सोमवार, 13 अप्रैल 2015

सेहत के नुस्खे Health tips2


कच्ची हर्र—

१.कच्ची हर्र बहुत ही उपयोगी है। इसका एक चम्मच चूर्ण गर्म जल के साथ लेने से पाखाना (शौच) साफ होता है।

२. भुनी हुई हर्र के एक चम्मच चूर्ण में थोड़ा सेंधानमक और अजवान मिलाकर लेने से पाचन शक्ति बढ़ती है।पेट के कीटाणु नष्ट होते हैं।

३. हर्र को साफ पत्थर पर धिसकर आँख में लगाने से आँख में कीचड़ का आना, आँख से आँसू निकलना ठीक हो जाता है
बहेड़ा :

१. इसका छिलका खाँसी पर लाभकारी है एवं यह त्रिफला का एक अँग है।

२. नाभि के टलने पर बहेड़ा का प्रयोग—इसे (घन्न—चली—जाना) अथवा पेट टरना आदि कहते हैं। इसमें आँत की गुठली थोड़ी सी खिसक जाती है। पेट में पीड़ादायी दर्द होता है। इस रोग में बहेड़े फल की ५० ग्राम मात्रा लेकर उसे पीस कर एक किलो पानी में डालकर मिट्टी के बर्तन में धीमी आँच में पकाकर काड़ा बनायें। १०० ग्राम शेष रहने पर इसकी लगभग २५—२५ ग्राम मात्रा दिन में तीन—चार बार पिलाने से नाभि स्वयं अपने स्थान पर आ जाती है।

३. कुष्ठ रोग पर बहेड़े की गिरी का तेल एवं बकुची का तेल मिलाकर लगाने से कुष्ठ रोग ठीक होता है।
अमृत धारा :

१. पिपरमेन्ट गर्म २. कपूर तरगरम ३. अजवायन का फूल गरम नोट — पिपरमेन्ट, कपूर, अजवायन का फूल तीनों को बराबर—बराबर मात्रा में लेकर उनके मिश्रण से अमृतधारा बन जाती है। यह वै, दस्त उल्टी, जी मिचलाना, कफ खाँसी में गुणकारी है।
त्रिकुटी :

सौंठ, मिर्च, पीपल को त्रिकुटी कहते हैं। नोट— इसका समभाग में लेकर आधा चम्मच सीरा के साथ लेने पर श् वांस, खांसी त्वचा के रोग, जुल्म दूर होता है। अश्वगँध—यह दो प्रकार का होता है। १.सादा अश्वगँधा २. नागौरी अश्वगँधा १.यह बादी नाशक है। वदन के दर्द होने पर इसके चूर्ण को दूध में उबालकर पीने से बदन का दर्द ठीक हो जाता है। २.यह एक पौष्टिक, वाजीकरण, बलवर्धक औषधि हैं। इसका चूर्ण एक चम्मच लेकर उसमें बूरा और दूध के साथ लगातार लेने से नुपंसकता दूर होकर वीर्यक्षमता बढ़ती है। ३. इसके चूर्ण को बदन में सूख अथवा तेल में उबालकर मलिश करने से बदन दर्द दूर होता है। नोट— इसकी तासरी गर्म हैै। अत: दूध चीनाी के साथ लेना श्रेष्ठ है।

विधार : यह विशेष रूप से कमर के दर्द में लाभकारी है। अन्य दर्द भी ठीक होते हैं। इसका एक चम्मच चूर्ण पानी अथवा दूध के साथ लेना चाहिए।
नीम : यह एक बहुउपयोगी वृक्ष है।

१.इसकी कौपल के २५—३० पत्ते प्रतिदिन खाने वाले को कभी ज्वर नहीं आता और स्वास्थ्य हमेशा ठीक रहता है। पेट के कृमि नष्ट हो जाते हैं ब्लड में सुगर (मधुमेह) की रोकथाम करती है।

२.इसकी जड़ के नीचे का काला हिस्सा लेकर महीन पीसकर किसी प्रकार के घाव पर लगाते रहने से सभी प्रकार के घाव पर लगाते रहने से सभी प्रकार के घाव भर जाते हैं। क्योेंकि यह एण्टीबायोटिक और एण्टीसेप्टिक गुण वाला होता है।

३. इसकी छाल को पीसकर नमक मिलाकर मंजन करने से दांत के कीड़े दूर हो जाते हैं। मुँह की बदबू दूर हो जाती है। इसकी दातौन भी लाभकारी है।

४. इसके पत्तों को गर्म पानी में साफ करके, उबालकर उस पानी से नहाने से चर्म रोग ठीक हो जाता है।प्रसूत के पश्चात् महिलाओं को अमृत के समान गुणकारी है। ग्रामों में इसी के गर्म पानी से प्रथम स्नान कराते हैं।

५. इसका तेल भी चर्म रोग नाशक है। इसका साबुन भी बनता है।

६. इसका अर्क भी बुखार आदि में लाभकारी है।
पलास के गुण : (ढाक, छेवला)

१. पलास की जड़ का ढोलायँत्र से अर्व निकालकर उसे काँच की शीशी में रखें अर्क को आँख में ५—५ बूँद डालने से आँखों की समस्त बीमारियों दूर होती हैं। नेत्र ज्योति बढ़ जाती है। आँखों की जलन खुजलाहट, आँसू, कीचढ़ आना आदि सभी रोगों में लाभकारी है। नोट— ढोलायँत्र विधी के अभाव में इसकी ५०० ग्राम जड़ को धो—पीसकर दो किसलो जल में धीमी में इसका काढ़ा बनाएँ। १०० ग्राम शेष रहने पर काँच की शीशी में रखकर उक्तानुसार उपयोग में लें। अधिक दिन नहीं ठहराता ।

२.तेज दोपहरी में, लू लपट गर्मी में पलास के पत्ते माथे नेत्रों के ऊपर बाँध कर बाहर निकलने पर लू नहीं लगती।(वैंप के नीचे अथवा अँगोछे से बाँध लें।

३.५० ग्राम पलास के फूलों को ५०० ग्राम ठण्डे जल में दो घण्टे भिगोकर रखने के पश्चात् उसके छने जल को बदन में लेप करने से भयंकर लू भी हो जाती है।

४.पलास के फल १० ग्राम, अजवान १० ग्राम ढाई ग्राम सेंधा नमक (स्वादानुसार) मिलाकर, छानपीसकर १० पुड़िया प्रतिदिन पानी के साथ लेने से पेट से कृमि नष्ट हो जाती है। आगे कृमि उत्पन्न नहीं होते । खाज खुजली आदि रोग दूर रहते हैं।
ऑक के वृक्ष का महत्व— (अकौआ, मदार)

यह दो प्रकार का होता है— १.श्वेत पुष्प वाला २.लाल पुष्प काला प्राय: सभी जगह पाया जाता है। १. आँक की जड़— इसकी जड़ वात व्याधि नाशक है। इसकी जड़ को विष गर्भ बात तेल में डाला जाता है। तेल में उबाल कर कान में दो बूंद तेल डालने से कान दर्द में लाभ होता है।

२. आँक के पत्ते — इसके पत्ते को हल्का गर्म करके अण्डकोष की सूजन बढ़ जाने पर सरसों के तेल के साथ लगाने से सूजन घट जाती है। फूलापन ठीक हो जाता है।

३. आँक के पत्ते का दूध— आँक का दूध बहुत उपयोगी है। किन्तु इसको सावधानी से निकालना चाहिए।इसका दूध आँख में नहीं लगाना चाहिए।

१. बवासीर के मस्से— आँक का दूध बवासीर के मस्सों पर १०—१२ बूँदे रात्रि में मस्सों में लगाने पर समस्त मस्से कट जाते हैं। एक बार ही लगने के बाद पुन: लगाने की आवश्यकता नहीं रहती है अचूक औषधि है।

२. घटसर्प (हिफ्थीरिया)— जस रोगी का कफ बहुत चिकना हो जाए एवं गले में अटका रहें, ऐसे रोगी को घट सफ (हिपथीरिया) कहते हैं। आँक के दूध की ४—६ बूँदे दूध में मिलाकर रोगी को पिलाने को बमन होती है। जिससे सारा कफ बाहर निकल आता हैं। रोगी को तुरंत राहत मिल जाती है। इसकी मात्रा ज्यादा नही चाहिए।

३. आँक के फूल— आँक के फूलों को सुखाकर रख लें। इसकी दो तीन फूलों को पीस सीरा के साथ खाने से खाँसी, श्वाँस रोग में लाभ हो जाता है।

४. काँटा गहरा लग जाने पर— इसके दूध की ५—७ बूँदे काँटे लगे स्थान पर थोड़ा कुरेदकर भर दो। काँटा अपने ऊपर आ जाएगा। फिर बाहर निकाल लें।
मट्ठा (छाछ) :

नोट— मट्ठे का सेवन करने वाला व्यक्ति कभी व्यथित नहीं होता। मट्ठे के सेवन से नष्ट रोग पुन: उत्पन्न नहीं होते। जैसे देवताओं को अमृत सुखदायी है। उसी प्रकार पृथ्वी पर मनुष्यों को मट्ठा सुखदायी है। गाय मट्ठा बहुत अच्छा होता है।


ईसबगोल एवं ईसबगोल की भूसी :

१. ईसबगोल यह पाचक है। बच्चों के दस्त आने पर घोलकर देने से लाभ होता है।

२. ईसबगोल की भूसी : यह ताकतबर होती है। एक चम्मच भूसी को दूध में घोलकर लेने से अमाशय ठीक होता है। शौच साफ होता है।
मेंथी :

१. मेंथी के ५ ग्राम दानों को एक गिलास पानी में रात्रि को भिगोकर सुबह पानी पीने से सुगर में आराम होता है।

२. मेंथी २० ग्राम लेकर १०० ग्राम सरसों के तेल में उबालकर छानकर शरीर में मालिश करने से बदन का दर्द ठीक हो जाता है।

३. मेथी की सब्जी (पत्तों की भी) बादी नाशक है। पाचन शक्ति वर्धक है।

४. मेथी में जीरा, नमक मिलाकर खाने से भोजन पचता है। रूचि बढ़ती है।

५. मेथी में जीरा, नमक मिलाकर खाने से भोजन पचता है। रुचि बढ़ती है।
आयुर्वेद में तुलसी :

तुलसी श्यामाा एवं रामा दो प्रकार की होती है। १. श्यामा तुलसी के पत्ते श्यामले रंग के होते हैं, इसके २५—३० पत्तों का रस सर्प काटै पर लाभ करता है।

२. श्यामा तुलसी के बीजों का आधा चम्मच चूर्ण प्रतिदिन सीरे के साथ देने पर वैंसर रोग में लाभकारी है।

३. दोनों ही प्रकार की तुलसी बहुत उपयोगी है। इसको चाय में ८—१० पत्ते डालकर पीने से सर्दी, जुकाम ठीक होता है। बल्गम साफ हो जाता है।


आयुर्वेद में आँवला— (च्वन औरा) :

१. आँवला का अचार कभी नुकसान नहीं करता एवं अनेक रोगों में लाभकारी है।यह खटाई की श्रेणी में नहीं माना जाता।

२. चमन ऋषि ने आँवला के रस को मुख्य लेकर उसमें अष्टवर्गादि औषधियों के मिश्रण से च्यवनप्रास अवलेह निर्माण किया था। जिससे ६० वर्ष के बुढ़ापे में ऋषि में २० वर्ष जैसी ताकत आ गई थी।

३. इसके हरा फल के रस का सेवन करने से हार्ट अटैक की बीमारी नहीं होती।

४. इसके अकेले चूर्ण के एक चम्मच प्रतिदिन खाने से सुगर/बी.पी. की शिकायत शान्त होती है। हार्ट के दौरा की सम्भावना नहीं रहती।

५. इसको लोहे के एक गिलास में २० ग्राम रात्रि में भिगोकर सुबह शिर में आधा घण्टा तक लगाए रखें।इससे सिर के बाल सपेद नहीं पड़ते। सिर दर्द दूर रहता है।

६. आँवले की चटनी में जीरा, मेथी, धनिया, नमक (मिर्च नहीं) खाने से अजीर्ण दूर होता है। भोजन शीघ्र पचता है।

७. आँवला के दो चम्मच जूस को लगातार पीते रहने से हकलाने का रोग दूर होता है। गला खुल जाता है।आवाज साफ होती है।
चुटकी :

नोट— यह बहुत कड़वी और दस्तावर होती है। अत: सावधानी से शीघ्र निगल लेना चाहिए। और एक या दो खुराक से अधिक नहीं लेना चाहिए। ३. चार नग छोटी इलायची को छिलका सहित ६०० ग्राम पानी में धीरे—धीरे उबालें। एक तिहाई शेष रहने पर छान लेवें। यह दवा रोगी को हल्का गर्म (गुनेगुनें) पिलावें। इससे उल्टी बन्द हो जाती है। ४.हिचकी आने पर दानों में अँगुलियाँ डाल कर बन्द रखें। हिचकी आना बन्द हो जायेगी। (इसमें एक विशेष नस पर दबाब पड़ने से लाभ होता है।)
बुखार में अति तृषा लगना :

(लू लगने और अति गर्मी से ऐसा होता है।)
औषधि :

१. एक डौड़ा (बड़ी इलायची) भूनकर उसके दाने २० ग्राम एवं सौंप २० ग्राम, आँवला का चूर्ण २० ग्राम तीनों पीसकर रखें। आधा—एक चम्मच दवा सीरा या पानी के साथ लेना चाहिए। जी मिचलाना बन्द होता है, भी बन्द होता है, तृषा शान्त होती है।

२. २० ग्राम सौंफ और १० ग्राम बड़ी इलायची लेकर ५ किलो पानी में उबालें। १/४ किलो शेष रहने पर छान लें एवं ठण्डा करके पानी पीएँ साधु को आहार में दें। पीसकर रखें। आधी चम्मच दवा सीरा या पानी के साथ लेना चाहिए। जी मिचलाना बन्द होता है, भी बन्द होता है, तृषा शान्त होती है। पीसकर रखें। आधी चम्मच दवा सीरा या पानी के साथ लेना चाहिए। जी मिचलाना बन्द होता है, भी बन्द होता है, तृषा शान्त होती है।

३. २० ग्राम सौंफ और १० ग्राम बड़ी इलायची लेकर ५ किलो पानी में उबालें। १/४ किलो शेष रहने पर छान लें एवं ठण्डा करके पानी पीएँ साधु को आहार में दें।


अधिक प्यास लगने पर :

पेय— १. लवंग की जड़ चिड़चिड़ी की जड़, दोनों को २०—२० ग्राम लेकर एक गिलास जल में उबालें। आधा शेष रहने पर पिलाने से लाभ होगा। २. बेरी की गुठली की मिगी (बिजी) एवं लवंग दोनों को बराबर पीसकर सीरा के साथ खिलाने पर बुखार की बार—बार लगने वाली प्यास शान्त होती है। ३. कपूर ५ ग्राम, केला की जड़ का रस १० ग्राम, पुदीना के पत्ते का रस १० ग्राम, सौंफ १० ग्राम। सभी को पीसकर ५०० ग्राम पानी में उबालें। चौथाई शेष रहने पर छानकर पिलावें। इससे उल्टी में भी आराम होता है।


अधिक पसीना आना :

उपचार— नाौसादर को पानी में घोलकर वदन में लगायें बाद में पौंछ ले। पसीना आना कम हो जाएगा
कौड़ी का दर्द :

(वह स्थान जहाँ—जहाँ छाती में दोनो तरफ की पसलियाँ आपस में मिलती हैं।) औषधि : १. थोड़ी हींग (हिंगड़ा) को मुनक्का के भीतर लपेटकर पानी से पीले। इससे इस दर्द में शीघ्र आराम हो जाता है। तीन घण्टे पश्चात् दूसरी खुराक भी लें सकते हैं। इससे वायु विकास—गैस ठीक होता है एवं हिचकी भी बन्द हो जाती है। परहेज— मट्ठा, दही खट्टी चाँवल न लें। पथ्य— छिलका वाली मूँग की दाल, गेहूँ की रोटी, दलिया। शिशु रोग —धनवन्तरि विशेषाज्र्क (रोगाज्र्क) १९६२ पत्रिका शिशु रोग परीक्षा हेतु : १.चिकित्सक : बालक को घूरकर नहीं देंखे। २.तुरन्त नग्न न करें इससे डर जाता है। ३.बड़े प्रेस प्यार से मित्र की तरह जाँच करना चाहिए। पूर्व (इतिवृत्त) चूँकि शिशु बोलता नहीं अत: माता से निम्न प्रश्न पूँछे— १. आपके कितने और बच्चे हैं। २. किसी की मृत्यु तो नहीं हुई—हुई तो किस कारण से हुई? ३. यह रोग परिवार में कैसे आया? ४. शिशु के माता/पिता को उपदेश उष्णवात रोग तो नहीं है। ५. कभी कोई गर्भपात तो नहीं हुआ या कराया है? ६. गर्भावस्था में माता का स्वास्थ्य कैसा था। विदेश के प्रसद्धि डा. बालरोग विशेषज्ञ (हघिंसन वार्ट) ७. क्या बालक पूरे माह में उत्पन्न हुआ या कम माह में? ८. प्रसन में कोई परेशानी अथवा ऑपरेशन से हुआ। ९. क्या बालक का रोना उत्साह जनक था या श्वांस में परेशानी थी? १०.दूध ठीक तरह चूसता था या नहीं? ११.कोई मृत बालक उत्पन्न तो नहीं हुआ? बालक सिर का माप आयु विस्तार इन्च में जन्म के समय १३’’ ६ माह में १६’’ १ वर्ष में १८’’ ३ वर्ष में १९’’ ७ वर्ष में २०’’ १२ वर्ष में २१’’ बालकों में विकास एवं भार (वेट) प्रसव के बाद से आयु भार पौन्ड में ऊँचाई इन्चों में प्रसव पश्चात् ७ २०’’ ९ वर्ष में २१ २९’’ २ वर्ष में २८ ३३’’ ३ वर्ष में ३३ ३७’’ ४ वर्ष में ३६ ४०’‘ ५ वर्ष में ४९ ४२’’ ६ वर्ष ४६ ४४’’ ७ वर्ष में ४९ ४६’’ ८.वर्ष में ५५ ४८’’ ९.वर्ष में ६९ ५०’’ १०.वर्ष में ६७ ५२’’ ११.वर्ष में ७३ ५४ १२.वर्ष में ७९ ५६ नोट— स्वभाविक माप है इससे कम होने पर बालक रोग की स्थिति समझी जाती है। विकास क्रम यह है। वास्तविक नाड़ी तालिका १.जन्म के समय नाड़ी सदन १३० २.द्वितीय वर्ष में ११० ३.पाँच वर्ष में १०० ४.आठ वर्ष में ९० ५.बारह वर्ष में ८० तापमान बालकों का तापमान थर्मामीटर से गुदा, कक्षा, वक्षण लेते हैं बड़े बालकों का मुख में से लेना चाहिए। यदि बालक अधिक रोता है तो क्या करें— नम्न जाँच करें— कहीं बालक जो वस्त्र चड्डी, स्वेटर, मोजे आदि पहिने है वह इतने ज्यादा चुस्त तो नहीं है जिससे बालक को तकलीफ होती है। इससे रोता रहता है तो दवा क्या काम करेगी अत: बालकों को लूज (ढ़ीले) वस्त्रादि पहिनाएँ।
बालकों के रूदन निवारण यंत्र

१. इस यंत्र को वृह्मवर्ण भोज पत्र पर लिखना (अष्ट गन्ध से) बालक के गले में बाँधने से लाभ होता है। २. उपरोक्त विधि ही है।
बालकों को भूत बाधा उपचार :

१. नीम की पत्ती, दुर्वा कुटकी को जल में पीसकर उबटन लगाएँ। हल्का गर्म कर स्नान भी कराएँ। २. बाँस का वक्कल, लहसुन, अगर, नीम के पत्ते गौघृत/ शिव पर चढ़े हुए पूâल, मनुष्य के शिर के बाल, राई, अगर, लाख गौघृत से इनको मिलाकर उपले की अग्नि से धूप देवें। ३. अपस्मार—बैहोसी में निम्न उपचार करें— (१) घुड़बच का चूर्ण कपडछन कर ३ से ६ रत्ती शीरा के साथ के साथ देने के लाभ होता है। (२) भूना शुद्ध सुहागा २—२ रत्ती ३—३ घण्टे में सीरा से देने पर लाभ होता है। (३) धूप—आँक के फल, राई, खस मनुष्य के बाल और बिल्ली के बाल और नीम के पत्ते अन्दाज से मिला गाय घीं में मिलाकर धूनी देने से बालग्रह दूर होते हैं। नोट—आगे शिव के पुत्र कार्तिकेय का पौराणिक उदाहरण इसलिए दिया गया है कि जैनागम के सिद्धान्तों के अनुसार सभी धर्मों में धर्म सिद्धान्तों को मान्यता एवं धर्म आचरण न करने से सभी रोग संकट आते हैं। अत: धर्माचरण करना माता/पिता/गुरूओं की सेवा करने से सर्व संकटों से मुक्त होता है पूर्व पाप कर्म झड़ जाते है।
बालग्रह ओर उसके उपचार

(वैद्य नवनीत दास वैष्णव) प्राचीन समय में शिव ने अपने पुत्र कार्तिकेय की रक्षा के लिए बालग्रहों को उत्पन्न किया था। इनकी समस्या सम्बन्ध में शास्त्रगारों मे मत भेद है। भाव प्रकाश में बागभट्ट ने १२ नाम— स्कंद, स्कंदपरमार, शकुनी, रेवती, पूतना (अन्धपूतना शीत पूतना) मुख मण्डिका, नैम्मेय आदि। लक्षण— इससे (१) बच्चा डर जाता है। (२) रोता ही रहता है (३) मुख से झाग आ जाता है। (४) ऊपर की ओर दृष्टि रखता है। (५) दाँतों से ओठों को चबाता है। (६) दूध नहीं पीता है। (७) आवाज बैठ जाती है। (८) नखों से चारों तरफ जमीन कुरेदता है।
ग्रह क्यों पकड़ते हैं।

बालग्रहों की उत्पत्ति के बाद ही उनकी भोजन व्यवस्था की समस्या सामने आई तो इन ग्रहों से शिव ने कहा कि— १. जिस घर में भगवान की पूजन अर्चन वंदन न होता हो, भगवान का कीर्तन न होता हो।

२. देवता, माता, पिता, गुरू, अतिथि का अनादर होता है।

३. जिस घर में प्राणियों की हिंसा होती हो।

४. जहाँ प्राणियों को मनसा, वाचा, कर्मणा, से दु:ख दिया जाता हो।

५. घर में बूड़े माता—पिता, सास, ससुर, से बोलचाल भोजन में भेदभाव किया जाता हो, दुव्र्यवहार किया जाता हो।

६. जिस घर में अपवित्रता रहती हो। उसके घर के बच्चों का भक्षण किया करो, यही तुम्हारी भोजन व्यवस्था है।



नजर लगना (दृष्टि दोष)

विज्ञान बताता है कि प्राणियों में एक विद्य ुतशक्ति विद्यमान है जो अपना प्रभाव दूसरों पर डालकर आश्चर्य जनक चमत्कार दिखाने में समर्थ है यह विद्युत एक प्रकार का आत्म तेज है। -‘‘जिसका आधार स्थूल शरीर और मन है।’’ यह विद्युत प्रभाव जब नेत्रों के माध्यम से प्रयुक्त होता है तो अनेक आश्चर्यजनक प्रभाव दृष्टिगत होते हैं। (१) भेड़ियों की दृष्टि से भेड़ का निचेष्ट हो जाना हैं—

(२) भाग सकने में असमर्थ हो जाना।

(३) बिल्ली की दृष्टि से कबूतर का भागना उड़ने की शक्ति भूल जाना। बिल्ली बाल भी आया है देख उड़ने की शक्ति भूल जाता है।

(४) अजगर की दृष्टि से शिकार का उसके समीप आ जाना।

(५) ‘‘यही मनोविद्युत जब बच्चों पर दूषित मनोभावों के साथ पड़ जाती है एवं अपना प्रभाव दिखाती है तो कहा जाता है है कि नजर लग गई।

(६) नजर का लग जाना दूषित मनोविचारों के साथ मानसिक विद्युत का अहितकर प्रभाव पड़ना ही है।
नजर कैसे लगती है?

मनुष्य जब एकाग्र होकर अधिक ध्यानपूर्वक किसी की ओर दृष्टिपात करता है तो उसको विद्युत का एक भी कारण होकर उसमें प्रभावोत्पादक शक्ति का प्रर्दुभाव हो जाता है उस समय द्रष्टा के शुभा—शुभ भाव दृश्य वस्तु पर गम्भीरता के साथ पड़कर अपना प्रभाव दिखाते हैं। रीठा के छिलकों को अग्नि पर (जलाकर) धूनी देने से नजर एवं भूत बाधा दूर होगी। हँसते खेलते बच्चे पर अब कोई व्यक्ति अधिक मुग्ध होकर या लालायित होकर हसरत भरी निगाह से देखता है तो उस बच्चे पर दूषित प्रभाव पड़ता है बच्चे बीमार पड़ जाते हैं।
लक्षण :

१. नजर लगे बच्चे का तापमान घट जाता है।

२. एक विशेष प्रकार की सुस्ती घेर लेती है।

३. बच्चे आँख बन्द कर निद्रा सी हालत मेें पड़े रहते हैं।

४. दुग्ध पान से अरूचि हो वमन होने लगती है।
विशेष—

१. महात्माओं की जो बच्चों की चाह नहीं रखते उनकी दृष्टि का हितकर प्रभाव बच्चों के लिए होता है। २. नजर उनकी लगती है जो बच्चों के लिए तरसते हैं उनकी दृष्टि (कुदृष्टि मय) होती है। उससे नजर लगती है।
नजर से बचने के उपाय—

नाोट— यह अन्ध विश्वास नहीं इसमें वैज्ञानिक रहस्य भरा है। १. बच्चे के मस्तक पर काजल की बिन्दी लगाना।

२. गले में बाँह में काला धागा बाँधना (काला कड़ा)

३. यह दृष्टि दोष से बचने का सरल उपाय है।
वैज्ञानिक कारण :

१. काली वस्तु में विद्युत को ग्रहण करने की शक्ति सर्व विदित है।

२. आकाशीय विद्युत भी काले आदमी, काले साँप, काले जानवर, काला लोहा (जंग) पर अपना प्रहार करती है।

३. महलों, ऊँची इमारतों, मन्दिर में ऊपर लगी हुई विशेष प्रकार की छड़ (तड़ित चालक) आकाशीय विद्युत से रक्षा करती है।
चिकित्सा—

१. गाय पुच्छ से बच्चे के शरीर का मार्जन करना एवं काली बकरी का दूर पिलाना। (महामंत्र—णमोकार ९ बार पढ़ते हुए गाय की पूँछ से बालक झाड़ते जाओ।)

मंत्र— णमों अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आईरियाणं, णमों उत्तझायाणं, णमो लोऐ सव्व साहूणं।।

(गाय खड़ी रहे इससे कुछ खाने को डाल दें)

२. रीठा को काले धागे में बाँध गले में बाँधने से नजर नहीं लगती।

सेहत के नुस्खे Health tips 1


पेट का दर्द :

कारण : पेट में दर्द अनेक कारणों से उत्पन्न हो जाता है। उनमें से प्रमुख कारण है :—

१. अति शीत भोजन, शीत ठण्ड लगना, अधिक ठण्ड प्रिज का पानी पीने से,

२. पचाने की क्षमता से अधिक भोजन करना,

३. अधिक खटाई सेवन करना।

४. अधिक मीठा खाने के कारण कृमि उत्पन्न होना।

निवारण : साधारण तौर के दर्द में सामान्य: १ छोटी चम्मच अजवाइन में चौथाई (१/४) चम्मच सेंधा नमक, मिलाकर खाने से पेट दर्द ठीक हो जाता है।

हिंगवाष्टक चूर्ण :

घटक : सौठ, कालीमिर्च, पीपल, अजवाइन सेंधानमक जीरा, स्याहजीरा सम भाग एवं भुनी हींग आठवां भाग। (हींग को घी में भूनकर मिलावें।)

विधि : भोजन करने से पूर्व भोजन के पांच ग्रास में इस चूर्ण के एक चम्मच (दो आना भर) खुराक मिलाएं। उनमें दो चम्मच धी मिला लेवें। इस प्रकार ५ ग्रास रोटी की, चूरण में मिले हुए चूर्ण को सर्वप्रथम (आहार के पूर्व) श्रावक मुनिराज को देवें। पश्चात् शेष आहार करावे।

नोट : सेवन की यह विधि किसी वैद्यक ग्रन्थ की नहीं है। राजवैद्य विन्द्रावन लाल के अनुभव की है। हजारों रोगी को वर्षों पुराना पेट दर्द का निवारण इस प्रयोग विधि से दूर हुआ है।

परहेज : इमली, आम की खटाई, चावल, अति ठण्डे पेय पदार्थ मौसम्मी, जूस नीबू शिंकजी आदि ठंडे पदार्थ नहीं लेवें।


उदर—शूल रोग :
सौंठ सुहागा सौंचर गन्धी, सौ जनों के रंग में बाँधे पिण्डी।

सत्तर शूल बहत्तर वाय, कहे धन्वतरि छिन में जाय।

अर्थात् — सौंठ १०० ग्राम, सुहागा १०० ग्राम, सौचर नमक ५० ग्राम, हींग २० ग्राम, घी में भूनकर चूर्ण बनाएं। पश्चात् सहजन (मुनगा) की जड़ के रस में २४ घण्टे भिगों दें। पश्चात् सभी को सिल पर पीस कर झरबेरी के बेर बराबर गोलियां बना लें। दो—दो गोली पानी के साथ दिन में तीन बार लेने से सभी प्रकार की उदर—वायु विकार ठीक हो जाते हैं। बच्चों को १—१ गोली दें।


हाजमा : यदि किसी की पाचन शक्ति बिगड़ जाती है तो इसे जठराग्नि (अग्निमान्ध) की क्रिया की कमी कहते हैं। लक्षण : भूख का कम लगना, गैस पास न होना, मुंह में गर्म वाष्प निकालना, मलावरोध होना आदि। कारण : पाचन क्रिया कमजोर होने के कारण— १.समय से भोजन नहीं करना।

२. देर में भोजन करना

३.अति तीक्ष्ण चीजों का भोजन में इस्तेमाल करना।

४.अधिक मिर्च, खटाई का सेवन, रात्रि में देर से सोना और प्रात: देर से उठना आदि।
वात व्याधि :

कमर दर्द, रीढ की हड्डी का दर्द, बदन व घुटनों का दर्द :

उपचार : १. प्रथम एक लीटर पानी गरम करें। उसमें फिटकरी पिसी २० ग्राम, सेंधानमक १० ग्राम डालें। फिर मोटे तौलिया से जितना गर्म सहन होें सैंक करें। यह सेक कमर दर्द, रीढ का दर्द, कूल्हे, कमर का दर्द सभी अंगों के दर्द में लाभकारी है।

२. चोट सज्जी और फिटकरी १०—१० ग्राम को लेकर एक लीटर पानी को पहले से गर्म करके के पश्चात् उसमें घोल लेवें। पश्चात् नेपकिन गरम कर जितना सहन हो सके, सेक करें।

नोट : यह दवा जमे खून के थक्के (थाइराइड) को भी ठीक करती है।

टेबलेट : रूमायोग स्वर्ण युक्त (हिमालय का ) २० गोली लेकर रखें एक से दो गोली बूरा मिश्रित २०० ग्राम दूध के साथ सेवन करें। इसके पश्चात् आर कम्पाउण्ड गोली (आयुर्वेद ही है) एक—एक गोली १० दिन सेवन करें। आश्चर्यजनक लाभ होगा। इसी दवा के कोहिनी का दर्द भी ठीक हो जाता है।

मालिश : नूरानी तेल, अथवा रूमाटिल तेल (डाबर का) से मालिश करें। विषगर्म तेल, महानारायण तेल प्रसारिणी तेल आदि तेल भी लाभकारी हैं। रूपमालिया—तेल—हिमालया कम्पनी।

३. बथुआ की भाजी का जूस (सादा—नामक आदि न मिलाएँ) लगभग २५ ग्राम प्रतिदिन पीने से घुटने, कमर कोहिनी आदि के दर्द ठीक हो जाते हैं। वाति—व्याधि में पैर लड़खड़ाते हैं तो क्या करें?

लक्षण : यदि कभी आपका एक पैर सीढ़ियों पर चढ़ते वक्त कंपने लगता है। तो गिर जाने का भय रहता है।

उपचार :

१. दशाँग—लेप (डाबर/वैद्यनाथ) का मंगा लें। इस दवा की ३० ग्राम मात्रा में सेंधानमक १० ग्राम मिलाकर एक कटोरी में ५० ग्राम सरसों का तेल लेकर उसमें नमक सहित दवा धीरे—धीरे गर्म करके दवा को पोटली बना लें। फिर दोनों घुटनों का एवं कमर, रीढ़ की हड्डी १० मिनट सेेंक करे। प्रसारिणी तेल की मालिश करें। दो तीन दिन में ही आराम हो जाएगा। उपचार विधि आगे भी चालू रखें।

परामर्श : लौह भस्म, बसन्त मालिती, एकाँगीर, रस चिकित्सक के परामर्श अनुसार लेवें


वात रोग, कम्पन, साइट्रिका, कमर कमर दर्द आदि में :

उपचार : सदाबहार चूर्ण— नागौरी अश्वागन्धा १०० ग्राम, सौठ ५० ग्राम, बूरा १५० ग्राम लेकर कूट—पीस, कपड़ छान कर चूर्ण बनाकर रख लें। इसके सेवन से सभी प्रकार के बात रोग, कम्पन, साइट्रिका, कमर दर्द आदि ठीक होते हैं। शरीर में ताकत बढ़ती हैं।


सदा निरोग रहे, यौवन सुरक्षित रहे :— सदाबहार चूर्ण : घटक एवं विधि—

आँवला; तिल काले, भृँगराज, गौखरू, सभी १००—१०० ग्राम लेकर इसमें ४०० ग्राम बूरा मिलाकर छान—पीस कर सुरक्षित रख लें। गौ घृत से पाक बना कर लें। यौवन सुरक्षित रहता है, शरीर निरोग रहता है।
गुम चोट :

उपचार : १. फिटकरी, आमी हल्दी, रेवन्द चीनी सज्जी सभी को सम भाग में लेकर सरसों के तेल मे पकाकर बाँधने से गुम चोट समाप्त हो जाती है।
हाथ का ऊपर न उठना :

अभ्यास : १. हाथ ऊपर उठना एकाएक बन्द हो जाने पर उक्तानुसार सेंक करते रहे। पश् चात् धीरे—धीरे दीवाल पर पँजें, अंगुलियाँ रखते हुए धीरे—धीरे हाथ को अधिकतम ऊपर उठाने का अभ्यास दिन में कम से कम दो बार करें।

२. साईकिल का पहिया को किसी दीवाल या खम्भे नुमा स्थान पर बाँध कर उसे धुमाने का प्रयत्न करें। ९—१० दिनों में हाथ ऊपर—नीचे सही उठने लगेगा।

३. यदि दर्द अधिक होता है तो दर्दोना टेबलेट की एक—एक गोली अथवा आर० कम्पाऊण्ड की गोली लें।


साईट्रिका :

यह एक अति पीड़ा देने वाल दर्द है।

उपचार : १. हार सिंगार की पत्ती १० ग्राम लेकर २५० ग्राम पानी में उबालें। चौथाई भाग शेष रहने पर छानकर सुबह —शाम काढ़ा पियें।

२. महायुवराज गुगल की एक एक गोली सुबह शाम दूध के साथ सेवन करें।

३. महाबात विध्वंसक रस की एक—एक गोली सीरा के साथ सुबह—शाम।

४. अहूसा (बाँसा)—(रूसों) १० ग्राम, अमलताश १० ग्राम, जायफल की जड़ १० ग्राम को मिलाकर उसका काढ़ा बनाकर सुबह—शाम पीवें।

५. नीम की गोंद ५ ग्राम, गुरमुल १० ग्राम घी के साथ सेवन करें मालिश का तेल निम्न विधि से स्वयं भी तैयार कर सकते हैं।

तेल : कुचला ५० ग्राम, लहसुन ५० ग्राम, चित्रक ५० ग्राम तीनों को ५०० ग्राम तेल में धीमी आँच में १० मिनिट पकाएँ। उबरने पर उतार लेवें। फिर इसकी मालिश करें।
रोग—धनुषटंकार (टिटनेस) :

कारण— इस रोग की उत्पत्ति में मुख्य कारण किसी जख्म के ऊपर गोबर लग जाए अथवा जंग युक्त लोहा की कील अथवा लोहा से घाव हो जाने से यह रोग उत्पन्न होता है। लक्षण— शरीर के मुख्य अँग अकडने लगते हैं एवं तीव्र जकड़न महसूस होती है।

उपचार (चिकित्सा) : १. शुद्ध कुचला १० ग्राम , शुद्ध सिंग्गिया १० ग्राम, सौंठ २० ग्राम, भुनी पीपल २० ग्राम, भुनी पीपल २० ग्राम एकत्र करके कूट—पीसकर छान कर रखें। आधा आना भर की खुराक सीरा के साथ देवें। बच्चों को आयु के अनुसार खुराक कम करें।

२. महाविष गर्म तेल की गर्म मालिश करें।

३. निम्न दवाईयों को उपले (कण्डे) की धीमी अग्नि पर थोड़ी—थोड़ी दवा छोड़ते हुए शरीर के अंगों पर सिकाई करें।

विधि— इसमें रोगी को रस्सी की बुनी हुई चारपाई पर लिटाएँ एवं नीचे कण्डा रख कर उसमें उपले (सूखा—गोबर की धीमी अग्नि जलाएँ। तथा निम्न दवाइयों के मिश्रण को उपले (कण्डे) की धीमी आँच पर थोड़ी—थोड़ी दवा छोड़ते हुए तथा नीचे रखे कुण्डे को खिसकाते हुए शरीर के सभी अँगों पर अच्छी तरह सिकाई करें। सिकाई करने हेतु दवा— अजवान, बायधूमा, वायतूमा, वायसुरई, मोरपँख, वायविडंग, नीम पत्र (कंडलीफल, प्रत्येक दवाई १००—१०० ग्राम लेकर जौं कूट (कुछ मोटा कूट लें) लें। मोर पँखी को वैची से छोटा—छोटा काट लें। फिर किसी डिब्बे में रख लें। लगभग २५ ग्राम दवा प्रत्येक सेक में इस्तेमाल करें।

नोट— सकाई के पश्चात् शरीर से पसीना निकलता है उसे अच्छी तरह पोछने के बाद तेल की मालिश करनी चाहिए।
लकवा (पैरालेसिस) :

लकवा के रोगी को भी उक्तानुसार सेक करना चाहिए। उपचार :

१. उडद, किवांच अरण्ड की जड़ सहदेई, जटामासी इन सबकी १०—१० ग्राम मात्रा लेकर ५०० ग्राम जल में काढ़ा बनाएं। १०० ग्राम शेष रहने पर थोड़ी हींग और आधा चम्मच सेंधा नमक मिलाकर पिलाएँ। इससे पक्षा— घात ठीक होता है।

तेल मालिश हेतु : १. पीपलामूल, चीता (चितावर), पीपल, सौंठ रासना तथा सेंधानमक के कल्क के साथ उड़द का काढ़ा डालकर परिपाक तेल के सेवन से लकवा ठीक होता प्रसारिणी तेल अति उपयोगी है। मालिश करें।

२. नूरानी तेल की मालिश करें।

३. एकांगवीर रस की एक—एक गोली सीरा के साथ लें।

धूनी देने की दवा: (१) वायधूमा,

(२) वायतूमा,

(३) वायसुरई,

(४) अजवान,

(५) सूखे नीम पत्र। सभी को सम भाग में लेकर पीसकर कण्डे की अग्नि में धीमी—धीमी आँच में थोड़ी दवा डालकर शरीर के प्रवावित स्थान पर इसकी धूनी देवें। विधि पिछले पृष्ठ से देखें।
संधिग (गले के पीछे की नस में जकड़न) :

उपचार: (१) कचूर देवदारू, विधारा, रसना, सौंठ गिलोय (गुरमे), शतावरू इन सभी को २५.२५ ग्राम लेकर कूट करके रख लें। ५०० ग्राम जल में २० ग्राम दवा की मात्रा डालकर धीमी आँच में काढ़ा बनाएँ। १०० ग्राम शेष रहने पर आधा चम्मच शुद्ध गुग्गुल डालकर पीने के नसों में होने वाला दर्द ठीक होता है। (नोट— ठण्डे पदार्थों का सेवन न करें।)

(२) बच, पित्त पापड़ा, जबासा, झिन्ती, गिलोय, अतीक, देवदारू, मौथा, सौंठ, विधारा, रासना बड़ी दन्ती शतावर। इन सभी को मिलाकर उक्तानुसार काढ़ा बनाकर पीने से नसों की जकड़न खुल जायेगी। पेट का भारीपन और पक्षापात ठीक हो जाता है।
रक्तचाप (ब्लड प्रेसर)

१. रात्रि में १० ग्राम चना एवं ५ ग्राम किसमिस भिगो देवें। सर्वप्रथम आहार में उसे लें। आराम होगा दोनों ही प्रकार के ब्लड—प्रेसर को काबू में रखता है।

२. तरबूज की बीजी (अन्दर की गिरी) खसमस के दाने दोनों को अलग—अलग पीसकर रखें । एक चम्मच दोनों को मिलाकर नित्य प्राय: सायं सेवन करने से उच्च रक्तचाप में आराम होता है।

३. १०० ग्राम पानी में आधा नीबू निचोड़कर पीना। इससे उच्च रक्तचाप में आराम होता है।

औषधि : १. हाई ब्लडप्रेसर जैसे ही हो एक—दो पके टमाटर (लगभग १०० ग्राम) तुरन्त जल्दी—जल्दी खाने पर शीध्र लाभ हो सकता है।

नोट : यह नुस्खा डा. मनौरिया हृदय रोग विशेषज्ञ भोपाल वालों ने (प्रयोग सिद्ध) बताया है। रामबाण काम करता है। बाद में इलाज कराते रहें, किन्तु तुरन्त लाभ होने हेतु घरेलु उपचार (अचूक चिकित्सा ) है।
'निम्न रक्तचाप (लो ब्लडप्रेशर) :

(रक्त का दबाब कम होना)

उपचार :' १. पिसी कच्ची हल्दी एक चम्मच को २५० ग्राम दूध में उबालकर उसमें तीन चम्मच बूरा (शक्कर) मिलाएँ। ठण्डा होने पर पीने पर आराम होता है। (शुगर के मरीज शक्कर न मिलाएँ)

२. किशमिश के ३२ दाने लेकर १५० ग्राम पानी में भिगोएँ एवं प्रात: काल निकाल कर खूब (३२ बार ) चबा-चबाकर खाएँ। इससे आराम होता है।

३. भीगे हुए बादाम की एक दो गिरी धिसकर ( महीन पीसकर ) दूध के साथ सेवन करें।

४. रोगी बातचीत करना बन्द रखे एवं बाई करवट लेटकर नींद लेने से आराम होता है।

(विशेष चिकित्सक को दिखाएँ। चैक कराते रहें।)


हृदय संबंधी रोग—

दिल की धड़कन— दर्द महसूसक होना, हृदयघात :

उपचार :

अर्जुन (कहवा) की छाल १०० ग्राम, गुरूखुर ५०० ग्राम, दालचीनी १० ग्राम, डौंडा २० ग्राम, सौंठ ५ ग्राम, तुलतीपत्र ५ ग्राम, सौंप १० ग्राम ।

सेवन विधि— १. उपरोक्त दवाओं को जौंकुट करलें, अथवा पीस—कूट—छान कर रख लें। एक छोटी चम्मच भर दवा को ३०० ग्राम जल में धीमी आँच में उबालें। चौथाई भाग शेष रह जाने पर चाय छन्नी से या कपड़े से छानकर चाय की तरह पीएँ। (मधुमेह के रोगी इसमें चीनी न मिलावें । दूध भी डाल सकते हैं। हृदय रोग की प्रसिद्ध दवा है।

२. सूखा आँवला १०० ग्राम कूट कर रख लें। उसमें उतनी ही मात्रा में बूरा मिलाकर नित्य प्रात: २ छोटी चम्मच पानी के साथ सेवन करें। आँवला अति गुणकारी होता है। यह दवा ब्लडप्रेशर में भी लाभकारी है।


नाहरूआ— (बाला) :

रोग की अचूक औषधि :

लक्षण : यह धागे जैसे कीट से उत्पन्न होता है। जो मनुष्य के शरीर में परिपक्व होकर त्चचा में छेद करके भ्रूण को छोड़ने के लिए बाहर निकल आता है। मादा कीट लगभग एक मीटर तक लम्बी होती है। इस कीट को शरीर से खींचकर न निकाले, टूट जाता है, बहुत परेशान करता है।

औषधि : कली का चूना (डर्रा) १० ग्राम लेकर एक किलो गाय के शुद्ध दही में अच्छी तरह मिलाकर प्रात: खाली पेट नाहरू (वाला) रोगी को पिलाएँ।

नोट— रोगी को फिर दिन भर मट्ठा (छाछ) और पानी के सिवाय अन्य कुछ भी न खिलाएँ। अथवा निकलने वाला बाला ७—८ दिन में ठीक हो जाता है, फिर कभी नहीं होता।

परहेज— ८ दिवस तक रोगी धूप से बचे, ठण्डी हवा छाया में रहे, ज्यादा श्रम न करे।
पैर में काँटा लगना :

उपचार : १. यदि काँटा निकल नहीं रहा हो तो गुड़ पिंघला कर उसमें अजवाइन मिलाकर उसकी लुगदी बना कर स्थान पर बाँध दें। काँटा निकल जाएगा।

२. काँटे वाले स्थान पर थोड़ा आँक कर दूध ४—५ बूँद भर दें। काँटा निकल जाएगा।

घोट पीसकर मलहम बना लें। यह औषधि पुराने से पुराने घाव भी ठीक कर देती है। अन्य उपचार :

१. सिन्दूर १० ग्राम, मुर्दाशंख १० ग्राम, नीलाथोथा ५ ग्राम, हींग असली ढाई ग्राम, मोम १०० ग्राम, पीली सरसों का तेल २०० ग्राम।

निर्माण विधि : पहले तेल को कढ़ाई में गर्म करें, उसमें सिन्दूर डाले फिर उसी में मुर्दा राख पीसकर थोड़ा—थोड़ा डालते रहें, उसके पश्चात् नीला थोथा पीसकर थोड़ा—थोड़ा डालते जाएँ। उसके बाद हींग डाल दें व मोम पिघलाकर डालें। फिर गरम गरम ही कपड़े या मैंदा छलनी से छान लें। वर्तन पीतल का नहीं होना चाहिए। कैसा भी फोड़ा—फुन्सी हो ठीक हो जाएगा।

२. भृंगराज (घमरा घास) के पत्तों को धोकर महीन पीसकर किसी व्रण (घाव) पर लगाते रहें। इसकी लुग्दी बना बाँधे। पुराना घाव भी ठीक होता है। किसी स्थान पर चोट से खून आता हो तो वह भी बन्द हो जाता है।


हड्डी और माँस का नासूर (घाव) :

उपचार : १. गाय का मक्खन १०० ग्राम लेकर काँसे की थाली में डाल दें। फिर उसको स्वच्छ पानी में घोंट कर ऊपर का पानी निथारते रहें। ऐसा १०८ बार करें। पश्चात् उसमें काला सुरमा, और सफेद सुरमा पीसकर मिला लें मलहम १५—२० बार लगाने से बड़े से बड़ा (नासूर) घाव भी ठीक हो जाएगा।
चर्म रोग—दाद :

उपचार : १. देशी अजवाइन १०० ग्राम पीसकर, आँक का दूध २०० ग्राम में मिलाएँ। पश्चात् यह मिश्रण २०० ग्राम तेल में पकाएँ। काली पड़ने पर उतार छानकर दाद पर लगाएँ।

२. रिंगोझोन मलहम, बी० टेक्स मलहम। नोट— साबुन आदि का प्रयोग वर्जित है। नीको साबुन प्रयोग कर सकते हो।
खाज :

उपचार— गन्धक, मस्टर, खुरासानी अजवाइन, नीलाथोथा, कपूर, घमाड़ के बीज, पलास के बीज इन सबको १०—१० ग्राम लेकर कूट पीसकर कन्जी के तेल में (यदि उपलब्ध न हो तो सरसों के तेल में) गारे। जब (मिक्स) हो जाए तब किसी शीशी में रख लें। पश्चात् नीम की पत्ती को गरम पानी में मिलाकर उससे धोकर पीड़ित स्थान में यह मलहम लगाएँ।
सूखी खुजली :

उपचार : १. खुरासानी अजवाइन पीसकर सूखी मालिश करें, अथवा तेल में उबालकर करें।

सेहुआ :

उपचार : चिंरोजी का तेल लगाने से ठीक हो जाता है।


हारपीज् :

उपचार : १. ५० ग्राम इमली गर्म पानी में भिगोएँ। फिर मसलकर उसको छन्नी से छानकर इस घोल को सीने पर अगल—बगल जहाँ हारपीज का असर हो वहाँ लगाएँ— फिर नीम के पानी से धोएँ। पश्चात् नारियल के तेल में कपूर मिलाकर शरीर में मालिश करें। रोग ठीक हो जाता है। जलन कम हो जाती है।

एग्जीमा :

उपचार (१) दो किलो नारियल की खोपरी को छोटा—छोटा पिसकर उसे मिट्टी के सीझे—चिकने बर्तन से भरें। नीचे छेद करके उसके नीचे सीझा मिट्टी का बर्तन रखें। एवं ऊपर ढक्कन रखकर मिट्टी से थाप दो। फिर उसे उपले की आग में पकाएँ। ऐसा करने से नारियल खपरिया का रोगन नीचे रखे हुए बर्तन में आ जाएगा। फिर धीरे से राख को अलग कर सावधानी से ऊपर का बर्तन उठाऐं। तब नीचे का बर्तन जिसमें रोगन आ गया है, उसे उठाकर किसी काँच की शीशी में रख लें इसमें अशुद्ध पारा एवं अशुद्ध गन्धक की कज्जली बना कर मिला देंवें। फिर एग्जिमा वाले स्थान को नीम की पत्ती के पानी से धोकर यह दवा रूई से लगा दें शीध्र लाभ होता है। (साबुन का प्रयोग न करें।)

(२) २५० ग्राम सरसों के तेल में ५० ग्राम नीम की कोंपल को लोहे की कढाई में धीमी—धीमी आँच में उबालें। पत्ती काली पडने पर उतार—छान ओर ठण्डा करके शीशी में भर लें। नित्य तीन—चार बार यह तेल लगाने से एग्जिमा ठीक हो जाएगा।

(३) हल्दी एवं बेसन समान मात्रा में लेकर एग्जिमा वाले स्थान पर लगाएँ। १५ मिनट पश्चात् धो लें एग्जिमा ठीक हो जाएगा। साबुन वर्जित है। नीको सोप लगा सकते हैं।

एग्जिमा, अकौत, छाजन :

उपचार— कनेर वृक्ष के पञ्चाँग (जड़, फूल, पत्ते, छाल, लकड़ी) आदि सभी को पानी में पीसकर लुगदी बना लें। समभाग में गौ—मूत्र और सरसों का तेल डालकर धीमी आँच में पकाएँ। तेल बराबर शेष रहने पर काँच की शीशा में भरकर रख लें। इसके लगाने से अकौता, छाजन, एग्जिमा आदि चर्म रोग ठीक हो जाते हैं। साबुन का प्रयोग र्विजत है। कनेर के पत्ते पहले धो लेना चाहिए।


फोड़ा :

उपचार : १. हरे ताजे मैनफल को लाकर बीजों सहित महीन पीसकर (सिल—बट्टा से) लुगदी बनाकर व्रण (फोड़ा) पर बाँधे। कैसा भी फोड़ा क्यों न हो, बड़े—बड़े डॉक्टर निराश हो गए हों। धीरे—धीरे यह पुल्टस बाँधने पर उससे शनैं: शनै: पीव निकलती हुई फोड़ा १५—२० दिन में ठीक हो जाता है। अचूक नुस्खा है।


घाव—फोड़ा :

उपचार— १. ५०० ग्राम घृत (गाय का शुद्ध घीं) में य नीम के पत्ते ५० ग्राम डालकर घीमी आँच पर इतना उबालें कि पत्ते काले पड़ जाएँ ।फिर उतारकर ? ज्वर (फीवर) : संबधी समस्या—
मलेरिया :

इस बुखार में कुनने संबंधित औषधि एलोपैथी में भी है किन्तु इसके सेवन से अत्यधिक गर्मीं बढ़ जाती है और पीलिया तक होने की संभावना रहती है। आयुर्वेंद में इसकी रामबाण औषधि निम्न है

औषधि : १. नाय घास (दमजरी यह एक ऐसी घांस है जिसका पौधा ८—१० इन्च ऊँचा होता है तथा कडुवा होने के कारण इसे जानवर भी नहीं खाते। इसका काढ़ा बनाने के लिए २५० ग्राम पानी में १० ग्राम नायघास डालकर धीमी आँच में पकाएँ। ५० ग्राम शेष रहने पर भोजन के पूर्व छानकर पीना चाहिए। तुरन्त इलायची सौंंप के साथ पुन: पानी पीना चाहिए।

२.नायघास, चिरायता, नीम की छाल और गलोय (गुरुचि, गुरमें ) सभी को समान मात्रा में लेकर कूट—पीस छान कर १० ग्राम औषधि को उक्तानुसार काढ़ा बनाकर सेवन करें। इसे इकतरा, द्वितीयक मलेरिया ज्वर भी नित्य औषधि के सेवन करने से एक सप्ताह में रोग समाप्त हो जाता है।
पित्त ज्वर:

उपचार : गर्मीं के कारण अथवा लू लगने के कारण आए ज्वर में रोगी का कंठ सूख जाता है, भीषण दाह होती है, तृषा अधिक होती है। इसमें घनापंचक काढ़ा पिलाना चाहिए। घनापंचक काढ़ा— नाीम की छाल गुरमें, घना, लालचंदन, पदमदाख चन्दन सम भाग लेकर १० ग्राम± दवा ५०० ग्राम पानी में धीमी से उबालें १/४ भाग शेष रहने पर छानकर ७ दिन पिलाएँ जड़ से बुखार ठीक हो जाएगा।

सोते हुए बिस्तर पर पेशाब करना :

औषधि : एक अखरोट की गिरी को १०—किसमिस के साथ खिलाने से ८—१० दिनों में बिस्तर पर पेशाब करने की समस्या दूर हो जाती है।


बच्चों के हरे—पीले दस्त :

उपचार : १. जायफल, अतीस और ईसबगोल तीनोें की १०—१० ग्राम मात्रा लेकर महीन पीस लेें। बच्चे की उम्र अनुसार थोड़ी दवा लेकर चिकनी सिल पर पानी डालकर गारें। माँ के दूध में बच्चे को दें।

२. चूने का पानी एक—एक चम्मच पिलाएँ। चूने का पानी मिट्टी के घड़े में एक सप्ताह चूना पानी भिगोने के पश्चात् निथार कर बनता है। बच्चों का ग्राइप वाटर इसका ही प्रकार है।

३. सूखा रोग के कारण ऐसे दस्त हो रहे हों तो इतवार/ बुधवार किसी भी एक दिन प्रात:काल बरगद के पेड़ की लटकती हुई हरी जड़ लेकर छोटी सी कुंडी सी बनाकर उसे नीले रंग के धागे से लपेटकर उसी दिन बालक के गले में पहना दें। ऐसा करने पर सूखा रोग से पीड़ित रोगी ठीक होगा एवं दस्त भी ठीक हो जाएँगे। (तंत्रशास्त्र)


लू लगने पर :

उपचार : १. चने की भाजी को पानी में भिगोकर छानकर वह पानी शरीर पर लगाएँ।

२. टेसू (पलास, ढाक) के फूल का पानी शरीर पर लगाना चाहिए।

३. मावा (खोया) की बर्फी/पेड़ा घोलकर पिलाने से तीव्र लू का झटका शीध्र ठीक हो जाता है। नोट— बुखार—लू आदि बीमारी के बाद स्वस्थ्य होने पर चन्दनबाला लाक्षादि की मालिश से कमजोरी ठीक हो जाती है। बदन दर्द ठीक हो जाता है।

४. पैर के तलवे में लौकी पीस करके घिसे ३० मिनिट तक।

५. गरी का तेल तलवों में लगाकर ऊपर से काँसे का बेला (बर्तन) घिसें।

कफ ज्वर में : उपचार : त्रिसून गोली (झण्डू वंâ. की ) एक—एक गोली सुबह—शाम पानी के साथ एक सप्ताह सेवन करें।

मोतीझरा : लक्षण— इसमें रोगी को गले के पास सीने में मोती जैसे दाने चमकते हुए से दिखते हैं। अन्दर से बहुत दाह होती हैं। किन्तु मलेरिया बुखार बिगड़ने से जो मलेरियल टाईफाइड होता है उसमें उपरोक्त लक्षण नहीं पाए जाते। विशेष नोट— दाने वाले मोतीझरा में रोगी को किसी प्रकार एनीमा द्वारा मल न निकालें। और न ही तेज जुलाब (लक्जेटिव) औषधि दें। ऐसा करने से आयुक्षय जैसी गम्भीर स्थिति की सम्भावना उत्पन्न हो सकती है। इसके स्थान पर कच्ची हर्र अथवा मुनक्का के दूध से विरेचन कराएँ चिकित्सा— मोतीभस्म १ ग्राम, ग्लोयसत्व १० ग्राम, सीतोपलादि चूर्ण ५० ग्राम, स्वर्णबसततमालती १ ग्राम, सभी को मिलाकर एकक शीशी में रख लें नित्य एक चौथाई ग्राम (बच्चों/आयु के अनुसार कम—अधिक) सीरा के साथ सेवन करें।


सीतोपलादि चूर्ण: बनाने की विधि : तज (दालचीनी १० ग्राम, इलायची २० ग्राम, पीपल ४० ग्राम, वंश लोचन ८० ग्राम तथा मिश्री १६.० ग्राम लेकर कूट—पीस कपड़ाछान कर उसका चूर्ण बनाकर एक शीशी में भर कर रखें। नोट : मुनियों के लिए चूर्ण बनाने में मिश्री न मिलाएँ एवं चूर्ण देने के समय चासनी (सीरा) के साथ दें। परहेज : दाने वाले मोतीझरा के रोगी को अनाज कतई न दें। दूध एवं फलों का जूस ग्लूकोज देना चाहिए। पानी को उबाल कर ठण्डा करके दें। बर्पâ, एवं प्रिज का पानी न दें।
फ्लू : उपचार:

१. ४ लवंग, ८ कालीमिर्च, १६ तुलसीपत्र लेकर साफ करके २५० ग्राम पानी में उबालें। ५० ग्राम काड़ा शेष बचने पर गर्म—गर्म पीने से तुरन्त लाभ होता है। यह औषधि सर्दी जुखाम, बुखार मलेरिया आदि में भी लाभप्रद है।

२. तुलसी की १० पत्तियाँ, ७ कालीमिर्च, को ५०—६० ग्राम जल से पीस कर लुगदी बनाकर शाम को खिलावें।
पुराना ज्वर : जीर्ण ज्वर—

उपचार: १. मलेरिया में फूली फिटकरी एक ग्राम चूर्ण में ५ ग्राम चीनी मिलाकर गुनगुने पानी में लेने से मलेरिया बुखार ठीक होता है। नोट— गर्भवती स्त्री यह दवा न लें।

२. सादा नमक तवे पर धीमी आँच से सेवें। ध्रवें जैसा रंग हो जाने पर थोड़ा—थोड़ा सेवन करें इकतरा, पारी का ज्वर, सभी प्रकार के ज्वर को ठीक करता है।

शरीर में दाह—जलन की चिकित्सा : उपचार विधि : लाल चन्दन, सुगन्ध बाल, दाख आँवला और पित्तपापड़ा इन सभी को १००—१०० ग्राम मात्रा लेकर रखें। फिर २५ ग्राम दवा लेकर ५०० ग्राम पानी में धीमी आँच पर काढ़ा बनाएँ। १०० ग्राम शेष रहने पर ठण्डा करके, छान कर पीने से ४—५ दिवस में ही ज्वर एवं ज्वर की दाह भी ठीक हो जायेगी।

शरीर के किसी भाग हाथ—पैर आदि में दाह—जलन : उपचार विधि : १. बेर के पत्ते २० कोपल पीसकर दही मे मिलाकर लेप करने से जलन शान्त होती है।

२. कपूर चन्दन और नीम के पत्र को मट्ठे में पीसकर लेप करने से जलन शान्त होती है।

३. गाय का मट्ठा (छाछ) ठण्डा करके उसमें वस्त्र भिगोकर लपेटें।

४. ग्वारपाठा को बीच में से दो भाग करके उसका गूदा घिसने से ठण्डक मिलती है। उसकी सब्जी बनाकर खाएँ।

भ्रूत ज्वर : भ्रूतबाधा दूर करने हेतु : ज्वरों (बुखार) की श्रेणी में भूत—प्रेतादि की बाधा से भी भूत ज्वर (ज्वर) उत्पन्न होना पाया जाता है। ऐसा रोगी ज्वर से पीड़ित होता हुआ प्रताप करता है। हँसता भी है एवं नाना प्रकार से परेशान रहता है। इस स्थिति में निम्न चिकित्सा करने से लाभ होता है। नोट— धनन्वतरि पत्रिका सित. १९५४ में इसके बारे में लिखा है कि आधुनिक चिकित्सा व्यंतरादिक बाधा न मानने के कारण इसे पागलपन का रोग मानकर उपचार करते हैं। १. काशीफल के फूलों के रस में हल्दी को पीसकर पत्थर के खरल में घोंट कर अँजन बनाएँ।इस अँजन को थोड़ा—सा लगाने से भूत ज्वर दूर हो जाता है।

अन्य उपचार : १. भूत ज्वर सहदेवी की जड़ को विधि पूर्वक कंठ में बांधने से ३—४ दिन में ऐसी बाधा दूर होती है।

२. हुलहुल की जड़ को कान में बाँधने से भी भूत ज्वर दूर हो जाता है।

३. तुलसी की ८ पत्ती लेकर उसके रस में सौंठ, कालीमिर्च और पीपल का चूर्ण मिलाकर सूँधने से भूत ज्वर भाग जाता है।

४. शुद्ध गन्धक आमला चूर्ण समभाग में मिलाकर आधा चम्मच चूर्ण को पानी के साथ देने से सब प्रकार के भूत ज्वर दूर होते हैं।

५. अपामार्ग की जड़ (ओंगा, आदियाझरा की जड़ को रोगी की भुजा में बाँधने से भूत ज्वर दूर हो जाता है।

विषम ज्वर : १. चौलाई की जड़ सिर में बाँधने से विषम ज्वर दूर हो जाता है।

२. रविवार के दिन आँक (अकौआ) की जड़ को उखाड़ कर कान में बाँधने से सभी प्रकार के ज्वर दूर होते हैं।

३. नारियल की जड़ को गले में बाँधने से महा ज्वर दूर हो जाते हैं।

औषधि की गन्ध या विष से हुए ज्वर की चिकित्सा : ऐसी रोगी को निम्न सर्व गन्ध काढ़ा पिलाएँ : विधि— तज, तेजपत्ता, बड़ी—इलायची (डोडा), नागकेशर, कपूर,शीतल चीनी, अगर, लवंग। इन सभी आठ द्रव्यों को सम भाग मेें लेकर २० ग्राम दवा की मात्रा लेकर एक लीटर पानी में काढ़ा (१०० ग्राम) हो जाने पर रोगी को छान कर पिलाना चाहिए।


चिकनगुनिया :

उपचार— १. हराकसीस भस्म १० ग्राम, गोदन्ती भस्म १० ग्राम, महासुदर्शन घनबटी १० ग्राम लेकर (२० गोली ) सभी को मिलाकर आधाा चम्मच दवा को सीरा के साथ लेना चाहिए।

२. हाथ पैरों में दर्द में नूरानी तेल अथवा महा नारायण तेल से मालिश करें।
मस्तिष्क संबंधी रोग :

स्मरण शक्ति को बढ़ाने हेतु : १. ब्रह्मी बटी बैद्यनाथ की एक दो गोली पानी के साथ लेकर दूध पीना चाहिए।

२. शतावरी के पेड़े— शुद्ध खोवा (मावा) में एक चम्मच शतावरी चूर्ण डालकर उसका पेड़ा बनाकर प्रतिदिन खाने से स्मरण शक्ति बढ़ती है। (यदि इसमें ब्रह्मी और शंखपुष्पी भी मिश्रित करें तो विशेष लाभकारी है।)

३. धृतकुमारी तेल की सिर में मालिश करने से सिर का दर्द ठीक होता है। स्मरण शक्ति भी बढ़ती है।

४. ब्रेन टेब० (वैद्यनाथ वंâ० की ) लेने से भी स्मरण शक्ति बढ़ती है।

अनिद्रा :

उपचार — नींद न आने पर सर्पगन्धा घनबटी की दो गोली सोने के पूर्व पानी से सेवन करें। यह बहुत लाभ दायक है। यह ब्लडप्रेसर के रोगी को भी लाभदायक है। छोटी उम्र के रोगी एक गोली का सेवन करें। नोट—(एलोपैथी की नींद की गोली हानिकारक एवं साइडइपेक्ट कारक होती हैं।)


आधी शीशी का दर्द : (सूर्यावर्त शिरोरोग)

उपचार : १. दूध की मलाई में कपूर एवं सपेद इलायची को मिलाकर आँख से ऊपर माथे पर लेप करके ऊपर से मुलायम कपड़ा बाँधकर रात्रि में में सो जाएँ। आधी सीसी का दर्द धीरे—धीरे ठीक होने लगता है।

सिरदर्द :

कारण— तनाव (टेन्शन), मलावरोध, अतिश्रम अतिसर्दी—गर्मी आदि अनेक कारणों से सिरदर्द होता है।

स्मरण शक्ति वर्धक :

उपचार— १. बादाम की गिरी, एक चम्मच सौंफ, दो चम्मच बूरा को पीसकर गर्म दूध के साथ पीना चाहिए। इससे सिर दर्द ठीक होता है और स्मरणशक्ति भी बढ़ती है।

२. घृतकुमारी तेल— इसकी मालिश धीरे—धीरे सिर, मस्तक और गर्दन तक करने से पुराना सिर दर्द भी ठीक होता है।

३. मुलेठी (जायठोन) १०० ग्राम का चूर्ण कपड़छान कर रखें। आधा चम्मच चूर्ण अथवा पानी के साथ सेवन करने से लाभ हो जाता है।

४. गर्मी एवं लू लगने से होने वाला सिरदर्द में हिमगंगे तेल से मालिस करें एवं सिर में ठण्डा पानी मलने पर तुरन्त आराम होता है।

५. तेज सिर दर्द में :चन्दन का तेल १० ग्राम, यूकेलिप्टस तेल १० ग्राम चमेली तेल १० ग्राम मिलाकर एक शीशी में भरकर घर में रखें। तेज सिर दर्द होने पर यह तेल माथे पर और सिर पर धीरे—धीरे मालिश करें। साथ ही मुलेठी चूर्ण (ऊपर व्रंâ. ३) दूध के साथ लें। टेन्शन से बचे।

६. घृतकुमारी तेल में चन्दन तेल २० ग्राम और भीमसेनी कपूर २ ग्राम मिलाकर मालिश करें। तेज सिर दर्द भी ठीक हो जाएगा।

७. प्रात: बिना कुछ खायें—शुद्ध देशी घी की जलेबी दूध में भिगोकर खाएँ पुन: दूध पी लें। वर्षों पुराना सिरदर्द भी १५—२० दिन में ठीक हो जाता है।

८. तनाव के सिर दर्द में सेव फल का जूस लेें। सर्पगन्धा घनवटी खाकर सौ जाएँ।तनाव में मुक्त रहने का प्रयत्न करें।

अतिक्रोध : उपचार : क्रोध शान्त करने हेतु सेव फल का जूस लाभकारी है। एवं क्रोध उत्पन्न करने वाले वातावरण दूर रहें मौन रहने का अभ्यास करें।

अतिनिद्रा :

उपचार — इसके लिए वङ्काासन बहुत गुणकारी है।
बालों का झरना :

उपचार— १. मिट्टी के बर्तन मेें रात्रि को त्रिफला ५० ग्राम लेकर एक किलो जलमें भिगों दें। सुबह उस जल से सिर धोएँ। १० मिनट तक यह त्रिफला जल लगा रहने दें। बाद में सादे जल से सिर साफ कर लें। बाद में गरी (नारियल ) के तेल में नींबू निचोड़कर मालिश करने से बाल झड़ना बन्द हो जाते हैं।

२. बालों के झरने पर बहेड़े की गिरी (अन्दर की गुठली) का तेल अत्यन्त गुणकारी हैं। ५ किलो गिरी में लगभग १/२ एक किलों तेल निकल आता है। लगातार, धीरे—धीरे मलने से एक माह में ही बालों का झड़ना रूक जाता है। आगे लगाते रहें। बाल लम्बे और घने हो जाते हैं।

३. बालों में आँवला १०० ग्राम सूखा हुआ, मुलतानी मिट्टी २०० ग्राम रीठा के छिलके १०० ग्राम, शिकाकाई १०० ग्राम। इन सभी को कूट—पीस एक बर्तन में भरकर रख लें इसकी दो चम्मच मात्र लेकर २५० ग्राम पानी में रात्रि को भिगोकर प्रात: हिला—मिलाकर, घोलकर, बालों को धोएँ।

४. सोते समय सूखा नमक पिसा हुआ शिर में मलने से बालों की फूसी डेन्ड्रिफ सड़न आदि बन्द हो जाते हैं। पश्चात् परहेज— लालमिर्च, गर्म पदार्थ मीट आदि बंद करें।

१. गरी (नारियल) का तेल में नींबू का रस निचोड़ कर बालों की जड़ों में अच्छी तरह मालिश करें।

२. त्रिफला एक चम्मच, घी २ चम्मच लेकर उसमें स्वादानुसार बूरा मिलाकर खाएँ। (बालों संबंधी समस्त रोग एवं शिरदर्द सभी ठीक हो जाएँगे।)
बाल काले करना:

१. मेंहदी की पत्ती को लगाने से बाल सुनहरे—काले होते हैं। २. लोहे के पात्र में भीगा त्रिफला जल बालों को काला रखता है। असमय मेें बाल सपेद नहीं होते नोट— साबुन का प्रयोग बिल्कुल न करें। मुल्तानी मिट्टी, रीठा और शिकाकाई पीसकर उससे सिर धोएँ।

सेहत के नुस्खे Health Tips

दन्तोद्भेद एवं विधियाँ

एक मनुष्य के ३२ दाँत होते हैं इनके दो विभाग हैं— १. सकृज्जात— यह केवल एक निकलते हैं तथा अपने स्वरूप में वृद्धि पाते है। इनकी संख्या ८ काश्यप संहिता मेें बताई गई है इसमें ४ बुद्धिदन्तों का समावेश कर लेना चाहिए। २. द्विज— शेष २० दाँतों को द्विज कहा जाता है क्योंकि ये पुन: (दुबारा) उत्पन्न होते हैं। प्रथम बार बाल्यावस्था में जिन्हें दूध के दाँत कहते हैं। ये दाँत बालक जन्म लेने के कई मास पूर्व गर्भावस्था में ही दन्तमांस में बीज रूप में उपस्थित होते हैं शनैं—शनैं उनमें अस्थि निर्माण का कार्य आरम्भ होता है और वृद्धि होती है इस प्रकार दाँतो का पूर्ण स्वरूप लेकर मसूड़ों का भेदन करके वे बाहर आ जाते हैं। इस प्रक्रिया दन्तोद्भेद ( ऊााूप्ग्हु) भी कहा जाता है। दाँतों की निकालने की आयु पूर्णत: निश्चित नहीं है, पर कई बालकों के २ से ६ एवं कई के वर्ष भर के बाद निकलते हैं। इनका क्रम इस प्रकार से है— ७ वें माह में १ वर्ष में १ से १ १/२ वर्ष के बीच १ १/२ से २ वर्ष के बीच २ वर्ष से २ १/२ के बीच दाँत निकलते समय चूना प्रस्तफूरक जीव तिक्ति डी.सी. एवं भी आवश्यक होती है।
परीक्षित चिकित्सा प्रयोग—

१. बालकोें के गले में ‘सम्हालू’ की जड़ को रविवार के दिन बाँध देने से दाँत जल्दी निकल जाते है।

२. बालकों के गले में काले धागे में शीप (छिपनी) के छिद्र कर बाँधने से दाँत आसानी से निकलते हैं।

३. शुद्ध सुहागे की खील को सीरा में मिलाकर मूसड़ों पर मलने से दाँत आसानी से निकलते हैं।

४. बिजली का लाकेट गले में लटकाने से लाभ होता है।

५. काली तुलसी (श्यामा तुलसी ) के पत्तों का चूर्ण २—३ रत्ती अनार के रस में देने से दाँत बिना कष्ट के जल्दी निकल जाते हैं।

६. सम्हालू के बीज ताबीज में भरकर काले धागे में गले मेें बाँधने से दाँत आसानी से निकल जाते हैं।

७. आँवले के महीन चूर्ण को सीरा में मिलाकर मसूड़ों पर घिसने से दाँत आसानी से निकल आते हैं।

८. मूलैठी की एक रस सुन्दर गाँठ को छीलकर बालक के गले में ऐसा लटकाएँ जिससे बालक चूँसता रहे दाँत आसानी से निकल आते हैं।

९. धाय के फूल, पीपल, आमले के चूर्ण का स्वरस शिशु के मसूड़ों पर घिसने पर दाँत आराम से निकलते हैं। बच्चों का हाजमा—अफरा (अजीर्ण) वमन
नुख्सा :

१. चूने के स्वच्छ पानी को १/२ या १ चम्मच दूध पिलाने के पूर्व देने से बालकों की उल्टी, दस्त बन्द हो जाते है। वैल्सीयम कमी की पूर्ति होती है। बालक स्वथ्य रहता है।

२. अफारा (पेट) फूलने पर पानी में थोड़ा सा पापरी सोड़ा/ अथवा नीबू का रस डालकर पिलाने या तुलसी का रस डालकर पिलाने या तुलसी का रस देने से शीघ्र लाभ होता है।

३. पेट पर थोड़ी धीमी—धीमी थपकी लगाने से छोटी आँत की क्षमता बढ़ती है। वायु पास हो जाती है।

४. यह रोग विटामिन सी और विटामिन बी की कमी से होता है। अत: खट्ठे फलों का जूस नियमित देना चाहिए।

१. हरी गिलोय (गुरुचि) के रस में बाल का कुर्ता रंगकर सुखा लें यही पहनाए रखें शीघ्र लाभ होगा।

२. खूबकला— ३० गा्रम बकरी के दूध औंटाकर छाया में सुखाये दूध फैक दें इस प्रकार ३ बार दूध में औटाए दूध फैकते जाएँ सुखाकर चूर्ण बना लें फिर २—४ ग्राम की खुराक गाय के दूध से पिलाएँ।

३. भैंस का ताजा गोबर प्रात: बच्चे की कमर और जाँघों पर ५ मिनट तक अच्छी तरह मलें। फिर हल्के गर्म -जल से धोए, धोने पर कमर पर काले काले रंग के छोटे—छोटे काँटे दिखाई देंगे इन काँटों को जल्दी—जल्दी चुन लें। कुछ दिन में काँटे निकलना बन्द हो जाएँगे बच्चा स्वस्थ हो जाएगा।
बालकों की—मेद वृद्धि अस्थि कमजोर एवं लीवर कमजोर पर उपाय ।

१. तेल सामान— मकोय के पत्ते / बाँस / करेला/ नागरबेल (पान) भाँगरा, छोटी दूधी का पंचाङ्ग का २०—२५ तोला रस एवं हल्दी, अगर, कूठ, सुगन्ध वाला, असगन्ध जटामासी, लालचन्दन, लौंग, जायफल इनका सम्भाग चूर्ण १० तोले का कल्क कर ५०० ग्राम तिल्ली तेल अथवा नारियल तेल में धीमी अग्नि से पकाकर तेल बनाकर छान ले। इसकी मालिश से हर प्रकार के बाल रोगों में लाभ होता है।

२. बच्चों को सूर्य किरण धूप में थोड़ी समय अवश्य बैठाएँ।

३. बालक की नाभि पक जावे तो दीपक का तेल लगाएँ। अथवा जली लौग, नीम के फूल पीसकर लगाने से ठीक हो जाती है।
बालकों का सूखा रोग—

१.फक्क (सूखा रोगोफ्वार) पृ.क्र. १९३ भैषज्य रत्नावली में लिखा है—लाल कमल के फूल खस, केशर,गम्भीरा— फल, नीलकमल, मजीठ, इलायची खरेटी, जटामासी, मोथा, अनन्तमूल, त्रिफला वच कचूर, परबल का पत्ता, नील कमल पँचाड़, पित्त पापड़ा, अर्जुन की छाल, मुलेठी महुये के फूल, मुनक्का १० ग्राम चाय के फूल, ६४ तोला इन सबका चूर्ण बना लें।(सभी सम भाग) फिर चिकनी मिट्टी के घड़े में २५ किलो जल में उसी में ५ सेर चीनी डालकर मुँह बन्द कर १ माह रखा रहने दें। पुन: १—१ चम्मच दवा दिन में तीन बार प्रयोग में लें। बालक का सूखा रोग दूर हो जाता है।

२. लाल तेल (सूखाहारी लाल तेल) की मालिश करें।

३. शरीर में खून की कमी पूरी हेतु मुक्तिशुक्ति जहरमोहरा खताई का प्रयोग करना चाहिए।
बालकों के पाचन सम्बंधी उपाय—

विशेष : १. बालकों का भूखा रहना महान खतरनाक है। बालकों के भूख की परवाह न कर माता का गृह काम में लगे रहना उन्हें दुबले, मरियल, और कमजोर करने के सिवाय कुछ नहीं।

२. बालक जागने पर रोने लग जाए एवं मुँह में मुट्ठी देना, यह अपनी भूख का ऐलान करता है। अत: माता को दूध पिलाना चाहिए।

३. माता को क्रोध में बालक को दूध नहीं पिलाना चाहिए।

४. दूध पिलाने के पूर्व माता एक गिलास पानी पीकर दूध पिलाती है तो श्रेष्ठ होता है ऐसा करने से माता की थकान आदि दूर होकर दूध शुद्ध पहुँचता है।

५. माँ के दूध के समान गुणकारी अन्य दूध नहीं अत: बच्चे को माँ का दूध ही पिलायें।

६. माँ का दूध कम निकलता है तो पका पपीता एवं दलिया दूध के साथ खिलाने से माता के दूध में वृद्धि होती है।

७. यदि किसी की माँ बहुत बीमार हो जाती है तो बीमारी में बालक को दूध ही पिलायें। ऐसी स्थिति में—

(१) बकरी का दूध सर्वोत्तम है।

(२) गाय का दूध मध्यम है।

(३) भैंसे का दूध सुपाध्य नहीं होता एवं बालक को आलसी बनायेगा और उदर विकार हो सकते हैं। इसकी मलाई निकाल ले आधा जल मिलायें।

(४) बच्चों को पेट भर दूध पिलाना जरूरी हैं।

(५) किसी भी रोगी पशु का दूध ना पिलाएँ।

(६) जिस पशु का बछड़ा मर गया है और इन्जेक्शन लगाकर दूध निकाला जाता है वह दूध बहुत हानिका—कारक है बच्चों को क्या किसी को नही लेना चाहिये।

(७) दूध पाउडर सत्व रहित होता है।

(८) बच्चों को भोजन (अन्य आहार) की मात्रा कम देकर फल, नीबू रस, नारंगी, सन्तरा, मौसम्मी, अंगूर,नाशपाती , सेव आदि का जूस उम्र अनुसार देना अधिक लाभकारी है।

(९) शक्कर की जगह भीगी किसमिस पीसकर दूध को मीठा करना अधिक लाभकारी है।

(१०) हिचकी— बच्चो को हिचकी आती हो तो उसे १—१ चम्मच गरम जल पिलाने से तत्काल आराम होता है।

(११) प्राण वायु और जल के अभाव में यह रोग होता है।

(१२) २—३ माह के बाद बालक को पपीता, सेव, पालक का थोड़ा—थोड़ा जूस देना लाभकारी है इससे पाचन सही होता है।

(१३) ५०० ग्राम चूने को ५ किलो पानी में बुझा दें उसे लगातार ५—६ बार हिलाते रहे १ बार दिन में हिलाने के बाद ७वें दिन सब चूना नीचे जम जाता है तथा शुद्ध छना पानी रहता है इसके ऊपर की पपड़ी धीरे से अलग कर लें। पश्चात् शुद्ध पानी (घड़े के बिना हिलाएँ) एक शीशी में भर लें। इस पानी को दिन में ३—४ बार बालक को १—१ चम्मच पिलाने से बालक का अजीर्ण , हरे पीले दस्त, अफरा, आदि ठीक हो जाता है, यह केल्सीयम की पूर्ति कर बालक को स्वस्थ बनाता है। गर्मी में पानी डालते रहें।

(१४) ओस्टो वैल्सियम टेबलेट भी बहुत गुणकारी है। यह केल्सीयम फास्फोरस एवं विटामिन डी की पूर्ति करती है। बालक मिट्टी खाता है तो वह भी खाना छोड़ देता है।
मलेरिया (स्लीपद हाथीपाव)

१. अरण्डी के तेल में बड़ी हरड़ की छाल भून लें फिर चूर्ण बना लेें। ३ ग्राम चूर्ण पानी से लेते रहें। १ माह का परहेज रखें। १० ग्राम इलायची दाने, ५ ग्राम वंशलोचन का चूर्ण बना २—२ ग्राम चूर्ण दूध से लें।
बुद्धि वर्धक

१. मालकागनी के बीज खाकर ऊपर से गाय का दूध कम से कम १—१ बीज बढ़ाते २१ दिन तक फिर १—१ घटाते २१ दिन पीने से बुद्धि बढ़ जाती है।

२. शंखहूली बूटी ७ नग, कालीमिर्च ७ नग की ठन्डाई बना (दूध मिला सकते हैं) पीने से बुद्धि बढ़ती है।

३. पीपल के कोमल पत्ते छाया में सुखाकर चूर्ण कर बराबर मिलाकर ३—३ ग्राम दवा सुबह शाम दूध के लेना।
सूर्यावर्त शिरो रोग

१. सूर्य उदय होते हुए सूर्य के सामने खड़े होकर १००—१५० ग्राम पानी ६० ग्राम शक्कर मिला धीरे—धीरे पीएँ तुरन्त आराम होगा।
हिचकी उपचार

१. सौंठ, धाय के फूल, पीपल सब १०—१० ग्राम का चूर्ण बना सीरा से देने से आराम होता है।

२. थोड़ा सा पिपरमैंट पानी में घोलकर घोलकर पिलाने से हिचकी में तुरन्त आराम होता है।

३. पीपल आँवला, सूखा, सौंठ बूरा (मिश्री) समभाग पूर्ण १/२ चम्मच छोटी उम्र को कम दें। हिचकी ठीक होती है।

४. पीपल के काढ़े में थोड़ी हींग मिलाकर पीने से हिचकी ठीक होती है।

५. अदरक के छोटे—छोटे पीस करके चूसने से हिचकियाँ आनी बन्द हो जाती हैं।

६. ४ छोटी इलायची ५०० ग्राम पानी में धीमी अग्नि में उबालें १०० ग्राम शेष रहने पर ५०—५० ग्राम २ बार पिलाने से आराम होता है।

७. सन्निपात रोग की हिचकी को दशमूल के काढ़े में जवारवार सेंधा नमक मिलाकर देना चाहिए।

८. मयूर पंख भस्म ३—३ रत्ती सीरा से देना चाहिए।

९. बिना धुयें के अंगारे पर हल्दी और उड़द का चूर्ण डालकर धुआँ पीने से अति भयंकर हिचकी बन्द होती है।

१०.हींग की धूनी देने से हिचकी बन्द होती है।
तुतलाने स्वर भंग आवाज हेतु

१ कालीमिर्च, कुलंजन, वावची, मीठी वच, कूट/ अश्वगन्ध, पीपल, मुलहटी समभाग चूर्ण बनाकर भर चूर्ण खिलाएँ। काढ़ा भी दे सकते हैं।

२. कच्चा सुहागा १ ग्राम मुँह में रखकर चूसने से स्वर खोलने की अचूक दवाई है।

३. हरी धनिया और अमल तास का दल पानी में पीसकर घोलकर ५०० ग्राम पानी में उबालकर गरम २ कुल्ला करें १ माह तक तुरन्त बाद ठण्डा पानी नहीं पीना चाहिये।
स्वप्न दोष

१. स्वप्न दोष— दो चने बराबर कपूर मिलाकर खाने से आराम होगा।

२. बड़ा आँवला चबाकर खाएँ या जूस पीएँ।

३. सूर्योदय के पूर्व बड़ के पत्तों को तोड़कर दूध एक बतासे में भरते जाएँ और २०—२५ बूँद भर लेें फिर पीवें तो पहले दिन ही लाभ होगा।
हड्डी जोड़ने की

१. काक जंघा बूटी का रस १० ग्राम, काली मिर्च, ६ ग्राम/मिर्च को पीसकर रस में मिला दें। दिन में २ बार पिलाएँ, हड्डी जुड़ जाती है। यह सर्प काटे की दवा हैं।

२. बबूल (कीकर) के पंचाङ्ग का चूर्ण ६ ग्राम की मात्रा लेकर चासनी सीरा लेने से बकरी के दूध में मिलाकर पीने से हड्डी जुड़ जाती है।

३. कीकर के बीजों का चूर्ण ६ ग्राम चासनी में खाने से हड्डी जुड़ जाती है।
हाथ पाव में पसीना

फिटकरी को पीसकर पानी में घोलकर हाथ की हथैली एवं पाँव के तलवे पर लगाएँ। विशेष— जिस बालक का मांस सूख गया है। शरीर की खाल सिकुड गई हो हड्डियाँ ढाँचा रह गया हो ज्वर/ अतिसार/ तृषा अधिक सिर इधर उधर पटकता हो तो ऐसी स्थिति में चिकित्सा— १. खूबकला स्वरस १ तोला, गाँजवाँ स्वरस, घीकुमारी (खार पाठा स्वरस) २—२ तोला लेकर उसमें प्रवालभस्म मुक्ताशुक्ति भस्म, गेरू, गिलोय सत्व शंख भस्म इनको मिश्रित कर पत्थर खरल में घोटें। पश्चात् २ से ४ रत्ती दवा दिन में २—३ बार सीरा के साथ दें। (इसे काँच के बर्तन में रखें ) अतिलाभदायक है।

२. हरड़ जायफल, सैंधा नमक, लौंग, सौंठ, कालीमिर्च, पीपल, बेलगिरी, नागर मौथा, सौचर नमक, शुद्ध सुहागा, अतीस, प्रत्येक समभाग १—१ तोला या २—२ तोला लेकर कूट पीसकर कपड़छन कर रखें फिर खरल में जल डालकर मात्रानुसार दवा घोंटे जब चिकनी हो जाए तो २—२ रत्ती की गोलियाँ बनाकर रखें बालक की उम्र एवं बलाबल देखकर १ से २ गोली गाय के दूध/ माँ के दूध/या जल में घोलकर दें।
तंत्र विधि

दंती प्रयोग— बीज दंती अशोधित लेकर पानी में साफ पत्थर पर धिसकर चाकू से पौंछकर (हाथ न लगाएँ) माथे पर आड़ा तिलक कू से धीरे से सावधानी से कर दें। २ घड़ी तक बच्चा मेटने न पाए। भाल में दानों की लकड़ी होने से डरना नहीं। ३—४ दिन में सब रोग ठीक हो जाएँगे। यह रविवार या मंगल को करें। यधानुवाद में— शशु रोगांक—१९६२ पृष्ठ २२६

‘‘बीज दंती अशोधित को घिस लीजिए।’’ पौद्य चाकू से आड़ा तिलक कीजिए।। मैट न पए बच्चा इसे दो घड़ी। भाल में होय दानो की पैदा लड़ी।। तीन ही चार दिन में सभी रोग मिटे। कष्ट सब शेष के शीघ्र शिशु के कटें।। एक ही बार इसकी क्रिया की जाए। वार रविवार मंगल को चुन लीजिए।।
सन्तान गौरी होवे

बबूल की कोंपल पत्ती छाया में सुखाकर चूर्ण बना लीजिए विधि— गर्भ रहने के बाद प्रतिमाह १५ दिन २—२ ग्राम दवा चूर्ण जल से सेवन करें।
बन्द्यत्व नाशक

पीपल के जटा के महीन अंकुर कच्चे दूध में पीसकर रजोदर्शन के ४ दिन बाद से १५ दिन तक सेवन कराएँ। इस प्रकार २—३ माह सेवन कराएँ जिस स्त्री के बिना विकृति के गर्भ धारण न होता है, उसे अवश्य धारण कराएँ।
प्रदर हर चूर्ण

मुलहटी पिसाचूर्ण ३ तोला, नागकेशर चूर्ण ४ तोला, राल सपेद ३ तोला, मिसरी १० तोला सबको पीस छानकर ४—४ ग्राम दवा घी गाय का मिलाकर सेवन कराएँ।
स्मरण शक्ति वर्धक

गिलोय, अपामार्ग पंचाग, वायविङ्गिग, शंखाहूली पंचाग, वच, छोटी हरड़ कूटमीठा, शतावर समभाग चूर्ण (चूरन) बनाकर रखें। प्रतिदिन तीन ग्राम चूर्ण घी अथवा चासनी से मिलाकर चाँटे। स्मरण शक्ति के लिए अद्भुत योग है।
भगन्दर:

करीर (कोंपले ले) और एरण्ड के पत्ते को पीस गर्म गुदा में बाँधने से भगन्धर ठीक हो जाता है।
बिच्छू दंश

लाहौरी (सेंधानमक) पीसकर कपड़छन कर लें जिसे बिच्छू ने काटा है दंश स्थान पर नमक भर दो यही नमक पानी में घोलकर उसके दूसरे भाग के कान, नाक और आँख में २—३ बूँद टपका दो। रोता आया रोगी हँसता जाएगा। गुण धर्म—
१. काजू—

(केश्यूनट) रक्त शोधक, मूत्रल, अग्निमत्द्य रक्त विकार, वातविकार में लाभकारी स्मृति हृदय एवं नाड़ी दौवल्र्य नाशक विटामिन बी की प्रचुर मात्रा होने से पौष्टिक एवं प्रोटीन प्रधान खाद्य द्रव्यों में सर्वश्रेष्ठ खाद्य द्रव्य है।
२. कपूर—

लघु तीक्षण, रस में तिक्त, कफ वात शामक—तृषा शामक, दीपन, ज्वरघन, कासहर, स्वेद जनक नेत्रों का हितकर। कपूर पसीना आदि के मल की दुर्गन्ध को नष्ट करता है। शव को सड़ने से बचाता है। शव के ऊपर कपूर डालते हैं। पुराना कपूर शोध नाशक है।
३. जायफल :

१. तीक्ष्ण, कटु तिक्त कषाय, विपाक में कटु उष्म वीर्य, उत्तेजक शोथहर बाल कफ नाशक कफ निस्सारक, श्वासहर, शुक्रशोधन वाजीकर।

२. मूच्र्छा, प्रतिश्याय एवं सिर शूर में इसकी शिरो विचेरक हेतु इसका नस्य देते हैं।

३. इसके चूर्ण को भुरकने से व्रण का शीध्र शोधन एवं भरण होता है।

४. हैजा सन्निपात की अवस्था में इसके चूर्ण की मालिश करने से लाभ होता है। इसमें सौंठ चूर्ण भी मिला देते हैं।
४. काला जीरा :

१. कृमि नाशक— ३ से ६ रत्ती खुराक की चूर्ण बना पानी से लेने से कृमि नष्ट होते हैं जीर्ण ज्वर भी ठीक होता है। २. कंठमाला— कर्ण मलशोध कर इसके साथ धूतरे के बीज तथा अफीम घोंटकर जल में गरम कर लेप करने से (गाढ़ा लेप करने) से कंठ माला की पीड़ा दूर होती तथा बैठ जाती है
५. कुचला :

१. शुद्ध कुचला— बाजीकरण, कटुपौष्टिक, शोथहर कास श्वास पक्षाघात (लकवा) गठिया, कृमि, उदर विकार, नाड़ी शूल में लाभदायक है। पाचन नालिका पर इसकी उत्तम क्रिया होती है। धुनर्वात (टिटनेस) में लाभकारी है। उष्मा होता है। अधिक दिन नहीं लेना चाहिए।

२. वत्सनाम— (शुद्ध सिग्गिया) का महीन चूर्ण सम भाग मिलाकर अदरक के रस में ४ दिन तक सरल करों। २—२ ग्रेन की गोली बना लें। सूखी गोली १ से २ गरम धृत के साथ प्रात: सायं सेवन करने से लकवा शीघ्र ठीक हो जाता है।

३. नहरूआ— पर अशुद्ध कुचला को जल के साथ पत्थर पर घिसकर खूब गाढ़ा लेप कर तथा ऊपर से थोड़ा सुहागा और सिन्दूर कर रेड्डी के पत्र ऊपर से बाँध दें। इस प्रकार २—३ बार प्रयोग से नहरूआ रोग ठीक हो जाता है यदि नारू टूट भी गया हो तो इससे लाभ होता है।

४. कुत्ते काटने पर— शुद्ध कुचला ± कालीमिर्च सम मात्रा पीस पानी में गोली ३—३ रत्ती की बनाएँ।१—१ गोली सुबह शाम देने से कुत्ते का विष असर नहीं करता। पागल कुत्ते का विष दूर होता है।
कुलथी :

गुण— कफ वात शामक, पसीना को रोकने वाली, अश्मरी भेदक क्षुधावर्धक। पथरी— २ तोला बीज दलकर रात्रि में भिगोकर प्रात:काल उबालकर इसके काढ़े में भुनी हींग १ रत्ती तथा सौंठ का चूर्ण काला नमक (थोड़ा सा मिलाकर ४—४ घण्टे बाद देने से शीघ्र लाभ होता है) काढ़ा ५०० ग्राम पानी का १/४ चौथाई रखें। पथरी गलकर निकल जाती है। जो हिंगडा नहीं लेते हो सो नहीं लें। ७. ककोड़ा (पड़ोरा) कटुफला— कटूरस, अग्नि दीपक मल को हरने वाला, तथा कुष्ट, जी मिचलाना अरूचि श्वास काँस ज्वर, प्रमेह, हृदय की पीड़ा नाशक है। इसकी साग बहुत स्वादिष्ट होती है।
कवावचिनी (कंकोल, शीतलचीनी, सुगन्धमरिच)

यद्यपि शीतल चीनी में अन्तर है। वह ठन्डी होती है। शीतल चीनी में मुँह में चबाने पर ठन्डक होती है। कंकोल या कवावचीनी में दीपन पाचन एवं क्षुधावर्धक आदि गुण है। कफ, वात नाशक, मुख दुर्गन्ध नाशक, श्लेम निस्सारक है। प्रथम २ रोगानुसार प्रयोग विधि— १. सुजाक— सुजाक जन्य वेदना निवारणार्थ ’’प्रथम सूत्र विरेचन हेतु’’ कवावचीनी का मोटा चूर्ण कर ५ ग्राम चूर्ण को १ पाव पनी में धीमी अग्नि पर उबालें १/२ ग्राम शेष रहने पर छानकर रखें ठन्डा हो जाने पर उसमें ५ बूँदे चन्दन का तेल मिलाकर पिलाए इस प्रकार दिन में २ बार पिलाने पर मूत्र साफ होकर वेदना दूर हो जाती है।

२. स्वप्न दोष— (N.इ.) आदि वीर्य सम्बन्धी विकारों में तथा पुराने प्रमेह पर कवावचीनी के चूर्ण के साथ इलायची छोटी, और बंशलोचन का चूर्ण समभाग लेकर इसके चूर्ण का आधा भाग छोटी पीपल का चूर्ण और सब चूर्ण का सम भाग मिश्री (बूरा) मिलाकर एकत्र कर खरल कर कपड़े से छानकर प्रात: सायं दूध (ठंडे दूध) के साथ लेने से स्वप्न दोष दूर होकर वीर्य की उष्णता निवृत्ता हो वह गाढ़ा हो जाता है।

३. प्रतिशयाय (जुकाम)— कवाव चीनी के चूर्ण को सूघंने (नस्य) देने से कीटाणु नष्ट होते हैं। प्रदाह की शान्ति होकर लाभ होता है।

४. कफ निस्सारण हेतु— ३ ग्राम कवावचीनी का चूर्ण २० ग्राम गोंद, १ तोला दालचीनी ५० ग्राम पानी में उबालें १/४ भाग शेष रहने पर पीने से कफ आसानी से निकल जाता है।

५. काँस—श्वास हेतु— मुलैठी, कवावचीनी , हरड़ पीपल, कुलंजन (कुरूदान) समभाग जौं कूटकर १५ गुना जल मिला काड़ा बनावें। १/४ भाग शेष रहने पर ३—४ बार पिलाएँ। लाभ होगा।
कमल

मधुर और शीत वीर्य है। तृषा निग्रह, भ्रान्ति दाह नाशक, ज्वरहन, मूत्रण, किंचित विषध्न गुण भी पाये जाते हैं। १. हृदय रोग— हृदय रोग तथा अन्य तीव्र व्याधियों से हृदय पर आघात न पहँुचे इसका प्रयोग उत्तम है। तीव्र ज्वर के इसके प्रयोग से ज्वर शान्त होकर दाह उपद्रव दूर होते हैं।

२. गर्भावस्था— इस अवस्था में गर्भाशय के स्रावों को बन्द करता है। तथा गर्भाशय को बलवान बनाता है। एवं गर्भ का भी पोषण करता है। एतदर्थ इसकी केशर को मक्खन के साथ देना चाहिए। अथवा बीजों को (कमलगट्ठा) की पेय बनाकर सेवन कराएँ।
कमल विभिन्न अंज्रें के गुण—

१. पुष्प— (१) शीतल दाह नाशक, हृदय बलवर्धक रक्त वाहनी पर कार्य करता है। हृदय की तेज धड़कन कम होती है।

२. गर्भपात— यह गर्भाशय से रक्त श्राव में पुष्प का फाँट या केशर ± मुलैठी सम भाग के क्वांथ से अधिक लाभकारी है। फाँट—चाय जैसी विधि से बनाया जाता है। अथवा केशर सहित कमल पुष्प को ४ तोले वूâटकर १६ तोला १ गिलास जल में थोड़ी देर रखा रहने दें फिर मथानी से मथ देवें खूब झाग उठने पर छानकर ८—८ तोला की मात्रा दिन में दो बार पिलाने से लाभ होता है। सिर दर्द में— कमल पुष्प के साथ, श्वेतवन्दन आमला पीसकर लेप से लाभ होता है। नोट— ये गुण धर्म श्वेत कमल के हैं। लाल में कम होते हैं।
कमलगट्ठा (फल)

१. स्वादु, पाचक शीतवीर्य, रूचिकर, गर्भ संस्थापक।

२. कमल के भीतर की हरी जीभी, शीतल और तर होती है। हैजे पर बहुत लाभकारी होती है। ज्वर उतारने हेतु— कमल बीज का क्वांच पसीना लाकर ज्वर को उतारता है। इसके क्वांथ में बूरा (शक्कर) मिलाकर पिलाने से खूब पसीना आता है। लू लगने पर भी लाभकारी है तथा बीजों को पानी में भिगोकर पिलाने से तृषा शान्त होती है। मृगी रोग— श्वेत कमल की जड़ सफेद आँक (मदार) की जड़ दोनों समभाग पीस कल्क बना अदरक के रस में घृत की नस्य से—मृगी रोग शान्त होता है। श्वेत प्रदर—कमलगट्टे का चूर्ण भी सुबह शाम देने से या कांजी बनाकर देने से शीध्र लाभ होता है। नोट— (मखाना—कमलगट्ठे से बनता है।) गर्भपात/ गर्मश्राव— पर इसके बीजों के चूण्र को १/२ ग्राम से ५ ग्राम चूर्ण को दूध के साथ पिलाने से गर्भश्राव व गर्भपात ठीक होता है। मांसपेशियाँ दृढ़ बनती है। मखाना दूध के साथ सेवन करते रहने से कामेच्छा (स्त्री संभोग की इच्छा कम होती है।
सिर दर्द

१. शुद्ध तिल तेल २५० ग्राम, कपूर, चन्दन का तेल और दालचीनी का तेल, १०—१० ग्राम सबको मिश्र करें।इस तेल को माथे पर मालिश करने से सिर दर्द दूर होता है।

२. नींबू की पत्तियों को कूटकर उनके रस का नाक में नस्य लेने से, हमेशा रहने वाला सिर दर्द ठीक होता है एवं हमेशा के लिए ठीक हो जाएगा।

३. पीपल और वच का नस्य से शीघ्र लाभ होता है।

४. अनार की जड़ को पानी में पीसकर मस्तक पर लगाने से लाभ होगा।
नासूर

१. लौंग एवं हल्दी चूर्ण पीसकर लगाएँ।

२. बैर और नीम के पत्ते समान भाग पीसकर लगाएँ।

३. मोम और मीठा तेल बराबर मात्रा में गरम कर उसमें अखरोट की गिरी मिलाकर लगाएँ।

१. पिस्ता— गुण—उष्ण स्निध, मधुर कफपित्त वर्धक इसके गुण बादाम की विजी जैसे हैं— (१) चबाने से मसूड़े सुदृढ़ होते हैं।

(२) हैजा/प्लेग के दिनों में शक्कर के साथ गुण कारी है।

(३) पके नारियल की गरी ± पिस्ता ± शक्कर (बूरा मिलाकर सेवन करने से स्मरण शक्ति बढ़ती है।

(४) बल वृद्धि कारक है। अधिक सेवन न करें उष्ण है।

२. पित्तपापड़ा— गुण—दीपन, अनुलोमन, मृदु रेचक, बातनाशक कृमिघ्न, विषम ज्वर हर, आत्तर्व, जनन ऋतुश्राव नियामक। नोट— प्रसूता स्त्री को इसकी साग बनाकर खिलाने से इससे प्रसव कालीन स्राव बहुत ही साफ हो जाता है। अनियिमित मासिक धर्म भी ठीक हो जाता है।
३. पिपरमेन्ट :

(१) सिर की खुजली कृमि जू आदि पानी में थोड़ा घोलकर लगाने से पुन: नहीं होते ठीक हो जाता है।

(२) हिवका (भयंकर हिचकी) पर पिपरमैंट, कपूर १—१ रत्ती पानी में घोलकर दे हिचकी ठीक हो जाती है।

(३) रोहणी तथा कंठ रोगों में लेप से लाभ होता है।

(४) हैजा/अतिसार/वमन/पर पिपरमैन्ट, कपूर अजवान का सत्व तीनों मिक्स बराबर लेकर काँच की शीशी में डालकर हिलाने पर घुल जाते हैं। इसे अमृत धारा कहते हैं। बिच्छू— के दंश स्थान पर लगाने से लाभ होता है।
(४) पीपल

— पीपल काली रंग की लेड़ी पीपल भी कहते है। अन्दर फोड़ने पर श्वेत रंग जैसी इसकी जड़ को पीपलामूर कहते है। गुण– उष्म, कफ वात, शामक, दीपन लीवर को ठीक करती है। जिसका लीवर खराब हो उसे उम्रानुसार १/ ४ भाग पीपल का चूर्ण दूध में उबालकर पिलाएँ। धीरे—धीरे १/२ पीपल कर दें। फिर ३/४ भाग फिर १ पीपल पीसकर मिलाएँ। पुन: घटाते हुए क्रम में ३/४ भाग, फिर १/२ भाग। लीवर सम्बन्धी समस्त खराबी ठीक होकर लीवर मजबूत हो जाता है। नोट— (१) यदि दूध के साथ लेने से गर्म करें तो मट्ठा (छाछ) से लेना चाहिए।

(२) विशेष कर शीत ऋतु में सेवन करना ठीक है।
५. पुर्ननवा—

(१) इसमें मूत्रल धर्म उच्च कोटि का उत्तम होने से इसके प्रयोग से मूत्र पिण्डों पर उत्तेजक क्रिया होती है। तथा रक्त का दबाब बढ कर सहज ही मूत्र का प्रवाह दुगना हो जाता है। इसके पेट की सूजन। अश्मरी आदि विकार सहज ठीक हो जाते हैं। एवं सुजाक को घाव खुल जाता है। इससे मूत्र नलिका ठीक हो जाती है।

(२) पाण्डू रोग में लौह भस्म के साथ प्रयोग करने से लाभ होता है।

(३) पेफैफड़ों झिल्ली, सर्वाङ्गशोध, पैरों की सूजन में बहुत लाभ दायक है।

(४) जलोदर में इसके सेवन से हृदय को बल मिलता है

६. ज्यादा सूजन पर— पुननर्वा, दारूहल्दी, हल्दी सौंठ, छोटी हरड़ गिलोय, चित्रकमूल, भारंगी, देवदारू सब समभाग का जौकुट चूर्ण करें। २ तोला चूर्ण ३२ तोला जल में धीमी अग्नि से उबालें। ४ तोला शेष रहने पर पीने से हाथ पैर, मुख और उदर की सूजन ठीक हो जाती है। पाण्डु रोग ठीक हो जाता है।

७. अन्दर का फोड़ा— पुनर्नवा की मूल एवं छाल दोनों का क्वांथ सेवन करने से शरीर के अन्दर का फोड़ा ठीक हो जाता है।

८. फालसा— यह आचार (चिरौंजी) फल जैसा किन्तु बड़ा होता है। इसके वृक्ष २०—२५ फीट तक ऊँचे होते हैं। अप्रैल से जुलाई तक मिलता है देखने में लाल होता है। स्वाद—खट्ठा—मिट्ठा व पकने पर मीठा होता है। गुण— शीतल (ठन्डा) दाह शामक इसका जूस भी निकालते हैं। वातनाशक/कप निस्सारक/शोथहर, दाहहर, शुकदौवण्र्य में लाभकारी है।
विशूचिका (हैजा) (कौलरा)

१. बड़ी बोतल में १/४ भाग शुद्ध तिल का तेल भर लें। शेष भाग को कुएँ के स्वच्छ पानी से भर दें। दवा तैयार। उपयोग विधि— बोतल को हिलाकर ३०—३० ग्राम दवा १—१ घन्टे के अन्तर से देते रहें। (रोगी को पानी कतई न दें।) रोग अधिक होने पर ६०—६० ग्राम दवा दें। नोट— रोगी कितना ही चिल्लाएँ पानी नहीं दे। वमन और दस्त के मार्ग से बड़े—बड़े कीड़े निकलकर रोगी ठीक हो जायेगा।

२. कपूर±सुहागा समभाग २ ग्राम अर्वâ पोदीना के संग में देने है। अत्यन्त लाभ होता है।

३. अमृत धारा पिलाने से बहुत लाभ होता है।

४. रोगी को नींद आ जाए तो बच जाता है। अत: भैंस के दूध में नमक मिलाकर रोगी के तलवों पर मल दें नींद आ जायेगी।
लकवा (पेरालेसिस) पक्षाघात

१. पुराना गौ घृत भोजन के साथ ३—४ बाद दें।

२. मीठी वच, सौंठ, कालाजीरा समभाग का चूर्ण चासनी से चटाएँ खुराक दें।

३. उड़द को सौंठ के साथ काढ़ा बनार पिलाना।

४. आँक के पत्तों का तेल मालिस कराएँ।

५. सौठ±वच का चूर्ण भर चासनी से दें।
उल्टी

१. १० ग्राम चावल को धोवन लेकर १ जायफल को चन्दन की तरह धिसकर चटाएँ वमन तुरन्त मिल जाएगा।

२. २—३ नीबू के बीजों को छीलकर १ गिलास जल में १० ग्राम गुलाब जल डालकर पिलाएँ।
कर्ण श्राव तथा कर्णशूल

लक्षण— छोटा बालक बार—बार कान को छुए एवं रोवे तथा सिर को इधर—उधर पटके तो समझना चाहिए कि कान में पीड़ा हो रही है। चिकित्सा— १. अद्रक श्वरस, सैद्यव तेल मिलाकर हल्का गरम कर कान में डालें।

२. लहसून, अदरक, सहजना, मूली, वरना, केला इनका रस सिद्ध तेल कान में ड़ालें।

३. हींग, सैंधानमक और सौंठ साघित तेल प्रयोग करें।

४. मदार (अंकोआ) के पीले पत्तों का तेल।

५. लौंघ को महीन पीसकर कान में डालने से कान बहना बन्द हो जाता है।

६. समुद्रपेन, सुपारी की राख, कत्था इनको महीन पीसकर कागज की पत्ती बनाकर कान में ठूंस दें।

७. मोर पंख जलाकर कान में महीन पीस डालें।
‘विरेचन’ (रेचक लक्जेटिव औषधि)

१.रूमी मस्तंगी ३ ग्राम मिश्री ६ ग्राम दोनों पीसकर मिलाएँ यह खुराक है। गर्म दूध या गर्म पानी से शाम को लेना।

२.जुलाफा ± हरड़ ३—३ ग्राम पीसकर गर्म जल वैâसी भी कोष्ठ बद्धता ठीक हो जाती है।

३.स्वर्णाक्षरी (सत्यनासी) के बीजों को हाथ में लेकर कई बार जोर—जोर से दबाते रहने से परवाना साफ हो जायेगा
कुकर खाँसी (काली खाँसी

यह ६ से ७ वर्ष के बालकों को ज्यादा होती है। चिकित्सा विधि— १. सर्पगन्धा १/४ रत्ती से १/२ रत्ती और मुलैठी चूर्ण १ रत्ती से २ रत्ती प्रवालपंचामृत १/२ रत्ती मिलाकर सीरा से देना चाहिए। ४—४ घन्टे के अन्दर से।

२. फूली फिटकरी, फूला सुहागा बबूल या बच (मीठी बच का चूर्ण) सीरा के साथ या फूला हुआ छुहारा या पिण्डखजूर मिलाकर ४—४ घण्टे के अन्तर से खिलाएँ इससे ३—४ दिन में आराम हो जाता है।

३. सावधानी— बच्चों को धूल धुआ और सर्दी से बचाव रखें। गुड़, शक्कर न देवे।

४. चिकित्सा— सीने पर पीठ पर निम्नमालिस करें—

५ तोला तारपीन का तेल १ तोला पिसा कपूर कड़ी कार्वâ (ढक्कन) लगाकर शीशी को धूप में रखें जब एक हो जाए (इसे काँच की शीशी में रखें) इसकी मालिश करने पर काली खाँसी में आराम होता है।

४. करंज (करेंच को सैक कर फोड़कर सफेद बीजी को पीस कर १० ग्राम चूर्ण बना ले। (बड़ी करेंच की बीज लेना) फिर उसमें ५ गोली मरचादि बटी की मिलाकर पीस लें। ३ से ४ रत्ती चूर्ण को सीरा से देना चाहिए।

५. सितोपलादि चूर्ण में कड़कड़ा सिग्गी मिलाकर दें।
श्वांस/कांस रोग— औषधि

कालीमिर्च, कासनी, मुलैठी, सौंप प्रत्येक को चूर्ण कर छान लें फिर ३ से ६ रत्ती खुराक माँ के दूध के साथ देने से लाभ होता है।
मोती झरा (टायफाईड)

१. यदि दस्त लगते हों तो बेलगिरी, मीठा अतीस, जाचफल, बेलगिरी, जीरा, सभी समभाग पीस कर १/४ चम्मच सीरा से देने से लाभ होगा।

२. हरे पीले दस्त उल्टी आने पर पीपल की छाल १ किलो। साफ जगह में जलाकर उसको १ सेर छने पानी में बुझाकर सूखा लें।फिर कपड़े से छानकर रखें। फिर थोड़े से पानी से बच्चे को पिलाएँ हरे पीले दस्त

उल्टी आना बन्द हो जाती अधिक प्यास लगना शान्त होती है। ३. जहर मोहरा खताई पिष्टीय १ रत्ती प्रबल पिष्टी १/२ मयूर पिच्छ, भस्म, १/४ रत्ती लौंग के पानी से देना

चाहिए उम्रानुसार थोड़ी मात्रा दें। बालक के अधिक सिर दर्द में— १. नारदीय लक्ष्मीविलास रस १/४ रत्ती, गोदन्ती भस्म १/२ रत्ती अदरख रस एवं दूध के साथ दें। २. सिरशूलादिवङ्का रस, १/४ एवं गोदन्ती १/२ रत्ती अदरख रस के साथ दें।
मोतीझरा की सर्वोत्तम औषधि

पृष्ठ क्र. ३६१ (आर्युवेदचार्य डा. सत्यनारायण से) (धन्वतरि शिशु रोगाङ्क १९६२) १. सिद्ध प्रयोग— मृत्युजय रस १ रत्ती त्रिभुवन कीर्ति रस १/२ रत्ती गोदन्ती भस्म १ रत्ती प्रवाल भस्म १/२ रत्ती गोदन्ती भस्म १ रत्ती प्रवाल भस्म १/२ रत्ती मोती भस्म में सिद्ध मकर ध्वज १/२ रत्ती नवासय लौंह १/२ रत्ती १ पुड़िया।इस प्रकार ४ पुड़िया बनाकर रख लें दिन में ३ बार जल या दूध में घोलकर देना चाहिए। यह सैकड़ों रोगियों पर परीक्षित है। मोतीझरा की सर्वोत्तम औषधि है। ७—८ दिन से १५ दिन में रोगी पूर्ण स्वस्थ हो जाता है। पथ्य— अनाज, अन्न बन्द रखें। जूस, दूध, लाई आदि दें।
मसूरिका—चैचक

वैसे चैचक का वैक्सीन (टीका) लगवाने से बच्चों को यह रोग नहीं होता किन्तु किसी को हो जावे तो— (उपाय) १. हुलहुल के पत्तों का रस (रोकथाम) स्वरस पीने से इस रोग का भय नहीं रहता।

२. नीम के बीज, बहेड़े के बीज और हल्दी इनको ठन्डे जल के साथ पीसकर पीने से चैचक नही निकलती।

३. ज्वर आने पर चैचक की शंका होने पर वैले के खम्बे का रस, मुलहठी का चूर्ण मिलाकर पीने से शीतला सम्बन्धी विकार नष्ट हो जाते हैं।

४. उम्र के अनुसार वमन।विरेचन (झलन) देने से रोगाणु दूर हो जाते हैं। भय नहीं रहता।

५. घर में उपले की धीमी अग्नि पर गन्धक की धूनी देते रहने से इसके रोगाणु घर में बाहर से नहीं आते।

६. बाँस की छाल, तुलसी, लाख, बिनौला की बीजी, जौं की भूसी और वच, बाह्मी इनकी धूप देने से रोग कम हो जाता है।

नोट— चेचक हो जाने पर (शोधन) वमन विरेचन कभी नहीं कराना चाहिए। रोगी को चेचक में १ निम्वादि क्वाथ सर्वश्रेष्ठ है।

(१) यदि चैचक निकलते पूर्ण न निकले तो (अन्त: प्रविष्ट हो गई हों) या अच्छी तरह ना निकले तो कचनार की छाल का क्वाथ में स्वर्णमाक्षिक भस्म चूर्ण मिलाकर देने से फिर बाहर निकल आती है।

(२) पकी मसूरिका (चैचक) भरने के उपाय— चिरायता, नीम की छाल, कुटकी पित्त पापड़ा इनका क्वाथ मात्रानुसार पीने से चचेक के घाव भर जाते हैं, पकी हुई शीध्र ठीक हो जाती है।

(३) यदि आँखों में चैचक (मसूलिका हो तो) मुलहटी, त्रिफला, मूर्वा, दारूहल्दी की छाल, नीलकमल, खश, लोघ, मजीठ, इनको पीसकर ऊपर लेप करें और क्वाथ पीने से आँखों में उत्पन्न हुई मसूरि का नष्ट हो जाती है।

(४) काले जीरे के पत्तों का क्वांथ हल्दी का चूर्ण मिलाकर पीने से रोमान्ति का चेचक ठीक होती है।निसौड़ा की छाल जल में पीसकर लेप करने से वेजगत चैचक ठीक हो जाती है।
मुहल्ले में चैचक हो तो क्या करें

किसी दूसरे घर की नीम की डाली तुड़वाकर (अपने घर की नीम नहीं) उसमें से प्रत्येक बालक को २१/२ (ढ़ाई) पत्ती के हिसाब से गेरू के रंगे वस्त्र के चीर में हरेक बच्चे के पैर में २—१/२ (ढ़ाई) पत्ती� बंधी हुई उत्तम चीर (कपड़े) से बाँध देने से प्रथम तो चैचक निकलती नहीं। यदि निकलती भी है तो बहुत न्यूनयवस्था में ज्वर में रहित शान्त हो जाती है। पथ्य— जौ का जूस, ग्लूकोज, फलों का रस, हल्के पदार्थ लेना चाहिए। भुने चने, मुनक्का शीघ्र पचने वाले पदार्थ देना चाहिए। भुने चने, मुनक्का शीध्र पचने वाले पदार्थ देना चाहिए। दवा से परहेज जरूरी है।
अनुभूति प्रयोग

नीम का बाँदा— अधिक लाभकारी नीम का बाँदा घिसकर देह पर लेप करो तथा थोड़े जल में थोड़ा पिला दो तथा घुआँ भी कर दें तो रोगी कुछ घन्टों में शान्ति अनुभव करने लगता है। विशेष भूत भी भाग जाते हैं। इसकी अग्नि जलाकर घर के चारों कोने में प्रत्येक कमरे में धुआँ देकर बाहर फैक दें फिर इसकी १ लकड़ी छोटी सी घर के मूल दरवाजे पर खौंच दें। तो कठिन भूत भी घर छोड़ देता है।
रात्रि को डरना

१. गोरोचन को ताबीज में भर कर गले में पहिनाऐ।

२. केवल रेशमी वस्त्र पहिनाएँ।

३. णमोकार मंत्र पढ़ते हुए गौ पुच्छ से बालक का मार्जन करे।

४. देवदारू हल्दी वच खस, केतकी पुष्प के इनको जल में भिगोकर इनका रंग सा वनजावे छानकर स्नान कराएँबालक का रात्रि में डरना बुरे स्पप्न देखना, ग्रह दोष दूर हो जाते हैं। नोट— (१) बच्चों को डरावने भयंकर खिलौने न दें।

(२) डरावनी पिक्चर टी.वी.से बचाव रखें।

(३) भयानक स्थान मेें ले जाएँ। नदी, तालाब, चौपथ (चौराहा) में जाने आने से बचाव रखें। काली मन्दिर,दुर्गा आदि मन्दिर, दुर्गा मन्दिर, दुर्गा आदि मन्दिर से बचाव रखें।

कुछ वनौषधियों Aayurweda herbs


1- मुलहठी, मुलैठी, (यष्टिमधु)  इसका काण्ड और मूल मधुर होने के कारण यष्टि मधु कहा जाता है। मधु क्लीतक, जेठीमध तथा लिकोरिस इसके अन्य नाम हैं। इसका बहुवर्षायु झाड़ी लगभग डेढ से दो मीटर ऊंची होती है। जड़ें गोल लम्बी और झुर्रीदार फ़ैली होती हैं। जड़ और काण्ड से कई शाखाएं निकलती हैं। पत्तियां संयुक्त और अण्डाकार होती हैं, जिनके अग्रभाग नुकीले होते हैं। फ़ली छोटी ढाई सेंटीमीटर लम्बी चपटी होती है। जिसमें दो से लेकर पांच वृक्काकार बीज होते हैं।  इस वृक्ष की जड़ को सुखा कर छिलके साथ एवं बिना छिलके के भी प्रयोग में लाया जाता है।
आचार्य सुश्रुत के अनुसार मुलैठी दाहनाशक, पिपासा नाशक होती है।  आचार्य चरक इसे छदिनिग्रहण (एन्टीएमेटिक) मानते हैं। भाव प्रकाश के अनुसार यह वमन नाशक और तृष्णाहर है।  डॉ जियों एन कीव के अनुसार यह तिक्त या अम्लोत्तेजक पदार्थ के खा लेने पर होने वाली पेट की जलन, दर्द आदि को दूर करती है।  युनानी चिकित्सा में मुलैठी का प्रयोग पाचक योगों में किया जाता है। यकृत रोगों में भी यह लाभ कारी है।

ताजा मुलैठी में 50 प्रतिशत जल होता है, जो सुखाने पर मात्र 10 प्रतिशत रह जाता है। इसका प्रधान घटक ग्लिसराईजीन है, जिसके कारण यह मीठी होती है। ग्लिसराईजीन इस पौधे की जड़ों में होता है। आधुनिक वैज्ञानिकों के प्रयोगों ने साबित किया है कि मुलैठी की जड़ का चूर्ण पेट के व्रणों व क्षतों पर (पेप्टिक अल्सर सिन्ड्रोम) कारगर असर डालता है और जल्दी भरने लगे हैं। डी आर लारेंस के अनुसार पेप्टिक अल्सर जल्दी भरने का कारण इसमें मौजुद ग्लाईकोसाईड तत्व है। पेट के अल्सर के भरने के साथ यह मरोड़ के निवारण में मदद करती है।  अब तक पाश्चात्य जगत में मुलैठी के अमाशय एवं आंत्रगत प्रभावों पर 30 रिपोर्ट प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके प्रयोग से अमाशय की रस ग्रंथियों से ग्लाईकोप्रोटीन्स नामक रस का स्राव बढ जाता है जो जीव कोषों के जीवनकाल को बढाता है। छोटी मोटी टूट फ़ूट को तुरंत ठीक कर देता है।
खून की उल्टी में 1 से 4 माशा तक तक मुलैठी चूर्ण को  दूध एवं शहद के साथ लिया जा सकता है। हिचकी में मुलैठी का चूर्ण शह्द में मिलाकर नाक में ट्पकाया जाता है और 5 ग्राम खिलाया जाता है। पेट दर्द, प्यास में भी यह तुरंत लाभ देता है।

2- आंवला

संस्कृत में आंवले को आमलकी, आदिफ़ल, अमरफ़ल, धात्रीफ़ल आदि नामों से सम्मानित किया जाता है। कहा जाता है कि इसी का प्रयोग करके चव्यन ॠषि ने पुनर्यौवन को प्राप्त किया था। इस कारण यह चव्यनप्राशअवलेह का मुख्य घटक भी है जो चिरकालीन सर्वपुरातन योग है।  निघण्टु में ग्रंथकार ने सही ही लिखा है।
हरीतकीसमं धात्रीफ़लं किन्तु विशेषत:। रक्त पित्तप्रमेहघ्रं परं वृष्ण रसायनम्॥
आवंला के अधिक कहने की आवश्यकता नही है, इसका प्रभाव सर्वविदित है। आंवला के औषधिय गुणों की प्रशंसा सभी ने की है। चरक के मतानुसार आँवला तीनों दोषों का नाश करने वाला, अग्निदीपक और पाचक है। कामला, अरुचि तथा वमन में विशेष लाभकारी है। यह मेध्य है एवं नाडियों तथा इन्द्रियों का बल बढाने वाला पौष्टिक रसायन है। सुश्रुत के अनुसार पित्तशामक और पिपासा शांत करने वाली औषधियों में अग्रणी माना जाता है। आंवला अम्लपित्त, रक्तपित्त, अजीर्ण एवं अरुचि की एकाकी एवं सफ़लतम औषधि है। डॉ बनर्जी कहते हैं कि आमाशय के अधिक अम्ल उत्पादन करने पर तथा गर्भवती स्त्रियों  के वमन आदि में आंवल सबसे अच्छी और निरापद औषधि है।

आंवले बहुत सारे औषधीय तत्व होते हैं इसमें सबसे अधिक विटामीन सी पाई जाती है, ध्यान देने योग्य है कि आंवला सुखाने पर इसकी गुणवत्ता में कोई अंतर नहीं आता। इसका सफ़ल प्रयोग स्कर्वी निरोध में किया गया है। स्कर्वी बिटामीन सी से होने वाला रोग है, जिसके कारण शरीर में कहीं से भी रक्त स्राव हो जाता है। मसूड़े सूज जाते हैं, हड्डियाँ अपने आप टूटने लगती हैं। सारे शरीर में कमजोरी और चिड़चिड़ाहट होने लगती है। स्कर्वी रोग को दूर करने की क्षमता की दृष्टि से एक आंवला दो संतरों के समक्ष ठहरता है। प्रतिदिन भोजन में 10 मिली ग्राम विटामीन सी मिलता रहे तो यह रोग नहीं होता। पर रोग की अवस्था में 100 मिली ग्राम प्रतिदिन देना जरुरी होता है। इंद्रीय दुर्बलता, मस्तिष्क दौर्बल्य, बवासीर, हृदय रोग, अन्य रक्त वमन, खाँसी, श्वांस, तथा महिलाओं के प्रमेह रोगों में के साथ क्षय, शरीर शोथ तथा कुष्ठ जैसे चर्म रोगों में वैद्य इसका सफ़लतम प्रयोग करते हैं।

हरीतकी (हरड़) हर्रा

हरीतकी को वैद्यों ने चिकित्सा साहित्य में सम्मान देते हुए उसे अमृतोपम औषधि कहा है। राजवल्ल्भ निघण्टु के अनुसार -यस्य माता गृहे नास्ति, तस्य माता हरीतकी। कदाचित कुप्यते माता, नोदरस्था हरीतकी॥ अर्थात हरीतकी मनुष्यों का माता समान हित करने वाली है। माता तो कभी-कभी कुपित भी हो जाती है परन्तु उदर स्थित अर्थात खाई हुई हरड़ कभी अपकारी नहीं होती
आयूर्वेद के ग्रंथकार हरीतकी की इसी प्रकार स्तुति करते हैं और कहते हैं कि - तु हर(महादेव) के भवन में उत्तपन्न हुई है, इसलिए अमृत से भी श्रेष्ठ है।
हरस्य भवने जाता, हरिता च स्वभावत:। हरते सर्वरोगांश्च तस्मात प्रोक्ता हरीतकी॥ अर्थात श्री हर के घर में उत्पन्न होने से हरित वर्ण की होने से, सब रोगों का नाश करने में समर्थ होने से इसे हरीतकी कहते हैं।
हरड़ दो प्रकार की होती है, छोटी और बड़ी। छोटी हरड़ का उपयोग अधिक निरापद माना जाता है। इसे बाल हर्रे भी कहते हैं।
चरक संहिता के अनुसार हरड़ त्रिदोष हर व अनुलोमक है, यह संग्रहणी शूल, अतिसार (डायरिया) बवासीर तथा गुल्म का नाश करती है, एवं पाचन अग्निदीपन में सहायक होती है। किसी हरण को खाने, सुंघने या चूने मात्र से तीव्र रेचन क्रिया होने लगती है। हिमालय व तराई में उत्पन्न होने वाली चेतकी नामक हरड़ इतनी तीव्र है कि इसकी छाया में बैठने मात्र से ही दस्त होने लगते हैं।  यह शास्त्रोक्ति कहाँ तक सत्य है, इसकी परीक्षा शुद्ध चेतकी हरड़ प्राप्त होने पर ही की जा सकती है, परन्तु वृहद आंत्र संस्थान पर इसके प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। यह दुर्बल नाड़ियों को सबल बनाती है। कब्ज की राम बाण औषधी है, ड़ेढ से तीन ग्राम हरड़ को सेंधा नमक के साथ दी जा सकती है। बवासीर और खूनी पेचिस में  चरक के अनुसार हरड़ का चूर्ण व गुड़ दोनो गौमुत्र में मिला कर रात्रि भर रखना चाहिए और प्रात: रोगी को पिलाना चाहिए इसे दही मट्ठे के साथ भी दिया जा सकता है। अर्श की सूजन एवं दर्द कम करने के लिए स्थान विशेष पर हरड़ को जल में पीस कर लगाते हैं। इससे रक्त स्राव रुकता है और मस्से सूखते हैं।
वैसे हरड़ कफ़ पित्त वात तीनों के रोगों में काम आती है, सेंधा नमक के साथ कफ़ज, शक्कर के साथ पित्तज एवं घी के साथ वातज रोगों में लाभ पहुंचाती है। व्रणों में लेपन के रुप में, मुंह के छालों में क्वाथ से कुल्ला करके, मस्तिष्क दुर्बलता में चूर्ण के रुप में, रक्त विकार शोथ में उबाल कर, श्वास रोग में चूर्ण, जीर्ण ज्वरों में भी इसका प्रयोग होता है। जीर्ण काया, अवसाद ग्रस्त मन: स्थिति, लंबे समय तक उपवास में, पित्ताधिक्य वाले तथा गर्भवती स्त्रियों के लिए इस औषधि का निषेध है।

बिल्व (बेल)

कहा गया है -रोगान बिलत्ति-भिनत्ति इति बिल्व। रोगों को नष्ट करने की क्षमता के कारण बेल के फ़ल को बिल्व कहा गया है। इसके अन्य नाम शाण्डिलरु (पीड़ा निवारक) श्री फ़ल, सदाफ़ल इत्यादि। मज्जा बिल्वकर्कटी कहलाती है और सूखा गुदा बेलगिरी।
आचार्य चरक एवं सुश्रुत दोनो ने ही बेल को उत्तम संग्राही माना है।  फ़ल वात शामक होते हैं। चक्रदत्त बेल को पुरानी पेचिस, दस्तों एवं बवासीर में बहुत लाभकारी मानते हैं। डॉ नादकर्णी ने इसे गेस्ट्रोएण्टेटाईटिस एवं हैजे के एपीडेमेक प्रकोपों में अत्यंत लाभकारी एवं अचूक औषधि माना है। विषाणु के प्रभाव को निरस्त करने की इसमें क्षमता है। पुरानी पेचिस, अल्सरेटिव कोलाईटिस जैसे जीर्ण असाध्य रोग में भी यह लाभ करता है। पका फ़ल हल्का और रेचक होता है। यह रोग निवारक ही नहीं स्वास्थ्यवर्धक भी है। पाश्चात्य जगत में इस औषधि पर काफ़ी काम हुआ है।
आंखों के रोगों में पत्र का स्वरस, उन्माद अनिद्रा में मूल का चूर्ण, हृदय की अनियमितता में फ़ल, शोथ रोगों में पत्र स्वरस का का प्रयोग होता है। श्वांस रोगों में एवं मधुमेह में भी पत्र का स्वरस सफ़लता पूर्वक प्रयोग होता है। सामान्य दुर्बलता के लिए टानिक के समान प्रयोग काफ़ी समय होता आ रहा है। समस्त नाड़ी संस्थान को शक्ति देता है तथा कफ़ वात के प्रकोपों को शांत करता है।

अर्जुन (पार्थ)

इसे धवल, ककुभ और नदीसर्ज भी कहते हैं, कहुआ तथा सादड़ी नाम से भी जाना जाता है।  यह सदाहरित वृक्ष है छत्तीसगढ अंचल में काफ़ी पाया जाता है।  इसकी छाल उतार देने पर वह फ़िर आ जाती है और इसकी छाल का ही प्रयोग होता है। एक वृक्ष में छाल तीन साल के चक्र में मिलती है। प्राचीन वैद्यों में वागभट्ट हैं जिन्होने पहली बार इस औषधि के हृदय रोग में उपयोगी होने की विवेचना की है। उसके बाद चक्रदत्त और भाव मिश्र ने इसे हृदयरोगों की अनुभूत औषधि माना। चक्रदत्त कहते हैं कि घी दूध या गुड़ के साथ जो अर्जुन की त्वचा के चूर्ण का नियमित प्रयोग करता है उसे हृदय रोग, जीर्ण ज्वर, रक्त पित्त कभी नहीं सताते, वह चिरंजीवी होता है।
अभी तक अर्जुन से प्राप्त विभिन्न घटकों का प्रभाव जीवों पर देखा गया है। इससे वर्णित गुणों की पुष्टि होती है। अर्जुन से हृदय की मांस पेशियों को बल मिलता है। स्पंदन ठीक एवं सबल होता है तथा उसकी प्रति मिनट गति भी कम हो जाती है। स्ट्रोक वाल्युम और कार्डियक आऊटपुट बढती है। अधिक रक्त स्राव होने पर कोशिकाओं के टूट्ने के खतरे में स्तंभक की भूमिका निभाता है। रक्तवाही नलिकाओं में थक्का नहीं बनने देता तथा बड़ी धमनी से प्रति मिनट भेजे जाने वाले रक्त के आयतन में वृद्धि करता है। इस प्रभाव के कारण यह शरीर व्यापी तथा वायु कोषों में जमे पानी को मूत्र मार्ग से बाहर निकाल देता है।
कफ़ पित्त शामक है, स्थानीय लेप के रुप में बाह्र्य रक्तस्राव  तथा व्रणों में पत्र स्वरस या त्वक चूर्ण प्रयोग करते हैं। खूनी बवासीर में खून बहना रोकता है। वक्षदाह व जीर्ण खांसी में लाभ पहुंचाता है। पेशाब की जलन, श्वेतप्रदर तथा चर्म रोगों में चूर्ण लिए जाने पर लाभकारी। हड्डी टूटने पर छाल का रस दूध के साथ देते हैं। इससे रोगी को आराम मिलता है सूजन व दर्द कम होता है। शीघ्र ही सामान्य स्थिति में आने में मदद मिलती है।

पुनर्नवा

पुन: पुनर्नवा भवति। जो फ़िर से प्रतिवर्ष नया हो जाए अथवा शरीरं पुनर्नवं करोति। जो रसायन एवं रक्त वर्धक होने के कारण शरीर को नया बना दे उसे पुनर्नवा कहते हैं। पुनर्नवा  एक सामान्य रुप से पाई जाने वाली घास है। जो सड़कों के किनारे उगी मिल जाती है। इसके फ़ूल सफ़ेद होते हैं। गंध उग्र और स्वाद तीखा होता है, उल्टी लाने वाला गाढा दूध समान द्रव्य इसमें से तोड़ने पर निकलता है। उपरोक्त गुणों द्वारा सही पौधे की पहचान कर ही प्रयुक्त किया जाता है।
आचार्य चरक ने पुनर्नवा पात्र को शरीर शोथ में अति लाभकारी बताया है। धनवंतरि निघन्टुकार ने पुनर्नवा को हृदय रोग, कास, उरक्षत और मुत्रल में भी उपयोगी बताया है। पुनर्नवा से मुत्र का प्रमाण दुगना हो जाता है हृदय संकोचन के साथ धमनियों में रक्त प्रवाह बढने से शोथ दूर होती है। यह हृदय की मांस पेशियों की कार्य क्षमता को बढाता है। इसमें पाए जाने वाला पोटेशियम नाईट्रेट लवण इतना प्रभावी है कि इसकी औषधि की उपयोगिता हृदय रोग में प्रमाणित होती है। एलोपैथी में शोथ उतारने के लिए जो दवाईयां दी जाती हैं उससे पोटेशियम की कमी हो जाती है पर पुनर्नवा मुत्रल होने के साथ पोटेशियम की कमी नहीं होने देता। मधु के साथ पुनर्नवा का प्रयोग अधिक उत्तम माना गया है।
नेत्रों के रोग में स्वरस लाभ कारी अंत: प्रयोगों में अग्निमंदता, वमन, पीलिया रोग, स्त्रियों के रक्त प्रदर में लाभकारी है। पेशाब की जलन, पथरी तथा पेशाब के मार्ग में संक्रमण कारण उत्पन्न होने वाले ज्वर में यह तुरंत लाभ पहुंचाता है।  सभी प्रकार के सर्प विषों का यह एन्टीडोट है। श्वेत पुनर्नवा का ताजा भाग इसी कारण आपात्कालीन उपचार के लिए हमेशा पास रहना चाहिए। यह एक रसायन एवं बल वर्धक टानिक भी है। विशेषकर महिलाओं के लिए सर्वश्रेष्ठ पुष्टिवर्धक माना गया है।

ब्राह्मी

यह मुख्यत: जलासन्न भूमि पर पाई जाती है इसलिए इसे जल निम्ब भी कहते हैं। बुद्धि वर्धक होने के कारण इसे ब्राह्मी नाम दिया गय। महर्षि चरक के अनुसार ब्राह्मी मानस रोगों की अचूक एवं गुणकारी औषधि है। अपस्मार रोगों में विशेष लाभ करती है।  सुश्रुत के अनुसार ब्राह्मी का उपयोग मस्तिष्क विकृति, नाड़ी दौर्बल्य, अपस्मार, उन्माद, एवं स्मृति नाश में किया जाना चाहिए। भाव प्रकाश के अनुसार ब्राह्मी मेधावर्धक है। हिस्टीरिया जैसे मनोरोगों में ब्राह्मी तुरंत लाभ करती है तथा सारे लक्षण मिट जाते हैं। पागलपन एवं मिर्गी के दौरे के लिए डॉ नादकर्णी ब्राह्मी पत्तियों का स्वरस घी में उबाल कर दिए जाने पर पूर्ण सफ़लता का दावा करते हैं। जन्मजात तुतलाने वाले व्यक्ति के इलाज में ब्राह्मी सफ़लता पूर्वक कार्य करती है।
यह प्रकृति का श्रेष्ठ वरदान है, किसी न किसी रुप में इसका नियमित सेवन किया जाए तो हमेशा स्फ़ूर्ति से भरी प्रफ़ुल्ल मन: स्तिथि बनाए रखती है।

शंखपुष्पी

शंख के समानाकृति वाले श्रेत पुष्प होने के कारण इसे शंखपुष्पी कहते हैं। यह सारे भारत में पथरीली और वन भूमि पर पाई जाती है। यह उत्तेजना शामक प्रभाव रक्तचाप पर भी अनुकूल प्रभाव डालती है। तनाव जन्य उच्च रक्त चाप की स्थिति में शंखपुष्पी अत्यंत लाभकारी है।  आदत डालने वाले ट्रैंक्विलाईजर्स की तुलना में यह अधिक उत्तम है क्योंकि यह तनाव का शमन कर  दुष्प्रभाव रहित निद्रा लाती है।  यह कफ़ वात शामक मानी जाती है। शय्या पर मुत्र करने वाले बच्चों को रात्रि के समय शंखपुष्पी चूर्ण देने से लाभ पहुंचता है। यह दीपक एवं पाचक है, पेट में गए हुए विष को बाहर निकालती है। गर्भाशय की दुर्बलता के कारण जिनको गर्भ धारण नहीं होता या नष्ट हो जाता है उसके उपचार में पुरातन काल से इसका प्रयोग होता आया है। ज्वर और दाह में शांतिदायक पेय के रुप में पेशाब की जलन में डाययुरेटिक की तरह प्रयुक्त होती है। इसे जनरल टानिक के रुप में भी उपयोग में लाया जाता है।

निर्गुण्डी

निर्गुडाति शरीर रक्षति रोगेभ्य: तस्माद निर्गुण्डी। अर्थात जो रोगों से शरीर की रक्षा करती है वह निर्गुण्डी कहलाती है। इसे सम्हालू या मेऊड़ी भी कहते हैं। आचार्य चरक इसे विषहर वर्ग की महत्वपूर्ण औषधि मानते हैं। किसी भी प्रकार के बाहरी भीतरी सूजन के लिए इसका उपयोग किया जाता है। यह औषधि वेदना शामक और मज्जा तंतुओं  को शक्ति देने वाली है। वैसे आयुर्वेद में सुजन उतारने वाली और भी कई औषधियों का वर्णन आता है पर निर्गुण्डी इन सब में अग्रणी है और सर्वसुलभ भी।  इसके अतिरिक्त तंतुओं में चोट पहुचने, मोच आदि के कारण आई मांसपेशियों की सूजन में भी यह लाभकारी है। लम्बे समय से चले आ रही जोड़ों के सूजन तथा प्रसव के गर्भाशय की असामान्य सूजन को उतारने में निर्गुंडी पत्र चमत्कारी है। गठिया के दर्द में भी लाभकारी है।  अंड्शोथ में इसके पत्तों को गर्म करके बांधते हैं, कान के दर्द में पत्र स्वरस लाभ दायक है। लीवर की सूजन तथा कृमियों को मारने में भी इसका प्रयोग होता है।

शुंठी (सोंठ)

शुष्क होने से इसे शुंठी, अनेक विकारों का शमन करने में समर्थ होने के कारण महौषधि, विश्व भेषज कह जाता है।  कच्चा कंद अदरक नाम से घरेलु औषधि के रुप में सर्वविदित है। आचार्य सुश्रुत ने इसकी महत्ता बताते हुए पिपल्यादि और त्रिकटुगणों में इसकी गणना की है।  यह शरीर के संस्थान में समत्व स्थापित कर जीवन शक्ति और रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढाती है। हृदय श्वांस संस्थान से लेकर नाड़ी संस्थान तक यह समस्त अवयवों की विकृति को मिटाकर अव्यवस्था को दूर करती है। शुंठी सायिटिका की सर्वश्रेष्ठ औषधि है, क्योंकि इसकी तासीर गर्म है। पुराने गठिया रोग में यह अत्यंत लाभदायी है। अरुचि, उल्टी होने की इच्छा, अगिन मंदता, अजीर्ण एवं पुराने कब्ज में यह तुरंत लाभ पहुंचाती है। यह हृदयोत्तेजक है जो ब्ल्डप्रेशर सही करती है। खाँसी, श्वांस रोग, हिचकी में भी लाभ देती है। कफ़ निस्सारक है अत: ब्रोंकाईटिस आदि में तो विशेष लाभकारी है। विशेषकर प्रसवोत्तर दुर्बलता से शीघ्र लाभ दिलाती है।
यह एक गर्म औषधि है, अत: इसका प्रयोग कुष्ठ व पीलिया, शरीर में कहीं भी रक्तस्राव होने की स्थिति और गर्मी में नहीं करना चाहिए।

नीम (निम्ब)

निम्ब सिन्चति स्वास्थ्यं इति निम्बम अर्थात जो स्वास्थ्य को बढाए, वह नीम कहलाता है।  इसकी महिमा का जितना बखान किया जाए उतना ही कम है। वायु को शुद्ध करने में यह सर्वाधिक योगदान करता है।  चरक एवं सुश्रुत दोनो ने इसे चर्मरोग एवं रक्त शोधन हेतु उत्तम औषधि माना है। निघंटुकार कहते हैं कि नीम तिक्त रस, लघु गुण, शीत वीर्य व क्टु विपाककी होने से कफ़ व पित्त को शांत करता है। कण्डूरोग, कोढ, फ़ोड़े फ़ुंसी, घाव, आदि में लेप द्वारा लाभ करता है। रक्त शोधक होने के कारण यह व्रणों और शोथ रोगों में लाभ पहुंचाता है। मुंह से लिए जाने पर यह पाचन संस्थान में कृमिनाशक, यकृदोत्तेजक प्रभाव डालता है। शोथ मिटाता है तथा श्वांस रोग खाँसी में आराम देता है, मधुमेह, बहुमूत्र रोग में भी इसे प्रयुक्त करते हैं। विषम जीर्ण ज्वरों में इसके प्रयोग का प्रावधान है।

सारिवा

इसे अनन्तमूल, गोपव्ल्ली, कपूरी के नाम से भी जाना जाता है। आचार्य सुश्रुत ने सारिवादिगण की प्रधान औषधि इसे ही माना है।  रक्त शुद्धि और धातु परिवर्तन के लिए अनन्तमूल बहुत उपयोगी है। यह औषधि रक्त के उपर अपना सीधा प्रभाव दिखाती है। इसके द्वारा त्वचान्तर्गत रक्त वाहिनियों का विकास होता है जिससे रक्त प्रवाह ठीक गति से होने लगता है।  बाह्र्य प्रयोगों में आंख की लाली आदि संक्रमण रोगों में रस डालते हैं तथा शोथ संस्थानों पर लेप करते हैं। यह अग्निदीपक पाचक है। अरुचि और अतिसार में लाभ पहुंचाती है। खाँसी सहित श्वांस रोगों में यह उपयोगी है, महिलाओं के प्रदर, अनियमित मासिक धर्म आदि रोगों में लाभकारी है।  यह त्रिदोषनाशक तथा किसी भी प्रकार के ज्वार प्रधान रोगों के निवारणार्थ  तथा जीवन शक्ति को बढाने हेतु प्रयुक्त किया जा सकता है।

चिरायता

वनों में पाए जाने वाले तिक्त द्रव्य के रुप में होने के कारण किराततिक्त भी कहते हैं, किरात व चिरेट्ठा इसके अन्य नाम हैं। इसे लगभग सभी विद्वानों ने सन्निपात, ज्वर, व्रण रक्त, दोषों  की सर्वश्रेष्ठ औषधि माना है यह एक प्रकार की प्रति संक्रामक औषधि है जो ज्वर करने वाले मूल कारणों का निवारण करती है। यह कोढ कृमि तथा व्रणों को मिटाता है। संस्थानिक  बाह्य उपयोग के रुप में यह व्रणों को धोने, अग्निमंदता, अजीर्ण, यकृत विकारों में आंतरिक प्रयोगों के रुप में, रक्त विकार, उदर तथा कृमियों के निवार्णार्थ, शोथ एवं ज्वर के बाद दुर्बलता हेतु भी प्रयुक्त होता है। इसे उत्तम सात्मीकरण टानिक भी माना जा सकत है।

गिलोय (अमृता)

यह समस्त भारतवर्ष में पायी जाती है, इसे गुडूची, अमृता, मधुपर्णी, तंत्रिका, कुण्डलिनी जैसे नाम दिए हैं आयुर्वेद में इसे ज्वर की महानौषधि मानते हुए जीवन्तिका नाम दिया है।  चरक ने इसे मुख्यत: वात हर माना है। इसे त्रिदोषहर रक्त शोधक, प्रतिसंक्रामक, ज्वरघ्न मानते हैं। विभिन्न अनुपानों के प्रयोग से यह सभी दोषों का शमन कर रक्त का शोधन करती है। यहा पाण्डुरोग तथा जीर्णकास निवारक है। कुष्ठ रोग का निवारण तथा कृमियों को मारने का काम भी करती है। टायफ़ाईड जैसे जीर्ण मौलिक ज्वर में इसका प्रभाव आश्चर्यजनक है। मलेरिया ज्वर में कुनैन से होने वाली विकृतियों को रोकने में सफ़ल है। हृदय की दुर्बलता, रक्त विकार, निम्न रक्तचाप में उपयोग में लाई जाती है। ऐसा कहा जाता है कि यह शुक्राणुओं के बनने की एवं उनके सक्रीय होने की प्रक्रिया को बढाता है। यह औषधि एक समग्र काया कल्प योग है।

अशोक

जिस वृक्ष के नीचे बैठने से शोक नहीं होता उसे अशोक कहते हैं अर्थात जो स्त्रियों के समस्त शोकों को दूर भगाता है वह दिव्य औषधि अशोक ही है। इसे हेमपुष्प (स्वर्ण वर्ण के फ़ूलों से लदा) तथा  ताम्रपल्लव नाम से संस्कृत साहित्य में पुकारते हैं। आचार्य सुश्रुत के अनुसार योनि दोषों की यह एक सिद्ध औषधि है। ॠषि कहते हैं कि यदि कोई स्त्री स्नानादि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र पहन कर अशोक की आठ कलियों  का सेवन नित्य करे तो वह मासिक धर्म संबंधी समस्त क्लेशों से मुक्त हो जाती है।  उसके बांझ पन का कष्ट दूर होता है और मातृत्व की इच्छा पूर्ण होती है। अशोक की छाल रक्त प्रदर में, पेशाब रुकने तथा बंद होने वाले रोगों को तुरंत लाभ देती है। अशोक का प्रधान प्रभाव पेट के नीचले भाग - गुर्दों, मुत्राशय एवं योनिमार्ग पर होता है। यह फ़ैलोपिन ट्यूब को सुदृढ बनाती है। जिससे बांझ पन मिटता है। शुक्ल पक्ष में वसंत की छठी को अशोक के फ़ूल दही के साथ खाने से गर्भ स्थापना होती है ऐसा शास्त्रों का अभिमत है। मुत्रघात व पथरी में, पेशाब की जलन में बीजों को शीतल जल में पीस कर मिलाते हैं, पुरुष के सभी प्रकार के मूत्रवाही संस्थान रोगों में अशोक का प्रयोग लाभकारी होता है।

गौक्षुर (गोखरु)

वनों मे पाई जाने वाली यह छुरी के समान तेज कांटे वाली औषधि गौआदि पशुओं के पैरों में चुभ कर उन्हे क्षत कर देती है। इसलिए इसे गौक्षुर कहते हैं। इसे श्वदंष्ट्रा, चणद्रुम, स्वादु कंटक एवं गोखरु नाम से भी जाना जाता है। आचार्य चरक इसे मूत्र विरेचन द्रव्यों में प्रधान मानते हुए कहा है - मूत्रकृच्छानिलहराणाम अर्थात यह मूत्र कृच्छ (डिसयुरिया) विसर्जन के समय होने वाले कष्ट में उपयोगी महत्वपूर्ण औषधि है। अश्मरी भेदन में (पथरी को तोड़ना, मूत्र मार्ग से ही बाहर निकालना) हेतू भी इसे उपयोगी माना गया है। इसका सीधा असर मूत्रेन्द्रिय की श्लेष्म त्वचा पर पड़ता है। सुजाक रोग, वस्तिशोथ (पेल्विक इन्फ़्लेमेशन) में भी गोखरु तुरंत अपना प्रभाव दिखाता है।  गर्भाशय को शुद्ध करता है तथा वन्ध्याआत्व को मिटाता है। इस प्रकार से यह प्रजनन अंगों की बलवर्धक औषधि है। इसके अतिरिक्त यह नाड़ी दुर्बलता, नाड़ी विकार, बवासीर, खाँसी तथा श्वांसरोग में लाभकारी है।  यह नपुंसकता निवारण तथा बार बार होएन वाले गर्भपात में भी सफ़लता से प्रयोग होता है।

शतावर

इसे शतमली, शतवीर्या, बहुसुताअ भी कहते हैं। वीर्य वृद्धि, शुक्र दुर्बलता, गर्भस्राव, रक्त पदर, स्तन्य क्षय में यह उपयोगी है। स्त्रियों के लिए उत्तम रसायन है स्तन्य वृद्धि तथा दूध की मात्रा बढाने के लिए इसका उपयोग होता है।  स्वप्न दोष के लिए दूध में उबाल कर इसकी जड़ देते हैं। अनिद्रा रोग, शिरोशूल, वात व्याधि, मिर्गी के रोग, मुर्च्छा, हिस्टीरिया की भी यह अचूक औषधि है।

अश्वगंधा

इसे असगंध एवं बाराहरकर्णी भी कह्ते हैं, कच्ची जड़ से अश्व जैसी गंध आती है इसलिए इसे अश्वगंधा या वाजिगंधा भी कहते हैं। यह उत्तम वाजिकारक औषधि है इसका सेवन करने से अश्व जैसा उत्साह उत्पन्न होता है। आचार्य चरक ने इसे उत्कृष्ट वल्य माना है, एवं सभी प्रकार के जीर्ण रोगियों, क्षय शोथ अदि के लिए उपयुक्त माना है। शिशिर ॠतु में कोइ वृद्ध इसका एक माह भी सेवन करता है तो वह युवा बन जाता है। इसका मूल चुर्ण दूध या घी के साथ निद्रा लाता है तथा शुक्राणुओं में वृद्धि कर एक प्रकार के कामोत्तेजक की भूमिका निभाता है, परन्तु शरीर पर इसका कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता। सूखा रोग की यह चिरपरिचित औषधि है।

सोमवार, 6 अप्रैल 2015

महिलाओं के कुछ बड़े ऑप्रेशन Some major operations of women




हिस्ट्रीक्टमी-
          हिस्ट्रक्टमी ऑप्रेशन में स्त्री की बच्चेदानी में कोई खराबी जैसे-´ टयूमर, रसौली या कैंसर हो जाने या हार्मोन्स की गड़बड़ी होने के कारण या ज्यादा खून के बहने के कारण उस अंग को काटकर निकाल दिया जाता है। चूंकि बच्चेदानी के निकाल दिए जाने से मासिकधर्म बंद हो जाता है, इसलिए इस ऑप्रेशन को अक्सर 40 साल की उम्र के बाद ही किया जाता है।

मायोमेक्टमी-

        कभी-कभी स्त्री को छोटी उम्र में ही रसौली आदि हो जाने के कारण बच्चे को जन्म देने में परेशानी होती हैं इसलिए इसमे पूरे गर्भाशय को ना निकालकर केवल रसौली को ही निकाला जाता है। इस क्रिया को मायोमेक्टमी कहते हैं।

बैट्रोसस्पेंशन-

          अगर किसी स्त्री की बच्चेदानी ठीक है, पर बार-बार बच्चे को जन्म देने या ज्यादा बार गर्भपात होने की वजह से अपनी जगह से खिसक गई है, जिसकी वजह से उसे काफी परेशानी हो रही है तब भी ऑप्रेशन के द्वारा बच्चेदानी को निकाला नहीं जाता बल्कि उसे अपनी सही जगह पर वापस लगा दिया जाता है। ऑप्रेशन की इस क्रिया को बैट्रोसस्पेंशन कहा जाता है।

          आजकल मेडिकल ने नई तकनीक खोज निकाली है जिसमे बिना खोले पेट का ऑप्रेशन किये बगैर योनि के रास्ते से बच्चेदानी को बाहर निकाल दिया जाता है। लेकिन ये स्त्री की हालत और डॉक्टर पर निर्भर करता है कि `हिस्ट्रक्टमी वैजाइनल´ होगी या `एबडैमनल´। अक्सर `हिस्ट्रक्टमी वैजाइनल´ में 14-15 दिन तथा `एबडैमनल´ (पेट खोलकर) हिस्ट्रक्टमी में 10-12 दिन हॉस्पिटल में रहना होता है। इस ऑप्रेशन के 6 महीने तक ज्यादातर ऐसे कामों से पूरी तरह बचना चाहिए जिससे कि नीचे योनि की तरफ वजन पड़ता हो जैसे- बार-बार सीढ़ियों से नीचे-ऊपर उतरना-चढ़ना, भारी बाल्टी या सामान उठाना आदि।

          अक्सर स्त्रियां ऑप्रेशन के नाम से ही डर जाती है लेकिन यह डर पूरी तरह से बेकार है। पूरी उम्र दुख, पीड़ा सहते हुए जीवन बिताने से तो अच्छा है कि एक ही बार ऑप्रेशन करवाकर हर दुख-दर्द को एक ही बार मे खत्म कर दिया जाए और अपनी बाकी की जिन्दगी को हंसते-खेलते हुए बिताया जाए।

ऑप्रेशन के बाद की शिकायतें-

        अक्सर स्त्रियों को ऑप्रेशन के बाद कुछ परेशानियां पैदा हो जाती है पर ये परेशानियां ज्यादातर वहमबाजी के कारण या ऑप्रेशन के बाद पूरी तरह से आराम न कर पाने या किसी तरह की लापरवाही बरतने से हो सकती है। बहुत सी स्त्रियां हिस्ट्रक्टमी को इसके लिए दोषी मानती है पर ये ठीक नहीं है। ऐसी परेशानियां किसी भी ऑप्रेशन के बाद की गई लापरवाही के कारण हो सकती है।

        ऑप्रेशन के बाद स्त्रियों का पेट बाहर निकलना या मोटापा बढ़ने की शिकायते भी आम होती है। मीनूपाज के समय मासिकधर्म बंद हो जाने के कारण यूं भी स्त्री के शरीर मे थोड़ा बहुत फर्क आता है पर ये शिकायत भी ज्यादातर ऑप्रेशन के बाद हर समय लेटे रहने या हर समय खाते रहने से ही होती है क्योंकि बहुत सी स्त्रियां सोचती है कि ऑप्रेशन के बाद काम बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए और शरीर मे कमजोरी न आ जाए इसलिए हर समय कुछ न कुछ खाते रहना चाहिए। इन्ही कारणों से उनका मोटापा बढ़ जाता है नहीं तो हिस्ट्रक्टमी के बाद स्त्री अपनी पूरी जिन्दगी सामान्य तरीके से जी सकती है तथा संभोगक्रिया में भी वो पूरी तरह नार्मल रह सकती है बल्कि इस ऑप्रेशन के कारण संभोग क्रिया करते समय उसके मन मे बच्चा ठहर जाने का डर भी नहीं रहता जिससे वो संभोगक्रिया को पूरी तरह बिना किसी डर के कर सकती है। इसलिए अगर स्त्रियों को ये ऑप्रेशन कराने की जरूरत पड़े तो उन्हे बिना किसी डर या झिझक के ये ऑप्रेशन करवा लेना चाहिए।

ओबेरियाटमी-

        `हिस्ट्रक्टमी´ में सिर्फ बच्चेदानी को ही निकाला जाता है, ओवरीज या डिंब-ग्रन्थियों को नहीं। लेकिन कभी-कभी इस जगह पर भी ट्यूमर हो जाने से ओवरीज को बाहर निकालना जरूरी हो जाता है पर इससे भी डरने की कोई जरूरत नहीं है। एक ओवरीज को बाहर निकाल देने से दूसरी काम करती रहती है। अगर दोनो ओवरीज हटा दी जाती है तो हार्मोन्स की कमी को दवाईयों या इजैंक्शनों के द्वारा पूरा किया जाता है और अपनी बाकी की जिन्दगी को साधारण तरीके से जिया जा सकता है। लेकिन ऑप्रेशन होने के बाद पूरी तरह सावधानी बरतना और डॉक्टर के कहे अनुसार चलना बहुत जरूरी है। स्त्री की हालत के अनुसार ही ये सम्भव हो सकता है जिसमे खराबी हो, सिर्फ वो ही एक ही ओवरी निकाली जाएं तथा किसी ओवरी में छोटा सा टयूमर हो तो सिर्फ टयूमर को ही निकाला जाए ओवरी को नहीं। ऐसे में ऑप्रेशन की इस क्रिया को `ओवेरियन सिस्टैक्टमी´ कहते हैं।

एक्टोपिक प्रेग्नेंसी-

        एक्टोपिक प्रेग्नेंसी का मतलब होता है किसी-किसी मामलों में स्त्री के गर्भ का बच्चेदानी में ठहरकर गर्भनली मे गलत तरह से ठहर जाना। इसी कारण से इसे `टयूबल प्रेग्नेंसी´ भी कहते है। जब टयूब के अन्दर गर्भ के बढ़ने और फैलने की कोई संभावना नहीं तो स्वाभाविक है कि बढ़ने की कोशिश में वो दर्दनाक हालात पैदा करेगा। इसमें अक्सर 1 महीने के बाद ही मुश्किल पैदा हो जाती है। कभी दर्द, कभी खून बहना, कभी तेज ना सहने वाला दर्द और उल्टियां। ऐसी किसी तरह की परेशानी होने पर तुरन्त ही जांच करवानी चाहिए तथा जितनी जल्दी हो सकें इस गर्भ को ऑप्रेशन करवाकर निकलवा देना चाहिए। ये ऑप्रेशन कुछ बड़ा ही होता है पर उसके बाद जिस स्त्री का ऑप्रेशन होता है वो जल्द ही ठीक हो जाती है। यहां एक बात और भी ध्यान रखना जरूरी है कि दूसरा गर्भधारण जल्दी नहीं होना चाहिए और जब भी हो डॉक्टर को पहले गर्भ के बारें मे पूरी तरह बताकर उसकी जांच करवा लेनी चाहिए।

हिस्ट्रोटमी-

          हिस्ट्रोटमी की जरूरत तभी पड़ती है, जबकि स्त्री के गर्भ मे बच्चा लगभग 4 महीने से ऊपर का हो गया हो और किन्ही कारणों से उसे निकालना जरूरी हो, क्योंकि इस बढ़े हुए गर्भ को फिर से योनि के रास्ते से निकालने मे मुश्किल पैदा हो जाती है और उसे पेट का ऑप्रेशन करके ही निकालना पड़ता है। इसलिए डॉक्टर के बोलते ही कि गर्भपात 12 हफ्तों के बाद ही करा लेना चाहिए क्योंकि 12 से 16 सप्ताह के बीच भी वो इतना आसान नहीं रह जाता पर उसके बाद हिस्ट्रोटमी का सहारा लेना ही पड़ता है। ऑप्रेशन करने के बाद टांकों के खुलने तक 10 दिन तक अस्पताल में रहना, बाद में कम से कम 6 सप्ताह तक आराम करना तथा 3 महीने तक भारी काम न करना जैसी बातों पर ध्यान देना जरूरी है। अगला गर्भाधान जल्द न हो इस बात का ध्यान भी रखना भी जरूरी है।

टयूबैक्टमी-

        इन सारे बड़े आप्रेशनों में सबसे आसान और छोटा ऑप्रेशन है `टयूबैक्टमी´ यानि स्त्रियों की नसबन्दी करना ताकि आगे उनको गर्भधारण न हो। अक्सर लोग संभोग क्रिया करते समय कण्डोम आदि का सही से इस्तेमाल नहीं करते, जिसके कारण स्त्री को गर्भ ठहर जाता है और वह बार-बार गर्भपात कराती रहती है। लेकिन बार-बार गर्भपात बिल्कुल ठीक नहीं है गर्भपात जब ज्यादा ही मजबूरी हो तभी करना चाहिए। इसलिए 2-3 बच्चों के बाद परिवार नियोजन के लिए पुरुषों को `वासैक्टमी´ और स्त्रियों को `टयूबैक्टमी´ करा लेने की सलाह दी जाती है पर यह जानना भी जरूरी है कि इस ऑप्रेशन के बाद नसबन्दी पति या पत्नी दोनो में से किसी एक ही करानी चाहिए।

          `टयूबैक्टमी´ अगर आखिरी बच्चे को जन्म देने के अगले दिन ही करवा ली जाए तो ज्यादा आसानी रहती है। इसके लिए स्त्री को दो बार समय निकालने की जरूरत भी नहीं होती है। इसलिए अस्पतालों में दूसरे या तीसरे बच्चे के बाद साथ ही `टयूबैक्टमी´ या नसबन्दी करने के लिए बोला जाता है।

           इस ऑप्रेशन में पेट का लगभग 2 इंच हिस्सा ही खोला जाता है और नसबन्दी करके 2-3 टांके लगा दिए जाते हैं। जब तक टांके खुलते है ज्यादा से ज्यादा 6-7 दिन अस्पताल में रहना होता है बाद में 2 हफ्ते तक स्त्री को पूरा आराम करना होता है, उसके बाद घर के या बाहर के सारे साधारण काम किए जा सकते हैं। सिर्फ 3 महीने तक ज्यादा वजन उठाने वाले या ज्यादा थकान वाले काम से बचना चाहिए। आजकल की आधुनिक तकनीक में लेपरोस्कोप के द्वारा सिर्फ 1 सेमीमीटर चीरा लगाने से ऑप्रेशन हो जाता है। यह ऑप्रेशन बच्चे का जन्म होने के 10-12 दिन बाद या मासिकधर्म के आने के बाद कराना चाहिए।

जानकारी-

        बहुत सी स्त्रियां सोचती है कि नसबन्दी करवाने के बाद वो ज्यादा भारी काम नहीं कर सकती या वजन नहीं उठा सकती पर ये सब वहम है। अगर नसबन्दी के बाद व्यायाम और भोजन में सन्तुलन रखा जाए और डॉक्टर की हिदायतों का पालन किया जाए तो स्त्री का स्वास्थ्य बिल्कुल ठीक रह सकता है।

Featured post

इस फ़ार्मूले के हिसाब से पता कर सकती हैं अपनी शुभ दिशाऐं

महिलाएँ ...इस फ़ार्मूले के हिसाब से पता कर सकती हैं अपनी शुभ दिशाऐं।   तो ये है इस फ़ार्मूले का राज... 👇 जन्म वर्ष के केवल आख़री दो अंकों क...