिए और इसको प्रयोग करते समय आयोडीन का घोल नहीं लगाना चाहिए।
•शरीर के जितने भाग पर यह पट्टी लगानी हो उस पर टिंक्चर बैजोइन को0  (Tr. Benzoin Co.) को फाहे में लगाकर सुखा लेना चाहिए। इसके बाद उस स्थान पर पट्टी चिपकानी चाहिए। ऐसा करने से उस स्थान की त्वचा पर फुंसी आदि उठ आने की सम्भावना नहीं रहती।
•पट्टी को निकालते समय उसे एक कोने से धीरे-धीरे छुड़ाना चाहिए ताकि पीड़ित को किसी तरह की परेशानी न हो।
•पट्टी को छुड़ाते समय (Zoff T.J. Cmith and Nephew) अथवा Antichaesin (Aline and Honburys) नामक औषधियों को प्रयोग में लाना उचित रहता है। इन औषधियों को रूई के फाहे में लगाकर पट्टी के मसालें में लगाने से मसाला गल जाता है, जिसके कारण पट्टी सरलता से खुल जाती है।
विभिन्न अंगों पर पट्टी बांधना-

लम्बी पट्टी बांधना- शरीर के विभिन्न अंगों पर लम्बी पट्टियों को निम्नलिखित विधि द्वारा बांधा जा सकता है-

सिर की पट्टी- सिर पर पट्टी बांधने के लिए सबसे पहले 5-6 सेंटीमीटर चौड़ी तथा 7-8 मीटर लम्बी दो पट्टियां ले लें। फिर पट्टियों को दोनों हाथों से पकड़कर उनके खुले सिरो को सुई द्वारा सिलकर आपस में मिला लें अर्थात दोनों पट्टियों को जोड़ लें। अब पीड़ित व्यक्ति को कुर्सी या चारपाई पर बैठाकर उसके पीछे खड़े हो जाएं तथा पट्टी के मध्य भाग को अर्थात् जिसे जोड़कर तैयार किया गया है उस हिस्से को, कपाल के बीच में ठीक भौहों के ऊपर रखें। इसके बाद दोनों पट्टियों को क्रमशः विपरीत दिशा में खोलते हुए कानों के ऊपर से सिर के पीछे ले जाकर मोड़ दें। मोड़ने के बाद पहली पट्टी को सिर के मध्य भाग से सामने की ओर लायें। फिर दूसरी पट्टी को पहले वाली पट्टी के ऊपर माथे के दाईं ओर लाएं। इस क्रम को तब तक चालू रखें, जब तक कि पूरा सिर न ढक जाए। अन्त में सिर के पीछे दोनों पट्टियों को एक-दूसरे पर मोड़कर, दोनों को माथे के मध्य भाग में बांध दें।

कंधे की पट्टी- कंधे पर पट्टी बांधने के लिए 2 इंच चौड़ी तथा 5-6 मीटर लम्बी पट्टी लेकर, उसे कंधे के पास भुजा पर इस प्रकार रखें कि पट्टी का खुला हुआ सिरा भुजा के भीतरी किनारे की ओर रहे।

          अब भुजा पर पट्टी का एक चक्कर लगा दें। इस तरह पट्टी भुजा तथा शरीर के बीच से निकलकर भुजा से ऊपर आ जायेगी। इसके बाद चित्र के अनुसार पट्टी को भुजा के ऊपर कुछ तिरछा ले जाते हुए दूसरी ओर की बगल के नीचे से निकालें। फिर पट्टी को छाती के ऊपर से ले जाते हुए चोट-ग्रस्त कंधे की ओर वाली भुजा के ऊपर ले आये। पट्टी के भुजा पर वापिस आने पर उसे भुजा पर चक्कर देते हुए भुजा तथा शरीर के बीच से निकालें। इस प्रकार पट्टी फिर अपने पहले वाले स्थान पर आ जायेगी। यहां से पट्टी को फिर पूर्वोंक्त प्रकार से चक्कर देते हुए लपेटें। यह ध्यान रखें कि हर चक्कर से पहले वाले चक्कर का एक तिहाई भाग ढकता चला जाये। इसी तरह से लपेटते हुए जब पूरा कंधा ढक जाये, तब आखिरी चक्कर में छाती की ओर से चोट-ग्रस्त कंधे के पास पट्टी के पहुंच जाने पर उसका सिरा वहीं मोड़कर सेफ्टीपिन लगा देनी चाहिए।

लम्बी पट्टी द्वारा 8 के आकार वाली हाथ की स्लिंग- इस प्रकार की पट्टी को बांधने के लिए लगभग 2 इंच चौड़ी तथा 8-10 गज लम्बी पट्टी ले लें।

          इसके बाद पहले चोट-ग्रस्त कोहनी को मोड़कर छाती पर रख दें। फिर पट्टी के खुले हुए सिरे को कोहनी के पास ऊपरी भुजा पर रखें तथा ऊपरी भुजा और अग्रभुजा के ऊपर से ले जाते हुए पट्टी को छाती के दूसरी ओर ले आयें। वहां से पट्टी की ओर घुमाकर, फिर चोट-ग्रस्त कोहनी के पास ले आएं। इसके बाद पट्टी को कोहनी के पास अग्रभुजा के ऊपर से निकाल कर विपरीत ओर के कन्धे के ऊपर लायें। इस प्रकार पट्टी का एक चक्कर पूरा हो जायेगा।

          अब पट्टी को दुबारा छाती के ऊपर से दूसरी ओर ले जाते हुए पहले की तरह बांधें। यह ध्यान रखें कि ऊपरी भुजा पर हर चक्कर पहले वाले चक्कर का एक तिहाई भाग ढकता हुआ कंधे की ओर बढ़ता हुआ रहे। इसी तरह अग्रभुजा पर पट्टी का हर चक्कर पहले वाले चक्कर के एक तिहाई भाग को ढकता हुआ तथा कलाई की ओर बढ़ता हुआ रहना चाहिए।

          जब दोनों ओर की कोहनी अच्छी तरह ढक जाये, जब आखिरी चक्कर में अग्रभुजा के पास पहुंचकर, वहां सेफ्टीपिन लगा देनी चाहिए।

अंगुलियों की पट्टी- अगर पट्टी सिर्फ एक अंगुली में बांधनी हो तो उसके लिए 4.5 फुट लम्बी पट्टी ले लें और अगर दो या अधिक अंगुलियों में पट्टी बांधनी हो तो उसकी लम्बाई को जरूरत अनुसार बढ़ा लें।

          सबसे पहले हथेली को नीचे की ओर करके चोट-ग्रस्त अंगुलियों को फैलाएं। फिर पट्टी को कलाई के पीछे वाले भाग पर इस प्रकार रखें कि उसका खुला हुआ सिरा अंगूठे की ओर रहे। अब पट्टी को कलाई पर दो बार इस तरह लपेटें कि उसके सिरे से कुछ दूरी तक का भाग लटकता रहे। इसके बाद पट्टी को हथेली के पीछे वाले भाग की ओर से अंगूठे तथा चोट-ग्रस्त अंगुली के ऊपर लाकर अंगुली पर एक घुमाव दे दें। फिर एक दूसरा घुमाव देकर पट्टी को अंगुली के नाखून के किनारे तक ले जाएं।

          इस स्थान पर एक चक्कर देने के बाद, फिर सादा चक्कर देते हुए पट्टी को इस सिरे से शुरु कर पूरी अंगुली में लपेट दें। हर चक्कर को इस तरह से लपेटना चाहिए कि वह अपने से पहले वाले चक्कर के एक तिहाई भाग को ढकता चला जाये। जब पूरी अंगुली पर पट्टी लपेटी जा चुके, जब पट्टी को अंगूठे की ओर से छोटी अंगुली की ओर, हाथ के पीछे वाले भाग के ऊपर से कलाई तक लाए और अन्त में पट्टी को कलाई पर एक या दो चक्कर देकर उसके इस सिरे को, पहले से लटकते हुए सिरे के साथ बांध दें।   

          इस विधि से एक अंगुली में पट्टी बांधी जाती है। अगर कई अंगुलियों में एकसाथ पट्टी बांधनी हो तो पहली अंगुली की पट्टी हो जाने पर, जब पट्टी कलाई पर पहुंचे तब कलाई पर, एक पूरा चक्कर देने के बाद फिर पहली अंगुली की ही तरह दूसरी अंगुली पर पट्टी बांधना शुरू करें। इसी क्रम से जितनी भी अंगुलियों में पट्टी बांधनी हो, बांधी जा सकती है।

अंगूठे की स्पाइका पट्टी- अंगूठे पर बांधी जाने वाली पट्टी 2 सेण्टीमीटर चौड़ी तथा 4.5 फुट लम्बी होनी चाहिए।

          सबसे पहले पूर्वोक्त अंगुली की पट्टी की तरह उसे कलाई के पीछे वाले भाग पर रखकर पहले कलाई पर पट्टी के दो चक्कर दें।

          फिर छोटी अंगुली की ओर से पट्टी को हथेली पर से ले जाते हुए अंगूठे के नाखून के पास लाएं और यहाँ पट्टी को एक बार अंगूठे पर लपेट दें। इस समय पट्टी अंगूठे के बाहरी किनारे की ओर होगी। यहां से उसे अंगूठे तथा हथेली के पीछे वाले भाग के ऊपर से ले जाकर छोटी अंगुली की ओर ले जाएं। इसके बाद हथेली पर से घुमाकर अंगूठे के बाहरी किनारे के पास ले आएं।

          यहां से पट्टी को अंगूठे पर इस प्रकार लपेंटे कि वह पिछले चक्कर के एक तिहाई भाग को ढक ले। अंगूठे पर घुमाकर पट्टी जब दुबारा अंगूठे के बाहरी भाग के किनारे पर पहुंचें. तब उसे दुबारा हथेली के पीछे वाले भाग के ऊपर से ले जाकर छोटी अंगुली की ओर लाएं तथा हथेली पर घुमाकर अंगूठे के बाहरी किनारे के पास ले जाएं।

          इस विधि द्वारा जब पूरे अंगूठे पर पट्टी बंध जाए, तब आखिरी चक्कर में कलाई के पास पहुंचने पर पट्टी को कलाई पर दो बार लपेट दें तथा उसके सिरे को सेफ्टीपिन द्वारा कलाई के पीछे वाले भाग पर अटका दें।  

          इस विधि द्वारा ही पांव के अंगूठे की पट्टी भी बांधी जाती है। पांव के अंगूठे के पट्टी को टखने से बांधना शुरु करें तथा वहीं पर उसे समाप्त करके सेफ्टीपिन या गांठ लगा दें।

हथेली की पट्टी- हथेली पर बांधने के लिए 1.5 इंच चौड़ी तथा 8 फुट लम्बी पट्टी लेनी चाहिए।

          पट्टी को हथेली पर इस प्रकार रखें कि उसका खुला सिरा छोटी अंगुली की ओर रहे। फिर उसे छोटी अंगुली की ओर से अंगूठे की ओर ले जाते हुए चारों अंगुलियों पर दो चक्कर लगा दें।

          दूसरे चक्कर के बाद पट्टी को अंगूठे तथा हथेली के बीच से निकालकर हथेली के पीछे वाले भाग के ऊपर से होकर कलाई के पास तक ले जाएं और कलाई के ऊपर पट्टी का एक चक्कर दे दें।

          अंगूठे तथा हथेली के पीछे वाले भाग पर से होते हुए पट्टी को छोटी अंगुली के नाखून तक ले आएं। इसके बाद उसे अंगुलियों के नीचे से घुमाकर छोटी अंगुली की ओर से अंगूठे की ओर ले जाते हुए दुबारा पहले वाली क्रिया दोहराते हुए 4-5 चक्कर लगा दें। यह याद रखें कि हर चक्कर के बीच में चित्र के अनुसार बराबर स्थान छूटे। आखिरी चक्कर के बाद कलाई पर पट्टी के एक या दो चक्कर लगाकर पट्टी को मोड़कर सेफ्टीपिन लगा दें।

अग्रभुजा की पट्टी- अग्रभुजा के लिए लगभग 2 इंच चौड़ी तथा 18 फुट लम्बी पट्टी की जरूरत होती है।

          पट्टी को कलाई पर इस प्रकार रखें कि उसका खुला हुआ सिरा अंगूठे की ओर रहे। फिर उसे अंगूठे की ओर से छोटी अंगुली की ओर ले जाते हुए कलाई पर दो चक्कर दें।

          दूसरे चक्कर के बाद जब पट्टी अंगूठे की ओर पहुंचे, तब उसे अंगूठे तथा हथेली के पीछे वाले भाग की ओर से छोटी अंगुली के किनारे तक पहुंचा दें।

          फिर हथेली पर एक चक्कर लगाकर पट्टी को दुबारा छोटी अंगुली की ओर कलाई के पास ही पहुंचा दें। इसी प्रकार से जरूरत अनुसार एक या दो चक्कर और भी देने चाहिए।

          अन्तिम लपेट के बाद जब पट्टी किनारे के पास पहुंचे तब उसे कलाई पर दो बार लपेटना चाहिए तथा यह ध्यान रखना चाहिए कि दूसरा चक्कर पहले चक्कर के एक तिहाई भाग को चौड़ाई से ढकता रहे।

          जब पट्टी भुजा के पीछे वाले भाग के बीच में पहुंच जाये, तब उसे भुजा के ऊपर कोहनी तक लपेटना चाहिए।   

          कभी-कभी हर चक्कर में पट्टी जब भुजा के पीछे वाले भाग पर होती है, तब उसे मोड़कर भी बांधा जाता है।

          जब पट्टी कोहनी के पास पहुंच जाये, तब उसे दो बार सामान्य तरीके से लपेटकर सेफ्टीपिन लगा देनी चाहिए।

          हथेली अथवा अग्रभुजा के किसी स्थान पर चोट लगने पर ही इस पट्टी को बांधा जाता है। यदि हथेली पर चोट न लगकर सिर्फ अग्रभुजा पर ही लगी हो तो पट्टी को कलाई से शुरु करके सीधे अग्रभुजा पर बांधना चाहिए।

टांग की पट्टी- टखने से लेकर घुटने के बीच टांग में अगर किसी प्रकार की चोट हो तो उसकी पट्टी भी अग्रभुजा की पट्टी की तरह ही बांधी जाती है। टांग में पट्टी बांधते समय, सामने की ओर हर चक्कर में उसे अग्रभुजा की पट्टी की तरह ही मोड़कर बांधा जाता है।

कोहनी की पट्टी- इसके लिए सबसे पहले दो-ढाई इंच चौड़ी तथा 10 फुट लम्बी पट्टी लेनी चाहिए।

          फिर चोट-ग्रस्त कोहनी को समकोण पर मोड़कर, पट्टी को ऊपर भुजा पर कोहनी से कुछ ऊपर, दो बार, लपेटें। पट्टी को इस प्रकार लपेटना आरम्भ करना चाहिए कि उसकी लपेटन बाहर से अंदर की ओर रहे।

          दो चक्कर पूरे हो जाने पर पट्टी को भुजा के अंदर से इस प्रकार घुमाना चाहिए कि वह कोहनी के नीचे अग्रभुजा के बाहरी ओर जा पहुंचे। इसी स्थान पर फिर दो बार चक्कर देने चाहिए। यहां से पट्टी को कोहनी के जोड़ की भीतरी सतह से लाते हुए ऊपरी भुजा की ओर ले जाना चाहिए और वहां एक चक्कर देकर दुबारा कोहनी के जोड़ से पहले की तरह लाकर अग्रभुजा पर पहुंचाना चाहिए। इस बार पट्टी अग्रभुजा के भीतरी ओर जा पहुंचेगी और कोहनी के जोड़ पर अंग्रेजी के अक्षर 8 या हिन्दी के अंक 4 का आकार बनाएगी।

          अब पट्टी के कई चक्कर इसी प्रकार लपेटें ताकि पूरी कोहनी ढक जाये। हर चक्कर अपने पहले चक्कर वाली पट्टी के चौड़ाई वाले भाग को एक तिहाई ढकता रहना चाहिए। जब आखिरी चक्कर ऊपरी भुजा पर पहुंचे तो वह एक चक्कर लगाकर सेफ्टीपिन लगा देनी चाहिए। सबके अन्त में, भुजा को एक पतली पट्टी द्वारा गले से लटका देना चाहिए।

घुटने तथा टखने की पट्टी- घुटने तथा टखने पर बांधने के लिए सबसे पहले 3 इंच चौड़ी तथा 5 मीटर लंबी पट्टी ले लेनी चाहिए।

           फिर पट्टी के खुले सिरे को जोड़ की भीतरी सतह पर रखकर दो-दो चक्कर लगायें। फिर क्रमशः जोड़ के ऊपर-नीचे लटकते हुए अंग्रेजी के 8 की आकृति में पट्टी को लपेटते हुए आगे बढ़ते जाएं।

एड़ी की पट्टी- एड़ी पर बांधने के लिए सबसे पहले इसके लिए 7 सेण्टीमीटर चौड़ी तथा जरूरत अनुसार लम्बी पट्टी ले लें।

          फिर चोट-ग्रस्त टांग को किसी चीज का सहारा देकर जमीन से थोड़ा ऊंचा कर दें, ताकि पट्टी बांधने में सुविधा रहे। फिर पट्टी को टखने के जोड़ से लपेटना शुरु करे और पांव की छोटी अंगुली वाली दिशा में घुमाते हुए एड़ी के ठीक ऊपर ले आयें। इसके बाद उसे सामने टखने के जोड़ पर ले जायें।

          पट्टी के दूसरे चक्कर को पहले चक्कर की तरह इस प्रकार लपेटे कि वह पहले चक्कर के एक तिहाई भाग को एड़ी के ऊपर की ओर ढक दें। फिर पट्टी के तीसरे चक्कर को इस प्रकार लगाएं कि वह एड़ी से नीचे तलुए की ओर रहे तथा पहले चक्कर से एक तिहाई भाग को ढक ले। 

          अब पट्टी को टखने के ऊपर से लाकर टांग का एक चक्कर पूरा कर दें। फिर पट्टी को तलुए के नीचे की ओर ले जाए। इस जगह तलुए के नीचे से घुमाकर, अंगूठे की ओर पहुंचाने पर, एड़ी पर पट्टी को तिरछा घुमा दें तथा टांग के पीछे से निकालकर सामने की ओर ले जाए। फिर पट्टी को अंगूठे की ओर से ले जाए। अब छोटी वाली ओर से एड़ी पर तिरछे चक्कर से लपेटते हुए टांग के पीछे की ओर घुमाते हुए सामने ले आए। इसी विधि से पट्टी को तीन चार बार लपेटें। ताकि टखना और एड़ी पूरी तरह से ढक जाए। आखिरी में टांग पर एक सादा चक्कर लगाकर सेफ्टीपिन लगा दें।

तलुए की पट्टी- तलुए पर पट्टी करने के लिए सबसे पहले इसके लिए 7 सेण्टीमीटर चौड़ी तथा जरूरत अनुसार लम्बी पट्टी ले लें।

          टखने के जोड़ पर पट्टी को इस तरह से रखें कि पट्टी का खुला हुआ सिरा अंगूठे की ओर रहे। फिर पट्टी को टखऩे तथा एड़ी से घुमाते हुए दो बार इस तरह लपेटें कि वह पूरी एड़ी को ढक ले। इसके बाद पट्टी को पांव के ऊपर से ले जाते हुए अंगुली के सिरे के पास ले जाए तथा वहां पांव के ऊपर एक सादा चक्कर देकर, अग्रभुजा तथा टांग की पट्टी की तरह, पट्टी को हर चक्कर पर बीच में मोड़ते हुए पांव के ऊपर लपेटें। इस प्रकार 5-6 चक्करों से ही तलुआ पूरी तरह ढक जाएगा। अब पट्टी को दुबारा सामने की ओर ले जाकर एक बार टखने के ऊपर लपेट कर सेफ्टीपिन लगा दें।

          अगर टांग पर भी पट्टी बांधने की जरूरत हो तो इसी पट्टी को टांग के ऊपर भी बढ़ाया जा सकता है।

छाती की पट्टी- छाती पर दो प्रकार की पट्टियां बांधने की जरूरत पड़ती है-

•सिर्फ एक भाग के लिए
•पूरी छाती के लिए।
          छाती पर बांधने के लिए पट्टी 3 इंच चौड़ी तथा जरूरत अनुसार लंबाई की होनी चाहिए।

          अगर छाती को एक ही तरफ से ढकना हो तो उसके लिए सबसे पहले पट्टी के एक सिरे को घाव के ऊपर रखें। फिर दूसरे सिरे को पहले कमर की बाईं ओर से चारों ओर को लपेटते हुए दाईं छाती के नीचे तथा बाएं कन्धे के ऊपर ले जाकर, दुबारा कमर के बाईं ओर लाकर चारों ओर लपेट दें। इस प्रकार छाती के अच्छी तरह ढक जाने पर पट्टी के दोनों सिरों को सेफ्टीपिन लगाकर बांध दें।

          अगर पूरी छाती को ढकना हो तो सबसे पहले पूर्वोक्त प्रकार की पट्टी लेकर उसे कमर के पीछे दाईं ओर से लपेटना आरम्भ करें। फिर उसे कमर के चारों ओर लपेटकर बाएं कंधे के ऊपर सामने की ओर लगाते हुए, कमर के दाईं ओर ले जाए, फिर कमर के चारों ओर लपेटते हुए उसे दाएं कंधे के ऊपर से लेकर कमर के बाईं ओर ले जाकर दुबारा कमर पर लपेट दें। इस प्रकार जब छाती के दोनों भाग अच्छी तरह ढक जायें, तब उसके सिरे को सेफ्टीपिन द्वारा पट्टी के साथ रोक दें।

          इस प्रकार की पट्टी को लिस्टर की बन्ध (Lister’s Bendage) भी कहा जाता है।

कंधे की स्पाइका पट्टी- यह पट्टी कन्धे पर दबाव डालने के लिए बांधी जाती है। इसके लिए सबसे पहले बाहुमूल से पट्टी बांधना आरम्भ करें। इसके बाद पट्टी के सिरे को बाहुमूल, बगल, कंधे, पीठ तथा दूसरी ओर की बगल के अंदर ही घुमाकर, पीड़ित की छाती पर घुमाते हुए फिर बाहुमूल तक ले आए। इस प्रकार से कई बार घुमाकर बन्ध को पूरा करें और आखिरी में सेफ्टीपिन लगा दें।

हंसली की पट्टी- हंसली की पट्टी करने के लिए सबसे पहले बगल में एक गद्दी रख लें, जो 2 इंच मोटी तथा 4 इंच लम्बी हो। फिर एक 4 इंच चौड़ी पट्टी का छोर लेकर, उसे भुजा में ऊपरी हिस्से के चारों ओर ले जाकर झोला-सा बनाकर सेफ्टीपिन लगा दें।

          अब पीड़ित की पीठ के चारों ओर ले जाकर पट्टी को नीचे बगल की ओर उतारकर छाती के चारों ओर लपेटें तथा चोट-ग्रस्त हिस्से को बगल तक बांधते जाए। फिर पहुंचे को ऊपर उठाकर बगल को सीने के पास तक सटा दें, ताकि गद्दी अच्छी तरह टिकी रहे। इसके बाद कंधे को उठाने तथा पहुंचे का सहारा देने के लिए पट्टी के चारों ओर तथा सुरक्षित कंधे के ऊपर और कोहनी के चारों ओर तीन बार क्रमशः लपेटें। फिर धड़ के चारों ओर तथा भुजा के निचले भाग पर होकर पट्टी को तीन बार ले जाए, ताकि कंधे उठे रहें। आखिरी में पट्टी से दूसरे छोर को भुजा के ऊपर वाले हिस्से के पास ले जाकर सेफ्टीपिन लगा दें।

जबड़े की पट्टी- इसके लिए सबसे पहले 3 इंच चौड़ी पट्टी का 5 फुट लम्बा टुकड़ा लेकर, उसके बीच में एक छेद कर दें। इसके बाद पट्टी को दोनों ओर से इतना फाड़ें कि फाड़ा हुआ हिस्सा छेद से डेढ़ इंच दूर ही रह जाये। इस प्रकार चार सिरे वाली पट्टी तैयार हो जायेगी। इस पट्टी को सही तरीके जबड़े पर बांध लें।

ठोड़ी का बैरेल-बन्ध- इसके लिए दो से ढाई इंच चौड़ी पट्टी ले लें। फिर पट्टी के मध्य भाग को ठोड़ी के नीचे जहां तक सम्भव हो सके, पीछे करके रखें। फिर पट्टी को घुमाते हुए सिरे के ऊपर लायें तथा बांध दें।

          इसके बाद गांठ को खोलकर पट्टी के एक भाग को कपोल के सामने लाए तथा दूसरे भाग को सिर के पीछे कर दें। अंत में सिर के ऊपर एक गांठ लगा दें।

          इस प्रकार की पट्टी को बैरल बन्ध (The Barrel Bendage) कहा जाता है।

कान के पिछले भाग की पट्टी- कान के पिछले भाग के लिए ‘मेस्टोयड बन्ध’ (Mastoid Bandage) बहुत अच्छा रहता है।

          इस पट्टी को चित्रानुसार बाँधना चाहिए।

जांघ पर पट्टी बांधना- इसके लिए सबसे पहले पीड़ित व्यक्ति को पीठ के बल लिटा दें और उसकी कमर के नीचे एक बर्तन को उलट कर रख दें।

          फिर पट्टी को 2-3 बार जंघा-मूल में घुमाकर उसके ऊपर लाएं तथा कमर के पीछे लाते हुए, दुबारा जांघ से घुमाएं। आखिरी में पट्टी को 2-3 बार पूरी कमर पर घुमाकर सेफ्टीपिन लगा दें।

आंख पर पट्टी बांधना- इसके लिए सबसे पहले जिस आंख की पट्टी बांधनी हो, उस पर साफ रूई रख दें। इसके बाद आसान विधि द्वारा रूई के ऊपर से पट्टी बांध दें।

गले की पट्टी- इसके लिए पहले पट्टी के सिरे का गले पर दो बार घुमाव दें। फिर उसे कंधे पर होकर विपरीत बगल के पास लायें और वहां से घुमाते हुए दूसरी बगल पर ले जाये। फिर, वहां से विपरीत कंधे पर ले जाकर, दुबारा पहले की तरह घुमाव दे। इस प्रकार जब पट्टी समाप्त हो जाये, तब सेफ्टीपिन लगा दें।

मलद्वार तथा लिंग के मध्य भाग की पट्टी- इसके लिए पहले बताई गई विधि द्वारा ‘टी’ टाइप की पट्टी तैयार कर लें। इस पट्टी को बीच में सिलाई करके जोड़ा जाता है।

            फिर सिलाई किये हुए भाग को रोगी की पीठ की मध्य-रेखा के पास रखकर ऊपरी सिरे को पेट पर घुमाकर बांध दें।

            अब दूसरे नीचे वाले सिरे को मलद्वार के ऊपर से लाकर पेट के सामने बांध दें।

           मलद्वार तथा लिंग के नीचे वाले स्थान पर पट्टी बांधने के लिए यह सबसे अच्छी विधि मानी जाती है।

खोपड़ी की पट्टी- खोपड़ी पर पट्टी बांधने के लिए सबसे पहले पीड़ित व्यक्ति को किसी कुर्सी या चारपाई पर बैठा दें। फिर एक तिकोनी पट्टी को पूरा फैलाकर, उसके पूरे आधार को चौड़ाई से 4 अंगुल मोड़ लें। अब पीड़ित व्यक्ति के सामने खड़े होकर उस पट्टी को सिर पर इस तरह से रखें कि पट्टी का आधार मस्तक पर भौंहों का स्पर्श करता रहे तथा उसका सिरा सिर के पीछे की ओर लटकता रहे। यह याद रहे कि पट्टी के आधार का मुड़ा हुआ किनारा अंदर की ओर रहना चाहिए।

          अब पट्टी के दोनों सिरों को कान के ऊपर से सिर के पीछे ले जाकर, दोनों हाथों के सिरों को परस्पर बदल दें। इसके बाद दोनों सिरों को सामने लाकर मस्तक के बीच में रीफ-गांठ बांध दें।

          पीड़ित व्यक्ति के पीछे की ओर जाकर पट्टी के लटकते हुए सिरे को धीरे से खींचना चाहिए, ताकि पट्टी में पड़ी हुई सिकुड़न आदि निकल जाये। अन्त में इस लटकते हुए भाग को मोड़कर तथा सिर की ओर लाकर सिरे को सेफ्टीपिन द्वारा कस देना चाहिए।

छाती और पीठ की पट्टी- छाती पर पट्टी बांधने के लिए सबसे पहले पीड़ित व्यक्ति को अपने सामने खड़ा कर देना चाहिए। फिर खुली हुई पट्टी के मध्य-भाग को छाती के चोट-ग्रस्त स्थान पर रखें। फिर पट्टी के सिरे को उसी ओर के कन्धे पर रखें, जिस ओर की छाती का भाग चोट-ग्रस्त हो। अब पट्टी के आधार को 2 इंच मोड़कर तथा घुमाकर पीठ के पीछे की ओर ले जायें। जिस कंधे पर पट्टी का सिरा हो, पीठ के उसी बगल की ओर इस प्रकार बांधे कि पट्टी के लटकने वाले दोनों सिरों में एक सिरा अधिक लम्बा रहे। आखिर में, इस लम्बे सिरे को कंधे पर लटकते हुए पट्टी के सिरे से बांध दें।

          पीठ की पट्टी भी ठीक इसी प्रकार से बांधी जाती है। इसमें अन्तर सिर्फ इतना रहता है कि पट्टी को पीड़ित व्यक्ति की छाती पर न रखकर, पीठ की ओर रखा जाता है।

कंधे की पट्टी- इसके लिए सबसे पहले एक पूरी तिकोनी पट्टी को फैलाकर उसके आधार को चौड़ाई से 4 अंगुल मोड़ दें। फिर चोट-ग्रस्त कंधे की ओर खड़े होकर, उसी ओर के हाथ पर पट्टी को इस प्रकार रखें कि उसके आधार का मध्य भाग कोहनी से थोड़ा ऊपर रहे तथा आधार का मुड़ा हुआ भाग भीतर की ओर रहे। पट्टी का सिरा कन्धे के ऊपर गर्दन के पास रहना चाहिए।

          अब पट्टी के दोनों सिरों को भुजा के नीचे से घुमाकर निकालें। इसी प्रकार भुजा के ऊपर इन सिरों को एकबार और घुमाकर सामने की ओर गांठ बांध दें। इसके बाद हाथ को एक दूसरी पतली पट्टी के द्वारा गले में इस प्रकार लटका दे कि उस पट्टी की गांठ पहले बंधी हुई पट्टी के सिरे के ऊपर रहे। अन्त में पहली पट्टी के सिरे को धीरे से खींचकर उसकी सिकुड़न निकाल दें। इससे पट्टी कस जायेगी। फिर सिरे को दूसरी पट्टी की गांठ के ऊपर से मोड़कर, कंधे पर सेफ्टीपिन द्वारा अटका दें।

कोहनी की पट्टी- इसके लिए सबसे पहले एक पूरी तिकोनी पट्टी को फैलाकर उसके आधार को पहले की तरह ही मोड़ लें। इसके बाद चोट-ग्रस्त कोहनी को समकोण से मोड़कर रखें। पट्टी के आधार को, जिसका मुड़ा हुआ किनारा भीतर की ओर रहें, कोहनी के नीचे भुजा के बाहरी ओर रखें तथा सिरे को कोहनी से ऊपर कंधे की ओर रखें।

          अब पट्टी के दोनों सिरों को भुजा पर से घुमाकर कोहनी के ऊपर ले जायें। वहां इन सिरों को पट्टी के ऊपर से घुमाकर, फिर वहीं सामने की ओर गांठ लगा दें। इस प्रकार कोहनी के भीतरी ओर पट्टी द्वारा अंग्रेजी के अंक 8 जैसा आकार बन जायेगा। फिर पट्टी के सिरे को सावधानी से खीचंकर तथा मोड़कर, कोहनी पर सेफ्टीपिन लगा दें। अन्त में हाथ की पूरी पट्टी द्वारा हाथ को गले से लटका दें।

हाथ की पट्टी- हाथ पर पट्टी करने के लिए सबसे पहले एक पूरी पट्टी को फैलाकर उसके आधार को दूसरी पट्टी की तरह ही मोड़ लें। इस फैली हुई पट्टी के ऊपर चोट-ग्रस्त हथेली को इस प्रकार रखें कि अंगुलियां पट्टी के सिरे की ओर तथा कलाई पर पट्टी के मुड़े हुए आधार से कुछ दूर रहे।

          अब पट्टी को शीर्ष भाग की अंगुलियों के ऊपर से मोड़ते हुए कलाई के ऊपर ले आयें। फिर पट्टी के दोनों सिरों को भी घुमाकर कलाई के ऊपर लायें और वहां एक घुमाव देकर रीफ-गांठ बांध दें।

          अन्त में, शीर्ष को खींचकर तथा गांठ के ऊपर से मोड़कर सेफ्टीपिन लगा दें।

जांघ तथा कूल्हे की पट्टी- इसके लिये दो पट्टियों की जरूरत होती है-

•तिकोनी पट्टी
•संकरी या पतली पट्टी।
          सबसे पहले पतली पट्टी को कमर में बैल्ट की तरह इस प्रकार बांधें कि उसकी गांठ चोट-ग्रस्त कूल्हे की ओर रहें।

        अब तिकोनी पट्टी लेकर उसके आधार को पीड़ित व्यक्ति के घाव के अनुसार मोड़ लें तथा मुड़े हुए किनारे को अंदर की ओर रखते हुए, पट्टी के आधार को चोट-ग्रस्त जांघ पर इस प्रकार रखें कि पट्टी का सिरा कमर के कूल्हे के ऊपर रहे।

          फिर पट्टी के दोनों सिरों को जांघ के चारों ओर घुमाकर बांध दें तथा शीर्ष भाग को कमर से बंधी हुई पट्टी के नीचे सावधानीपूर्वक निकालकर थोड़ा-सा खींचे। फिर उसे नीचे की ओर उलट कर सेफ्टीपिन से अटका दें।

घुटने की पट्टी- इस पट्टी को कोहनी की पट्टी की तरह ही बांधा जाता है। इनमें फर्क सिर्फ इतना ही है कि इसमें घुटने को कोहनी की तरह समकोण से न मोड़कर सिर्फ थोड़ा-सा ही मोड़ा जाता है।

          पट्टी के आधार को 8 सेण्टीमीटर के लगभग मोड़कर, उसके मध्य-भाग को घुटने के ठीक नीचे की ओर तथा शीर्षभाग को जांघ पर रखना चाहिए। फिर पट्टी के दोनों सिरों को घुटने के नीचे-ऊपर घुमाने के बाद जांघ के चारों ओर घुमाएं। इसके बाद दोनों सिरों में रीफ-गांठ लगाकर शीर्षभाग को सावधानी से नीचे की ओर खींच दें।

पांव की पट्टी- इस पट्टी को हथेली की पट्टी की तरह ही बांधा जाता है। इसके लिए सबसे पहले पूरी पट्टी को फैलाकर, उसके आधार को मोड़ लें। फिर चोट-ग्रस्त पांव की पट्टी इस प्रकार रखें कि एड़ी आधार से कुछ दूर तथा अंगुलियां सिरे की ओर रहे। अब सिरे को मोड़कर टखने के ऊपर की ओर ले जाए। फिर पट्टी के दोनों सिरों को पांव के ऊपर से घुमाकर टांग के पीछे की ओर लाए तथा दोनों सिरों को घुमाते हुए टखऩे के सामने की ओर लाकर गांठ बांध दें। अन्त में पट्टी के सिरे को धीरे से खीचकर गांठ के ऊपर मोड़ दें तथा सेफ्टीपिन लगा दें।

बहुपुच्छी पट्टी बांधना- यह पट्टियां एक से ज्यादा पट्टियों को जोड़कर तैयार की जाती है, इसलिए इन्हें जरूरत अनुसार अलग-अलग आकार-प्रकारों में तैयार किया जाता है। इन पट्टियों को डोमैटी, फलालेन या दूसरे साफ कपड़ों द्वारा तैयार किया जाता है।

चिपकने वाली पट्टी बांधना- चिपकने वाली पट्टियों का प्रयोग जरूरत अनुसार पूरी सूझ-बूझ के आधार पर किया जाता है। यहां कुछ चित्रों द्वारा इस पट्टी की प्रयोग-विधि को प्रदर्शित किया जा रहा है, इन्हें देखकर समझ लें।

अंगुली की पट्टी- ढाई इंच चौड़ाई वाली चिकनी पट्टी को अंगुली के दूनी लम्बाई लें। फिर उसे क्रमशः नीचे प्रदर्शित चित्र की तरह चिपकाकर, खोल-सा बना दें और बाकी काट दें।

बाकी अंगों की पट्टी- इन चित्रों के अनुसार चिपकने वाली पट्टी का शरीर के अन्य अंगों पर भी प्रयोग किया जा सकता है।

दुर्घटना तथा प्राकृतिक आपदाओं के समय प्राथमिक चिकित्सा


FIRST AID AT THE TIME OF ACCIDENTS AND NATURAL DISASTER

          आधुनिक युग में औद्योगिक विस्तार तथा शहरीकरण के कारण दुर्घटनाओं की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं। गाड़ियों तथा मशीनों के संचालन से दुर्घटनाओं की संख्या में और भी वृद्धि हो गई है। कई बार बड़ी दुर्घटनाओं जैसे- रेल, हवाई जहाज तथा बसों के अलावा प्राकृतिक आपदाएं जैसे- आग लग जाना, भूकंप आ जाना, बाढ़ आ जाना, महामारी का प्रकोप या झगड़े में घायलों की संख्या बहुत बढ़ जाती है।

प्राथमिक सहायता के लिए सुविधाएं जुटाना- इन व्यवस्थाओं के लिए प्राथमिक चिकित्सा के प्रबन्ध बहुत लम्बे चौड़े मापदण्ड पर किए जायेंगे या जिनकी आवश्यकता है जैसा कि-

•स्कूलो, कालेजों तथा सार्वजनिक जगहों पर प्राथमिक सहायता डिब्बा, पट्टियों, खपच्चियों तथा स्ट्रेचरों की जरूरत।
•उपरोक्त जगहों पर सहायता देने के लिए प्राथमिक चिकित्सा प्रशिक्षित कर्मचारियों का प्रबन्ध जो व्यक्तियों या घायलों को अस्पताल भेजने से पहले प्राथमिक सहायता दे सकें।
•इन व्यक्तियों का समय-समय पर जीवन बचाने की विधियों, कृत्रिम-श्वास क्रिया तथा सी.पी.आर. का अभ्यास करवाने का प्रबन्ध।
•उपरोक्त जगहों पर नियुक्त व्यक्तियों को नियमानुसार प्रशिक्षण देना।
•अतिरिक्त स्थान बनाने के लिए कमरे या बरामदों को ध्यान में रखना।
•अतिशीघ्र प्रशिक्षित प्राथमिक चिकित्सकों को बुलाना तथा और अधिक व्यक्तियों का प्रबन्ध करना।
•उन व्यक्तियों के लिए भोजन तथा पानी का प्रबन्ध करना।
•कम्बल, चादर, तकिए आदि का इन्तजाम करना।
•गाड़ियों तथा एम्बूलेन्स को इकट्ठा करना।
•खपच्चियों तथा स्ट्रेचर की प्राप्ति तथा साधनकुशलता का प्रयोग करना।
•सम्भव हो तो छोटे-छोटे खानपान का प्रबन्ध।
•घायलों के लिए बिस्तर बनाना तथा उनके कपड़े बदलने का अभ्यास करवाना।

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

अचानक प्रसव होने की दशा में क्या करें What to do while sudden delivery




          अक्सर होता है कि गर्भ ठहरने के कुछ समय बाद स्त्रियां अपना नाम प्रसव कराने के लिए किसी अस्पताल या प्राइवेट नर्सिंग होम में दर्ज करा लेती है या फिर किसी दाई आदि से बात करके रखती है कि डाक्टर ने इस दिन की बच्चे के जन्म की तारीख दे रखी है। लेकिन कभी ऐसा हो कि अचानक ही प्रसव का दर्द उठने लगे या अस्पताल आदि ले जाने से पहले ही बच्चा पैदा होने लगे तो ऐसी हालत में घबराना नहीं चाहिए बल्कि तसल्ली से काम लेना चाहिए।

ऐसी अवस्था पैदा होने पर निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए और इस प्रकार से करना चाहिए-

•सबसे पहले एक बिस्तर का इंतजाम कर लेना चाहिए जो कि बिल्कुल भी गुदगुदा नहीं होना चाहिए। अगर जल्दबाजी में इस तरह का बिस्तर उपलब्ध न हो पाए तो जमीन पर चटाई आदि बिछा लेनी चाहिए। इस बिस्तर के ऊपर एक मोमजामा डालकर सफेद चादर बिछा लेनी चाहिए।
•इसके बाद गर्भवती स्त्री को पीठ के बल इस बिस्तर पर लेट जाना चाहिए और बिल्कुल भी नहीं घबराना चाहिए।
•गर्भवती स्त्री के पैर इस समय एक-दूसरे से अलग रहेंगें और उसके घुटने मुड़ें रहेंगें। जब प्रसव के दौरान बच्चे का सिर नजर आने लगे तो स्त्री को अपने पैरों को उठा लेना चाहिए। इस समय स्त्री द्वारा जोर लगाना जरूरी है लेकिन इसके लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है क्योंकि ऐसा स्वयं ही हो जाता है।
•अगर घर में डिटोल मौजूद हो तो उसे गर्भवती स्त्री के योनिद्वार पर लगा दें। इससे स्त्री को किसी तरह का इंफैक्शन होने की गुंजाइश नहीं रहती।
•बच्चे का जन्म होने के बाद उसे वहीं नीचे बिछाए हुए बिस्तर पर लिटा देना चाहिए। कभी-कभी नाल काफी छोटी होती है। आंवल जब तक बाहर न निकल आए तब तक बच्चे को ज्यादा दूर नहीं रखना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से नाल खिंचने का डर रहता है।
•अक्सर बच्चा पैदा होते ही रोना शुरू कर देता है। उसकी आंख, कान और मुंह तुरंत साफ करने चाहिए।
•बच्चे का सिर स्त्री के सामने नहीं होना चाहिए क्योंकि बच्चा पैदा होने के बाद स्राव तेज हो जाता है। ऐसी हालत में तेज स्राव से बच्चे को बचाना चाहिए।
•प्रसव कराने वाले कमरे में उबलता हुआ पानी तैयार रहना चाहिए और उस पानी में नाल काटने का सामान जैसे- एक कैंची और कई परतों में धागे के दो टुकड़े भी उबलते रहने चाहिए।
•ऊपरी सफाई करने के बाद बच्चे को तुरंत किसी कंबल या तौलिए से ढक देना चाहिए। मां के गर्भ का अंधेरा छोडकर बच्चा बाहर खुले में आ जाता है तो उसे यहां नितांत अलग तापमान का सामना करना पड़ता है। ऐसी हालत में उसकी सुरक्षा का पूरा प्रबंध करना चाहिए।
•अगर डाक्टर या नर्स या दाई आदि प्रसव कराने के लिए उपलब्ध न हो तो किसी चिमटी आदि से खौलते पानी में से धागे को पकड़कर निकाल लेना चाहिए। इसके बाद नाभि से लगभग 8 इंच की दूरी पर नाल को बांध लेना चाहिए। एक बात का ध्यान रखें कि नाल में दो जगह गांठ पड़ेगी, दूसरी गांठ आंवल की दिशा में पड़नी चाहिए। दोनों ही गांठें मजबूत और कसकर बंधी हुई होनी चाहिए।
•इसके बाद उबलते हुए पानी में से कैंची को निकालकर नाल काट लेनी चाहिए। एक बात का ध्यान रखें कि इन सारे कामों को करते समय बहुत ही सावधानी बरतनी चाहिए।
•नाल कटने के बाद बच्चे को अलग किया जा सकता है। इसके बाद आंवल निकलने का इंतजार कीजिए। आंवल को बाहर निकालते समय गंदे हाथों का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे संक्रमण होने का डर रहता है।
•आंवल के निकलने के बाद गर्भाशय ऊपर से गेंद की तरह उभरा हुआ नजर आता है। उसकी मालिश करनी चाहिए।
•इस समय अगर प्रसूता स्त्री की इच्छा किसी गर्म पेय पदार्थ पीने का करती है तो उसे हरीरा आदि पिलाया जा सकता है।

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प्रसव के बाद स्त्रियों के शरीर में हमेशा के लिए बदलाव Permanent changes in women body after delivery


          प्रसव अर्थात बच्चे के जन्म के बाद के बाद स्त्रियों के शरीर में कुछ बदलाव आना स्वाभाविक है। इन बदलावों के लिए अगर स्त्री अपने शरीर की शुरु से ही देखभाल करें तो यह बदलाव इतन कम होते हैं कि कोई स्त्री को देखकर यह बता ही नहीं सकता कि वह पहले कभी गर्भवती रह चुकी है। स्त्रियों के शरीर में छोटे-छोटे बदलाव निम्नलिखित है-

एनीमिया (खून की कमी)-

बच्चे को जन्म देने के बाद स्त्री के शरीर में रक्त की कमी होने के दो प्रमुख कारण होते हैं-

1. प्रसव के समय रक्त का अधिक मात्रा में निकल जाना।

2. स्त्री द्वारा गर्भावस्था में अपने रक्त की जांच न करवाना।

          गर्भावस्था का समय बढ़ने के साथ-साथ स्त्री को सन्तुलित आहार न मिलने के कारण उसके चेहरे पर कभी-कभी झाईंयां भी पड़ जाती हैं। ऐसी अवस्था में स्त्री को प्रसव के 3 महीने बाद तक लौह पदार्थयुक्त भोजन देना बहुत जरूरी होता है। इसके साथ ही उसे कैप्सूल, गोलियां या पीने की दवा भी सेवन के लिए दी जा सकती हैं।

प्रसव के बाद त्वचा में बदलाव-

          जिन स्त्रियों की त्वचा खुश्क होती है उनकी त्वचा बच्चे को जन्म देने के बाद और भी अधिक खुश्क हो जाती है। इसके लिए त्वचा पर किसी अच्छे तेल का प्रयोग करना चाहिए। जिन स्त्रियों का वजन अधिक होता है, उनके शरीर पर पके हुए लाल रंग के घाव दिखाई पड़ने लगते हैं। इस कारण अपने वजन को बढ़ने नहीं देना चाहिए।

वजन-ba

          गर्भावस्था के दौरान लगभग सभी स्त्रियों को वजन पहले से अधिक बढ़ जाता है। इस अवस्था में स्त्रियों का वजन 8 किलो से 12 किलो तक बढ़ता है, जिसमें शरीर पर चर्बी का जमाव, शरीर में अधिक पानी का जमाव, बच्चे, बच्चेदानी और एमनीओटिक द्रव का वजन प्रमुख होता है। प्रसव के बाद भी स्त्री का वजन अधिक बना रहता है। बच्चे के जन्म के 3 महीने तक यदि स्त्री लगातार अपने बच्चे को स्तनपान कराती है तो उसका बढ़ा हुआ वजन पहले जैसा हो जाता है। परन्तु अधिक चिकनाईयुक्त भोजन करने, मेवे आदि के सेवन के कारण स्त्री का वजन बढ़ता चला जाता है। यदि स्त्री व्यायाम आदि नहीं करती हैं तो भी उसका शरीर भारी और भद्दा दिखने लगता है।

          दूसरी ओर कुछ स्त्रियां अपने शरीर के आकार और सुन्दरता को बनाये रखने के लिए बच्चे को दूध पिलाना पसन्द नहीं करती हैं। इसके साथ ही वे भोजन भी कम मात्रा में करती हैं।

शौचक्रिया-

          प्रसव के बाद सामान्य तौर पर स्त्रियों को कब्ज की शिकायत रहती है। भोजन करने के तौर-तरीकों में बदलाव लाकर कब्ज की शिकायत हमेशा के लिए दूर की जा सकती है। कब्ज को दूर करने के लिए ईसबगोल की भूसी या गोलियों का सेवन नहीं करना चाहिए क्योंकि आप जैसा अपनी आन्तों को देते रहेंगे, आन्ते वैसी ही बन जाएगी। अधिक मात्रा में तरल पदार्थों, हरी सब्जियां, दही, दाले तथा अन्य द्रवों का प्रयोग करने से कब्ज की शिकायत दूर हो जाती हैं।

प्रसव के बाद स्त्रियों के बाल-

          प्रसव के बाद बालों का टूटना, पतला होना, बालों का सफेद होना, बालों का न बढ़ना आम बात है। लेकिन प्रतिदिन बालों की अच्छी तरह से देख-भाल करने से बालों के यह सभी दोष दूर किये जा सकते हैं।

प्रसव के बाद स्त्रियों के दांतों की स्थिति-

          प्रसव के बाद स्त्री के दांतों की चमक में कमी आ जाती है। दांतों में दरारे पड़ना, दांतों में छेद हो जाना, मसूड़ों का सूजना व मवाद का आना आदि स्त्री के लिए प्रमुख समस्याएं होती है। इससे बचने के लिए गर्भावस्था में मसूड़ों की मालिश तथा दांतों को साफ रखना चाहिए। इससे दांतों के विकारों से छुटकारा मिलता है।

वेरीकोस धमनियां-

          स्त्री में गर्भावस्था के समय हर बार वेरीकोस धमनियां बनती है। लगातार गर्भावस्था के कारण यह काफी बढ़ जाती है तथा शरीर में हानि देती हैं। पैरों में वेरीकोस धमनियां ठीक होने में अधिक समय लगता है परन्तु फिर भी गुनगुने नमकीन पानी की सिंकाई, पैरों को सदैव ऊपर करके बैठना, सोते समय पैरों के नीचे तकिया रखकर सोना, शौच क्रिया के लिए अधिक देर तक न बैठना तथा अधिक देर तक खड़े रहने से लाभ होता है। वेरीकोस धमनियों का आपरेशन करके तथा इंजेक्शन द्वारा भी ठीक किया जा सकता है।

प्रसव के बाद शरीर की त्वचा पर दाग-

          गर्भावस्था में स्त्री के स्तन, पेट और जांघों की त्वचा खिंच जाती है। इस खिंचाव के कारण स्त्री के शरीर की त्वचा पर हल्के रंग के दाग दिखाई पड़ने लगते हैं। जिन स्त्रियों का वजन अधिक होता है या जिन स्त्रियों के दो बच्चे होते हैं, उन स्त्रियों के शरीर की त्वचा पर दाग बहुत अधिक मात्रा में दिखाई पड़ते हैं।

          प्रतिदिन व्यायाम और शरीर की मालिश करने से स्त्रियों का वजन नियन्त्रित रहता है। वजन नियन्त्रित होने से त्वचा पर दाग कम मात्रा में होते हैं। त्वचा के दाग-धब्बों को दूर करने के लिए प्लास्टिक सर्जरी भी की जा सकती है।

स्तनों में बदलाव-

          गर्भावस्था में लगातार हार्मोन्स में परिवर्तन के कारण स्त्रियों के स्तन भारी और लम्बे हो जाते हैं। इस अवस्था में अगर स्तनों की ठीक प्रकार से देखभाल न की जाए तो इनका आकार बदल जाता है। स्तन ढीले या लटक जाने पर दुबारा पहले जैसे नहीं हो पाते हैं। इसलिए स्तनों की सही तरीके से देखभाल करनी चाहिए।

          इससे स्तनों के निप्पल का रंग गहरा होना तथा उसके पास की त्वचा पर दाग का रंग हमेशा के लिए ठीक हो जाता है।

पैरों में बदलाव-

          अधिक शारीरिक थकान, देर तक खड़े होकर काम करना, ज्यादा दूरी तक पैदल चलना तथा ढके जूते पहनने के कारण स्त्री के पैर खराब हो जाते हैं। गर्भावस्था में शरीर के लिंगामेंट मांसपेशियों तथा दो हडि्डयों के बीच बांधने वाली नलिकाएं ढीली हो जाती है जिससे पैरों के आकार में बदलाव हो जाता है।

चाल में बदलाव-

          गर्भावस्था में हार्मोन्स के कारण तथा प्रसव के बाद हडि्डयों का आकार बदल जाता है। इस कारण स्त्री की चाल में भी परिवर्तन आ जाता है। इसकी वजह से उसकी कमर तथा कूल्हों में दर्द रहता है। इस दर्द से छुटकारा पाने के लिए प्रसव के बाद स्त्री को हल्का व्यायाम करने से लाभ मिलता है।

बवासीर-

          गर्भावस्था के समय स्त्रियों में बवासीर उभर आते हैं। वैसे तो यह साधारण बात है। प्रसव के समय यह बवासीर अधिक बढ़ जाते हैं लेकिन प्रसव के बाद धीरे-धीरे खुद ही कम भी हो जाते हैं। बवासीर के कारण स्त्री को उठने-बैठने तथा दैनिक कार्यों में अधिक दर्द तथा कष्ट होता है। यदि प्रसव के बाद भी बवासीर बना रहता है तो इसकी चिकित्सा शीघ्र ही करानी चाहिए। बवासीर की चिकित्सा इन्जैक्शन, ऑपरेशन, लेजर चिकित्सा तथा अधिक साफ-सफाई व दवाईयों द्वारा किया जा सकती है।

मूत्र की शिकायत-

          गर्भावस्था के बाद ज्यादातर स्त्रियों का अपने मूत्र पर से नियन्त्रण खो जाता है। खांसने या छींकने पर भी उनका मूत्र निकल जाता है। इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए स्त्रियों को रोजाना हल्के व्यायाम करने चाहिए।

पैरानियम-

          पैरानियम वहीं जगह है जहां प्रसव होने के बाद स्त्री को टांके लगाये जाते हैं। टांकों के दाग, मांसपेशियों का मोटापन और दर्द कुछ दिनों तक बना रहता है। धीरे-धीरे समय बीतने और व्यायाम करने पर टांकों का दर्द समाप्त हो जाता है। इसके बावजूद भी कुछ स्त्रियों को संभोग क्रिया के समय दर्द महसूस होता है। इस प्रकार की समस्या होने पर अपने डॉक्टर को तुरन्त दिखाना चाहिए।

          यदि बच्चे के जन्म के बाद स्त्री को टांके लगते हैं तो टांकों के निशान इसके किनारों पर देखे जा सकते हैं। योनि में बच्चे के जन्म के बाद घाव होने से छाले आदि देखे जा सकते हैं। इन घावों से पानी की तरह एक तरल पदार्थ रिस-रिसकर निकलता रहता है जिससे जलन और सूजन भी होती है।

बच्चेदानी-

          प्रसव के बाद स्त्री की बच्चेदानी भी पहले की तुलना में बड़ी और मोटी हो जाती है। प्रथम मासिक स्राव होने के समय अधिक रक्त निकलता है। इसी तरह लगभग 6 महीने तक अधिक रक्तस्राव तथा अधिक समय तक मासिक स्राव होने के कारण धीरे-धीरे बच्चेदानी का आकार सामान्य हो जाता है। यह हार्मोन्स के बदलाव के कारण होता है। कुछ स्त्रियों को मासिकस्राव के समय कुछ दर्द होता है तथा कुछ स्त्रियों में दर्द नहीं होता है।

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गर्भावस्था के दौरान होने वाली सामान्य तकलीफें और समाधान

गर्भावस्था के दौरान होने वाली सामान्य तकलीफें और समाधान

वेरीकोस वेन-
        स्त्रियों में गर्भावस्था से पहले और कभी-कभी गर्भावस्था के बाद पैरों में नीले रंग की बड़ी-बड़ी नसें दिखाई पड़ने लगती हैं। इन्हीं को ’वेरीकोस वेन’ कहा जाता है।

        जैसे-जैसे गर्भावस्था का समय आगे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे स्त्री के शरीर के विभिन्न अंगों जैसे- स्तनों के निप्पल, एरीओला, योनि का बाहरी भाग तथा मलद्वार की त्वचा काली होने लगती है। इसके साथ ही साथ दोनों गालों तथा माथे के बीच के हिस्से की त्वचा पर काले दाग और झाईयां दिखाई पड़ने लगती है। इन्हें कोलास्मा कहते हैं। त्वचा के काले होने के कारण त्वचा के नीचे मेलेनिन नाम का पिगमेंट इकट्ठा होने लगता है। यह परिवर्तन शरीर में उत्तेजित द्रव के कारण होता है।

        गर्भावस्था में नाभि से नीचे एक काले रंग की लकीर दिखाई पड़ने लगती है जिसे लिनिया नाइग्रा कहते हैं। इस लाइन के दोनों तरफ त्वचा के नीचे वसा के कारण छोटी-छोटी चांदी के समान आकार की सफेद लाईन दिखाई पड़ने लगती है, जिसे स्ट्राइग्रबिडोरम कहते हैं। यह निशान पेट, स्तन और जांघों पर भी हो जाते हैं। प्रसव के बाद मांसपेशी के खिंचाव के कारण यह निशान शरीर पर हमेशा के लिए बन जाते हैं। स्त्रियों के शरीर में उत्तेजित द्रव ए.सी.टी.एच के बढ़ते ही शरीर में यह बदलाव होता है।

        गर्भावस्था में बड़ी-बड़ी नसें जैसे ईनफीरियर, विनाकावा, फिमोरल वेन, सैफनस वेन आदि पर दबाव पड़ने के कारण यह नसें दिखाई देने लगती हैं क्योंकि रक्त शरीर के ऊपरी भाग में सरलता से नहीं लौट पाता है। साथ ही साथ इन नसों के वाल्व भी कमजोर हो जाते हैं। इसमें रक्त और ऊपर की ओर आने की स्थिति में नहीं होता है। गर्भ के कारण रक्त को पैरों की मांसपेशियों में लौटते समय अधिक रुकावट होती है। इस रुकावट के कारण पैरों की नसें जो पतली दीवारों और त्वचा के पास होने के कारण शीघ्र ही दिखाई पड़ने लगती है, वैरीकोस नसें कहलाती हैं।

        ऐसी स्थिति में स्त्री को अधिक से अधिक आराम करना चाहिए। अधिक देर तक खडे़ नहीं होना चाहिए तथा अपने एक पैर को दूसरे पैर के ऊपर नहीं रखना चाहिए। सोते समय पैरों को थोड़ा सा ऊपर करके सोना चाहिए। कुर्सी पर बैठकर अपने पैरों को जमीन पर इधर-उधर चलाते रहना चाहिए जिससे पैरों की मांसपेशियों का व्यायाम हो सके।

        स्त्री की यह वेरीकोस नसें चूंकि हृदय से लगभग 12 मीटर दूर होती है। इस कारण उन पर अधिक रक्त का दबाव होता है। जिससे कारण कभी-कभी यह फूलकर त्वचा के बाहर उभर आती है। उभरने के साथ-साथ यह फैलती जाती है तथा कम स्थान होने के कारण टेढ़ी-मेढ़ी दिखाई पड़ती है और इनमें अधिक दर्द होता है। इन नसों में प्रत्येक 15 सेंटीमीटर की दूरी पर एक वाल्व होता है जो रक्त के भरने के कारण ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर पाता है। यह वाल्व आकार में छोटा तथा जोड़ों में होता है जो धमनियों की दीवार के आमने-सामने लगा होता है।

गर्भावस्था में बवासीर की शिकायत-

        गर्भावस्था का समय बीतने के साथ-साथ बच्चे के वजन, स्थान के कारण और बच्चेदानी के वजन के कारण कूल्हे की धमनियों पर दबाव पड़ता है। सभी धमनियों में रक्त इकट्ठा होना शुरू हो जाता है। धमनियां जो मलद्वार के पास होती हैं। उनके फैलने के कारण वह मोटी-मोटी दिखाई पड़ने लगती है। इसे ही बवासीर कहते हैं।

        बवासीर दो प्रकार की होती है। जो बवासीर मलद्वार के अन्दर की ओर होती है उसे अन्दर की बवासीर कहते हैं। जो बाहर की ओर होती है उसे बाहर की बवासीर कहतें है। बवासीर को हैमेराईड भी कहा जाता है।

बवासीर होने के कारण-

•कब्ज की शिकायत होने पर मलत्याग के समय स्त्री को अधिक जोर लगाना पड़ता है जिससे कारण बवासीर हो जाती है।
•बार-बार मलत्याग करने तथा मलत्याग के समय देर तक बैठने की आदत के कारण भी बवासीर की शिकायत हो जाती है।
•बवासीर के कारण स्त्री के शरीर की मांसपेशियां ढीली और कमजोर हो जाती है। जिस कारण शरीर में रक्त का संचार नहीं हो पाता है।
•परिवारिक माहौल होने के कारण स्त्री सही समय पर भोजन नहीं कर पाती हैं। सही समय पर भोजन का सेवन न करने के कारण उन्हें बवासीर की शिकायत हो जाती है।
•गर्भावस्था के दौरान बच्चे के सिर का दबाव रक्त की धमनियों पर पड़ता है जिसके कारण स्त्री बवासीर से पीड़ित हो जाती है।
•गर्भावस्था में बच्चेदानी के दबाव के कारण भी स्त्री को बवासीर की शिकायत हो जाती है।
•स्त्री के पेट की धमनियों पर बच्चे और बच्चेदानी का दबाव पड़ना भी बवासीर होने का प्रमुख कारण होता है।
        बवासीर जब शुरू होने को होती है तो स्त्री को अपने मलद्वार पर जलन और अधिक खुजली होती है। धीरे-धीरे यह धमनियां बढ़ती हैं तथा मांसपेशियों की सतह से लटकना शुरू कर देती हैं। यही बवासीर होती है। मलत्याग करने के बाद यह और अधिक फैल जाती है। यह इतनी बाहर निकल आती है कि इनको हाथों की अंगुलियों द्वारा धीरे-धीरे दबाकर अन्दर करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में ध्यान रखना चाहिए कि हाथों के नाखून इसमें न लगने पाये क्योंकि रक्त निकलने की आशंका होती है। कुछ बवासीर की नसों में रक्त का जमाव भी हो जाता है। इस प्रकार की बवासीर को रक्त वाली बवासीर कहते हैं। इसके पनपने के कारण स्त्री को बहुत अधिक दर्द होता है।

बवासीर की चिकित्सा-

        गर्भावस्था के दौरान कब्ज होने के कारण बवासीर हो जाती है। इस कारण कब्ज की चिकित्सा बहुत ही आवश्यक होती है। कब्ज की शिकायत होने पर भोजन को शीघ्र ही बदल देना चाहिए। बवासीर को गुनगुने पानी से धोकर मलहम का प्रयोग करना चाहिए। मलत्याग करने के बाद पानी में पोटैशियमपरमैगनेट को डालकर मलद्वार की सिंकाई करनी चाहिए और ट्यूब को हाथ में लगाकर उसे अन्दर की ओर धकेलना चाहिए।

        बवासीर से पीड़ित रोगी को शौचक्रिया में कम समय तक बैठना चाहिए। अधिक से अधिक आराम करने पर भी यह अन्दर चला जाता है। शरीर को बेहोश करने वाले इन्जेक्शन, अन्य दवाइयों के द्वारा या ऑपरेशन करके बवासीर का इलाज किया जाता है। गर्भावस्था में ऑपरेशन या इंजैक्शन की सहायता से बवासीर की चिकित्सा नहीं करना चाहिए क्योंकि यह मां और बच्चे दोनों के लिए हानिकारक होता है।

        साधारण बवासीर गर्भावस्था के बाद स्वयं ही ठीक हो जाती है। परन्तु ध्यान रखना चाहिए कि इस दौरान स्त्री का वजन सन्तुलित रहना चाहिए तथा सन्तुलित मात्रा और नियमित समय पर भोजन करना चाहिए।

गर्भावस्था में शरीर की मांसपेशियों में ऐंठन-

        महिलाओं के शरीर में कैल्शियम, विटामिन `बी`, `ई` तथा लवण आदि की कमी के कारण गर्भावस्था के अन्त में मांसपेशियों में ऐंठन होने लगती है। यह मुख्य रूप से दोनों पैरों में अधिक होती है। मांसपेशियों में ऐंठन के समय दोनों पैरों के अंगूठों को अन्दर की तरफ मोड़कर मांसपेशियों को दबाना और मोड़ना चाहिए तथा मांसपेशियों कर मालिश करनी चाहिए।

        स्त्रियों को भोजन में अधिक मात्रा में कैल्शियम, विटामिन, दूध तथा दूध से निर्मित पदार्थ, हरी पत्तेदार सब्जियां, सलाद, दालें आदि का अधिक मात्रा में उपयोग करना चाहिए। मांसपेशियों के ऐंठन होने पर नींबू पानी में नमक डालकर सेवन करने से लाभ मिलता है। हाई ब्लडप्रेशर होने की स्थिति में नमक का सेवन नहीं करना चाहिए तथा डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए।

        मांसपेशियों की ऐंठन को रोकने के लिए पैर को घुटनों और जोड़ों से कई बार मोड़ने का प्रयास करना चाहिए। इससे पैरों के जोड़ों से मांसपेशियों तक का पूर्ण व्यायाम हो जाता है। इसके अतिरिक्त एड़ियों के बल चलना, पंजों के बल चलना तथा पैरों के किनारों पर अधिक वजन देकर चलने से भी लाभ होता है। मांसपेशियों की ऐंठन की अवस्था में थोडे़ समय टहलना लाभकारी होता है।

गर्भावस्था के दौरान पूर्ण सांस ले पाना-

        जैसे-जैसे गर्भ में बच्चा बढ़ता जाता है वैसे-वैसे बच्चेदानी का आकार भी ऊपर की ओर बढ़ने लगता है। इससे फेफड़ों पर अधिक दबाव के कारण सांस पूर्ण रूप से बाहर नहीं आ पाती है। गर्भ में जुड़वां बच्चे होने पर स्त्री को सांस लेने में काफी परेशानी होती है। गर्भ में जुड़वां बच्चे होने पर जब स्त्री बैठी होती हैं तो उसे सांस लेने में अधिक रुकावट प्रतीत होती है। इसके लिए स्त्री को अधिक से अधिक विश्राम करना चाहिए। सांस लेने में परेशानी होने पर जमीन पर न बैठना, कन्धों को अधिक मोड़कर कार्य करना, वजन उठाकर चलना आदि कार्यों को नहीं करना चाहिए।

दिल की धड़कन बढ़ जाना-

        गर्भावस्था के दौरान दिल की तेज धड़कन स्वयं को महसूस होना, चलने, बोलने आदि में सांस और धड़कनों का अधिक हो जाना आम बात है। हृदय का प्रमुख कार्य ऑक्सीजन युक्त रक्त मां और बच्चे के शरीर को प्रदान करना होता है। इस कारण दिल की धड़कन बढ़ जाती है। अधिक कार्य करने से हृदय की मांसपेशियां भी बढ़ जाती है जिसके कारण हृदय को लगभग 35 प्रतिशत से 40 प्रतिशत अधिक कार्य करना पड़ता है।

चक्कर घबराहट और अधिक नींद का आना-

        स्त्रियों के शरीर में अच्छी प्रकार से ऑक्सीजनयुक्त रक्त न पहुंच पाने के कारण अधिक चक्कर, घबराहट आदि की शिकायत होना आम बात होती है। ऐसी स्त्रियों का ब्लडप्रेशर भी लो होता है। मस्तिष्क तक कम मात्रा में रक्त पहुंचने के कारण स्त्रियों को अधिक थकान, सुस्ती और अधिक नींद आती है। गर्भावस्था में प्रथम तीन महीनों में अक्सर स्त्री का ब्लडप्रेशर सामान्य ब्लडप्रेशर की तुलना में कम होता है। इस कारण स्त्री को चक्कर भी आ सकते हैं। इस कारण स्त्री कार्य करते समय गिर सकती हैं और उसके शरीर को हानि हो सकती है। ऐसी अवस्था में स्त्री को अधिक सावधानी बरतनी पड़ती है। लो ब्लडप्रेशर से मां और बच्चे के शरीर को कोई हानि नहीं होती है। खुली हवा में धीरे-धीरे घूमना चाहिए तथा अपने आप को दूषित वातावरण से दूर रखना चाहिए। लम्बी यात्रा अधिक थकान वाले कार्य या फिर काफी देर बैठना स्त्री के लिए हानिकारक हो सकता है।

खुजली और जलन-

        गर्भावस्था में स्त्री के शरीर पर खुजली और जलन आम बात होती है। इस प्रकार की खुजली स्त्री के पेट और कभी-कभी हाथ-पैरों पर भी हो जाती है। खुजली होने पर त्वचा में लाल रंग के दाने दिखाई पड़ने लगते हैं। जैसे-जैसे गर्भावस्था बढ़ती जाती है। त्वचा भी खिंचती जाती है। इसकी वजह से शरीर में जलन और खुजली होती है। इसको गर्भावस्था में एलर्जी कहते हैं। इस प्रकार की एलर्जी में नारियल का तेल, ऑलिव आयल या फिर कैलाड्रिल लोशन का प्रयोग किया जा सकता है। दो चम्मच ग्लिसरीन, दो चम्मच गुलाबजल और आधा चम्मच नींबू का रस मिलाकर त्वचा पर लगाने से त्वचा मुलायम हो जाती है और त्वचा की खुजली और जलन भी मिट जाती है।

        गर्भावस्था के दौरान स्त्री की योनि में जलन और खुजली अक्सर हो जाती है। योनि और कूल्हे की मांसपेशियों में अधिक रक्तसंचार होने के कारण छोटे से छोटे आम कीटाणु भी खुजली पैदा कर देते हैं। इस खुजली और जलन से गर्भ में बच्चे को कोई हानि नहीं होती है परन्तु स्त्री को अधिक कष्ट होता है। इस कष्ट से छुटकारा पाने के लिए गुनगुने पानी में एन्टीसेप्टिक दवा (डिटोल) की कुछ बूंदे डालकर स्त्री को अपने योनिद्वार को 3-4 बार अच्छी तरह से धो लेना चाहिए।

चप्पल, जूते और सैण्डल से पैरों में दर्द-

        ऊंची एड़ी वाली सैंडल आदि पहनने से पैरों और पिण्डलियों में दर्द होना स्त्रियों के लिए एक सामान्य बात है लेकिन गर्भावस्था में स्त्री को ऊंची एड़ी के सैंडल आदि का प्रयोग न करके सामान्य चप्पलों का प्रयोग करना चाहिए। इससे स्त्री के फिसलने और गिरने का डर नहीं रहता है। घर पर भी स्त्री के लिए बिना एड़ी वाले साधारण चप्पल ही अच्छी रहती है।

        पैर शरीर का वह अंग है जो हृदय से दूर है। इस कारण रक्त का संचार पैरों में देरी से पहुंचता है और देर से ही लौटता है। इस कारण पैरों का खास ख्याल रखना जरूरी होता है। पैरों में लगी हुई चोट काफी देर से भर पाती है। खासकर उन स्त्रियों में जिनका ब्लडप्रेशर हाई हो, जिन्हे मधुमेह हो या जिनके शरीर में विषैलापन हो।

        शरीर का सम्पूर्ण भार पैरों द्वारा ही वहन किया जाता है। गर्भावस्था में शरीर के लिंगामेंट और मांसपेशियां ढीली हो जाने के कारण पैर फैल जाते हैं। पैरों की हडि्डयों में 3 प्रकार की कमानियां होती है। दो कमानियां जो आगे से पीछे की ओर होती है तथा एक कमानी एक तरफ से दूसरी तरफ को होती है। जिनको आर्चेज कहते हैं। यदि यह अधिक फैल जाती है तो स्त्री के पैरों में हमेशा के लिए दर्द की शिकायत हो सकती है।

        पैरों की देखभाल के लिए नियमित रूप से गर्म पानी में नमक डालकर पैरों को साफ करके मालिश करनी चाहिए। गर्भावस्था में चलते समय छोटे-छोटे कदम रखकर ही चलना चाहिए।

नाक से सांस का न आना-

        गर्भावस्था में हार्मोन्स अधिक होने के कारण नाक के साईनस की दीवारों पर सूजन आ जाती है। यह सूजन म्यूकस मैमब्रेन में होती है। इसके कारण सांस लेने में कठिनाई हो जाती है। यह परेशानी गर्भावस्था के समय पूर्ण समय तक देखी गई है लेकिन बच्चे के जन्म के बाद यह शिकायत स्वयं ही दूर हो जाती है। इसके लिए लम्बी सांस का व्यायाम करना उचित होता है।

नाक से खून का निकलना-

        ब्लडप्रेशर अधिक होने के कारण कभी-कभी स्त्री की नाक से रक्तस्राव होने लगता है परन्तु यदि ब्लडप्रेशर ठीक हो और फिर भी नाक से रक्त आये तो इसका प्रमुख कारण नाक का दब जाना या हार्मोन्स के कारण नाक की दीवारों का रक्तसंचार बढ़ जाना होता है। कई बार तो नाक में उंगली डालने से भी नाक से खून निकलना शुरू हो जाता है। इसके लिए नाक में दवा की बूंदों या वैसलीन का प्रयोग किया जा सकता है।

कमर दर्द-

        आमतौर पर गर्भावस्था में स्त्रियों के शरीर का वजन बढ़ता चला जाता है जिसका प्रभाव स्त्री की मांसपेशियों और मुख्य रूप से कमर की हडि्डयों पर पड़ता है। स्त्री के शरीर में कमर दर्द होने का कारण कैल्शियम और प्रोटीन का कम मात्रा में होना है। इस कारण गर्भावस्था के दौरान स्त्री के भोजन में कैल्शियम तथा प्रोटीन की मात्रा अधिक होनी चाहिए और समय के अनुसार उसे हल्का व्यायाम करना चाहिए। शरीर का वजन सन्तुलित रखना चाहिए। स्त्री को गर्भावस्था के दौरान झुककर कार्य नहीं करना चाहिए। यह भी कमर दर्द का एक प्रमुख कारण होता है। शरीर का वजन दोनों पैरों पर एक समान मात्रा में रखना चाहिए तथा मांसपेशियों को खींचकर हल्का व्यायाम करना चाहिए। सोते या लेटते समय एक छोटा तकिया कमर के नीचे कुछ समय के लिए लगाया जा सकता है। इससे स्त्री को आराम और राहत मिलती है। स्त्री को सोते समय ढीले और सूती कपड़े पहनने चाहिए।

        जैसे-जैसे गर्भावस्था का समय बढ़ता जाता है वैसे-वैसे कूल्हे की हडि्डयों के लिंगामैंट (अस्थिबंध) (यह दो जोड़ों को बांधती है) स्वयं ही ढीली पड़ने लगते हैं। इसके कारण स्त्री के कूल्हों में दर्द होता है। इससे बचने के लिए स्त्री को अधिक से अधिक आराम करना चाहिए या फिर प्रतिदिन के कार्य के बीच में आराम करके कमर और कूल्हों को आराम देना चाहिए। कई बार दर्द कूल्हे की हडि्डयों से पैर के पीछे की ओर भी चला जाता है। इस अवस्था में अधिक से अधिक आराम तथा हल्के व्यायाम करने चाहिए।

स्तनों में दर्द-

        गर्भाशय में बच्चे का आकार बढ़ने से मां के पेट का आकार बढ़ना एक स्वाभाविक बात है। इस कारण 6 महीने के बाद स्तनों के नीचे और स्तनों में दर्द हो सकता है। पेट के अन्य अंगों जैसे- लीवर, पेट, आंतों आदि पर भी दबाव पड़ता है।

स्त्री के पेट और टांगों में दर्द-

        गर्भ में धीरे-धीरे बच्चे का विकास होता रहता है तथा कूल्हे की हडि्डयों के जोड़ भी मुलायम होते जाते हैं। जिससे प्रसव के समय बच्चे को अधिक स्थान मिल सके और हडि्डयां सरलता से पीछे की ओर ढकेली जा सके। इस कारण स्त्री के पेट और टांगों में दर्द होना स्वाभाविक होता है।

हाथ-पैर की अंगुलियों का सुन्न हो जाना और सूजन आना-

        गर्भावस्था में स्त्री के शरीर में रक्त का संचार कम हो जाता है। इस दौरान स्त्री का वजन बढ़ना भी स्वाभाविक होता है जिसकी वजह से उसके हाथ-पैरों में सूजन आ जाती है। यह सूजन शरीर में पानी की अधिक मात्रा के कारण होती है, इसको एड़िमा कहते हैं। इस एकत्रित द्रव के कारण नसों और मांसपेशियों पर दबाव पड़ता है, जिसकी वजह से हाथ-पैरों की अंगुलियां सुन्न हो जाती है। चूंकि रात्रि में द्रव इकट्ठा होता रहता है। इस कारण सुबह के समय शरीर में सूजन अधिक होती है। इसके बाद जैसे ही स्त्री किसी कार्य में लग जाती हैं वैसे ही उसकी सूजन कम होना शुरू हो जाती है। स्त्रियों के शरीर में यह सूजन चेहरे-हाथ-पैर तथा जोड़ों आदि में अधिक होती है। पहनने वाले कपडे़ चुस्त होने से या ब्लडप्रेशर हाई होने से भी सूजन अधिक होती है। इस कारण स्त्रियों को खाने में कम मात्रा में नमक और प्रोटीन युक्त पदार्थों का सेवन करना चाहिए। गर्भावस्था में अधिक देर तक बैठना, यात्रा करना या फिर देर तक खडे़ होना ठीक नहीं होता है। फिर भी सूजन में कमी न हो तो इसका कारण गुर्दे की कमजोरी हो सकती है। ऐसा होने पर डाक्टर की सलाह जरूर लेनी चाहिए।

कच्चे चावल मुल्तानी मिट्टी, कोयला, इमली या कच्चे आम खाने की इच्छा होना-

        गर्भावस्था के दौरान शरीर में कैल्शियम, प्रोटीन, लौह पदार्थ, विटामिन और लवण आदि की कमी के कारण अक्सर स्त्री ऐसे पदार्थों का सेवन करने लगती हैं जो शरीर के लिए हानिकारक होते हैं जैसे- मुल्तानी मिट्टी, कोयला, खट्टी चीजें, कच्चे चावल, इमली आदि। स्त्रियों की इस आदत को पाईका कहते हैं।

शरीर में थकान और दर्द-

        सन्तुलित भोजन, पूरी नींद तथा मानसिक शान्ति गर्भावस्था में स्त्री के शरीर के लिए लाभकारी होती है। खून की कमी होने के कारण शरीर में थकान और दर्द बना रहता है। इस स्थिति में स्त्री के लिए 9-10 घंटों की नींद लेना जरूरी होता है। यदि कोई स्त्री एकसाथ इतनी नींद न ले सके तो उसके लिए दोपहर को सोना भी जरूरी होता है।  इससे उसे अपने शरीर की अन्य तकलीफों से भी राहत मिलती है।

मानसिक अशान्ति का होना-

        गर्भावस्था के समय अधिक हार्मोन्स बनने के कारण स्त्री कभी तो अचानक खुश हो जाती है और कभी अचानक ही दुखी हो जाती है। इसलिए स्त्री को हमेशा शान्तचित्त रहना चाहिए और हर बात को समझदारी से समझना चाहिए।

नींद का कम आना-

        गर्भावस्था के दौरान शरीर में विभिन्न प्रकार के बदलाव, मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार की उलझनें तथा पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक चिन्ताओं के कारण स्त्री को रात के समय नींद नहीं आती है। इसके कारण स्त्री को अनिद्रा की शिकायत हो जाती है। ऐसी अवस्था में स्त्री को अपनी मानसिक परेशानियों और चिंताओं के बारे में अपने पति और घर वालों से बातें करनी चाहिए, जिससे उसका मन हल्का हो जाता है।

        रात में पेशाब करने के लिए बार-बार उठना भी गर्भावस्था में स्त्री के लिए सामान्य बात है लेकिन इससे स्त्री की नींद टूट जाती है और उसे दुबारा से नींद बहुत ही मुश्किल से आती है। इसलिए स्त्री को रात में सोने से पहले पेशाब कर लेना चाहिए और चाय-कॉफी आदि तरल पदार्थों का कम से कम मात्रा में उपयोग करना चाहिए।

        गर्म दूध, गर्म पानी की सिंकाई गुनगुने पानी में लाहौरी नमक से पैरों की पिण्डलियों की सिंकाई, तेल की हल्की मालिश करने से स्त्री को लाभ होता है और नींद भी अधिक आती है। दिन में योगा, व्यायाम तथा लम्बी सांस का अभ्यास करने से भी रात को अच्छी नींद आती है।

        यदि स्त्री को यह महसूस हो कि दिन में सोने से रात को पूरी नींद नहीं आती तो दिन में उसे केवल आराम ही करना चाहिए। लेटते समय दोनों करवटों से लेटते रहना चाहिए। कुछ समय सीधा लेटना भी लाभकारी होता है, इससे भोजन का शीघ्र पाचन होता है।

        गर्भावस्था के पहले 3 महीने में स्त्री में जी मिचलाना तथा उल्टी होना आदि विकार पैदा हो जाते हैं क्योंकि इस दौरान स्त्री के शरीर के हार्मोन्सों में बदलाव होता रहता है। इसके अगले 3 महीनों में मां को पेट में बच्चे की हलचल महसूस होने लगती है। इस कारण भी सोते समय मां की नींद टूट जाती है। गर्भावस्था के समय जैसे-जैसे समय व्यतीत होता जाता है वैसे-वैसे स्त्री के पेट के आकार में वृद्धि होती है। इसके अलावा स्त्री में मूत्र का अधिक आना, सांस लेने में कठिनाई होना, पेट में तकलीफ होना, बार-बार भूख का लगना, दस्तों का लगना, खुजली, थकान, दर्द आदि तकलीफें होने लगती है। इसके कारण स्त्री की नींद पूरी नहीं हो पाती है जो मस्तिष्क और नसों में थकान उत्पन्न करती है। इसलिए स्त्रियों को जब मस्तिष्क और नसों की कमजोरी होती है तो उसे रात में सपने आने लगते हैं।

        स्त्रियों को अपनी इस शिकायत को डाक्टर को दिखाना चाहिए। गर्भावस्था के प्रारम्भ में डाक्टर स्त्री को नींद की गोलियां नहीं देते हैं लेकिन इसके बाद हल्की नींद की दवाईयां सेवन करने के लिए देते हैं।

गर्भावस्था के दौरान सिर दर्द-

        गर्भावस्था की अवधि के दौरान शारीरिक परेशानी, पारिवारिक और मानसिक तनाव, गर्भावस्था की चिन्ताएं तथा ब्लडप्रेशर आदि कारणों से सिर दर्द हो सकता है। इसमें स्त्रियों के सिर में दर्द, आंखों के ऊपर दर्द, रोशनी से सिर दर्द, नज़र की कमजोरी आदि प्रमुख कारण होते हैं। हल्की दवा लेने से इनमें आराम आ जाता है। सिर दर्द को दूर करने के लिए नींद की दवा खाने से हानि हो सकती है।

पसलियों में दर्द-

        गर्भावस्था का समय बढ़ने के साथ-साथ बच्चेदानी का बढ़ना भी स्वाभाविक होता है। 32 से 36 सप्ताह में बच्चेदानी की ऊपरी सतह लगभग पसलियों के नीचे की सतह को दबाने लगती है जिसके कारण स्त्री के दाहिनी तरफ अधिक दर्द होता है क्योंकि बच्चेदानी दाहिनी तरफ अधिक बढ़ती है। कभी-कभी तो दर्द दोनों ओर ही बराबर बना रहता है। बैठने में दर्द, लेटने या चलने की तुलना में अधिक होता है।

        स्त्रियों को हमेशा अपने मूत्राशय को खाली करके रखना चाहिए जिससे बच्चेदानी का दबाव पसलियों पर कम बना रहे। जैसे ही बच्चे का सिर कूल्हे कि हडि्डयों में जाकर जमता है, दर्द स्वयं ही कम हो जाता है क्योंकि इस अवस्था में बच्चेदानी कुछ नीचे और आगे आ जाती है। परन्तु यह अवस्था स्त्रियों में गर्भावस्था के 36 सप्ताह के बाद आती है। दूसरी या तीसरी गर्भावस्था में इस प्रकार का दर्द स्वयं ही कम हो जाता है।

गर्भावस्था के दौरान यात्रा-

        यदि स्त्री का स्वास्थ्य तथा गर्भावस्था ठीक हो वह सामान्य यात्रा कर सकती है। यात्रा करने के लिए सबसे उपयुक्त और सुरक्षित साधन ट्रेन ही होता है क्योंकि गर्भवती स्त्री पैरों को ऊपर करके बैठ सकती है या स्थान मिलने पर लेट सकती हैं। जहां तक बस के द्वारा यात्रा करने का प्रश्न है, इसमें अचानक शरीर को झटका लगने की संभावना होती है तथा पैर को लटकाकर बैठना पड़ता है, जिससे पैरों में सूजन होना स्वाभाविक होता है। हवाई जहाज से यात्रा करने पर गर्भवती स्त्री को उल्टियां भी हो सकती हैं या हृदय भी खराब हो सकता है। रिक्शा या आटो रिक्शा में बैठने से पहले उसे धीरे से चलने के लिए कहना चाहिए। यदि किसी स्त्री का एक बार गर्भपात हो चुका हो तो उस स्त्री को जहां तक हो सके यात्रा नहीं करनी चाहिए।

पैदल चलना और घूमना-

        गर्भावस्था का सबसे अच्छा व्यायाम पैदल चलना, घूमना तथा खुली हवा में लम्बी सांस लेना होता है। इस दौरान धीरे-धीरे चलना, घूमना और व्यायाम करना चाहिए। तेज चलने या अधिक चलने की वजह से होने वाली थकान गर्भवती स्त्रियों के लिए हानिकारक हो सकती है। टहलते समय स्त्रियों को ऊंची एड़ी वाली सैण्डिलों को नहीं पहनना चाहिए।

गर्भावस्था में दवा का उपयोग-

        बिना अपने डाक्टर की राय लिए कोई भी दवा यदि गर्भवती स्त्री सेवन करती हैं तो यह उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकती है।

गर्भावस्था के दौरान धूम्रपान-

        गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों के लिए धूम्रपान करना बहुत ही हानिकारक होता है। 4 महीने के गर्भ से ही इसका प्रभाव बच्चे पर पड़ना शुरू हो जाता है। इसके प्रयोग से शरीर और मस्तिष्क के विकास में रुकावट आने लगती है। जिसकी वजह से बच्चे की मांसपेशियां और शरीर की हडि्डयां भी कमजोर हो जाती है। यदि कोई स्त्री सिगरेट पीती है तो उसका होने वाला बच्चा कमजोर होता है क्योंकि सिगरेट के धुंए से स्त्री के शरीर में विटामिन `बी` की कमी हो जाती है जो बच्चे और मां दोनों के लिए हानिकारक होती है। सिगरेट के धुएं से मां और बच्चे के शरीर में ऑक्सीजन उचित मात्रा में नहीं पहुंच पाती है और सिगरेट के धुएं में निकोटिन और मोनोक्साइड होते हैं, जो एक प्रकार का जहर होता है। यह शरीर को बहुत अधिक हानि पहुंचाते हैं जिससे रक्त के लाल सेल नष्ट हो जाते हैं। कम ऑक्सीजन से बच्चे का संबन्ध जो ओवल द्वारा होता है वह छूटने लगता है, जिससे बच्चे का न बढ़ना, बच्चे के शरीर में जन्म से कमी होना, मस्तिष्क का अविकसित होना, बच्चे का पेट में मर जाना, समय से पहले बच्चे का होना, बच्चेदानी की झिल्लियों का फटना, बच्चे में कमजोरी का आना, रक्तस्राव या ब्लडप्रेशर का अधिक होना, बच्चे के कानों का रोग और बच्चे का ऊंचा सुनना, दौरों की शिकायत होना, मां के सांस रोग के कारण बच्चे में रोग या फिर गर्भपात भी हो सकता है।

        जिन स्त्रियों के पति एक ही कमरे में गर्भवती स्त्री के साथ सिगरेट पीते हैं। वे इसके धुएं से अपनी पत्नी और होने वाले बच्चे को बीमारी से ग्रस्त कर देते हैं।

गर्भावस्था में शराब का प्रयोग-

        जो स्त्रियां गर्भावस्था के दौरान शराब का सेवन करती है, उनके होने वाले बच्चे के शरीर में बचपन से ही शारीरिक बनावट में कमी आ सकती है जैसे- बच्चे के शरीर की नसों का कमजोर होना, शरीर का विकास न होना तथा बच्चे के दूध के सेवन में कमी आना, बच्चे द्वारा मां का दूध नहीं खींच पाना, बच्चे का वजन कम होना, मस्तिष्क की कमजोरी चेहरे की बनावट में कमजोरी तथा कभी-कभी बच्चे के ऊपर होंठ तथा तालु में दरारे होना आदि विभिन्न विकार हो सकते हैं।

गर्भावस्था के दौरान तम्बाकू का सेवन-

        इसके प्रयोग से बच्चे का कमजोर होना, बच्चे का वजन तथा कद छोटा होना मुख्य लक्षण सामने आते हैं। तम्बाकू के सेवन से गर्भ में पल रहे बच्चे को बहुत ही हानि होती है। तम्बाकू के सेवन से निकोटिन नामक विषैला पदार्थ मां और बच्चे के शरीर में एकत्रित हो जाता है, जिससे गर्भ में बच्चे के शरीर को रक्त कम मात्रा में मिलता है तथा ओवल का आकार बढ़ने लगता है। तम्बाकू के सेवन से बच्चे का जन्म समय से पहले हो जाता है तथा बच्चे के जन्म के बाद गर्भाशय से अधिक मात्रा में रक्तस्राव होता है।

साइकिल चलाना-

        आमतौर पर गर्भावस्था के दौरान साइकिल चलाने से स्त्री को कोई हानि नहीं होती है परन्तु गर्भावस्था के प्रारम्भ में साइकिल चलाते समय यदि स्त्री गिर जाएं तो इससे उसे रक्तस्राव हो सकता है। गिरने से गर्भाशय की एमनीओटिक थैली से एमनीओटिक द्रव भी बह सकता है जिसके कारण गर्भपात या बच्चे का जन्म समय से पहले भी हो सकता है। इसलिए गर्भावस्था के दौरान जहां तक हो सके साइकिल नहीं चलानी चाहिए।

वाहन चलाना-

        गर्भावस्था के दौरान घुड़सवारी करना और गाड़ी चलाना हानिकारक होता है। लेकिन जरूरत पड़ने पर गर्भवती स्त्री सावधानी पूर्वक सड़क के गड्ढों को बचाकर गाड़ी चला सकती हैं। इस बात का विशेष ध्यान रखें कि गाड़ी चलाते समय अचानक ब्रेक लगाने, टायर का पंचर होने से उत्पन्न झटकों के कारण गर्भवती स्त्री के पेट में चोट लग सकती है।

गर्भावस्था में चोट लगना या गिर जाना-

        गर्भावस्था के अन्तिम 3 महीनों में स्त्री अगर किसी कारण से का गिर जाती है तो यह मां और बच्चे दोनों के लिए हानिकारक हो सकता है। यदि स्त्री पेट के बल गिरती है तो उसे और अधिक हानि होती है। कूल्हे के बल, हाथ के बल या कंधे के बल गिरने से गर्भ में बच्चे को हानि होती है। पेट में कोई नुकीली वस्तु या अधिक चोट लगने से एमनीओटिक थैली का द्रव बह सकता है जिसके कारण स्त्री का गर्भपात या बच्चे का जन्म समय से पहले भी हो सकता है। गर्भावस्था के दौरान गिरने या चोट लगने पर शीघ्र ही डाक्टर को दिखाना चाहिए।

गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों का तैरना-

        तैरना स्वास्थ्य के लिए बहुत ही लाभकारी होता है। गर्भवती स्त्री साफ पानी में तैर सकती हैं। गन्दे पानी में तैरने से विभिन्न प्रकार की खाज-खुजली शरीर में हो जाती है। तैरते समय अधिक ऊंचाई से कूदना, देर तक पानी में तैरकर शरीर को थका डालना तथा अधिक ठण्डे पानी में तैरना गर्भवती महिलाओं के लिए हानिकारक हो सकता है।

गर्भवती स्त्रियों की छाती में जलन-

         गर्भावस्था के दौरान बच्चे के दबाव के कारण पेट में भोजन आने की मात्रा काफी कम हो जाती है। भोजन अधिक या सामान्य रूप से लेने के कारण कई बार भोजन स्त्री के गले में आने लगता है। कभी-कभी तेज मसलों और चिकनाईयुक्त भोजन या एसिडिटी के कारण स्त्री की छाती में जलन होने लगती है। इस कारण गर्भवती स्त्री को थोड़ी-थोड़ी मात्रा में कई बार भोजन करना चाहिए तथा भोजन को पचाने के लिए थोड़ा-बहुत टहलना भी चाहिए।

गर्भावस्था के दौरान पेट में गैस बनना-

        गर्भावस्था में आंतो पर बच्चे के दबाव और हार्मोन्स के कारण  स्त्री के पेट में गैस बनने लगती है। क्योंकि भोजन आंतों में धीरे-धीरे ही आगे बढ़ पाता है जिस कारण पेट में गैस बनने की प्रक्रिया स्वाभाविक है।

पतले दस्त-

        गर्भावस्था के दौरान अधिक मात्रा में भोजन, अधिक फल या मेवे आदि का सेवन करने से गर्भवती स्त्री को दस्त लगना शुरू हो जाते हैं। इसलिए गर्भवती स्त्री को हमेशा सन्तुलित मात्रा में ही भोजन का सेवन करना चाहिए। शरीर में ताकत पैदा करने वाली दवाईयों का अधिक मात्रा में सेवन, लौह पदार्थ या प्रोटीन की अधिकता से भी शरीर में दस्त होने शुरू हो जाते हैं। पतले दस्त के समय गर्भवती स्त्रियों को दही का सेवन करना चाहिए।

गर्भावस्था में उल्टी-

        गर्भावस्था में हार्मोन्स के कारण और बच्चे के दबाव के कारण स्त्री की आंतों में भोजन काफी समय तक बना रहता है। समय के अनुसार चूंकि भोजन पेट में आगे नहीं बढ़ पाता है, इस कारण पेट का फूलना, पेट में गैस का बनना, पाचन शक्ति का कमजोर होना, शरीर से पाचक द्रव अधिक मात्रा में निकलना, एसीडिटी का होना, भोजन से कम मात्रा में लाभदायक पदार्थों का शोषण होना, कब्ज की शिकायत होना प्रमुख हैं। इसके कारण स्त्रियों को उल्टी होती है या हृदय में विकार उत्पन्न होते हैं। यह एक सामान्य समस्या है। तेज खुशबू भी मन को खराब कर सकती है। स्त्रियों को गर्भावस्था के दौरान तले-भुने पदार्थ तथा चाय, कॉफी का सेवन हानिकारक होता है। भोजन को थोड़ा-थोड़ा सा करके खाना चाहिए तथा भोजन गर्म और मीठी चीजों को कम से कम मात्रा में उपयोग करना चाहिए।

        गर्भावस्था का समय बीतने के साथ-साथ उल्टी ठीक होने लगती है क्योंकि शरीर में हार्मोन्स की मात्रा गर्भावस्था के शुरू की तुलना में काफी कम होती है।

        तुलसी की चाय, बिना दूध की हरी चाय, नींबू वाली चाय, कोई टाफी या पिपरमेंट की गोलियां तथा एक छोटी इलायची के सेवन से उल्टी के बाद मन को शान्ति मिलती है।

        गर्भावस्था के दौरान कुछ स्त्रियों को उल्टियां अधिक आती है तथा लगभग 12 सप्ताह के बाद भी बनी रहती है। ऐसी अवस्था को हाईपरईमेसिस कहते हैं। अधिक उल्टियों के कारण स्त्री को भोजन बिल्कुल भी नहीं पच पाता है। ऐसी स्थिति में उसे ग्लूकोज को घोलकर धीरे-धीरे प्रयोग करना चाहिए या हॉस्पिटल में जाकर ग्लूकोज की बोतले लगवायी चाहिए। इसके लिए डॉक्टर की राय लेनी जरूरी होती है। अधिक उल्टियों से पेशाब में एसिड अधिक आता है। ऐसी स्थिति को किटोसिस कहते हैं।

मुंह में थूक अधिक आना-

        मुंह में थूक पैदा करने वाली ग्रन्थियों के अधिक कार्य करने से मुंह में अधिक थूक आने लगता है। कभी-कभी तो इतनी अधिक मात्रा में थूक आता है कि बातें करते समय यह मुंह से निकलने लगता है। इससे मुंह साफ करते-करते रूमाल भी गीला हो जाता है। गर्भावस्था का समय बीतने के साथ-साथ मुंह से थूक आना कम होने लगता है। मुंह में अधिक थूक आने का कोई प्रमुख कारण नहीं होता है।

बेहोशी का आना-

        गर्भावस्था में स्त्री का ब्लडप्रेशर लो हो जाता है। कभी-कभी स्त्री को चक्कर और बेहोशी सी महसूस होने लगती है। कुछ स्त्रियां तो बेहोशहोकर जमीन पर गिर जाती है। बेहोशी होने के प्रमुख कारण शरीर में रक्त की कमी का होना या बच्चेदानी में अधिक रक्त का होना होते हैं। इस कारण ऑक्सीजनयुक्त रक्त महिलाओं के शरीर में कम हो जाता है और स्त्री बेहोश हो जाती है। जैसे ही स्त्री का सिर जमीन पर आता है वैसे ही रक्त मस्तिष्क में पहुंचने लगता है और उसे होश आ जाता है। ज्यादा देर तक खड़े होने के कारण या फिर अधिक यात्रा के कारण भी रक्त मस्तिष्क तक कम मात्रा में पहुंच पाता है और स्त्री बेहोश हो जाती हैं।

        स्त्रियों को चक्कर आने पर तुरन्त बैठ जाना चाहिए तथा लम्बी-लम्बी सांस लेनी चाहिए ताकि अधिक से मात्रा में ऑक्सीजन उनके शरीर में प्रवेश कर सके। इससे उनका ब्लडप्रेशर भी सामान्य हो जाता है।

इन्टरट्रीगो-

        स्त्री के शरीर के मोड़ों और किनारे की त्वचा जब लाल हो जाती है तो यह अवस्था इन्टरट्रीगो कहलाती है। गर्भावस्था में शरीर भारी होने के कारण स्त्री के स्तनों और जांघों के बीच की त्वचा, पेट और टांगों के बीच तथा बगलों में यह अवस्था मुख्य रूप से पाई जाती है। अधिक पसीना आने के कारण या फिर साफ-सफाई की कमी के कारण यह रोग हो जाता है। इस कारण सफाई के साथ-साथ ढीले और सूखे कपड़े पहने तथा पाउडर आदि का उपयोग करें।

कब्ज का होना-

        गर्भावस्था के अन्तिम महीने में स्त्री को अधिकतर कब्ज की शिकायत हो जाती है। इसका मुख्य कारण बच्चे का आंतो पर दबाव होता है। इसी के साथ-साथ शरीर की मांसपेशियां भी ढीली हो जाती हैं। स्त्रियों के शरीर में से एक हार्मोन्स भी निकलता है (रिलैक्सीन) जिससे प्रसव के समय मांसपेशियां ढीली हो जाती है। इसी के कारण आंतों में भोजन समय अनुसार आगे नहीं बढ़ पाता तथा स्त्रियों को कब्ज की शिकायत हो जाती है। कब्ज के कारण ही बवासीर उत्पन्न होती है।

गर्भावस्था के दौरान मूत्र अधिक मात्रा में आना-

        गर्भावस्था में बच्चेदानी का दबाव मूत्राशय की थैली पर पड़ने के कारण कम मात्रा में ही पेशाब एकत्र हो पाता है। इस कारण स्त्रियों को बार-बार पेशाब करने जाना पड़ता है। इसका इलाज बच्चे के जन्म के बाद ही होता है या फिर स्त्री को कम मात्रा में द्रव पदार्थों का प्रयोग करना चाहिए।

पेशाब के रास्ते बीमारियों का होना-

        स्त्रियों में मूत्रद्वार, योनि और मलद्वार काफी पास-पास होते हैं। यदि स्त्रियां इन अंगों की अधिक मात्रा में साफ-सफाई नहीं रखती है तो उसे पेशाब के रास्ते विभिन्न रोग हो जाते हैं। स्त्रियों में पेशाब की नलिका पुरुष की नलिका की तुलना में छोटी होती है। इसी कारण इस द्वार से रोग पेशाब की थैली तक आसानी से चले जाते हैं। इस रोग को सिस्टाईटिस कहा जाता है।

        इस रोग में पेशाब करने पर स्त्री को दर्द और जलन होने लगती है तथा पेशाब का द्वार लाल और सूजने लगता है। स्त्रियों का पेशाब, पीले रंग का, जलनदार या फिर रक्त वाला भी आ सकता है। कभी-कभी गर्भावस्था में स्त्रियां मल त्यागने के बाद अपने अंगों को ठीक प्रकार से नहीं धो पाती हैं या धोते समय हाथ योनि या मूत्र द्वार पर लगने से बीमारियां स्वयं ही पैदा हो जाती हैं। इसलिए मलद्वार को सामने की ओर से न धोकर हमेशा पीछे की ओर से धोना चाहिए। यदि पीछे से मलद्वार को धोने के लिए आपका हाथ न पहुंच रहा हो तो यह कार्य सावधानी से करना चाहिए। मलद्वार को गर्म पानी से धोना और सिंकाई करना लाभकारी होता है।

        इसलिए रोग हो जाने पर डॉक्टर से सलाह लेकर चिकित्सा करनी चाहिए। पानी अधिक मात्रा में पिएं और खाने वाले सोडे को पानी में डालकर पिएं। ऐसी स्थिति में भोजन के रूप में दही की लस्सी तथा फलों के रस का सेवन करना अधिक लाभकारी होता है।

गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों का ब्लडप्रेशर-

        गर्भावस्था के दौरान स्त्री का अधिक वजन, पारिवारिक वातावरण में अशान्ति का होना, मानसिक परेशानियां तथा नींद ठीक प्रकार से न आने के कारण स्त्री का ब्लडप्रेशर अधिक हो जाता है। ब्लडप्रेशर अधिक होना गर्भावस्था में मां और बच्चे दोनों के लिए हानिकारक हो सकता है। इसके कारण गर्भ में बच्चे के शरीर का अविकसित रह जाना, बच्चे का गर्भ के अन्दर ही मर जाना तथा बच्चे के जन्म (डिलीवरी) में अधिक रक्तस्राव होता है। ऐसी स्थिति में स्त्री को अधिक से अधिक आराम , अपने वजन को सन्तुलित रखना, मस्तिष्क को शान्त रखना चाहिए तथा भोजन में नमक और चिकनाईयुक्त खाद्य-पदार्थों तथा सूखे मेवे जैसे (ड्राईफ्रूट्स) का कम से कम मात्रा में सेवन करना ही लाभकारी होता है।

        गर्भावस्था की अवधि के दौरान स्त्रियों को अपने वजन और ब्लडप्रेशर की जांच करवाते रहना चाहिए ताकि इलाज में सावधानी रखी जा सके। गर्भवती स्त्रियों का ब्लडप्रेशर सामान्य रूप में अधिक से अधिक 120 तथा कम से कम 70 होना चाहिए। यदि स्त्रियों में ब्लडप्रेशर अधिक से अधिक 140 तथा कम से कम 90 तक हो जाए तो शीघ्र ही इसका इलाज करवाना चाहिए। वरना यह हानिकारक हो सकता है। ऐसी स्थिति में कुछ स्त्री रोग विशेषज्ञ गर्भावस्था का समय पूरा होने से पहले ही करा देते हैं।

गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों की आंखों में लेन्स लगाना-

        गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों के शरीर में द्रव पदार्थ अधिक मात्रा में एकत्र होना शुरू हो जाता है। इसके कारण स्त्रियों के शरीर के विभिन्न अंगों जैसे- हाथ-पैर, चेहरे आंखों में भी सूजन आ जाती है। आंखों की सूजन के कारण आंखों में कान्टेक्ट लेंस सही प्रकार से नहीं लग पाते है और न ही उनकी कार्यक्षमता ही ठीक हो पाती है। गर्भावस्था के बाद जब स्त्रियों के शरीर में एकत्र हुआ द्रव धीरे-धीरे कम हो जाता है तो स्वयं ही लेंस ठीक स्थान ले लेते हैं तथा सूजन भी ठीक हो जाती है।

        स्त्रियों को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि जब भी वे डॉक्टर के पास जाए तो डॉक्टर को पहले ही बता देना चाहिए कि आप आंखों में लेंस लगाते हैं। क्योंकि कभी-कभी गर्भावस्था के दौरान डॉक्टर आपकी आंखों को देखता है। इस कारण कहीं चोट, कोई, घाव, या आपको आंख में अल्सर न हो जाए।

        ऑपरेशन के समय भी बेहोश करने वाले डॉक्टर को यह मालूम होना चाहिए कि आप आखों में लेंस लगाती हैं। ऑपरेशन के समय लेंस का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

गर्भावस्था के दौरान आंखों के सामने अंधेरा छाना-

          गर्भावस्था में स्त्री की आंखों के सामने अंधेरा होने लगता है या उसे ऐसा प्रतीत होता है कि कोई काले रंग की वस्तु एक ओर से दूसरी ओर को जा रही है। जब स्त्री अपनी निगाह को दूसरी ओर घुमाती हैं तो यह परछाईं और गेंद की आकृति कुछ समय के लिए दूर हो जाती है। थोड़ी देर बाद यह फिर दिखाई पड़ने लगती है। कुछ स्त्रियों में इसके कारण सिर दर्द होने लगता है। यह असामान्य रोग अधिक रक्तचाप के कारण होता है। इसलिए शीघ्र ही अपने डॉक्टर को दिखाना चाहिए। 

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गर्भावस्था के दौरान गर्भवती स्त्री की शारीरिक जांचे Some important tests/examinations


 गर्भावस्था के दौरान गर्भवती स्त्री की विभिन्न प्रकार की शारीरिक जांचे की जाती हैं जैसे-
पेट की जांच-
          पेट की जांच करने पर पेट पर कोई घाव, निशान, बच्चे का आकार, उसका पेट में स्थान, बच्चे का हिलना-डुलना, सिर का स्थान, गर्भाशय का आकार और समय के अनुरूप बढ़ने आदि की पूरी जानकारी मिलती है। गर्भवती स्त्री के पेट की जांच गर्भावस्था के दौरान कई बार की जाती है।

बच्चे के दिल की धड़कन की जांच-

          गर्भ में बच्चे के दिल की धड़कन स्टेथिस्कोप अथवा फीटल डौपलर द्वारा सुनी जा सकती है। फीटल डौपलर बिजली या बैटरी द्वारा चलने वाली एक छोटी सी मशीन होती है। इसको मां के पेट पर लगाकर गर्भाशय में पल रहे बच्चे की दिल की धड़कन को सुना जा सकता है। बच्चे का दिल एक मिनट में 120 से 160 बार तक धड़कता है।

गर्भवती महिलाओं के योनि की जांच-

          गर्भधारण के लगभग 37 सप्ताह बाद स्त्री की योनि की जांच की जाती है। योनि की जांच करके स्त्री रोग विशेषज्ञ निम्नलिखित बातों की जानकारी लेती हैं-

1. योनि की जांच करने से गर्भाशय में बच्चे के आकार और स्थान के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

2. कूल्हे की हडि्डयों के आकार और बनावट के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

3. गर्भावस्था का आकार, प्रकार और समय के अनुसार गर्भावस्था की स्थिति के बारे में जानकारी होती है।

4. गर्भाशय में कोई रसौली, सूजन या मांस आदि के होने के बारे में पता चलता है।

5. योनि और गर्भाशय में किसी रोग का होना।

नोट-  योनि की जांच बार-बार नहीं करानी चाहिए।

हाथ और पैरों की जांच-

          गर्भवती स्त्री में रक्त की कमी, सांस का रोग, हृदय का रोग, आदि के बारे में उसके हाथ और हाथ के नाखूनों द्वारा समझा जा सकता है। स्त्री घर में किस प्रकार का कार्य करती है यह भी हाथों से मालूम किया जा सकता है। हाथों और अंगुलियों में सूजन हो जाने पर, कई रोगों का विचार डॉक्टर के सामने आने लगता है। पैरों में वेरीकोस नलिकाएं और सूजन भी देखी जा सकती है।

गर्भवती स्त्री के रक्त की जांच-

          हीमोग्लोबिन रक्त का वह लाल भाग होता है जो शरीर में ऑक्सीजन को ले जाता है। यह मां और बच्चे दोनों के लिए आवश्यक होता है। इसकी कमी को एनीमिया कहते हैं, जिसके लिए डॉक्टर स्त्री को लौह युक्त दवाईयां देते हैं। इसकी जांच अवश्य ही करवानी चाहिए।

          हीमोग्लोबिन को ग्राम या प्रतिशत में जाना जाता है। शरीर में यह 14.7 ग्राम होने पर इसे हम 100 प्रतिशत कहते हैं। स्त्री के शरीर में यह 11 से 13 ग्राम होना जरूरी होता है जिससे स्त्री एक स्वस्थ बच्चे को जन्म दे सकती है। यदि यह 11 ग्राम से कम होता है तो बच्चे को पूर्ण गर्भावस्था में कम रक्त और ऑक्सीजन मिलने के कारण जन्म लेने वाला बच्चा शारीरिक रूप से कमजोर और कम वजन का पैदा होता है।

गर्भवती स्त्री के ब्लड ग्रुप की जांच-

          स्त्री के ब्लड ग्रुप के बारे में भी जानकारी होना जरूरी होता है, जिससे प्रसव के समय रक्त की आवश्यकता पड़ने पर इसे उपलब्ध किया जा सके। साथ-साथ ही आर.एच फेक्टर भी करवाना चाहिए। रक्त को चार प्रमुख ग्रुपों में बांटा गया है- A, B, AB, O जो निगेटिव या पॉजिटिव होता है। निगेटिव होने पर बच्चे के जन्म लेते ही मां को एन.टी.डी. का टीका लगाया जाता है जिससे अगले होने वाले बच्चे को किसी तरह की हानि या स्त्री को गर्भपात न हो।

रुबेला और वायरल रोगों की जांच-

          रक्त द्वारा जर्मन मीजल्स रूबेला की जांच करवानी चाहिए। इस रोग के कारण भी बच्चे में कई दूसरे रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इसके साथ-साथ हैपीटाईटिस की भी जांच करवानी चाहिए।

वैनेरल डिजीज रिसर्च लैब्रोरेट्रीज-

          गर्भवती स्त्री में इसकी जांच कराने से वेनेरल रोग का पता चल जाता है। यह रोग संभोग क्रिया द्वारा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में जा सकता है जैसे- सिफलिस रोग। यह रोग पुरुषों से स्त्रियों को हो सकता है या फिर स्त्रियों से पुरुषों में हो सकता है। इसलिए गर्भधारण से पहले यह जरूरी होता है कि स्त्री या पुरुष में कोई इस रोग से पीड़ित तो नहीं है। इसलिए दोनों को ही इसकी जांच करवानी चाहिए। इस बीमारी में भी बच्चे का विकास ठीक प्रकार से नहीं होता है। इस जांच के लिए दोनों को अपने डॉक्टरों से परामर्श लेना चाहिए।

एल्फा फीटो प्रोटीन की जांच-

          स्त्रियों के रक्त द्वारा यह जांच की जाती है। इसका सही समय 16 से 18 सप्ताह का होता है। बच्चे के विकास में यदि कोई भी रुकावट होती है तो इस जांच से मालूम चल जाता है। यह प्रोटीन बच्चे के लीवर द्वारा बनता है तथा ओवल द्वारा मां के रक्त में आ जाता है। जांच के ठीक न आने पर दो सप्ताह के बाद दुबारा जांच करवाकर अपने डॉक्टर की राय अवश्य ले लेनी चाहिए।

एच.आई.वी (एड्स)-

          एच.आई.वी वायरस की जांच रक्त द्वारा करवायी जाती है। इस जांच से स्त्री या उसके होने वाले बच्चे को ही नहीं बल्कि डॉक्टरों और हॉस्पिटल के अन्य कर्मचारियों को भी लाभ होता है। एच.आई.वी का वायरस उन स्त्रियों में पाया जा सकता है जो एक से अधिक व्यक्तियों के साथ संभोग क्रिया करती हैं या उनके पति एक अधिक स्त्रियों के साथ यह क्रिया करते हों। दूषित रक्त और संक्रमित इंजेक्शन के प्रयोग से भी यह वायरस फैलता है।

गर्भावस्था में स्त्री के मूत्र की जांच-

          गर्भवती स्त्री के मूत्र की जांच एक आवश्यक जांच होती है। इसके द्वारा मुख्यत: प्रोटीन, ग्लूकोज या पस के बारे में जानकारी करते हैं। यदि मूत्र से संबंधित कोई रोग इस जांच में आ जाए तो उसका इलाज जल्द से जल्द कराना चाहिए तथा शूगर आदि को नहीं बढ़ने देना चाहिए। इसके लिए डॉक्टर की राय अवश्य ही लेनी चाहिए। इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि मूत्र को इकट्ठा करने के लिए आपका बर्तन या शीशी साफ होनी चाहिए और मूत्र के बीच की धार को ही जांच के लिए एकत्र करना चाहिए ताकि जांच के बाद सही रिपोर्ट आ सके।

अल्ट्रासाउन्ड-
          अल्ट्रासाउन्ड आवाज की वह तरंगे हैं जिनके द्वारा बच्चे की हडि्डयां और मांसपेशियां ठीक प्रकार से देखी जा सकती है। अल्ट्रासाउन्ड के समय स्त्री को अधिक से अधिक पानी पीना चाहिए ताकि उसका मूत्राशय पूर्ण रूप से भरा रहे। ऐसा करने से अल्ट्रासाउन्ड की रिपोर्ट पूरी तरह से ठीक आती है। इस जांच में पेट के निचले भाग पर एक चिकना द्रव भी लगाया जाता है तथा मशीन का प्रोब उस पर घुमाते हैं। इससे ध्वनि तरंगों द्वारा गर्भ में बच्चे का आकार, प्रकार, दिल की धड़कन व उसका कुछ हिलना-डुलना व अन्य क्रियाओं को टी.वी की स्क्रीन पर देखा जा सकता है। अल्ट्रासाउन्ड में द्रव का भाग कुछ अधिक गाढे़ रंग का तथा बच्चे का रूप जैसा आकार सफेद रंग का दिखाई पड़ता है जो चीज दिखने में जितनी ठोस होती है वह उतनी ही सफेद दिखाई पड़ती है। यह जांच गर्भावस्था में कई बार करवाई जा सकती है। इस जांच से मां और बच्चे कोई हानि नहीं होती है जबकि एक्स-रे द्वारा जांच करवाना मां और बच्चे दोनों के लिए हानिकारक होता है।

गर्भावस्था में अल्ट्रासाउन्ड की भूमिका-

1. अल्ट्रासाउन्ड द्वारा गर्भ मे पल रहे बच्चे की उम्र का पता लगाया जाता है।

2. गर्भ में बच्चे के विकास के बारे में जानकारी प्राप्त की जाती है।

 3. अल्ट्रासाउन्ड करने से बच्चे के शारीरिक आकार-प्रकार की जानकारी मिल सकती है।

 4. अल्ट्रासाउन्ड द्वारा बच्चे के शरीर की विभिन्न त्रुटियों, रूप और बनावट तथा अन्य रोगों के बारे में पता चलता है।

5. अल्ट्रासाउन्ड से बच्चे की हृदय की धड़कन के बारे में पता चलता है।

6. इसके द्वारा बच्चे के गुर्दे अथवा मस्तिष्क की कमियां तथा अन्य रोगों के बारे में पता चलता है।

7. अल्ट्रासाउन्ड द्वारा गर्भ में पल रहें जुड़वां बच्चे की जानकारी मिल सकती है।

8. अल्ट्रासाउन्ड से गर्भ में बच्चे का स्थान पता चलता है।

9. गर्भ में ओवल के स्थान के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

10. एमनीओटिक द्रव की मात्रा मालूम होती है।

11. जिगर और पित्त की थैली के रोगों की जानकारी मिलती है।

एम्नीयोसेनटैसिस-

          एम्नीयोसेनटैसिस की जांच सभी स्त्रियों के लिए अनिवार्य नहीं होती है। यह जांच लगभग 14-16 सप्ताह में की जाती है। इस जांच में स्त्री के पेट का अल्ट्रासाउन्ड करते हैं तथा उसकी देख-रेख से बच्चेदानी से एमनीओटिक द्रव सुई द्वारा बाहर निकाला जाता है। इस द्रव की जांच में फीटल सैल देखे जाते हैं। जिसके द्वारा बच्चे के शरीर की बनावट, रीढ़ की हडि्डयों की बनावट, मस्तिष्क रोग तथा अन्य रोगों की जानकारी ली जाती है। इस जांच में अल्ट्रासाउन्ड का प्रयोग आवश्यक होता है ताकि सुई ठीक स्थान पर डाली जा सके तथा ओवल या बच्चे को सुई न लगे।

          स्त्री में इस जांच से कुछ हानियां भी हो सकती हैं। कई बार सुई द्वारा बाहर का रोग गर्भाशय में प्रवेश कर सकता है। इसके लिए बहुत ही साफ-सफाई की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही इस जांच से स्त्री को गर्भपात भी हो सकता है। इसलिए इस जांच से पहले सभी पहलुओं पर ध्यान देना जरूरी होता है।

एमनिऔसिन्टैसिस के संकेत-

1. यदि स्त्री रोग विशेषज्ञ बच्चे में कोई कमी महसूस करें।

2. यदि पहले हुए बच्चे में कुछ शारीरिक कमी हो।

3. यदि परिवार के सभी बच्चे त्रुटिपूर्ण होते हों।

4. यदि स्त्री की आयु 35 वर्ष से अधिक हो।

          एमनिऔसिन्टैसिस या ए.एफ.पी. द्वारा अगर मालूम चले कि बच्चे में किसी प्रकार की शारीरिक त्रुटि है तो अच्छा होगा कि स्त्री को गर्भपात करा लेना चाहिए। रोगग्रस्त बच्चे को पालने से अच्छा गर्भपात करा लेना चाहिए। स्त्री को यदि गर्भावस्था के शुरू के 3-4 महीनों में खसरा, छोटी माता , या फिर सिफलिस आदि रोग हो भी तो गर्भपात करवा लेना चाहिए। गर्भपात उसी हॉस्पिटल में करवाना चाहिए जहां सभी सुविधाएं उपलब्ध हों।

कैरीओनिक विलस की जांच-

1. यदि स्त्री रोग विशेषज्ञ गर्भ में पल रहे बच्चे में कोई कमी महसूस करती हैं।

2. यदि परिवार में जन्म लेने वाले बच्चे की शारीरिक बनावट में कोई कमी हो।

3. अगर स्त्री ने इससे पहले भी कभी त्रुटिपूर्ण बच्चे को जन्म दिया हो।

4. अगर पति के परिवार में किसी त्रुटिपूर्ण बच्चे का जन्म हुआ हो।

टैटनेस का इंजैक्शन-

          गर्भावस्था के दौरान मां को टैटनेस का इंजैक्शन अवश्य देना चाहिए। यह इंजैक्शन मां और बच्चे दोनों की टेटनेस रोग से रक्षा करता है। यह इंजेक्शन दो या तीन बार लगाया जाता है। कुछ स्त्री रोग विशेषज्ञ यह इंजैक्शन गर्भावस्था के तीसरे, छठे और नौवें महीने में देते हैं और कुछ सातवें और आठवें महीने में देते हैं।

गर्भ में बच्चे का लिंग-

          जब स्त्री के अण्डे से पुरुष के शुक्राणु मिलते हैं तो सम्पूर्ण बच्चे का निर्माण होता है। उसमें स्त्री के अण्डे के 23 क्रोमोजोम्स और पुरुष के शुक्राणु के भी 23 क्रोमोजोम्स होते हैं। इस प्रकार 46 क्रोमोजोम्स मिलकर 23 जोडे़ बनाते हैं। स्त्री के सेक्स क्रोमोजोम्स `x` होते हैं तथा पुरुष के क्रोमोजोन्स `x` व `y` प्रकार के होते हैं। जब पुरुष के `x` स्त्री के `x` से मिलते हैं तो लड़की पैदा होती है। जिसे `x`, `x` कहते हैं। पुरुष का `y` जब स्त्री के `x` से मिलता है। तब `x`,`y` बनता है जिससे लड़के का जन्म होता है।

          कुछ डॉक्टरों के अनुसार गर्भ में बच्चे का लिंग स्त्री के भोजन से निर्धारित होता है। लगभग 80 प्रतिशत लोगों को इस कार्य में भोजन करने से सफलता प्राप्त हो सकती है। भोजन में अधिक स्टार्च, दूध , दूध से बनी चीजें, कम नमक तथा कैल्शियम की गोलियां खाने से लड़की पैदा होती है तथा अधिक नमक, मांस, फल तथा बहुत कम दूध व दूध से बनी चीजें तथा एक गोली पोटैशियम की खाने से लड़का पैदा होता है।

          कुछ विशेषज्ञ यह मानते हैं कि जिन व्यक्तियों में एक से अधिक स्त्रियों के साथ सेक्स क्रिया की लालसा होती है, उनमें लड़का पैदा होने की संभावना अधिक रहती है।

          कुछ लोगों के अनुसार यदि संभोग से पहले स्त्री अपनी योनि को सोडाबाइकार्बोनेट से धो लें तो लड़का पैदा होता है। इसके लिए एक चम्मच सोडाबाइकार्बोनेट लगभग आधा लीटर गुनगुने पानी में डालकर योनि को अन्दर तक धोने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसा करने के बाद सेक्स क्रिया करने से लड़के का जन्म होता है। दूसरी तरफ एक चम्मच सफेद सिरका तथा आधा चम्मच गुनगुने पानी से योनि को धोने के बाद सेक्स करने से लड़की पैदा होती है।

          कुछ लोगों के अनुसार गर्भ में बच्चे के लिंग का निर्धारण संभोग करने के समय पर निर्भर करता है। इस विचार में कहा जाता है कि अण्डे के बनते ही यदि संभोग 48 घंटे में किया जाए तो होने वाले बच्चा लड़का होता है। यदि 48 घंटे के बाद संभोग करते हैं तो लड़की पैदा होती है।

          उपयुक्त बात की सच्चाई को जानने के लिए अण्डे बनते ही 48 घंटे में तीन बार संभोग करें तथा पूरे माह गर्भ के ठहरने का इन्तजार करें। यदि गर्भ न रुका हो तो इसी प्रकार अगले महीने भी करना चाहिए। इससे इच्छानुसार बच्चे की प्राप्ति होती है। अण्डे बनने को स्त्रियां भलीभान्ति अल्ट्रासाउन्ड पर देखकर पता कर सकती हैं। स्त्रियों के शरीर के तापमान से भी यह मालूम किया जा सकता है कि उनके शरीर में अण्डे बन रहें हैं या नहीं बन रहे हैं क्योंकि स्त्रियों के शरीर का तापमान अण्डे बनने से पहले कम होता है तथा अण्डे बनने पर एक डिग्री बढ़ जाता है।

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