सोमवार, 30 मई 2016

औषधीय गुणों से भरपूर होते हैं फूल (herbal Beauty health tips flower)

 औषधीय गुणों से भरपूर होते हैं फूल

डॉ दीपक आचार्य

फूलों की बात की जाए तो सिर्फ साज सज्जा और पूजन के बारे में ही खयाल आता है लेकिन फल औषधीय गुणों से भी भरपूर होते हैं, इस सप्ताह हमारे पाठकों को कुछ खास फूलों के बारे में बताना चाहता हूं ताकि इनके औषधीय गुणों की समझ बन पाए-

गेंदे के फूल

आदिवासियों का मानना है कि जिन पुरुषों को स्पर्मेटोरिया (पेशाब और मल करते समय वीर्य जाने की शिकायत) हो उन्हे गेंदा के फूलों का रस पीना चाहिए। यदि गेंदा के फूलों को सुखा लिया जाए और इसके बीजों को एकत्र कर मिश्री के दानों के साथ समान मात्रा (5 ग्राम प्रत्येक) का सेवन कुछ समय तक दिन में दो बार किया जाए तो यह पुरुषों को शक्ति और प्रदान करता है। गेंदे के फूल की पंखुड़ियों को एकत्र कर पीस लिया जाए और शरीर के सूजन वाले हिस्सों में लगाया जाए तो सूजन मिट जाती है। गेंदा के फूलों को नारियल तेल के साथ मिलाकर कुचल लिया जाए और हल्की-हल्की मालिश करके नहा लिया जाए, सिर में हुए किसी भी तरह के संक्रमण, फोड़े-फुन्सियों में आराम मिल जाता है। जिन्हें सिर में फोड़े-फुन्सियां और घाव हो जाए उन्हे मैदा के साथ गेंदा की पत्तियों और फूलों के रस को मिलाकर सप्ताह में दो बार सिर पर लगाना चाहिए, आराम मिल जाता है। डाँग गुजरात के आदिवासियों के अनुसार यदि गेंदा के फूलों को सुखा कर और इसके बीजों को मिश्री के दानों के साथ समान मात्रा (5 ग्राम प्रत्येक) का सेवन तीन दिन तक किया जाए तो जिन्हें दमा और खांसी की शिकायत है, उन्हें काफी फायदा होता है।


अनार के फूल

आदिवासियों की मान्यता के अनुसार जिन महिलाओं को मातृत्व प्राप्ति की इच्छा हो, अनार की कलियां उनके लिए वरदान की तरह है। इन आदिवासियों के अनुसार अनार की ताजी, कोमल कलियां पीसकर पानी में मिलाकर, छानकर पीने से महिलाओं में गर्भधारण की क्षमता में वृद्धि होती है। लगभग 10 ग्राम अनार के फूलों को आधा लीटर पानी में उबालें, जब यह एक चौथाई शेष बचे तो इस काढ़े से कल्ले करने से मुंह के छालों में लाभ होता है। पातालकोट के आदिवासी हर्बल जानकारों के अनुसार अनार के फूल छाया में सुखाकर बारीक पीस लिए जाए और इसे मंजन की तरह दिन में 2 से 3 बार इस्तेमाल किया जाए तो दांतों से खून आना बंद होकर दांत मजबूत हो जाते हैं। डाँग, गुजरात के आदिवासी हर्बल जानकारों के अनुसार अनार के फूलों को पीसकर शरीर के जले हुए भाग पर लगाने से जलन अतिशीघ्र कम हो जाती है और दर्द में भी आराम मिलता है।


गुड़हल के फूल

गुड़हल के ताजे लाल फूलों को हथेली में कुचल लिया जाए और इस रस को नहाने के दौरान बालों पर हल्का-हल्का रगड़ा जाए, गुड़हल एक बेहतरीन कंडीशनर की तरह कार्य करता है। गुड़हल के लाल फूलों को नारियल तेल में डालकर गर्म करते हैं और बालों पर इस तेल से मालिश की जाती है। नहाते वक्त बालों पर इस तेल को लगाया जाए और नहाने के बाद बालों को आहिस्ता-आहिस्ता सूती तौलिये से सुखा लिया जाए और नहाने के बाद भी इस तेल को बालों पर लगाया जाए काफी तेजी से बालों की सेहत में सुधार आता है। गुड़हल के फूलों को चबाया जाए तो यह स्फूर्तिदायक होता है और माना जाता है कि यह पौरूषत्व को बढ़ावा देता है। फूलों के तिल के तेल में गर्म करके लगाने से बालों का झडऩा बंद हो जाता है और आदिवासी मानते है कि यह बालों का रंग भी काला कर देता है।


केले के फूल

केले के फूल टाइप-1 डायबिटीज के रोगियों के लिए कारगर उपाय है। अनेक शोधों के जरिए यह निष्कर्ष निकाला गया है कि फूल का रस तैयार करके टाइप-1 डायबिटीज रोगियों को दिया जाए तो यह रक्त में शर्करा की मात्रा कम करने में मदद करता है। कई रसायनिक और कृत्रिम दवाओं के सेवन के बाद अक्सर मुंह में छाले आने की शिकायत होती है। कच्चे केले और केले के फूलों को सुखाकर चूर्ण तैयार कर लिया जाए और इस चूर्ण की थोड़ी सी मात्रा छालों पर लगाई जाए तो छालों में अतिशीघ्र आराम मिलता है। आधुनिक शोधों से पता चलता है कि कच्चे केले और केले के फूल में एक महत्वपूर्ण फ्लेवोनोईड रसायन ल्युकोसायनिडिन पाया जाता है जो छालों के ठीक करने में सक्षम होता है। कई क्लिनिकल स्टडीज से यह भी ज्ञात हुआ है कि केले के फूल और पत्तियां त्वचा पर होने वाले अनेक सूक्ष्मजीवी खतरनाक संक्रमण को रोकने के लिए कारगर साबित हुई हैं। इनका रस अनेक तरह के त्वचा विकारों को दूर करने में सक्षम है।

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गर्मियों में सौंदर्य के लिए इन्हें आजमाएं herbal Beauty health tips


गर्मियों में सौंदर्य के लिए इन्हें आजमाएं

 डॉ दीपक आचार्य        



सौंदर्य प्रसाधन के तौर पर जड़ी-बूटियों के इस्तेमाल को सदियों से सराहा गया है और परंपरागत रूप से अनेक हर्बल-नुस्खों के जरिए कई तरह के सौंदर्य प्रसाधनों को तैयार कर हम सब अपनी सेहत की सुरक्षा बेहतर तरीके से कर सकते हैं। तपतपाती गर्मी के आने की खनक हो चुकी है और इन गर्मियों में त्वचा का झुलसना, बेरंग होना और सन टैन जैसी समस्याएं आपका इंतज़ार करेंगी। घातक कृत्रिम रसायनोंयुक्त दवाओं और क्रीम की तरफ कूच करने के बजाए इस सीजन में जरा इन देशी नुस्खों को आजमाकर देखें। हवा में तैरते हुए प्रदूषक कणों और तपतपाती धूप की मार चेहरे की त्वचा को झुलसा के रख देती है और यह चेहरे पर झुर्रियां बनने की वजहें बन सकती है लेकिन कुछ पारंपरिक हर्बल नुस्खों को अपनाकर इस समस्या से काफी हद तक छुटकारा मिल सकता है।

    सेब को कुचल लिया जाए और इसमें कुछ मात्रा कच्चे दूध की मिलाकर चेहरे पर लगाया जाए। इसके सूखने पर चेहरा धो लें। सप्ताह में कम से कम चार बार ऐसा करने से काफी फायदा होता है।
    दो टमाटर को लेकर कुचला जाए और इसमें तीन चम्मच दही और दो चम्मच जौ का आटा मिला दिया जाए। चेहरे पर इस मिश्रण को कम से कम 20 मिनट के लिए लगाकर रखा जाए तो यह त्वचा के सिकुड़न में मदद करता है जिससे झुर्रियां कम होने लगती हैं और यह धूप की मार भी कम करता है। इस उपाय को सप्ताह में 2 बार कम से कम एक माह तक उपयोग में लाना चाहिए, फायदा होता है।
    रात सोने जाने से पहले संतरे के दो चम्मच रस में दो चम्मच शहद मिलाकर चेहरे पर 20 मिनट तक लगाए रखना चाहिए। बाद में साफ कपास को दूध में डुबोकर चेहरे की सफाई करनी चाहिए। ऐसा प्रतिदिन करा जाए तो सकारात्मक परिणाम जल्द ही दिखने लगते हैं।
    पारंपरिक हर्बल वैद्यों की जानकारी के अनुसार 1/2 कप पत्ता गोभी का रस तैयार किया जाए और इसमें आधा चम्मच दही और एक चम्मच शहद मिलाकर चेहरे पर लगाया जाए। जब यह सूख जाए तो गुनगुने पानी से इसे धो लिया जाए। ऐसा करने से चेहरे की त्वचा में प्राकृतिक रूप से खिंचाव आता है और यह झुर्रियों को दूर करने में मदद करता है।
    चावल के आटे में थोड़ा सा दूध और गुलाब जल मिलाकर पेस्ट तैयार कर लिया जाए और चेहरे पर हल्का-हल्का मालिश किया जाए। कुछ देर बाद इसे गुनगुने पानी से साफ भी कर लिया जाए। सप्ताह में कम से कम तीन बार इस प्रक्रिया को दोहराने से सन टैन होने पर काफी फर्क महसूस किया जा सकता है।


    केला त्वचा के लिए एक अच्छा नमी कारक (मॉइश्चराइज़र) उपाय है। पके हुए केले को अच्छी तरह से मैश कर लिया जाए और चेहरे पर फेसपैक की तरह लगा दिया जाए, करीब 15 मिनट बाद इसे धो लिया जाए। चेहरा धुल जाने के बाद रक्त चंदन का लेप भी लगाया जाए, माना जाता है कि ऐसा करने से चेहरे की त्वचा में जबरदस्त निखार आता है और लू के थपेड़ों का असर कम हो जाता है।
    पान के एक पत्ते को कुचल लिया जाए और इसमें एक चम्मच नारियल का तेल मिला लिया जाए। इसे चेहरे या शरीर के किसी भी हिस्से पर धूप की वजह से बने दाग, काले निशान या धब्बों पर लगाकर कुछ देर रखा जाए और फिर धो लिया जाए। ऐसा सप्ताह में कम से कम 2 से 3 बार किया जाए तो तीन महीने के भीतर निशान मिट सकते हैं।
    एक आलू को बारीक पीस लिया जाए और इसमें 2-3 चम्मच कच्चा दूध मिला लिया जाए ताकि पेस्ट तैयार हो जाए। इस पेस्ट को प्रतिदिन सुबह शाम कुछ देर के लिए काले निशानों पर लगाकर रखा जाए और फिर धो लिया जाए, शीघ्र ही निशान दूर हो जाएंगे।
    कुन्दरू के फलों में कैरोटीन प्रचुरता से पाया जाता है जो विटामिन ए का दूत कहलाता है। कुन्दरू में कैरोटीन के अलावा प्रोटीन, फाइबर और कैल्शियम जैसे महत्वपूर्ण तत्व भी पाए जाते हैं। गुजरात के डाँगी आदिवासियों के बीच कुंदरू की सब्जी बड़ी प्रचलित है। इन आदिवासियों के अनुसार इस फल की अधकच्ची सब्जी लगातार कुछ दिनों तक खाने से आंखों की रोशनी बेहतर होती है। त्वचा की चमक और तेजपन बनाए रखने के लिए 2-3 कच्चे कुंदरुओं को प्रतिदिन चबाना लाभदायक होता है।


    औषधीय गुणों से भरपूर तुलसी के रस में थाइमोल तत्व पाया जाता है जिससे त्वचा के रोगों में लाभ होता है। पातालकोट के आदिवासी हर्बल जानकारों के अनुसार तुलसी के पत्तों को त्वचा पर रगड़ दिया जाए तो त्वचा पर किसी भी तरह के संक्रमण में आराम मिलता है। गर्मियों में घमौरियों के इलाज के लिए डाँग- गुजरात के आदिवासी संतरे के छिलकों को छाँव में सुखाकर पाउडर बना लेते है और इसमें थोड़ा तुलसी का पानी और गुलाबजल मिलाकर शरीर पर लगाते है, ऐसा करने से तुरंत आराम मिलता है।
    चेहरे की त्वचा को साफ पानी से धो लिया जाए और इस पर कपास की मदद से नींबू का रस लगाया जाए तो चेहरे के छिद्रों पर तेल और मृत कोशिकाओं के जमावड़े को हटाया जा सकता है और त्वचा खूबसूरत भी दिखाई देती है।

    कुछ आदिवासी हर्बल जानकार चेहरे पर गर्म पानी की भाप लेने की सलाह देते हैं। इनके अनुसार एक चौड़े बर्तन में गर्म खौलता पानी डाल दिया जाए और पूरे सिर पर तौलिया डालकर खौलते पानी से निकल रही भाप को चेहरे के संपर्क में लाया जाए जिससे छिद्रों में उपस्थित गंदगी और तेल बाहर निकल आते है। कुछ देर बाद चेहरे पर कपास को हल्का-हल्का रगड़कर चेहरा साफ़ कर लिया जाए और फिर चेहरे पर नींबू रस लगाया जाए। ऐसा सप्ताह में सिर्फ़ एक बार किया जाना काफी है। मुहांसे ठीक हो जाते है और चेहरे से दाग-धब्बे भी मिट जाते हैं।



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हर्बल नुस्खा (herbal health tips)



 डॉ दीपक आचार्य


 सिर्फ घास नहीं औषधि भी है दूब

हिन्दू धर्म शास्त्रों में दूब घास को बेहद पवित्र माना गया है। हर शुभ काम में इसका इस्तेमाल होता है। दूब घास खेल के मैदान, मंदिर परिसर, बाग-बागीचों और खेत खलिहानों में पाई जाती है। आदिवासियों के अनुसार इसका प्रतिदिन सेवन शारीरिक स्फूर्ति प्रदान करता है और शरीर को थकान महसूस नहीं होती है।
वैसे आधुनिक विज्ञान के अनुसार भी दूब घास एक शक्तिवर्द्धक औषधि है क्योंकि इसमें ग्लाइकोसाइड, अल्केलाइड, विटामिन-ए  विटामिन-सी की पर्याप्त मात्रा पाई जाती है। इसका लेप मस्तक पर लगाने से नकसीर ठीक होती है। पातालकोट में आदिवासी नाक से खून निकलने पर ताजी और हरी दूब का रस 2-2 बूंद नाक में डालते हैं जिससे नाक से खून आना बंद हो जाता है।


लू से बचना है तो शहतूत खाइये

इन दिनों शहतूत के फल खूब देखे जा रहे हैं। पातालकोट ही नहीं, बल्कि पूरे देश में इसके फलने का मौसम जारी है। इसके खास औषधीय गुण हैं और खासतौर से गर्मियों में लू से निपटने के लिए इसका खूब इस्तेमाल किया जाता है।
पातालकोट के आदिवासी गर्मी के दिनों में शहतूत के फलों के रस में चीनी मिलाकर पीने की सलाह देते हैं। उनके अनुसार शहतूत की तासीर ठंडी होती है जिसके कारण गर्मी में होने वाले सन स्ट्रोक से बचाव होता है। शहतूत का रस हृदय रोगियों के लिए भी लाभदायक है। गर्मियों में बार-बार प्यास लगने की शिकायत होने पर इसके फलों को खाने से प्यास शांत हो जाती है।

मसूड़ों से खून आए तो आजमाएं ये नुस्खा

मसूडों से खून आ रहा? इसे रोकने के नुस्खे के बारे में बता रहे हैं हमारे हर्बल आचार्य डॉ. दीपक आचार्य। अनार छीलने के बाद छिलकों को फेंके नहीं, इन्हें बारीक काटकर मिक्सर में थोड़े पानी के साथ डालकर पीस लें। बाद में इसे मुंह में डालकर कुछ देर कुल्ला करें और थूक दें, दिन में दो तीन बार ऐसा करने से मसूड़ों और दांतों पर किसी तरह के सूक्ष्मजीवी संक्रमण हो तो, काफी हद तक आराम मिल जाता है।
जिन्हें मसूड़ों से खून निकलने की शिकायत हो उन्हें यह फार्मुला बेहद फायदा करेगा। सैकड़ों साल से आजमाए जाने वाले इस आदिवासी फार्मुलों के असर को वैज्ञानिक परिक्षण के तौर पर सिद्ध किया जा चुका है। स्ट्रेप्टोकोकस मिटिस और स्ट्रेप्टोकोकस संगस नामक बैक्टिरिया की वजह से ही जिंजिवायटिस और कई अन्य मुख रोग होते हैं और इनकी वृद्धि को रोकने के लिए अनार के छिलके बेहद असरकारक होते हैं। आजमाएं जरूर इस नुस्खे को, असर दिखकर रहेगा, दावा है मेरा।

अर्टिकेरिया में कारगर अदरक

आदिवासी अंचलों में अर्टिकेरिया नामक एलर्जी (शरीर पर लाल चकत्तों का बनना) जो कि एक इंफ्लेमेशन है, से निपटने के लिए ताज़े अदरक को कुचलकर रस तैयार किया जाता है और इसका लेप सारे शरीर पर दिन में कम से कम 4 बार किया जाता है।
जानकारों का मानना है कि ऐसा लगातार करने से आर्टिकेरिया की परेशानी से आराम मिल जाता है। कुछ इलाकों में आदिवासी महुए की फलियों से निकाले गए तेल को शरीर पर लगाते  हैं। इनका मानना है कि ये तेल शरीर के बाहरी हिस्सों पर हुयी किसी भी तरह की एलर्जी को दूर करने में बेहद कारगर साबित होता है।

चेहरे से दाग मिटाये पान

पान के एक पत्ते को कुचल लिया जाए और इसमें एक चम्मच नारियल का तेल मिला लिया जाए। इसे चेहरे या शरीर के किसी भी हिस्से पर बने दाग, काले निशान या धब्बों पर लगाकर कुछ देर रखा जाए और फिर धो लिया जाए। ऐसा सप्ताह में कम से कम 2 से 3 बार किया जाए तो 3 महीने के भीतर निशान मिट सकते हैं।

मासिक धर्म की समस्याओं के लिए ज्वार

 मासिक धर्म से जुड़े विकारों के समाधान के लिए आदिवासी ज्वार के भुट्टे को जलाकर छानते हैं और राख संग्रहित कर लेते हैं। इस राख की ३ ग्राम मात्रा लेकर सुबह खाली पेट मासिक-धर्म चालू होने से लगभग एक सप्ताह पहले देना शुरु करते है। जब मासिक-धर्म शुरू हो जाए तो इसका सेवन बंद करवा दिया जाता है, इनके अनुसार इससे मासिक-धर्म के सभी विकार नष्ट हो जाते हैं।




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बड़े काम की इमली (Tamarind)

 बड़े काम की इमली

इमली का पेड़ सम्पूर्ण भारतवर्ष में पाया जाता है। इसके अलावा यह अमेरिका, अफ्रीका और कई एशियाई देशों में पाया जाता है। इमली के पेड़ बहुत बड़े होते हैं। आठ वर्ष के बाद इमली का पेड़ फल देने लगता है। फरवरी और मार्च के महीनों में इमली पक जाती है। इमली शाक (सब्जी), दाल, चटनी वगैरह कई चीजों में डाली जाती है।

इमली की लकड़ी बहुत मजबूत होती है। इस कारण लोग इसकी लकड़ी से कुल्हाड़ी के दस्ते भी बनाते हैं। इसे इंडियन डेट भी कहा जाता था क्योंकि यह फल देखने में खजूर के सूखे गूदे की तरह लगता था। चटखारेदार और मुंह में पानी लाने वाली इमली स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होती है। इसमें कैरोटीन, विटामिन सी और बी पाया जाता है। पित्त विकार, पीलिया और सर्दी के उपचार में इसका उपयोग किया जाता है। इमली की पत्तियों का पेस्ट सूजन के अलावा दाद पर भी लगाया जाता है। इससे लाभ मिलता है। इमली के पानी के गरारे गले की खराश के इलाज में लाभकारी हैं। इमली को पानी में उबाल कर गरारा कर सकते हैं या इसकी सूखी पत्तियों का पाउडर पानी में मिला कर उपयोग में लाया जा सकता है।

गर्मी में बाहर निकलने से शरीर में डी-हाइड्रेशन हो जाता है या फिर लू लग जाती है। इससे बचने के लिए लू के समय बाहर निकलने पर इमली का शर्बत पी लेने पर लू की आशंका नहीं रहती। साथ ही धूप में रहने से पैदा हुए सिरदर्द को भी दूर करता है। इमली के कुछ हानिकारक प्रभाव भी हैं जैसे कच्ची इमली भारी, गर्म और अधिक खट्टी होती है जिन्हें इमली अनुकूल नहीं होती है, उन्हें पकी इमली से भी दान्तों का खट्टा होना, सिर और जबड़े में दर्द, सांस की तकलीफ, खांसी और बुखार जैसे दुष्परिणाम हो सकते हैं।

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आज का नुस्खा (Helth Tips)

 मोटापा भगाए चाय

 डॉ दीपक आचार्य

इन आदिवासियों के अनुसार ज्यादा देर तक उबली चाय का सेवन किया जाए तो मोटापा कम होता है और वैज्ञानिक तथ्य भी यही कहते है कि चाय को ज्यादा देर तक उबाला जाए तो टैनिन रसायन निकल आता है और यह रसायन पेट की भीतरी दीवार पर जमा हो भूख को मार देता है।

दिल की बीमारी में रामबाण है तुलसी

दिल की बीमारी में तुलसी एक वरदान है, क्योंकि ये खून में कोलेस्ट्राल को नियंत्रित करती है। जिन्हें हार्टअटैक हुआ हो, उन्हें तुलसी के रस का सेवन नियमित रूप से करना चाहिए। तुलसी और हल्दी के पानी का सेवन करने से शरीर में कोलेस्ट्राल की मात्रा नियंत्रित रहती है और कोई भी इसका सेवन कर सकता है।


गाउट में कारगर अदरक

गाउट और पुराने गठिया रोग में अदरक एक अत्यन्त लाभदायक औषधि है। अदरक लगभग (5 ग्राम) और अरंडी का तेल (आधा चम्मच) लेकर दो कप पानी में उबाला जाए ताकि यह आधा शेष रह जाए। प्रतिदिन रात्रि को इस द्रव का सेवन लगातार किया जाए तो धीमें-धीमें तकलीफ़ में आराम मिलना शुरू हो जाता है। आदिवासियों का मानना है कि ऐसा लगातार 3 माह तक किया जाए तो पुराने से पुराना जोड़ दर्द भी छू-मंतर हो जाता है।


अरंडी के तेल से बढ़ाएं नाखूनों की चमक

अरंडी के तेल को नाखूनों की सतह पर कुछ देर हल्के-हल्के मालिश करिए, प्रतिदिन सोने से पहले ऐसा किया जाए तो नाखूनों में जबरदस्त खूबसूरती और चमक आ जाती है। पातालकोट मध्यप्रदेश के आदिवासियों के अनुसार ऐसा करने से नाखूनों पर बन आए सफ़ेद निशान या धब्बे (ल्युकोनायसिया) भी मिट जाते हैं।

चींटियों को भगाने का हर्बल नुस्खा आज़माइये

अक्सर शक्कर के डिब्बे और चावल के बोरों या चावल इकठ्ठा किए बर्तनों में चींटियों को घूमते फिरते देखा जा सकता है और इससे हम सभी त्रस्त हो जाते हैं। करीब 2-4 लौंग को इन डिब्बों में डाल दीजिए और फिर देखिए चींटियां किस तरह से नदारद होती हैं। अक्सर आदिवासी खाना पकाने बाद आस-पास 1 या 2 लौंग को बर्तनों के पास रख देते हैं। मज़ाल है आस-पास कोई चींटी भटके।


डार्क सर्कल से यूं पाएं छुटकारा

कच्चे आलू के गोल टुकड़ों को 15 से 20 मिनट तक आंखों के ऊपर रख दिया जाए और बाद में ठंडे पानी से धो लिया जाए तो बहुत फायदा करता है। टमाटर के 1 चम्मच रस के साथ 1 चम्मच नींबू रस मिलाया जाए और डार्क सर्कल्स वाले हिस्सों पर लगाया जाए जाए करीब 15 से 25 मिनट के बाद इसे साफ पानी से धो लिया जाए। ऐसा रोज़ाना रात सोने से पहले से किया जाए तो जल्द ही डार्क सर्कल्स छू मंतर हो सकते हैं।

चेहरे की झुर्रियां मिटाए सेब


सेब के एक चौथाई हिस्से को कुचल लिया जाए और इसमें कुछ मात्रा में कच्चा दूध (10 मि.ली.) मिला लिया जाए और रोज चेहरे पर लगाया जाए। जब ये सूख जाए तो इसे धो लिया जाना चाहिए। हफ्ते में कम से कम 4 बार ऐसा करने से चेहरे की झुर्रियां दूर होने लगती हैं।


कई मर्जों का एक इलाज लहसून

नमक और लहसून का सीधा सेवन खून को शुद्ध करता है। जिन्हें रक्त में प्लेटलेट्स की कमी होती है उन्हें भी नमक और लहसून की समान मात्रा सेवन करनी चाहिए। लहसून के एंटीबैक्टीरियल गुणों को आधुनिक विज्ञान भी मानता है, लहसून का सेवन बैक्टीरिया जनित रोगों, दस्त, घावों, सर्दी-खांसी और बुखार में बहुत फायदेमंद है। लहसून की 2 कच्ची कलियां सुबह खाली पेट चबाने के आधे घंटे बाद मुलेठी के चूर्ण आधा चम्मच सेवन दो महीने तक लगातार करने से दमा जैसी घातक बीमारी से हमेशा के लिए छुट्टी मिल जाती है।

प्याज़ है बड़े काम की सब्ज़ी

प्याज़ में ग्लुटॉमिन, अर्जीनाइन, सिस्टन, सेपोनिन और शर्करा पायी जाती है। प्याज के बीजों को सिरका में पीसकर त्वचा पर लगाने से दाद-खाज और खुजली में अतिशीघ्र आराम मिलता है। प्याज के रस को सरसों के तेल में मिलाकर जोड़ों पर मालिश करने से आमवात, जोड़ दर्द में आराम मिलता है। वृद्धों और बच्चों को ज्यादा कफ हो जाने की दशा में प्याज के रस में मिश्री मिलाकर चटाने से फायदा मिलता है। प्याज के रस और नमक का मिश्रण मसूड़ों की सूजन और दांत दर्द को कम करता है।

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खइके पान बंगलुरू वाला

 खइके पान बंगलुरू वाला

 वसंती हरिप्रकाश


उस मीटिंग के वक्त मेरे लिए खुद को संभाल पाना बड़ा मुश्किल सा हो रहा था, मेरे लिए एक जगह पर सीधा खड़ा होना या बैठ पाना भी कठिन हो रहा था। यूं लगा जैसे मेरे पेट की अतडि़यां तक बाहर निकल आएंगी, वो ऐसा पेट दर्द था जिसे मैनें शायद इससे पहले कभी इतना महसूस नहीं किया था।अचानक उल्टियों के होने का आभास और फिर पेट में अजीब सी मरोड़ें, ये सब मेरे लिए बिल्कुल नया, पहली बार होने वाला और बहुत दर्दनाक था।

मुझे चलते रहना पसंद है, चाहे घरेलू काम-काज या फिर घर की चार दीवारियों से बाहर का काम या किसी खास मिशन पर यात्राएं, शरीर के चलते रहने में स्वास्थ्य संबंधी गम्भीर दिक्कतों का सामना कम ही होता है और जिस तरह की मेरी अपनी घुमक्कड़ और व्यस्त जीवनशैली है उसमें यदाकदा सरदर्द होना आम बात है, लेकिन दर्दनिवारक उपायों और अच्छी नींद के बाद ये भी छू मंतर भी हो जाते रहे हैं लेकिन, ये पेट दर्द असहनीय था, ये मेरी समझ से बाहर था कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है?

मीटिंग के दौरान नजदीक बैठे एक मित्र ने फटाफट मुझे एक नजदीकी क्लीनिक ले जाने की व्यवस्था कर दी। डॉक्टर ने परीक्षण कर मुझे एक इंजेक्शन दे दिया। इससे पहले कि हालात सुधर पाते, वो तूफान फिर जोर-शोर से अवतरित हुआ, इस बार दर्द पिछली बार की तुलना में ज्यादा भयंकर और दर्दकारक था और इस दर्द के साथ 7 से 8 बार उल्टियों का होना मेरी जान लिए जा रहा था। इस बार घर के नजदीक एक अन्य डॉक्टर के पास मुझे ले जाया गया। डॉक्टर ने एक बार फिर दर्द निवारक और एंटीबॉयोटिक गोलियों का गुलदस्ता भेंट कर दिया लेकिन मैंने ठान ली कि हालात भले बिगड़ जाएं लेकिन मुझे एंटीबॉयोटिक्स का कोर्स नहीं लेना है। मेरा हमेशा से मानना रहा है कि यथासंभव एंटिबॉयोटिक्स से दूर रहना ही बड़ी समझदारी है। शरीर को प्राकृतिक तौर तरीकों से ठीक किया जाना लंबे समय तक फायदा देता है। आजकल डॉक्टर्स के द्वारा रोगी को देखते ही एंटिबॉयोटिक्स दे देना चिकित्सा का सबसे पहला पायदान होता है जो कि घातक है। एंटिबॉयोटिक्स शरीर में पहुंचकर हमारी रोगप्रतिरोधक क्षमता की बैंड बजा देते हैं।

गाँव कनेक्शन के प्रचलित स्तंभकार “हर्बल आचार्य” डॉ दीपक आचार्य के एक लेख की बातें याद है मुझे जिसमें उन्होंने बताया था कि रोगोपचार की विधि तार्किक और न्यायसंगत नहीं होगी तो समस्याएं कम होने के बजाए दुगुनी ही होती चली जाएंगी। रसायनों और कृत्रिम रूप से तैयार आधुनिक औषधियों की शरण में जाकर त्वरित उपचार तो हो सकता है लेकिन पूर्णरूपेण नहीं। 

बस, मुझे हर्बल उपचार ही करना था।

बैंगलूरू के प्रख्यात वनस्पतिशास्त्री डॉ. बालकृष्णन नायर और उनके साथी आयुर्वेद, सिद्धा, यूनानी और कई अन्य हिन्दुस्तानी चिकित्सा पद्धितियों और पाश्चात्य शैली के औषधीय विज्ञान के साथ रोगनिवारण के नए आयामों की खोज में लगे हुए हैं। मुझे डॉ नायर की एक सलाह याद आई और इस सलाह का अमलीकरण अगली सुबह हो गया। मैनें अपने किचन गार्डन से पान की तीन पत्तियों को तोड़ा, उन्हें साफ धोया और उसकी डंठल अलग कर दी। पानी की पत्तियों पर तीन काली मिर्च और चुटकी भरी नमक डालकर, इसे मोड़कर मुंह में डाल लिया। इसे मुंह में रखकर आहिस्ता-आहिस्ता चबाना होता है ताकि धीमे-धीमे पान की पत्तियों और कालीमिर्च का रस पेट तक पहुंचे और अपना असर दिखाना शुरु करे। इसके अलावा पानी की शारीरिक पूर्ति बनाए रखने के लिए नारियल पानी, छाछ और पानी का सेवन पूरे दिन भर करती रही। दर्द से बचे रहने के लिए एक गोली दर्दनिवारक की भी बतौर सावधानी ले ली। मुझे त्वरित आराम मिला, मैं दर्द से खुद को आज़ाद महसूस कर पा रही थी।

डॉ नायर को फोन लगाकर इस पूरे केस की जानकारी भी दी। उनके अनुसार “ये फार्मूला बहुत असरकारक है, चाहे शरीर में एलर्जी हो या कोई जहरीला दुष्प्रभाव, ये दुष्प्रभाव ना सिर्फ खाना-पान की गड़बड़ी वाले हो सकते हैं बल्कि सर्पदंश में भी यही नुस्खा काफी कारगर है। इस फार्मूले का सेवन कम से कम तीन दिन किए जाने की सलाह डॉ नायर देते हैं। बातों बातों में डॉ नायर ने यह भी बताया कि अनार के छिलकों को भी नहीं फेंका जाना चाहिए। छिलकों को सुखा लें, पाउडर तैयार करें और जब भी पेट दर्द की शिकायत हो, एक चम्मच चूर्ण को 100 मिली छाछ के साथ लें तो दर्द गायब हो जाता है।

हर्बल मेडिसिन्स को किसी अन्य तरह के ट्रीटमेंट चलने की दशा में एक घंटे अंतराल के बाद ही लेने की सलाह एक्सपर्ट्स देते हैं। डॉ. पशुओं पर ज्यादा डोज़ के साथ इसी नुस्खे को आजमा चुके हैं और परिणाम काफी सकारात्मक हैं।


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कॉर्न सिल्क का शरबत




सेहत की रसोई कॉलम में हम अपने पाठकों के लिए लेकर आते हैं एक से बढ़कर एक पारंपरिक व्यंजनों से जुड़ी कई नायाब जानकारियां और इन व्यंजनों के औषधीय गुणों की जानकारी देते हैं हमारे ‘हर्बल आचार्य’ डॉ दीपक आचार्य। सेहत और किचन का तड़का हर सप्ताह एक खास व्यंजन के साथ हम परोसते हैं, अपने सभी पाठकों के लिए। सेहत की रसोई यानि बेहतर सेहत आपके बिल्कुल करीब। हमारे बुजुर्गों का हमेशा मानना रहा है कि सेहत दुरुस्ती के सबसे अच्छे उपाय हमारी रसोई में ही होते हैं। इस कॉलम के जरिये हमारा प्रयास है कि आपको आपकी किचन में ही सेहतमंद बने रहने के व्यंजन से रूबरू करवाया जाए। सेहत की रसोई में इस सप्ताह हमारे मास्टरशेफ भैरव सिंह राजपूत पाठकों के लिए ला रहे हैं ‘कॉर्न सिल्क का शरबत’

आवश्यक सामग्री

    ताजे हरे मक्के- 2
    तुलसी- 4 पत्ते
    नींबू- 1
    काला नमक- स्वादानुसार
    मिसरी- 20 ग्राम
    पानी- 500 मिली

विधि

ताजे हरे २ मक्के लेकर इनके सिल्क कॉर्न (चमकती बालियां या रेशमी बाल जो एक छोर पर दिखाई देते हैं) निकाल लें। इन सिल्क कॉर्न को साफ धो लिया जाए। एक गोल घेरे वाले गहरे बर्तन में आधा लीटर पानी लें और उसमें इन सिल्क कॉर्न को डाल दें। इन्हें करीब 10 मिनट तक उबलने दिया जाए। जब ये अच्छी तरह से उबल जाए तो इसे एक किनारे ठंडा होने के लिए रख दिया जाए। करीब एक घंटे बाद इसे छान लें। एक नींबू से रस निकालें और रस को इस पानी में डाल दें। इसी में मिसरी और काला नमक भी डाल दें। बाद में इसे रेफ्रिजरेट कर दें। जब यह अच्छी तरह से ठंडा हो जाए तो कांच के गिलास में खाली कर दें। सजाने के लिए इसपर तुलसी की पत्तियां डाल दें। इस तरह तैयार हो जाएगा २ लोगों के लिए कूल कूल कॉर्न सिल्क शरबत। अब इसके गुणों की बात तो हमारे हर्बल आचार्य ही करेंगे।

क्या कहते हैं हर्बल आचार्य

मक्का कमाल की औषधि है और इसके हर अंग अपने खास गुणों की वजह से परंपरागत हर्बल ज्ञान का हिस्सा हैं। शरीर में यूरिक एसिड की अधिकता होने पर जोड़ों पर जबरदस्त दर्द का अनुभव होता है। गाऊट, आर्थरायटिस, सायटिका, न्युरायटिस और यकृत की कमजोरी होना इसका प्रमुख लक्षण है। सिल्क कॉर्न यानि मक्के की बालियों का काढ़ा (एक कप) प्रतिदिन लेने से यह टॉक्सिन बाईंडर की तरह कार्य करता है और शरीर से अधिक मात्रा में बने यूरिक एसिड को बाहर निकाल फेंकता है। वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित इस नुस्खे से मैनें काफी लोगों को फायदा पहुंचते देखा है। मास्टरशेफ की ये रेसिपी गर्मियों में आपको कूल कूल तो करेगी लेकिन आपकी सेहत को दुरुस्त करने में कमी नहीं छोड़ेगी। नींबू इस रेसिपी में चार चांद लगाता है और आपके शरीर के लिए आवश्यक विटामिन सी की पूर्ति भी करता है। तुलसी तनाव दूर करने में मददगार होती है। एक बात बताना तो भूला जा रहा था, मक्के के दानों को उबालकर, नींबू रस और काला नमक डालकर खाना मत भूलिएगा। अब देरी किस बात की? मजे से स्वाद लें इस रेसिपी का और हमारी सेहत कनेक्शन टीम को शुक्रिया जरूर कहें।
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गर्मी में हो सकता है टायफाइड



लखनऊ। टायफाइड एक ऐसी बीमारी है, जिसमें पहले रोगी को तेज बुखार आता है और वो लगातार कई दिनों तक बना रहता है। यह बुखार कम-ज्यादा होता रहता है, लेकिन कभी सामान्य नहीं होता। टायफाइड का इन्फेक्शन होने के एक सप्ताह बाद रोग के लक्षण नजर आने लगते हैं।

टायफाइड के लक्षण और उपचार के बारे में लखनऊ के डॉ एमए खान बता रहे हैं-

कैसे फैलती है बीमारी

टायफाइड का कारण ‘साल्मोनेला टाइफी’ नामक बैक्टीरिया का संक्रमण होता है। साल्मोनेला टाइफी बैक्टीरिया केवल मानव में छोटी आंत में पाए जाते हैं। ये मल के साथ निकल जाते हैं, जब मक्खियां मल पर बैठती हैं तो बैक्टीरिया इनके पांव में चिपक जाते हैं और जब यही मक्खियां खाद्य पदार्थों पर बैठती हैं, तो वहां ये बैक्टीरिया छूट जाते हैं। इस खाद्य पदार्थ को खाने वाला व्यक्ति इस बीमारी की चपेट में आ जाता है। शौच के बाद संक्रमित व्यक्ति का हाथ ठीक से न धोना और भोजन बनाना या भोजन को छूना भी रोग फैला सकता है।

लक्षण

    सामान्य से तेज़ बुखार, तापमान एक सा नहीं रहना
    पेट दर्द रहना
    थकान होना
    मल का रंग बदलना
    ध्यान केंद्रित ना कर पाना
    कमज़ोरी रहना

टायफाइड से बचाव

सफाई से बना हुआ खाना खाएं और खाना खाने और खाना बनाने से पहले ठीक तरह से हाथ धुलें। पीने के लिए साफ पानी का ही प्रयोग करें। पहले से कटे हुए फल ना खाएं। इस रोग का उपचार एंटीबॉयोटिक्स द्वारा सरलता से हो सकता है, बशर्ते समय पर इलाज की प्रक्रिया शुरू हो जाए। बुखार ठीक हो जाने पर भी एंटीबायोटिक्स का कोर्स 10 से 14 दिनों तक अवश्य पूरा करें क्योंकि इसमें ठीक होने के बाद रोग दोबारा होने की संभावना रहती है। टायफाइड का टीका दो वर्ष की उम्र के बाद प्रत्येक तीन साल पर गर्मी शुरू होने के पहले ही लगवा लेना चाहिए।

घरेलू इलाज

    पान का रस, अदरक का रस और शहद को बराबर मात्रा में मिलाकर सुबह-शाम पीने से आराम मिलता है।
    यदि जुकाम या सर्दी-गर्मी में बुखार हो तो तुलसी, मुलेठी, गाजवां, शहद और मिश्री को पानी में मिलाकर काढा बनाएं और पिएं। इससे जुकाम सही हो जाता है और बुखार भी जल्दी ही उतर जाता है।
    इसके लिए 20 तुलसी की पत्तियां, 20 काली मिर्च, थोड़ी सी अदरक, जरा सी दालचीनी को पानी में डालकर खूब खौलाएं। अब इस मिश्रण को आंच से उतारकर छानें और इसमें मिश्री या चीनी मिलाकर गर्म-गर्म पिएं।
    बुखार में रोगी को ज्यादा से ज्यादा आराम की जरूरत होती है। भोजन का खास ख्याल रखें। बुखार होने पर दूध, साबूदाना, चाय, मिश्री आदि हल्की चीजें खाएं। पानी खूब पिएं और पीने के पानी को पहले गर्म करें और उसे ठंडा होने के बाद पिएं।
    तेज बुखार आने पर माथे पर ठंडे पानी का कपड़ा रखें तो बुखार उतर जाता है और बुखार की गर्मी सिर पर नहीं चढ़ती है।
    घरेलू दवाओं से यदि आपको आराम न मिले, तो तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें और उसके निर्देशानुसार इलाज करवाएं।






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लगातार जुकाम से हो सकता है साइनस



कई बार सर्दी या किसी एलर्जी की वजह से नाक में बलगम जम जाता है। नाक की हड्डियों के छिद्र बंद हो जाते हैं और इंफेक्शन हो जाता है। यह साइनस कहलाता है। इसमें गले की हड्डियां छूने में भी दर्द होती हैं। इस बारे में बता रहीं हैं नाक,कान गला रोग विशेषज्ञ डॉ. रूचिर धवन-

लक्षण

    आवाज में बदलाव
    सिर दर्द
    सिर का भारी लगना
    नाक या गले में बलगम आना
    हल्का बुखार, आंखों में पलकों के ऊपर या दोनों किनारों पर दर्द रहना
    तनाव या निराशा
    चेहरे पर सूजन व नाक से पीला या हरे रंग का रेशा भी गिरता है।

उपाय

भाप लें

बारी-बारी दोनों नाक साफ  करने के बाद एक बर्तन में पानी उबालें। फिर डॉक्टर द्वारा बताई गई दवा उचित मात्रा में डालकर कपड़ा ढककर नाक व मुंह से लंबी-लंबी सांस आठ से दस मिनट तक लें।

सिकाई करें

गर्म कपड़ा या फिर गर्म पानी की बोतल गालों के ऊपर रखकर सिकाई करनी चाहिए। ऐसा लगभग एक-एक मिनट दिन में तीन बार करना चाहिए। इससे काफी आराम मिलता है।

नाक की सफ़ाई

नाक की सफाई करने से भी सिरदर्द कम करने में काफी मदद मिलती है। माना जाता है कि नाक की झिल्ली पर अनेक प्रकार के वायरस, बैक्टीरिया, फफूंदी और धूल-मिट्टी के कण होते हैं, जिनको साफ  करने से बीमारी को आगे बढ़ने से रोका जा सकता है। नाक को साफ  करने के लिए आधा गिलास गुनगुना पानी लेकर उसमें एक चम्मच मीठा सोडा या एक चुटकी नमक मिलाएं, फिर फिर उस पानी को हथेली में लेकर नाक में पानी खींचकर आगे निकाल दें। इस प्रक्रिया से नाक बिल्कुल साफ  हो जाती है और सिरदर्द सेे आराम मिलती है। 

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ज़मीन के अंदर तैयार सेहत का खज़ाना



चाहे अदरक हो या प्याज, लहसुन हो या सूरनकंद इन सभी पौधों के जमीन के भीतर उगने वाला अंग सर्वाधिक औषधीय गुणों वाला होता है। आदिवासी हर्बल जानकारों की मानी जाए तो जमीन के भीतर पनपने वाले पादप अंग खाद्य पदार्थों को संचित रखते हैं और इन अंगों में मानव शरीर को ताकत देने की जबरदस्त क्षमता तो होती ही है इसके अलावा इनमें कई महत्वपूर्ण औषधीय गुण भी पाए जाते हैं। चलिए इस बार पाठकों को ऐसे ही कुछ चिर परिचित औषधियों से परिचित करवाता हूं, जो आदिवासियों के प्रचलित हर्बल ज्ञान का अभिन्न हिस्सा हैं।

अदरक

सभी प्रकार के जोड़ों की समस्याओं में रात्रि में सोते समय लगभग ४ ग्राम सूखा अदरक,जिसे सोंठ कहा जाता है, नियमित लेना चाहिए। स्लिपडिस्क या लम्बेगो में इसकी इतनी ही मात्रा चूर्ण रूप में शहद के साथ ली जानी चाहिए। दो चम्मच कच्ची सौंफ और ५ ग्राम अदरक एक ग्लास पानी में डालकर उसे इतना उबालें कि एक चौथाई पानी बच जाए। एक दिन में ४ बार लेने से पतला दस्त ठीक हो जाता है। गैस और कब्जियत में भी अदरक काफी लाभदायक होता है।

अरबी

अरबी का कंद, शक्ति और वीर्यवर्धक होता है, यह शरीर को मजबूत बनाती हैं। आदिवासी हर्बल जानकारों की मानी जाए तो अरबी के कंदों की सब्जी का सेवन प्रतिदिन करने से हृदय मजबूत होता है। अरबी के कंदों को उबालकर बारीक बारीक चिप्स की तरह काटकर रोस्ट करके या तेल में तलकर खाने से पेट के कीड़े शौच के साथ बाहर निकल आते हैं।

गाजर


गाजर में प्रोटीन, कार्बोहाईड्रेट, चर्बी, फास्फोरस, स्टार्च तथा कैल्शियम के अलावा केरोटीन प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। गाजर के सेवन से शरीर मुलायम और सुन्दर बना रहता है तथा शरीर में शक्ति का संचार होता है और वजन भी बढ़ता है। बच्चों को गाजर का रस पिलाने से उनके दांत आसानी से निकलते हैं और दूध भी ठीक से पच जाता है।

हल्दी


हल्दी में उड़नशील तेल, प्रोटीन, खनिज पदार्थ, कारबोहाईड्रेट और कुर्कुमिन नामक एक महत्वपूर्ण रसायन के अलावा विटामिन A भी पाए जाता है। हल्दी मोटापा घटाने में सहायक होती है। हल्दी में मौजूद कुर्कुमिन शरीर में जल्दी घुल जाता है। यह शरीर में वसा वाले ऊतकों के निर्माण को रोकता है। पारंपरिक हर्बल जानकारों की मानी जाए तो यह शरीर के किसी भी अंग में होने वाले दर्द को आसानी से कम कर देती है। यदि दर्द जोड़ों का हो तो हल्दी चूर्ण का पेस्ट बनाकर लेप करना चाहिए। आधुनिक शोधों से पता चलता है कि हल्दी एल डी एल कोलेस्ट्रॉल को कम करती है जिससे हृदय संबंधी रोग होने का खतरा कम हो सकता है।

जंगली प्याज

जंगली प्याज के कंद साधारण प्याज की तरह ही दिखाई देते हैं। जिन्हें पेशाब के साथ वीर्य जाने की शिकायत हो, उन्हें कम से कम एक कंद प्रतिदिन कुल १५ दिनों तक चबाने से फायदा होता है। जंगली प्याज के कंदों को कुचलकर रस प्राप्त कर लिया जाए और तालुओं पर लगाएं तो जलन की समस्या का निवारण हो जाता है।

दारू हल्दी

दारू हल्दी के गुण भी हल्दी के समान ही होते हैं और विशेषत: इस उपयोग घावों, प्रमेह, खुजली, और रक्तविकार आदि में होता है। यह एक जबरदस्त एंटीसेप्टिक पौधा है यही कारण है कि इसका प्रयोग आंतरिक एवं बाहरी दोनों तरह के संक्रमण के ठीक करने के लिए किया जाता है।

प्याज

प्याज में ग्लुटामिन, अर्जीनाइन, सिस्टन, सेपोनिन और शर्करा पाई जाती है। प्याज के बीजों को सिरका में पीसकर लगाने से दाद-खाज और खुजली में अतिशीघ्र आराम मिलता है। प्याज के रस को सरसों के तेल में मिलाकर जोड़ों पर मालिश करने से आमवात, जोड़ दर्द में आराम मिलता है। प्याज के रस और नमक का मिश्रण मसूड़ो की सूजन और दांत दर्द को कम करता है।

लहसुन



आदिवासी अंचलों में इसे वात और हृदयरोग के लिए अत्यंत उपयोगी माना जाता है। जिन्हें जोड़ो का दर्द, आमवात जैसी शिकायतें हो, लहसुन की कच्ची कलियां चबाना उनके लिए बेहद फायदेमंद होता है। बच्चों को यदि पेट में कृमि (कीड़े) की शिकायत हो तो लहसुन की कच्ची कलियों का २0  बूंद रस एक गिलास दूध में मिलाकर देने से कृमि मर कर शौच के साथ बाहर निकल आते हैं। सरसों के तेल में लहसुन की कलियों को पीसकर उबाला जाए और घावों पर लेप किया जाए, घाव तुरंत ठीक होना शुरू हो जाते हैं।

विदारीकंद

विदारीकंद के फल सुराल के नाम से प्रचलित हैं और इस पौधे को पातालकुम्हड़ा के नाम से भी जाना जाता है। इसके कन्द में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं। विदारीकंद के कंद की २० ग्राम मात्रा लेकर चूर्ण बना लिया जाए और प्रतिदिन ५ ग्राम की फांकी सुबह-शाम पानी के साथ ली जाए तो यकृत (लीवर) की अनियंत्रित वृद्धि पर रोक लगाई जा सकती है। लगभग एक पाव दूध में विदारीकंद के कंद का रस १० ग्राम मिलाकर तथा उबाल लिया जाए और सेवन किया जाए तो भूख मिटने लगती है। पातालकोट के आदिवासियों का मानना है कि इसके लगातार सेवन करने से मोटापा दूर होता है।

शतावरी

इसकी जड़ों मे सेपोनिन्स और डायोसजेनिन जैसे महत्वपूर्ण रसायन पाए जाते है। पेशाब के साथ खून आने की शिकायत हो तो, शतावरी की जड़ों का एक चम्मच चूर्ण, एक कप दूध में डालकर उबाला जाए और शक्कर मिलाकर दिन में तीन बार सेवन किया जाए तो तुरंत आराम मिलना शुरू हो जाता है। प्रसूता माता को यदि दूध नहीं आ रहा हो या कम आता हो तो शतावरी की जड़ों के चूर्ण का सेवन दिन में कम से कम ४ बार अवश्य करना चाहिए।

सूरनकंद

इसे प्रचलित भाषा में सूरन या जिमीकंद कहते हैं। सूरनकंद में मुख्य रूप से प्रोटीन, वसा, कार्बोहाईड्रेड्स, क्षार, कैल्शियम, फॉस्फोरस, लौह तत्व और विटामिन A व B पाए जाते हैं। इसका अधिकतर उपयोग बवासीर, स्वास रोग, खांसी आदि में किया जाता है। आदिवासी इस कंद को काटकर नमक के पानी में धोते हैं और बवासीर के रोगी को इसे कच्चा चबाने की सलाह देते है |

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शनिवार, 21 मई 2016

चुम्बक का रोगों में उपयोग



 परिचय-
        चुम्बक-चिकित्सा के सिद्धान्तों के अनुसार चुम्बक का प्रभाव पेड़-पौधे, सूक्ष्म-जीवाणुओं, पशुओं, मनुष्यों तथा कई प्रकार के जीवाणुओं पर होता है। चुम्बक का प्रभाव कई प्रकार के लोह पदार्थो तथा लोह पदार्थों से बनाई गई वस्तुओं पर भी होता है।

        बाकी चिकित्साओं की तरह चुम्बक चिकित्सा भी एक प्रकार की चिकित्सा प्रणाली की कला है। इस चिकित्सा के द्वारा भी विभिन्न प्रकार की बीमारियों को ठीक किया जाता हैं लेकिन इसके द्वारा इलाज कराने से पहले हमें ये जानने की आवश्यकता है कि चुम्बक का प्रभाव रोगी तथा रोगी के शरीर पर किस तरह से पड़ता है। चुम्बक के अपने गुण तथा उदार दृष्टिकोण के कारण ही, चुम्बक चिकित्सकों को इसके प्रयोग में महान सफलता मिली है। यहां तक कि कैंसर जैसे रोगों में भी चुम्बक चिकित्सा ने विजय पा ली है। यह जानकर आश्चर्य होता है कि कई प्रकार के रोगों को ठीक करने वाले तथा मानवता को सहायता देने वाली कोई न कोई प्राकृतिक शक्ति तो है जो प्राणि वर्ग तथा निर्जीव पदार्थो पर एकछत्र शासन करती है तथा उन सभी प्रश्नों का उत्तर दे सकती है जिनके बारे में चिकित्सा-विज्ञान अब तक सोच रहा है।

      हम जानते हैं कि चुम्बक सभी प्रकार के लोह पदार्थों तथा सभी सजीव पदार्थों को अपनी ओर आकर्षित करती है। इसलिए चुम्बक चिकित्सा के क्षेत्र में चुम्बक का प्रयोग किस प्रकार करे यह जानना बहुत जरूरी है। चुम्बक से रोगी को ठीक करने के अलग-अलग तरीके हैं। यह तरीके कौन-कौन से है यह भी जानना जरूरी है, चुम्बक का प्रयोग रोगी पर कितने समय तक करना चाहिए, चुम्बक से इलाज करते समय रोगी को कैसे बैठाना चाहिए, चुम्बक का प्रयोग किस समय करना चाहिए तथा इसके प्रयोग में कौन-कौन सी सावधानियां बरतनी चाहिए। विभिन्न प्रकार के रोगों में किस प्रकार के चुम्बक का प्रयोग करना चाहिए आदि बातों को जानना बहुत जरूरी है।

        हम जानते हैं कि इस संसार में चुम्बक विभिन्न रूप तथा आकार में पाई जाती है। कुछ छोटे छड़ वाले चुम्बक, तो कुछ चपटे सेरामिक चुम्बक। छोटे छड़ वाले चुम्बक की शक्ति कम पाई जाती है इसलिये चुम्बक चिकित्सा के क्षेत्र में प्रयोग करने के लिए ये चुम्बक बेकार है। इस प्रकार के छोटे चुम्बक अठारहवीं सदी के लोगों के लिए ही उपयोगी होते थे क्योंकि उस समय वायुमण्डल इतना दूषित नहीं था जितना कि आज है। उस समय में मनुष्य के शरीर पर क्रूर छाप छोड़ने वाली एण्टिबायोटिक औषधियां नहीं हुआ करती थी या हुआ करती थी तो उन लोगों को इन औषधियों के बारे में पता नहीं था। उस समय मनुष्य के रोगों को इतनी बुरी तरह नहीं दबाया जाता था और मनुष्य का चरित्र इतना नीचे नहीं गिरा हुआ था।

        आज की चिकित्सा प्रणालियों में रोगों से लड़ने के लिये तेज से तेज दवाइयों की जरूरत पड़ती है और इसी प्रकार हमें रोगों को समूल नष्ट करने के लिये शक्तिशाली चुम्बकों की जरूरत पड़ती है। अत: चुम्बक चिकित्सा प्रणाली में इस बात पर अधिक जोर दिया जाता है कि चुम्बक चिकित्सा में चुम्बकों का रूप, आकार व शक्ति कैसी हो। अब तक चुम्बक चिकित्सा के क्षेत्र में निम्नलिखित तीन प्रकार के चुम्बकों का प्रयोग अधिक मिलता है।

चुम्बक चिकित्सा के क्षेत्र में प्रयोग किये जाने वाले चुम्बक-

शक्तिशाली चुम्बक-

        इस प्रकार के चुम्बक में 2000 गौस की अधिक शक्ति पाई जाती है। इसलिए इनका प्रयोग बच्चों तथा बूढ़ों पर कम और जवानों पर ज्यादा किया जाता है। इन चुम्बकों का प्रयोग मनुष्य की हथेलियों तथा पैर के तलुवों पर किया जाता है। शक्तिशाली चुम्बकों का प्रयोग रोगग्रस्त भाग पर स्थानिक प्रयोग द्वारा किया जाता है।

        शक्तिशाली चुम्बकों का प्रयोग कशेरूका-सन्धिशोथ, सायटिका (गृध्रसी), कमर दर्द, गठिया, कष्टार्तव ( दर्द के साथ होने वाली माहवारी), अकौता, छाजन, पक्षाघात तथा पोलियो आदि रोगों पर किया जाता है।

मध्यम शक्ति के चुम्बक- इस प्रकार के चुम्बक में लगभग 500 गौस की शक्ति पाई जाती है। इन चुम्बकों का प्रयोग बच्चों के इलाज में अधिक किया जाता है। इन चुम्बकों का उपयोग बच्चों की हथेलियों तथा पैरों के तलुवों पर किया जाता है। जवान व्यक्ति भी कुछ रोगों में इन मध्यम शक्ति के चुम्बकों का उपयोग कर सकते हैं।

विभिन्न प्रकार के चुम्बक का चित्र

        मध्यम शक्ति के चुम्बक का प्रयोग निम्नलिखित रोगों में किया जाता है- कान दर्द ,दांत दर्द, कमर दर्द आदि रोग।

टेढ़े कम शक्ति के सेरामिक चुम्बक- इस प्रकार के चुम्बकों की शक्ति लगभग 200 गौस पाई जाती है। इस प्रकार के चुम्बक में कई प्रकार के टेढ़े मेढ़े आकार चुम्बक होते हैं तथा इनके आकार के कारण ही इन चुम्बकों को शरीर के कोमल अंगों जैसे- मस्तिष्क, आंखें, नाक, टांसिलों आदि में होने वाले रोगों में प्रयोग किया जाता है।

        टेढ़े कम शक्ति के सेरामिक चुम्बक का प्रयोग निम्नलिखित रोगों में किया जाता है- बौनापन, गलतुण्डिकाशोथ तथा अनिद्रा आदि रोग।

चुम्बकों का रखरखाव-

        चुम्बक चिकित्सा में पाये जाने वाले शक्तिशाली चुम्बक तथा मध्यम-शक्ति के चुम्बक, स्टील के खोल के अन्दर चारो ओर से (स्टील कवर) ढके होते हैं तथा कवर से ढके होने के कारण ये चुम्बक टूटते नहीं हैं जबकि सेरामिक चुम्बक अगर कठोर धरती पर गिर जाएं तो टूट सकते हैं। सभी प्रकार के चुम्बकों का रख-रखाव सावधानी पूर्वक करना चाहिए।  इन चुम्बकों को धारक के साथ जोड़ कर रखना चाहिए।

धारक- यह एक प्रकार की धातु से बनी पत्ती होती है। धारक चुम्बकों में किसी प्रकार की कमी आने से रोकता है। इसलिये चुम्बकों को इससे जोड़ कर सावधानीपूर्वक रखना चाहिए।

        अगर इन चुम्बकों को अच्छी तरीके से सावधानी-पूर्वक रखा जाये तो इन चुम्बकों की आकर्षण शक्ति काफी समय तक बनाकर रखी जा सकती है। फिर भी इन चुम्बकों का प्रयोग अनेक रोगियों पर करने के बाद इन चुम्बकों की कुछ शक्ति कम हो जाती है। इन चुम्बकों को दुबारा चुम्बकित करके इनकी मूल शक्ति को वापस लाया जा सकता है।

        चुम्बकित जल बनाने के लिये भी अक्सर शक्तिशाली चुम्बकों का प्रयोग किया जाता है क्योंकि इन चुम्बकों में अधिक शक्ति पाई जाती है और इन चुम्बको की आकर्षण शक्ति जल्दी ही जल में प्रवेश कर जाती है। ये चुम्बक पानी को अधिक चुम्बकीय शक्ति प्रदान करते हैं। अन्य दो प्रकार की चुम्बकों की अपेक्षा उसमें अपेक्षित परिवर्तन ला सकते हैं। इन चुम्बकों द्वारा बहुत अधिक मात्रा में जल बनाया जा सकता है क्योंकि इन चुम्बकों पर पानी से भरे हुए बड़े आकार के जार तथा जग भी आसानी से रखे जा सकते हैं।

        चुम्बक चिकित्सा में तीन प्रकार के ही चुम्बकों का प्रयोग किया जाता है फिर भी आवश्यकता पड़ने पर या इन चुम्बकों के न होने पर बेलनाकार तथा चपटे चुम्बकों का प्रयोग किया जा सकता है। लेकिन इन चुम्बकों का प्रयोग अधिक देर तक करने की जरूरत होती है तथा कुछ रोगों की अवस्थाओं में प्रभावित भागों पर उन्हें कपड़े की पट्टी से बांधकर रखने से अधिक लाभ होता है। ताकि ये चुम्बक स्थिर रहे और चुम्बक का प्रभाव रोग पर सीधा पड़े।

चुम्बकों की प्रयोग विधि-

सार्वदैहिक अर्थात हथेलियों तथा तलुवों पर चुम्बक का प्रयोग- इस प्रकार चुम्बक की प्रयोग विधि (सार्वदैहिक प्रयोग) के अनुसार रोगों का इलाज करने के लिये उत्तरी ध्रुव तथा दक्षिणी ध्रुव के चुम्बकों का एक जोड़ा लिया जाता है। उत्तरी ध्रुव वाले चुम्बक को रोगी के शरीर के दाएं भाग पर, आगे की ओर तथा उत्तरी भागों पर लगाया जाता है। जबकि दक्षिणी ध्रुव वाले चुम्बक को शरीर के बाएं भाग पर, पीठ पर या पीठ के निचले भाग पर  लगाया जाता है। अच्छा परिणाम पाने के लिये जब रोग या रोग के फैलाव शरीर के ऊपरी भाग पर हो तो चुम्बकों को हथेलियों पर लगाया जाता है और यदि रोग शरीर के निचले भागों में हो तो चुम्बकों को पैर के तलुवों पर लगाया जाता है। सार्वदैहिक प्रयोग से यह पता नहीं चलता है कि रोग शरीर संक्रामक है या शुद्ध क्रियात्मक या गहरा या उपरस्थित है। इस प्रकार का प्रयोग उन अवस्थाओं में और भी अच्छा है जिनमें रोग शरीर के दोनों ओर हो तथा उसकी जीर्ण प्रकृति हो या उससे सारे शरीर या शरीर का वह भाग प्रभावित हो या जहां उसे निश्चयपूर्वक निर्धारित करना मुश्किल होता है।

(शक्तिशाली चुम्बकों का तलुवों पर प्रयोग)

स्थानिक प्रयोग- स्थानिक प्रयोग में चुम्बकों का प्रयोग शरीर के उस भाग पर किया जाता है जो भाग रोगग्रस्त होता है जैसे- दर्दनाक कशेरूका, आंख, नाक, घुटना, पैर आदि। इस प्रयोग में व्यक्ति के शरीर के रोग की तेजी तथा कमी के अनुसार दो या तीन चुम्बकों का उपयोग किया जाता है। उदाहरण के लिये यदि किसी व्यक्ति के घुटने तथा गर्दन में तेज दर्द हो तो दो चुम्बकों  को अलग-अलग घुटनों पर तथा तीसरे चुम्बक को गर्दन की दर्दनाक कशेरूका पर लगाया जा सकता है। इस प्रयोग विधि में चुम्बकों का प्रयोग शरीर के उस भाग में करते हैं जहां रोगग्रस्त भाग है जैसे- शरीर के घावों तथा दांतों में पीब पड़ने की स्थिति में। इस प्रयोग विधि में उत्तरी ध्रुव का प्रयोग अधिकतर किया जाता है जबकि दक्षिणी ध्रुव का प्रयोग हानिकारक हो सकता है। यदि अंगूठे में तेज दर्द हो तो कुछ अवस्थाओं में कभी-कभी दोनों चुम्बकों के ध्रुवों के बीच अंगूठा रखने से तुरन्त आराम मिलता है ।

(शक्तिशाली चुम्बकों का हथेली पर प्रयोग)

सार्वदैहिक प्रयोग तथा स्थानिक प्रयोग में अन्तर- सार्वदैहिक प्रयोग की अवस्था में रोगी के शरीर के सभी भागों पर ध्यान दिया जाता है जबकि स्थानिक प्रयोग की अवस्था में रोग संक्रमण, सूजन तथा दर्द वाले भागों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। उदाहरण के लिये यदि किसी व्यक्ति की नाक के अन्दर थोड़ा सा मांस बढ़ गया हो या गलतुण्डिका शोथ की अवस्था हो तो चुम्बकों का सार्वदैहिक प्रयोग नहीं करना चाहिए बल्कि इस अवस्था में स्थानिक प्रयोग करना चाहिए। सार्वदैहिक प्रयोग के समय में ऐसा कोई सख्त नियम नहीं है कि बीमार व्यक्ति को एक दिशा में विशेषकर एक ओर मुंह करके बैठाये जबकि स्थानिक प्रयोग में बीमारी की दशा के अनुसार दिशा पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। मान लेते हैं कि किसी व्यक्ति के प्रभावित अंग पर दक्षिणी ध्रुव वाला चुम्बक लगाना है तो रोगी को इस प्रकार बैठाना चाहिए की रोगी का मुंह उत्तर दिशा की ओर हो और अगर उत्तरी ध्रुव वाला चुम्बक लगाना हो तो रोगी का मुंह दक्षिण दिशा की ओर हो।

चुम्बक के प्रयोग में रोगी को बैठाने का तरीका-

        जब चुम्बक का प्रयोग रोगी पर करना हो तो उसे सावधानी पूर्वक किसी कुर्सी पर बैठाना चाहिए। चुम्बक का प्रयोग कभी भी रोगी को जमीन पर बैठाकर नहीं करना चाहिए क्योंकि चुम्बक के प्रयोग के समय रोगी तथा जमीन के बीच में एक पृथक्कारी वस्तु का होना जरूरी होता है। रोगी को कुर्सी पर सावधानीपूर्वक एक विशेष दिशा की ओर बैठाकर उसके हथेलियों पर लगाने के लिए चुम्बकों को मेज पर रखना चाहिए। लेकिन इन चुम्बकों का प्रयोग जब पैर के तलुवों पर करना हो तो चुम्बकों को किसी लकड़ी के पटरे पर रखना चाहिए। फिर रोगी के तलुवों को उस चुम्बक के ऊपर रखना चाहिए। चुम्बक को कभी भी जमीन पर नहीं रखना चाहिए। चुम्बक को सावधानी पूर्वक तख्ते या पटरे पर रखने के बाद रोगी को चुम्बकों के ऊपर अपनी हथेलियां रख देनी चाहिए तथा बाईं हथेली को दक्षिणी ध्रुव वाले चुम्बक पर तथा दाईं हथेली को उत्तरी ध्रुव वाले चुम्बक पर रख देना चाहिए। इस प्रकार चुम्बकों का प्रयोग शरीर के तलुवों पर भी किया जा सकता है जैसे कि दाएं पैर के तलुवों को उत्तरी ध्रुव वाले चुम्बक के ऊपर तथा बाएं पैर के तलुवों को दक्षिणी ध्रुव के ऊपर करना चाहिए। जब रोगी पर चुम्बक का स्थानिक प्रयोग करना हो तो रोगी के शरीर के कपड़े उतरवा देने चाहिए और चुम्बक के धारक को भी हटा देना चाहिए। फिर रोगी के रोगग्रस्त नंगें भाग पर चुम्बक का प्रयोग करना चाहिए। स्थानिक प्रयोग की अवस्था में रोगी के पैर को किसी लकड़ी के तख्त पर रखना चाहिए तथा रोगी से जमीन या दीवार का स्पर्श नहीं होना चाहिए। यदि किसी व्यक्ति की पीठ में दर्द है तो रोगी को किसी चारपाई या लकड़ी के तख्ते पर लिटा देना चाहिए। फिर रोगी के रोग पर चुम्बक का स्थानिक प्रयोग करना चाहिए। स्थानिक प्रयोग में चुम्बक का प्रयोग करने के लिये यदि किसी व्यक्ति की जरूरत पड़ जाये (क्योंकि चुम्बक कभी-कभी ज्यादा भारी होता है) तो उस व्यक्ति को भी किसी तख्ते या पटरे पर खड़ा रखना चाहिए (उस व्यक्ति को जमीन पर कभी भी खड़ा नहीं रखना चाहिए)। ठीक यही चुम्बक का प्रयोग किसी बच्चे पर करने के दौरान करना चाहिए। उदाहरण के लिये यदि किसी बच्चे पर चुम्बक का प्रयोग करना है तो बच्चे की मां को भी किसी लकड़ी के तख्ते या प्लास्टिक के गत्ते या पृथक्कारी वस्तु के ऊपर सावधानी-पूर्वक बैठाना चाहिए। फिर उस बच्चे पर चुम्बक का प्रयोग करना चाहिए। अच्छा परिणाम पाने के लिए चुम्बकों के प्रयोग में बैठने सम्बन्धी नियमों का पालन करना चाहिए।

रोगी पर चुम्बक का प्रयोग करने की अवधि-

        रोगी पर चुम्बक का प्रयोग करने की अवधि रोगी के रोग के अनुसार, रोग होने के समय अनुसार, रोगी के व्यक्तिगत सुग्राह्मता के अनुसार तथा रोगी के चुम्बकित किये जाने वाले अंगों के अनुसार किया जाता है। लेकिन फिर भी बहुत सारे वैज्ञानिकों के परीक्षणों के आधार पर चुम्बकों की प्रयोग की अवधि भी कई सारे व्यक्तियों पर किस तरह करनी चाहिए, तय कर दी गई है। जिस तरह अन्य चिकित्सा पद्धति में दवाई की मात्रा रोगी को दी जाती है ठीक उसी प्रकार चुम्बकों की अवधि भी निर्धारित कर दी गई है ताकि रोगी लम्बे समय तक आवश्यक रूप से चुम्बकों का प्रयोग न कर सके।  

        चुम्बकों के प्रयोग में अधिकतर कई प्रकार के रोगों के लक्षणों के आधार पर चुम्बकों का स्थानिक प्रयोग या सार्वदैहिक प्रयोग 10 मिनट से लेकर 30 मिनट तक अच्छा माना जाता है। उदाहरण के लिये- एक जवान व्यक्ति के जीर्ण आमवाती सन्धिशोथ रोग में पहले एक सप्ताह तक चुम्बकों का प्रयोग केवल 10 मिनट तक करना चाहिए और इस अवधि को धीरे-धीरे 30 मिनट तक बढ़ा देना चाहिए। अन्य रोगों की अवस्था में भी धीरे-धीरे अवधि बढ़ा देनी चाहिए। इस प्रकार की अवधि केवल कुछ उपयोग की जाने वाले चुम्बकों पर ही लागू होती है क्योंकि कुछ चुम्बकों की शक्ति कम पाई जाती है तो कुछ की अधिक जैसे- कुछ चुम्बक 2000 गौस शक्ति तथा कुछ इससे अधिक गौस शक्ति की होती है। इन चुम्बकों की अपनी शक्ति के अनुसार उपयोग की अवधि घटती-बढ़ती रहती है। उदाहरण के लिये यदि मनुष्य के मस्तिष्क जैसे कोमल अंग पर चुम्बक को प्रयोग करना हो तो सबसे पहले प्रयोग की जाने वाली चुम्बक की शक्ति को जान लेना चाहिए तथा कम शक्ति वाले चुम्बक का प्रयोग करना चाहिए और चुम्बक का प्रयोग 10 मिनट से अधिक नहीं करना चाहिए।

       चुम्बक की प्रयोग की अवधि कुछ सुग्राह्मता के अनुसार भी घट-बढ़ सकती है जैसा की कुछ सुग्राही मनुष्य की अवस्था में, वे व्यक्ति चुम्बकों के प्रति अधिक तेजी से प्रभावित होते हैं तथा अपने शरीर में किसी प्रकार की संवेदना महसूस करते हैं। ऐसे व्यक्तियों पर चुम्बकों के प्रयोग की अवधि घटा (लगभग 5 मिनट कर) देनी चाहिए। जबकि इससे भी तेजी से प्रभावित मनुष्य पर चुम्बकों की अवधि और घटाकर (लगभग 2 से 3 मिनट कर) देनी चाहिए।

       चुम्बक चिकित्सा के प्रयोग में चिकित्सकों को चुम्बकों के प्रयोग की अवधि में काफी सावधानी बरतनी चाहिए। अच्छे निर्णय का पालन करना चाहिए नहीं तो अतिसंवेदनशील व्यक्ति कभी-कभी बुरी तरह से प्रभावित हो सकता है। चुम्बक चिकित्सक को चुम्बक का प्रयोग करते समय पहले से ही अपने पास जिंक प्लेट या जिंकम मेटैलिकम नामक होमियोपैथिक औषधि को रखना चाहिए ताकि सूक्ष्मग्राही व्यक्ति पर अधिक प्रतिक्रिया होने पर उन व्यक्तियों पर दवाइयों का प्रयोग कर सके। यह औषधि अतिचुम्बकत्व के मान्य प्रतिषेधक मानी जाती है।

       चुम्बक के प्रयोग में चिकित्सा की सही समय अवधि निर्धारण करने से पहले यह जानना बहुत जरूरी है कि चुम्बकों का प्रयोग किसी अच्छे चुम्बक चिकित्सक की देख-रेख में किया जाये ताकि वह रोगी से यह मालूम कर सके कि उसे किसी विशेष प्रकार की कोई अनुभूति तो नहीं हो रही है या उसका सिर तो नहीं चकरा रहा है या जी तो नहीं मिचला रहा है। यदि किसी सूक्ष्मग्राही व्यक्ति में बहुत अधिक प्रतिक्रिया हो रही है तो उस व्यक्ति पर चुम्बक का प्रयोग तुरन्त बंद कर देना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति चुम्बक का प्रयोग अपने घर पर ही करने को कहे तो उस व्यक्ति को चुम्बक की प्रयोग विधि को अच्छी तरह से बता देना चाहिए। इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि कोई व्यक्ति चाहे कितना ही अधिक स्वस्थ क्यों न हो, उस व्यक्ति पर भी चुम्बक का प्रयोग चुम्बक चिकित्सक की देख-रेख में ही करना चाहिए।

        किसी भी रोगी पर चुम्बक का प्रयोग 24 घण्टे में एक बार ही करना अच्छा माना जाता है। लेकिन बहुत से ऐसे भी जीर्ण रोग तथा शरीर के अंगों के प्रभावित रोग हैं जिनमें चुम्बक का प्रयोग 24 घण्टे में 2 बार करना भी आवश्यक हो सकता है। उदाहरण के लिये घुटने के दर्द या गर्दन की कशेरूका सन्धि की जलन की अवस्था में चुम्बक का प्रयोग सुबह-शाम 10 मिनट तक करना चाहिए। लेकिन इन अवस्थाओं में चुम्बक का प्रयोग 10 मिनट से अधिक नहीं करना चाहिए ।

रोग पर चुम्बक प्रयोग का समय-

        व्यक्ति के रोग को चुम्बक द्वारा ठीक करने के लिये किसी समय-विशेष के नियम का पालन करना जरूरी नहीं है। लेकिन चुम्बक के प्रयोग में सही यही होता है कि इनका प्रयोग सुबह के समय में स्नान तथा शौच करने के बाद या शाम को रोगी की सुविधानुसार उपचार किया जाए। चुम्बक का प्रयोग करने में समय का निर्धारण करने में अच्छी तरह सावधानी बरतनी चाहिए। कुछ रोग ऐसे होते हैं जिनमें चुम्बक का प्रयोग सुबह के समय में करने से बहुत अधिक लाभ मिलता है जैसे- कब्ज तथा बड़ी आंतों की जलन आदि। चुम्बक का प्रयोग आयुर्वेदिक तथा सूचीवेधन चिकित्सा के सिद्धान्तों पर आधारित है।

        आयुर्वेद के अनुसार कई प्रकार के रोगों का इलाज जैसे- सर्दी-जुकाम, खांसी, दन्तपूतिता तथा श्वासनलियों की जलन आदि,  सुबह के समय में करना चाहिए तथा पित्त सम्बन्धी रोगों का इलाज दोपहर के बाद करना चाहिए और अम्लता तथा रुद्धवात आदि रोगों का इलाज शाम को करना चाहिए। मौसम सम्बन्धी नियम से भी पता चलता है कि सुबह के समय में अधिक ठण्ड होती है जिसके कारण शरीर में खांसी के रोग में कफ बढ़ता है तथा दोपहर के समय में गर्मी और पित्त बढ़ती है तथा शाम के समय में हवा चलती है। इसलिए कहने का अर्थ है कि मौसम के अनुसार रोगों का इलाज करना चाहिए। यदि हम मौसम सम्बन्धी नियम का पालन करें तो शरीर का रोग जल्दी ठीक हो जाता है। उदाहण के लिये छाती के रोग में और कफ की अवस्था में चुम्बकों का प्रयोग सुबह के समय में किया जाना चाहिए तथा जिगर, पित्तजनक रोग में चुम्बक का प्रयोग दोपहर बाद किया जाना चाहिए तथा पेट या आंतों के अन्दर हवा बनने के रोग में चुम्बक का प्रयोग शाम को करें तो बहुत अधिक लाभ पहुंचता है। ठीक इसी प्रकार सूचीवेधन चिकित्सा ने भी फेफड़ों, गुर्दो तथा पित्ताशय जैसे बहुत सारे अंगों में जीवन-शक्ति के अनेकों बहाव का समय निर्धारित किया है। किसी भी चुम्बक चिकित्सक को चाहिए कि वह रोगी का इलाज समय निर्धारित नियम के अनुसार करे।

चुम्बक के प्रयोग के समय में सावधानियां-

     कई सारे परीक्षणों के आधार पर तथा कोशिकाओं पर चुम्बकों के प्रभाव तथा बहुत सारी रोगावस्थाओं में चुम्बकों के प्रयोग से पता चला है कि चुम्बकों का प्रयोग साधारण तथा सावधानीपूर्वक करें तो शरीर पर किसी प्रकार का बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है। फिर भी चुम्बक के प्रयोग में शरीर के रक्तसंचार, तापमान आदि के विशेष गुणों के अनुसार कुछ सावधानियां बरतनी चाहिए। चुम्बक के प्रयोग से अधिक से अधिक लाभ उठाने के लिये चुम्बक के प्रयोग में बरतने वाली सावधानियों का अच्छी तरह से पालन करना चाहिए।

चुम्बक के प्रयोग के समय में निम्नलिखित सावधानियां बरतनी चाहिए-

        चुम्बक का प्रयोग खाना खाने के 2 घण्टे बाद करना चाहिए नहीं तो कुछ संवेदनशील व्यक्तियों को उल्टी हो सकती है। यदि भोजन के कुछ समय बाद ही चुम्बक का प्रयोग करना पड़े तो बहुत कम समय के लिये ही चुम्बक का प्रयोग करना चाहिए क्योंकि उस समय शरीर में बहाव की अधिकता पाचक नली की ओर होती है। यदि हो सके तो उस समय चुम्बक का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

        मनुष्य के मस्तिष्क, आंखों तथा हृदय पर शक्तिशाली चुम्बक का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि ये शरीर के इस भाग पर सर्वाधिक अस्थिर चुम्बकी क्षेत्रों को जन्म देते हैं और ये चुम्बक से बुरी तरह से प्रभावित होते हैं। मस्तिष्क जैसे कोमल अंगों पर सेरामिक चुम्बकों का प्रयोग 24 घण्टे में 10 मिनट से ज्यादा नहीं करना चाहिए।

        चुम्बकों का प्रयोग करते समय या प्रयोग के कुछ समय बाद आइस्क्रीम जैसी किसी भी ठण्डी चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए नहीं तो ये शरीर में पाये जाने वाले ऊतकों पर चुम्बकों के प्रभाव को अनावश्यक रूप से नम कर देंगी।

        रोगी पर चुम्बकित जल की मात्रा को अधिक नहीं बढ़ाना चाहिए नहीं तो इससे कभी-कभी शरीर की क्रिया अत्यधिक बढ़ सकती है तथा एक असुविधाजनक स्थिति पैदा हो सकती है। यह याद रखने की बात है कि चुम्बकित जल की तुलना में चुम्बक परिवर्तित गुणों से सम्पन्न होता है। इसलिये चुम्बकित जल को औषधि की मात्रा जैसे ही लेना चाहिए न कि सामान्य जल की तरह। छोटे बच्चों को चुम्बकित जल देने में जल की मात्रा का विशेष ध्यान देना चाहिए।

        गर्भवती स्त्रियों पर शक्तिशाली चुम्बकों का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे गर्भवती स्त्रियों का गर्भपात हो सकता है। कुछ परीक्षणों से ये बात भी सामने आई है कि दो समान ध्रुवों वाले चुम्बकों का प्रयोग करने से अचानक ही स्त्रियों का गर्भपात हो जाता है इसलिये गर्भवती स्त्रियों पर दो उत्तरी तथा दो दक्षिणी ध्रुवों वाले चुम्बकों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। वैसे गर्भवती स्त्रियों पर मध्यम शक्ति तथा सेरामिक चुम्बकों का प्रयोग किया जा सकता है। लेकिन चुम्बक के प्रयोग के समय इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि चुम्बक का प्रयोग गर्भवती स्त्रियों के गर्भ के आस-पास नहीं करना चाहिए।

        कुछ बिजली के उपकरण तथा घड़ियां चुम्बक के प्रभाव से खराब हो जाती है इसलिये इन सामानों को चुम्बक से दूर रखना चाहिए।

        2000 गौस का शक्तिशाली चुम्बक लगभग 10 किलोग्राम लोहा उठा सकता है। इन चुम्बकों में बहुत अधिक शक्ति होती है इसलिये ऐसे दो चुम्बकों को पास में नहीं रखना चाहिए नहीं तो चुम्बक आपस में चिपक जाएंगे। यदि इन चुम्बकों को रखने में असावधानी बरतेंगें तो हमारी उंगलियां दोनो चुम्बकों के बीच में फंस सकती है जिसके कारण अंगुली चिपक जायेगी।

        प्रयोग करने के बाद चुम्बकों के ऊपर धारक को लपेटकर अच्छी तरह संभालकर रखना चाहिए। चुम्बकों को जमीन पर नहीं रखना चाहिए क्योंकि इससे चुम्बक की शक्ति कम हो जाती है। चुम्बकों के साथ बच्चों को नहीं खेलने देना चाहिए। जब चुम्बक की शक्ति कम पड़ जाए तो इसे पुनर्चुम्बकन करके इसकी शक्ति को बढ़ाकर धारक के साथ लपेटकर सावधानी पूर्वक रखना चाहिए।

टॉन्सिल (Tonsils)




  टॉन्सिल्स (गलतुण्डिकाएं) लसीकाभ ऊतक के पिण्ड होते हैं और संयोजी ऊतक के एक कैप्सूल में बन्द रहते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं-

1. फेरेन्जियल टॉन्सिल (Pharyngeal tonsil)- यह टॉन्सिल नाक के पीछे ग्रसनी की ऊपरी पश्च भित्ति में स्थित रहता है। इसे लुस्चकाज़ (Luschka’s) टॉन्सिल एवं एडीनॉयड्स (adenoids) भी कहा जाता है।

2. पैलाटाइन टॉन्सिल (Palatine tonsil)- यह टॉन्सिल ग्रसनी के दोनों ओर गलतोरणिका (fauces) के स्तम्भों के बीच (टॉन्सिलर फोसा) में स्थित रहते हैं।

3. लिंग्वल टॉन्सिल (Lingual tonsil)- यह टॉन्सिल जीभ की जड़ पर स्थित रहते हैं।

        टॉन्सिल्स में अभिवाही (afferent) लसीकीय वाहिकाएं नहीं रहती हैं, जिसके कारण यह लिम्फ नोड्स से अलग रहते हैं। टॉन्सिल्स की अपवाही लिम्फेटिक्स (efferent lymphatics) लसीका में अनेकों लसीका कोशिकाओं (लिम्फोसाइट्स) पहुंचाती है। ये कोशिकाएं टॉन्सिल्स को छोड़ने तथा शरीर के दूसरे भागों में हमला करने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं को नष्ट करने में समर्थ होती हैं। टॉन्सिल्स के साथ मिलकर ये लसीकाभ ऊतक का एक बेण्ड बनाती हैं। यह बेण्ड पाचन एवं श्वसन सस्थानों के ऊपरी प्रवेश स्थलों पर स्थित रहता है। यहां ये बाह्य पदार्थ आसानी से प्रवेश कर सकते हैं। ज्यादातर संक्रामक सूक्ष्म जीवाणु ग्रसनी की परत पर लसीका कोशिकाओं (लिम्फोसाइट्स) द्वारा नष्ट कर दिए जाते हैं। टॉन्सिल्स के अंदर प्लाज्मा कोशिकाओं का मौजूद होना एन्टीबॉडीज़ के निर्माण की तरफ इशारा करती है।

        टॉन्सिल्स वैसे तो अक्सर संक्रमण रोकने का कार्य करते हैं, लेकिन ये खुद भी संक्रमित हो सकते हैं। ऐसे मामलों में, कुछ चिकित्सक इनके उच्छेदन (removal) यानि निकलवाने की सलाह देते हैं।

आ रहा है नया मिड डे अखबार, रिपोर्टर-कैमरामैन की है जरूरत

उत्तर प्रदेश के लखनऊ से जल्द ही एक सांध्य दैनिक अखबार शुरू होने जा रहा है, जिसका नाम है ‘द डेली ग्राफ’ (The daily Graph)। बताया जा रहा है कि यह अखबार पहले हिंदी भाषा में लॉन्च किया जाएगा, लेकिन बाद में इसका अंग्रेजी एडिशन भी शुरू होगा। इस अखबार के लॉन्चिंग की तैयारी लगभग पूरी कर ली गई और इसे आगामी 22 मई को लॉन्च किया जा सकता है। अखबार के मैनेजिंग एडिटर मनोज गौतम ने समाचार4मीडिया को ये जानकारी दी।

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शुक्रवार, 13 मई 2016

जानें सेहत के लिए कितना फायदेमंद है चांगेरी का पत्‍ता




    चांगेरी के पत्‍तों को अम्‍लपत्रिका भी कहा जाता है। इसके अलावा इसे त्रिपत्रिका और खट्टी बूटी भी कहा जाता है। इसके पत्‍ते का स्‍वाद खट्टापन लिये होता है। यह बारहमास पाई जाने वाली बूटी है। बड़ी और छोटी दोनों प्रकार की यह घास खेतों में खरपतवार की तरह उगती है। इसके पीले रंग के छोटे छोटे फूल होते हैं। चांगेरी बहुत से औषधीय गुणों से परिपूर्ण होती है। इसका आयुर्वेद में कई बीमारियों के इलाज के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इसके पत्तों में कैरोटीन, कैल्शियम और ओक्सालेट्स जैसे तत्‍व भरपूर मात्रा में होते हैं। साथ ही यह विटामिन सी का भी अच्‍छा स्रोत है। लेकिन ध्‍यान रहें अगर आप गठिया और गाउट से संबंधित किसी भी बीमारी से ग्रस्‍त है तो इसके पत्‍तों के सेवन से बचें। आइए इसके स्‍वास्‍थ्‍य लाभों के बारे में जानकारी लेते हैं।

    मस्‍से दूर करने में मददगार

    चांगेरी के पत्तों को मस्से दूर करने के लिए उपयोग किया जा सकता है। इन पत्तों के एंटी-फंगल, एंटी माइक्रोबियल, और हीलिंग गुणों के कारण यह मस्‍से को आसानी से दूर करता है। मस्‍से होने पर चांगेरी के पत्तों का पेस्ट बनाकर, उसमें पानी की कुछ बूंदें मिला लें। पेस्ट को प्रभावित हिस्से पर लगायें, कुछ मिनटों तक रगड़ें। इस उपाय को दिन में दो बार दोहरायें। अच्छे परिणाम के लिए आप इस पेस्ट में घी भी मिला सकते हैं।

    पेट की समस्‍याओं में लाभकारी

    अपने उत्‍तेजित और एस्ट्रिंजेंट गुणों के कारण यह आहार के प्रति अरुचि में सुधार करता है। चांगेरी के 8-10 पत्तों की कढ़ी बनाकर लेने से पाचनशक्ति (भोजन पचाने की क्रिया) ठीक होकर भूख बढ़ जाती है। पेचिश रोग में चांगेरी के पंचांग के रस में पीपल और उसके रस से चार गुना दही मिलाकर घी डालकर पका लेना चाहिए यह मिश्रण पेचिश के लिए लाभकारी होता है। इसके अलावा 40 से 60 ग्राम चांगेरी के पत्तों के काढ़े में भुनी हुई हींग और मुरब्बा मिलाकर सुबह-शाम रोगी को पिलाने से पेट दर्द ठीक हो जाता है।

    सिरदर्द में फायदेमंद

    अगर आप सिरदर्द की समस्‍या से परेशान है तो चांगेरी के पत्‍ते के दर्द दूर करने वाले गुण आपकी इस समस्‍या को दूर कर सकते हैं। समस्‍या होने पर चांगेरी के रस और प्याज के रस को बराबर मात्रा में मिलाकर सिर पर लेप करने से सिरदर्द दूर हो जाता है।

    दांतों को मजबूत बनाये

    दांतों के मजबूती के लिए आप चांगेरी, लौंग, हल्‍दी, सेंधा नमक और फिटकरी को बराबर मात्रा में मिलाकर बारीक पाउडर बना लें। फिर इससे नियमित रूप से मंजन करें। इससे मसूड़े मजबूत होंगे। अगर आपके मसूड़ों से पस आ रहा है तो चांगेरी के पत्तों के रस से मसूड़ों की मालिश करें या फिर इसके पत्तों के रस में फिटकरी मिलाकर कुल्ले करें। इसके अलावा चांगेरी के 2-3 पत्तों को मुंह में पान की तरह रखने से मुंह की दुर्गंध मिट जाती है।

    त्‍वचा के लिए भी फायदेमंद

    चांगेरी के पत्‍ते त्‍वचा के लिए भी बहुत लाभकारी है। अगर आप चेहरे पर आने वाली झुर्रियों को दूर करना चाहती हैं तो चांगेरी के पत्‍तों के रस में सफेद चंदन घिसकर नियमित रूप से चेहरे पर लगाये। इस उपाय से झुर्रियां दूर और आपकी त्‍वचा स्‍वस्‍थ हो जायेगी।
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बार-बार डकार आ रही है तो हो सकती ये गंभीर बीमारी



    डकार लेना एक प्राकृति क्रिया है और आमतौर पर ऐसा माना जाता है की हमारे द्वारा खाया गया भोजन हजम हो जाने का डाकार एक संकेत होता है। लेकिन वास्तविकता में ऐसा नहीं है, दरअसल जब खाना खाते समय या उसके बाद बार-बार डकार लेने का मतलब है कि खाने के साथ ज्यादा मात्रा में हवा निगल ली गई है। जब हम हवा निगल लेते हैं तो उसी तरह वो बाहर भी निकलती है, जिसे हम डकार कहते हैं। यह पेट से गैस के बाहर निकलने का एक प्राकृतिक तरीका है, और अगर पेट से हवा बाहर न निकले तो यह पेट से संबंधित कई समस्याओं को जन्म दे सकती है, जैसे पेट में तेज दर्द या पेट में अफारा आदि। लेकिन अगर  डकार ज्याद आए तो ये कई बार कुछ बीमारियों का संकेत भी हो सकता है। तो चलिये जानें कि कैसे ज्यादा डकार आना हो सकता है किसी गंभीर बीमारी का इशारा -

    ऐरोफेजिया (Aerophagia) होने पर



    अकसर ऐसा होता है कि हम खाना खाते समय ज्यादा हवा पेट में निगल जाते हैं और फिर डकारें आने लगती हैं। इस स्थिति को ही ऐरोफेजिया की स्थिति कहते हैं। कुछ खाते या पीते समय हवा पेट में चले जाने से अकसर ऐरोफेजिया की स्थिति पैदा हो जाती है। इससे समस्या से बचने के लिए छोटे निवाले लें और मुंह बंद करके धीरे-धीरे खाने को चबा कर निगलें।

    पुरानी कब्ज या बदहज़मी की समस्या


    की अध्ययन इस बात को बता चुके हैं कि जिन लोगों को बहुत ज्यादा डकार आती हैं, उनमें से लगभग 30 प्रतिशत लोगों को कब्ज की समस्या होती है। इस समस्या के होने पर खाने में उपयुक्त मात्रा में फाइबर शामिल करें और ईसबगोल का भी सेवन करें। इसके अलावा हाज़मा खराब होना, जिसे हम बदहज़मी कहते हैं, की वजह से भी ज्यादा डकार आने की समस्या होती है। ऐसे में डकार आने के साथ पेट में दर्द भी हो सकता है।

    डिप्रेशन का संकेत


    तनाव कई समस्याओं का अकेला कराण होता है। तनाव या किसी बड़े भावनात्मक परिवर्तन का प्रभाव हमारे पेट पर भी पड़ता है। कई अध्ययनों में भी ये बात सामने आई है कि लगभग 65 प्रतिशत मामलों में मूड में त्वरित व बड़ा बदलाव या तनाव का बढ़ना ज्यादा डकार आने का कारण बनता है।

    गैस्ट्रोसोफेजिअल रिफ्लक्स डिज़ीज़



    कई बार गैस्ट्रोसोफेजिअल रिफ्लक्स डिज़ीज़ (जीइआरडी) या सीने में तेजड जलन के कारण भी ज्यादा डकार आती हैं। इस बीमारी में आंतों में जलन होने लगती है और आहार नलिका (फूड पाइप) में एसिड बनने लगता है। इसमेंबचाव के लिए खानपान और जीवनशैली में कई सकारात्मक व स्वस्थ बदलाव करने की जरूरत होती है।

    इरिटेबल बाउल सिंड्रोम या पेप्टिक अल्सर

    इरिटेबल बाउल सिंड्रोम होने पर रोगी को कब्ज, पेट दर्द, मरोड़ व दस्त आदि हो सकते हैं। साथ ही इस रोग का एक बड़ा लक्षण बहुत ज्यादा डकारआना भी होता है। दुर्भाग्यवश इरिटेबल बाउल सिंड्रोम का कोई पक्का इलाज अभी तक मौजूद नहीं है। इस समस्या के अलावा पेप्टिक अल्सर के कारण भी ज्यादा डकारे आ सकती हैँ। दरअसल जब आपके पाचन तंत्र को पेट की गैस से और एच.पायलोरी नामक बैक्टीरिया से क्षति पहुंचती है तो डकार आने लगती हैं।
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पैर का सोना why are our legs sleep



पैर का सोना, हममें से लगभग सभी ने कभी न कभी जरूर अनुभव किया होगा। पैर का सोना बड़ा ही कष्टदायक होता है क्योंकि ऐसे में फिर आपका कहीं मन नहीं लगता। लेकिन क्‍या आप पैर के सोने के असली कारण के बारे में जानते हैं, अगर नहीं तो यह आर्टिकल आपके लिए मददगार हो सकता है।
पैर सोने के कारण
    कुछ लोगों का मानना है कि पैरे‍स्‍थेसिया में पैरों के सोने से उसमें भारी, सुस्‍त, झुनझुनाहट और अजीब सी पिन या सुई चुभने जैसा महसूस होता है- ऐसा पैरों में पर्याप्‍त रूप से ब्‍लड के न पहुंचने के कारण होता है। वास्‍तव में, आपके पैर तंत्रिकाओं (नर्वस) के कारण सोते हैं। नर्वस आपके शरीर में चलने वाले छोटे तारों की तरह होते है। नर्वस आगे ओर पीछे आपके ब्रेन और शरीर के कई हिस्‍सों के बीच संदेश ले जाने का काम करता है।
    अगर आप लंबे समय के लिए अपने पैर के सहारे बैठते हैं तो उस हिस्‍से की नर्वस पर दबाव पड़ता हैं। ऐसा शरीर के अन्‍य भागों में भी हो सकता है। लोग समय-समय पर पैर, हाथ और बाजू ऐसा अनुभव करते हैं। यानी शरीर का कोई अंग यदि किसी दबाव में ज्यादा समय तक रहता है, तो वह सुन्न हो जाता है। वस्तुतः यह दबाव हाथ या पैर की नर्वस पर पड़ता है।
    ये नर्वस कोशीय फाइबर से बनी होती है और प्रत्येक एक कोशीय फाइबर अलग-अलग संवेदनाओं को मस्तिष्क तक पहुंचाने का कार्य करता है। इन फाइबरों की मोटाई भी कम-ज्यादा होती है। इसका कारण माइलिन नामक श्वेत रंग के पदार्थ द्वारा बनाई गई झिल्ली है। इन पर दबाव पड़ने से ब्रेन तक नसों द्वारा पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन और रक्त का संचरण नहीं हो पाता है और ब्रेन तक उस अंग के बारे में पहुंचने वाली जानकारी रक्त और आक्सीजन के अभाव में अवरूद्ध हो जाती है। इस कारण वहां संवेदना महसूस नहीं हो पाती और वह अंग सो हो जाता है। जब उस अंग से दबाव हट जाता है तो रक्त और आक्सीजन का संचरण नियमित हो जाने से वह अंग पुनः संवेदनशील हो जाता है।
प्रत्येक व्यक्ति को समय-समय पर इन भावनाओं का अनुभव होता है, और ये पूरी तरह से सामान्य हैं। इससे आपके शरीर को चोट नहीं पहुंचती, लेकिन यकीनन कुछ समय के लिए आपको अजीब महसूस हो सकता है, जब तक कि आपका ब्रेन और शरीर दोबारा बातचीत शुरू नहीं कर देता।

सोमवार, 25 अप्रैल 2016

पीड़ित व्यक्ति को स्ट्रेचर पर अस्पताल पहुंचान


TAKING VICTIM TO THE HOSPITAL ON A STRETCHER

          अक्सर जब कोई व्यक्ति किसी दुर्घटना आदि में घायल हो जाता है तो घायल व्यक्ति को दुर्घटना स्थल से ले जाने के लिए सबसे पहले एक स्ट्रेचर की जरूरत पड़ती है। स्ट्रेचर पर ही घायल व्यक्ति को सीधा या आरामदायक स्थिति में लिटाकर अस्पताल ले जाया जा सकता है। अस्पताल आदि में तो स्ट्रेचर हर समय उपलब्ध ही होती है लेकिन दुर्घटना स्थल पर स्ट्रेचर मिलना थोड़ा मुश्किल हो सकता है। इसके लिए आसपास पड़े हुए सामान का प्रयोग करके ही स्ट्रेचर तैयार की जा सकती है। 

स्ट्रेचर बनाने की विधि-

•सबसे पहले लगभग दो या ढाई मीटर लंबे, गोल और मजबूत दो डंडे ले लें।
•फिर उन डंडों पर लपेटने के लिए ढाई से डेढ़ मीटर मजबूत कैनवस के टुकड़ों को ले लें।
•कैनवस के दोनों लंबे किनारों को इस प्रकार सिल लें कि डंडों को उनमें पिरोया जा सके।
•कैनवस को तना हुआ रखने के लिए उसके चौड़े किनारों पर एक-एक आड़ा करके डंडा लगा दिया जाता है।
•स्ट्रेचर बनाते समय उसके डंडों के किनारों को घिस लिया जाता है ताकि उन्हे पकड़ने वाले व्यक्तियों के हाथ में वह चुभे नहीं।
•कैनवस के एक चौड़े किनारे पर तकिया रख सकते हैं लेकिन यह तकिया भूसा, तिनकों या छोटे-छोटे कपड़ों के टुकड़ों से भरा हुआ होना चाहिए, रूई से नहीं।
•इस तकिए का एक सिरा खुला रखना चाहिए ताकि पीड़ित व्यक्ति के सिर को आरामदायक स्थिति में रखने के लिए उसमें से भूसा, तिनके या छोटे-छोटे कपड़ों को निकाला या डाला जा सके।
कामचलाऊ स्ट्रेचर-

•इस प्रकार की स्ट्रेचर तैयार करने के लिए सबसे पहले दो मोटे और लगभग ढाई मीटर लंबे डंडे या बांस और एक मजबूत कंबल ले लें।
•फिर कंबल को फोल्ड करके उसके अंदर लंबाई की ओर एक डंडा घुसेड़ दें।
•इसके बाद दूसरे डंडे पर कंबल के दोनों सिरों को लपेट दें।
•अगर कंबल ज्यादा चौड़ा हो तो उसके एक सिरे को पहले डंडे की ओर ले आएं और उस पर लपेट दें।
•इस स्ट्रेचर पर पीड़ित व्यक्ति को आराम से लिटाकर अस्पताल ले जाया जा सकता है।
•एमरजैंसी पड़ने पर मोटा कंबल आदि न मिलने पर 2-3 कोटों या बास्केटों का प्रयोग करके भी कामचलाऊ स्ट्रेचर तैयार की जा सकती है।
•इसके लिए कोटों की बांहों को अंदर की ओर उल्ट लिया जाता है।
•फिर कोटों को बटन बंद करके उसकी बांहों में डंडे फंसा दिये जाते हैं।
नोट-

•बास्केट में बांहें नहीं होती इसलिए उसके बटन बंद करके उसकी बांहों के छेद में डंडे फंसाए जा सकते हैं।
•दो डंडों पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर चौड़ी पट्टियां बांधकर भी कामचलाऊ स्ट्रेचर तैयार की जा सकती है।
•यदि स्ट्रेचर बनाने के लिए कंबल तो मिल जाए लेकिन डंडों का इंतजाम न हो पाए तो ऐसी स्थिति में पीड़ित को उठाकर अस्पताल ले जाया जा सकता है।
•इसके लिए पीड़ित व्यक्ति को कंबल के बीच में लिटा दें।
•फिर कंबल के लंबे किनारों को गोल करके पीड़ित व्यक्ति के पास तक ले जाएं।
•अब पीड़ित व्यक्ति के दोनों ओर 2-2 व्यक्ति खड़े हो जाए और झुककर कंबल के मुड़े हुए किनारों को उठा लें।          
•स्ट्रेचर या कंबल आदि न मिलने पर पीड़ित व्यक्ति को लकड़ी के चौड़े पटरे, लकड़ी के दरवाजे या कार आदि की सीट पर लिटाकर ले जाया जा सकता है। पटरे या लकड़ी के दरवाजे पर पीड़ित व्यक्ति को लिटाने से पहले उस पर भूसा या घास आदि बिछा देने चाहिए।
•ऐसा व्यक्ति जो पूरी तरह से बेहोशी की अवस्था में हो या रीढ़, छाती, सिर आदि पर लगी गहरी चोट के कारण वह न तो उठ सकता हो और न ही बैठ सकता हो या न ही करवट ही ले सकता हो, उसके अस्पताल तक ले जाने के लिए प्राथमिक उपचारकर्ता को सही तरीका इस्तेमाल करना चाहिए, अन्यथा पीड़ित व्यक्ति को हानि हो सकती है। इस काम के लिए प्राथमिक उपचारकर्त्ता को अपने साथ और भी तीन व्यक्तियों की जरूरत पड़ती है। इसके लिए उन व्यक्तियों को पीड़ित को उठाने का तरीका अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए और प्राथमिक उपचारकर्त्ता के आदेशानुसार ही काम करना चाहिए।
•इसके लिए तीन व्यक्ति पीड़ित के उस ओर खड़े हो जाएं जिस ओर उसके चोट आदि न लगी हो।
•फिर वे पीड़ित व्यक्ति के पैरों के पास अपने घुटनों पर झुकें और एक साथ उसे धीरे से, थोड़ा सा दूसरी ओर खिसका दें।
•तीनों व्यक्ति पीड़ित व्यक्ति के शरीर के नीचे अपने-अपने हाथ डालकर उसे थोड़ा सा ऊपर उठा लें।
•इसी दौरान चौथा व्यक्ति पीड़ित व्यक्ति के नीचे स्ट्रेचर सरका दें।
•अब तीनों व्यक्ति पीड़ित व्यक्ति को आराम से स्ट्रेचर पर लिटा दें।
•अस्पताल पहुंचने पर पीड़ित व्यक्ति को स्ट्रेचर पर से उतारने के समय इसी तरीके को उल्टे क्रम में दोहराया जा सकता है।
•पहले स्ट्रेचर को बहुत ही सावधानी से नीचे रखें।
•फिर तीन आदमी रोगी के एक ओर खड़े होकर उसको एकसाथ अपने घुटनों तक उठा लें।
•इसके बाद रोगी को छाती की ऊंचाई तक उठाकर एंबुलैंस या बिस्तर पर लिटा सकते हैं।
          स्ट्रेचर पर हमेशा 1-2 कंबल रहते ही हैं और हर कंबल को इस प्रकार रखा जाता है कि उसकी दो तहें स्ट्रेचर पर बिछी रहती है और उसका मुक्त सिरा नीचे की ओर लटका रहता है। रोगी को स्ट्रेचर पर लिटाते समय दोनों कंबलों की दो-दो तहें नीचे लटकी रहती है। इन लटकते सिरों से बाद में रोगी को ढका भी जा सकता है। ज्यादा हालातों में रोगी को गरम रखना जरूरी होता है। कंबलों को दो तहें उसे गरम रखने के लिए काफी होती है।

          अगर स्ट्रेचर पर कंबल न बिछे हो तो रोगी को स्ट्रेचर पर ऐसे ही लिटाया जा सकता है। रोगी को ढकने के लिए तौलिए आदि किसी भी कपड़े का प्रयोग किया जा सकता है।

          कई बार प्राथमिक उपचारकर्ता को, दुर्घटनास्थल पर मदद के लिए तीन-चार व्यक्ति नहीं मिल पाते। ऐसी स्थिति में एक ही व्यक्ति की मदद से पीड़ित को आसानी से कंबल पर लिटाया और उठाकर अस्पताल तक ले जाया जा सकता है। पहले कंबल के लंबे सिरे को रोल करके एकदम रोगी के पास तक ले जाया जाता है। फिर रोगी को थोड़ा सा खिसकाकर कंबल को उसके नीचे से निकालकर उसे उल्टी ओर कंबल पर करवट दिला दी जाती है।

          अगर ऐसा लगता है कि पीड़ित व्यक्ति की रीढ़ पर चोट आई है तो ऐसी स्थिति में उसे छाती के बल उल्टा अर्थात चेहरा नीचे की ओर करके लिटाएं।

          ज्यादातर रोगियों को चित्त अर्थात पीठ के बल सीधा लिटाया जाता है और इसी स्थिति में स्ट्रेचर पर लिटाकर अस्पताल ले जाया जाता है। स्ट्रेचर पर ले जाते समय रोगी की स्थिति इस बात पर निर्भर करती है कि चोट उसके शरीर के किस अंग में लगी है।

          जिन रोगियों के केवल ऊपरी अंगों जैसे- सिर, छाती, पेट, भुजा इत्यादि में चोट लगी हो उन्हें लिटाने की बजाय बैठाना अधिक आरामदेह रहता है। जिन रोगियों की टांग टूट गई हो, स्ट्रेचर पर ले जाते समय उनकी टांग पर तकिया बांधना अच्छा रहता है। तकिया, तौलिया इत्यादि उपलब्ध न होने पर टूटी टांग को स्वस्थ टांग से बांध दिया जाता है।

          गरदन पर चोट लगी होने पर पीड़ित को कठोर सतह पर, पीठ के बल सीधा लिटाकर उसकी गरदन के पीछे छोटा-सा तकिया लगा दें और दोनों ओर रेते के बोरे रख दें।

          बेहोश व्यक्तियों को स्ट्रेचर पर अधलेटी अवस्था में लिटाएं। इससे उनकी नाक या मुंह से निकलने वाला रक्त या उल्टी बराबर बाहर निकलती रहेगी; सांस नली में फंसेगी नहीं। बेहोश व्यक्ति की स्थिति उसे लगी दूसरी चोटों पर भी निर्भर होती है।

          जिस पीड़ित व्यक्ति को छाती में चोट लगी हो उसे उसी स्थिति में स्ट्रेचर पर लिटाना चाहिए, जिसमें वह दुर्घटनास्थल पर पड़ा हुआ था। दुर्घटना के बाद अगर वह पीठ के बल लेटा हुआ हो, तो उसे पीठ के बल लिटाकर ही अस्पताल ले जाएं।

          जिस व्यक्ति की रीढ़ में चोट आई हो अथवा रीढ़ की हड्डी टूट गई हो उसे अस्पताल ले जाते समय कम से कम हिलाएं-डुलाएं और झटके बिल्कुल न लगने दें।

         पीड़ित को ले जाते समय स्ट्रेचर के उस भाग को आगे रखें जिस ओर पीड़ित के पैर हैं। ऊंचाई या ढलान पर स्ट्रेचर को घुमाया जा सकता है। सामान्य नियम के अनुसार पीड़ित के निचले अंगों में चोट लगने पर, स्ट्रेचर को ढलान पर ले जाते समय पीड़ित का सिर आगे की ओर रखा जाता है। ऊंचाई पर चढ़ते समय पीड़ित का सिर वाला भाग आगे रखते हैं। एंबुलेंस पर लादते समय भी पीड़ित के सिरवाले सिरे को पहले चढ़ाया जाता है।

          यदि पीड़ित व्यक्ति किसी खान, गड्ढ़े या संकरी जगह पर पड़ा हुआ हो, तो उसे उठाकर बाहर निकालने के लिए निम्नलिखित तरीकों का उपयोग किया जा सकता है।

उठाने वाले व्यक्ति दो होने पर- दोनों व्यक्ति, पीड़ित व्यक्ति की ओर मुंह करके खड़े हो जाएं। एक उसकी बाईं ओर, दूसरा दाहिनी ओर। पहला व्यक्ति पीड़ित व्यक्ति के सिर के पास झुककर अपनी अग्रभुजाएं उसके कंधों के नीचे रखे और दूसरा झुककर अपनी बाईं बांह उसकी जांघों के नीचे और दाहिनी बांह उसके घुटनों के नीचे रखे। फिर दोनों व्यक्ति झुके रहकर ही एक साथ आगे बढ़े। बढ़ते समय दोनों व्यक्ति एक साथ अपने-अपने बाएं पैर आगे बढ़ाएं और छोटे-छोटे कदम बढ़ाएं। पीड़ित व्यक्ति को जमीन से ज्यादा ऊपर नहीं उठाएं। स्ट्रेचर के पास आने पर दोनों व्यक्ति अपने एक-एक पैर स्ट्रेचर के एक-एक ओर कर लें। पीड़ित व्यक्ति को स्ट्रेचर के बिल्कुल ऊपर लाकर धीरे से, सावधानीपूर्वक, स्ट्रेचर पर रख दें।

उठाने वाले व्यक्ति तीन होने पर- स्ट्रेचर को पीड़ित के पास सिर की ओर रख दें। एक व्यक्ति पीड़ित के एक ओर खड़ा हो जाए और दूसरा दूसरी ओर। उनके मुंह आमने-सामने होने चाहिए। पहला व्यक्ति पीड़ित के पैरों के पास अपने बाएं घुटने को जमीन पर टेककर और दाहिने घुटने को मोड़कर बैठ जाए। वह अपने दोनों हाथ पीड़ित के घुटनों के नीचे रख दें।

          दूसरा और तीसरा व्यक्ति पीड़ित के सिर के पास पहले व्यक्ति की तरह ही, अपने बाएं घुटने को टेककर और दाहिने घुटनों को मोड़कर बैठ जाएं। वे अपने हाथों को पीड़ित के सिर और नितंबों के नीचे से निकालकर अपने हाथों को आपस में पकड़ लें।

          फिर तीनों धीरे से एक साथ उठ खड़े हों। वे एक साथ स्ट्रेचर की ओर धीरे-धीरे चलें। उस समय यह ध्यान रखें कि पीड़ित ज्यादा हिले-डुले नहीं और उसकी स्थिति लगातार वैसी ही बनी रहे। स्ट्रेचर के पास पहुंचने पर पीड़ित को धीरे से उस पर लिटा दें। 

          जब दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति किसी ऊंचें स्थान या ऊपरी मंजिल पर हो तो उसे प्राथमिक उपचार के बाद नीचे उतारतना कठिन कार्य होता है। यह कार्य उस समय और भी कठिन हो जाता है जब पीड़ित व्यक्ति बेहोश होता है।

          बेहोश व्यक्ति को ऊपरी मंजिल से उतारने के लिए चारपाई को उल्टा करके (पाए ऊपर करके) भी इस्तेमाल किया जा सकता है। चारपाई पर कंबल आदि बिछाकर बेहोश व्यक्ति को लिटा दें। उसे 6- 7 स्थानों पर चौड़ी पट्टियों से चारपाई के साथ बांध दें। चारपाई के दोनों लंबे किनारों को दोनों सिरों के पास मजबूत रस्सी से बांध दें और चारों रस्सियों को ऊपर की ओर इकट्ठा करके बांध दें। इससे यह पूरी व्यवस्था रस्सियों के झूले जैसी बन जाएगी। अब पीड़ित को रस्सी की मदद से आसानी से नीचे उतारा जा सकता है।

          गहरे गढ्ढे में पड़े बेहोश व्यक्ति को भी इसी तरीके से ऊपर लाया जा सकता है। इसके लिए बेहोश व्यक्ति को ऊपर की ओर खींचना होता है।

विविध व्याधियां MISCELLANEOUS DISEASES



          ज्यादातर दुर्घटनाओं के बाद आपातकालीन अर्थात एमरजैंसी स्थिति पैदा हो जाती है। एमरजैंसी स्थिति शरीर में अचानक दर्द उठ जाने या किसी दवाई के उल्टे प्रभाव से या एलर्जी से भी पैदा हो सकती है। अपेंडिसाइटिस, अचानक उठने वाला दर्द या गुर्दे में पथरी के कारण होने वाली असहनीय पीड़ा ऐसी ही परिस्थितियों के उदाहरण हैं। ऐसी स्थितियों में यह जरूरी होता है कि डॉक्टर के जाने तक पीड़ित व्यक्ति की हालत और न बिगड़ने पाए। इसलिए पीड़ित को समुचित प्राथमिक उपचार की जरूरत होती है।

नीचे कुछ ऐसे प्राथमिक उपचारों के बारे में बताया जा रहा हैं जो एमरजैंसी स्थितियों में किए जाने चाहिए-

अपेंडिसाइटिस- अक्सर अपेंडिक्स में उठने वाले दर्द के लक्षण असली दर्द उठने से कुछ दिन पहले प्रकट होने लगते हैं। यह लक्षण पीड़ित में अजीर्ण और कब्ज के रूप में प्रकट होते हैं। लेकिन आमतौर से इन लक्षणों को आने वाले रोग के पूर्व-संकेत न समझकर स्वयं रोग समझ लिया जाता है। पीड़ित अपेंडिसाइटिस की चिकित्सा के लिए कोई कदम नहीं उठाता और न ही शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार होता है। इसी कारण से वह अपेंडिसाइटिस को अचानक से पैदा होने वाला रोग समझ लेता है।

          अपेंडिसाइटिस में पीड़ित के पेट के निचले, दाहिने भाग में तेज दर्द होती है। इसके साथ ही उसे उल्टी और हल्का बुखार भी हो सकता है। ऐसी स्थिति पैदा होते ही तुरंत डॉक्टर को बुला लें। डॉक्टर के आने तक प्राथमिक उपचार करने वाले व्यक्ति को पीड़ित की हालत को बिगड़ने से बचाने के लिए उसके शरीर के दर्द वाले स्थान पर आइसबैग (बर्फ की थैली) रखनी चाहिए।

          ऐसे पीड़ित को गर्मी से बचाना चाहिए और उसे खाने-पीने के लिए कुछ भी नहीं देना चाहिए।

          ऐसे पीड़ित को किसी भी परिस्थिति में जुलाब नहीं देना चाहिए।

सांस में रुकावट- सांस में रुकावट केवल दुर्घटनाओं के फलस्वरूप ही पैदा नहीं होती बल्कि हृदय रोग, दमा, मिर्गी, टिटेनस, अधिक नींद की गोलियां खाना आदि कारणों से भी सांस में रुकावट हो सकती है। इन कारणों से फेफड़ों तक जरूरत अनुसार ऑक्सीजन नहीं पहुंच पाती।

          पानी में डूबते हुए व्यक्ति की श्वासनली में अक्सर पानी भर जाने से उसकी सांस में रुकावट आ जाती है। ज्यादा गर्म पानी से गले की भीतरी मांसपेशियां सूज जाने के कारण भी सांस की नली में रुकावट आ जाती है। गर्दन में रस्सी, कपड़े आदि को कसकर बांधने, गले को अंगुलियों से दबाने, शिशु के ऊपर भारी बोझा डालने या बेहोश व्यक्ति को छाती के बल तकिए पर लिटाने से भी सांस में रुकावट आ सकती है।

बिजली का झटका लगने, ऊंचाई से गिरने, खान में खुदाई करने, किसी वाहन से कुचल जाने आदि कारणों से भी सांस लेने में रुकावट पैदा हो सकती है। नकली दांतों के मसूड़ों से निकलकर आहार नली में फंस जाने पर भी सांस लेने में परेशानी हो सकती है।

प्राथमिक उपचार- किसी भी कारण से सांस बंद हो जाने पर अगर जल्दी ही पीड़ित व्यक्ति को प्राथमिक उपचार न किया जाए तो उसकी हालत बिगड़ सकती है, वह बेहोश होने लगता है, मुंह से झाग निकलने लगते हैं और कभी-कभी उसे दौरे पड़ने लगते हैं। इसलिए सबसे पहले उसका प्राथमिक उपचार करना चाहिए।

          यदि किसी व्यक्ति की सांस रुक रही हो तो सबसे पहले उन कारणों को दूर करें जिनसे उसकी सांस रुक रही हो। फिर बेहोश व्यक्ति को पीठ के बल सीधा लेटा दें। जिन कारणों से व्यक्ति बेहोश हो रहा हो अगर उन्हे दूर करना संभव न हो तो बेहोश व्यक्ति को ही उठाकर उस स्थान से सुरक्षित स्थान पर ले जाएं जहां उसे स्वच्छ हवा मिल सके। फिर पीड़ित व्यक्ति को पीठ के बल लेटा दें और उसकी गर्दन के पीछे अपनी हथेली रखकर सिर को नीचे की ओर धीरे से दबाएं। 

          यदि पीड़ित व्यक्ति होश में हो तो उससे मुंह खोलने के लिए कहें लेकिन अगर वह बेहोश हो तो उसके जबड़े को पीछे से आगे की ओर दबाएं। ऐसा करने पर उसका मुंह खुल जाएगा फिर उसके मुंह में झांककर या अंगुली डालकर मालूम कर लें कि उसकी सांस की नली में भोजन का टुकड़ा, नकली दांत या कोई अन्य चीज तो नहीं फंसी या उल्टी हुई जीभ तो नहीं अटकी हुई है। यदि ऐसा हो तो उस अटकी हुई चीज को निकाल दें और जीभ उल्टी हुई हो तो उसे सीधा कर दें। ऐसा करने से अगर सांस रुकी हुई हो तो वह चलने लगती है। मुंह में अंगुली डालते समय ध्यान रखें कि बेहोशी की हालत में पीड़ित व्यक्ति आपकी अंगुली काट भी सकता है।

          यदि किसी बच्चे की सांस की नली में कोई चीज अटक रही हो तो बच्चे को पेट के बल लिटाकर उसका सिर नीचे की ओर करके उसकी पीठ पर हल्के-हल्के मुक्के से मारें। इससे सांस नली में अटकी हई चीज निकल जाएगी और उसकी सांस चलने लगेगी।

यदि सांस नली साफ करने के बाद भी सांस चालू न हो तो पीड़ित को निम्न प्रकार से कृत्रिम सांस दें-

•सांस बंद हो जाने पर पीड़ित व्यक्ति को पीठ के बल लेटाकर उसकी गर्दन के नीचे हाथ रखकर उसे ऊपर की ओर उठाएं। इससे उसका सिर पीछे की ओर झुक जाएगा और मुंह खुल जाएगा।
•इसके बाद अपने अंगूठे तथा तर्जनी अंगुली से पीड़ित व्यक्ति की नाक बंद करके अपने मुंह से उसे कृत्रिम सांस दें।
•यदि किसी बच्चे की सांस बंद हो गई हो तो सबसे पहले उसका सिर पीछे झुकाएं तथा पीठ के नीचे तकिया रखें और फिर सांस कृत्रिम सांस दें। कृत्रिम सांस देने पर पीड़ित बच्चे के फेफड़ें फूलते-सिकुड़ते हैं जिन्हे देखा जा सकता है। पीड़ित बच्चे को कृत्रिम सांस देने के बाद अपने मुंह को उसके मुंह से हटा लें। फिर गहरी सांस लेकर उसे दुबारा से कृत्रिम सांस दें। इस तरह पहली चार सांस जल्दी-जल्दी दें ताकि पीड़ित को ऑक्सीजन जल्दी मिल सके। यह क्रिया हर 5 सेकेंड में दोहराएं।
•मुंह अलग करने पर फेफड़ों से अशुद्ध वायु बाहर आ जाती है। यदि पीड़ित के मुंह से हवा बाहर निकलने की आवाज सुनाई नहीं दे तो उक्त क्रिया को फिर दोहराएं। बेहोश व्यक्ति के मुंह से भी सांस बाहर निकलने की आवाज आती है। ऐसा न होने पर समझ ले कि हवा रोगी के फेफड़ों में नहीं जा रही है। ऐसी स्थिति में पीड़ित के निचले जबड़े को आगे की ओर खींचकर उक्त क्रिया को फिर दोहराएं। .
•कृत्रिम सांस देने की क्रिया एक व्यस्क व्यक्ति को एक मिनट में 12 बार तथा बच्चों में प्रति मिनट 16 से 20 बार की दर से दोहराएं।
•अगर पीड़ित के जबड़े में चोट लगने या किसी और कारण से मुंह से उसे कृत्रिम सांस देना संभव न हो तो उसके मुंह को बंद करके अपना मुंह उसकी नाक पर रखकर सांस दें।
•नवजात शिशु तथा छोटे बच्चों का मुंह छोटा होता है इसलिए उनकी नाक और मुंह दोनों को अपने मुंह से ढककर उन्हे कृत्रिम सांस दें।
•बच्चे को सांस देते समय एक बात का ध्यान रखें कि अधिक तेज सांस न दें क्योंकि इससे उसके फेफड़े पर असर पड़ सकता है। बच्चों को कृत्रिम सांस देते समय अपना एक हाथ हल्के से उसके पेट पर रखें। ऐसा करने से फेफड़े जरूरत से अधिक नहीं फूल पाते।
•कृत्रिम सांस देने की क्रिया तब तक करते रहे जब तक पीड़ित व्यक्ति की सांस चलनी शुरू न हो जाए। ऐसी क्रिया से सामान्यतः 15 मिनट में सांस चलनी शुरु हो जाती है। लेकिन अगर पीड़ित की सांस फिर रुक जाए या उसकी सांस लेने की दर प्रति मिनट 12 से कम हो तो ऊपर बताई क्रिया को दुबारा दोहराएं तथा इस क्रिया को कोई डॉक्टरी सहायता मिलने तक करते रहें।
          कुछ लोगों का मानना है कि जो हवा हम मुंह से निकालते हैं वह दूषित होती है इसलिए मुंह से सांस देना सही नहीं है। जबकि डॉक्टरों का मानना है कि आपातकालीन स्थिति में ऐसा करना सही है और इससे किसी पीड़ित व्यक्ति की जान बच सकती है। जब हम सांस लेते हैं तो उसमें ऑक्सीजन की मात्रा 20 प्रतिशत और कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा 0.03 प्रतिशत होती है परंतु जब सांस मुंह से बाहर निकालते हैं तो वायु में ऑक्सीजन की मात्रा लगभग 16 प्रतिशत होती है और कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा लगभग 4 प्रतिशत होती है।

          कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा अधिक होने के कारण शरीर से बाहर निकलने वाली वायु दूषित होती है। जिसे लेने से हमारा दम घुटने लगता है लेकिन जिस व्यक्ति के शरीर में ऑक्सीजन की बहुत कमी हो गई हो और उस कमी के कारण उसके शरीर की महत्वपूर्ण क्रियाएं रुकने लगी हों या बहुत अधिक गड़बड़ी हो सकती हो तो उसके लिए 16 प्रतिशत ऑक्सीजन वाली वायु ही काफी रहती है। ऐसा करने पर उसके शरीर की बंद क्रियाएं फिर चालू हो जाती है।

हृदय की धड़कन फिर शुरू करना- फेफड़ों का कार्य दूषित खून को शुद्ध करके हृदय तक पहुंचाना और हृदय का कार्य शुद्ध खून को विभिन्न अंगों तक पहुंचाना है। अगर हमारे शरीर के किसी अंग से दूषित खून न हट पाए और शुद्ध खून से उसकी पूर्ति निरंतर नहीं हो पाए तो वह अंग सही तरीके से काम नहीं कर पाता और उसमें ऐसी गड़बड़ी पैदा हो सकती है जो कितने ही उपचार के बाद भी ठीक नहीं हो पाती। अगर मस्तिष्क को लगातार 3 मिनट तक और हृदय को 7-8 मिनट तक शुद्ध खून न मिले तो उनमें ऐसी खराबी पैदा हो जाती है जिनके फलस्वरूप व्यक्ति दुबारा स्वस्थ हो जाने के बाद भी जीवनभर कई तरह के मानसिक एवं शारीरिक रोगों से पीड़ित रहता है। हमारा हृदय अनेक कारणों से अपना काम करना बंद कर देता है- हृदय पर गंभीर चोट लगने से, बिजली का जोरदार झटका लगने से तथा शरीर से बहुत अधिक मात्रा में खून निकल जाने से हृदय की धड़कन बाद हो जाती है।        

          हृदय की धड़कन रुक जाने या बहुत कम हो जाने के कारण नब्ज धीमी पड़ जाती है या उसका स्पंदन बंद हो जाता है। ऐसी स्थिति में पीड़ित व्यक्ति का चेहरा नीला या पीला पड़ जाता है, उसकी आंखों के तारे फैल जाते हैं और वह अचेत हो जाता है। धड़कन को कुछ मिनटों में ही फिर चालू नहीं किया जाए तो पीड़ित व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है।

          हृदय के ऊपर हाथ रखकर उसकी धड़कन को महसूस किया जा सकता है। लेकिन उसको महसूस करने का सबसे सही अंग होता है कलाई। कलाई द्वारा नब्ज के धड़कने का पता बहुत ही आसानी से चल जाता है। लेकिन जब किसी कारण से हृदय की धड़कन धीमी हो जाती है तो कलाई पर नब्ज का स्पंदन महसूस नहीं हो पाता। इसलिए प्राथमिक उपचारकर्ता को इस बात की पुष्टि करने के लिए की पीड़ित व्यक्ति के हृदय की धड़कन चल रही है या नहीं, उसकी गर्दन के निचले हिस्से में बाईं ओर स्थित कैरोटिड धमनी या जांघ में स्थित फीमर धमनी की जांच करनी चाहिए। कैरोटिड धमनी का स्पंदन भी महसूस न होने पर प्राथमिक उपचारकर्त्ता को पीड़ित व्यक्ति के हृदय की धड़कन दुबारा चालू करने की कोशिश करनी चाहिए।

प्राथमिक उपचार करने के लिए सबसे पहले पीड़ित व्यक्ति को पीठ के बल लिटा दें। उसके सिर के नीचे कोई तकिया न रखें बल्कि उसके पैरों के नीचे कोई वस्तु रखकर पैरों को जमीन से 40-50 सेमी ऊपर उठा दें। ऐसा करने से खून का बहाव तेजी से पैरों से हृदय की ओर होने लगेगा। पैरों में लगभग डेढ़ लीटर खून होता है जो हृदय की धड़कन को दुबारा से चालू करने में बहुत सहायक हो सकता है।

          यदि इस क्रिया द्वारा हृदय की धड़कन शुरु न हो तो पीड़ित व्यक्ति को उपचार की जरूरत होती है। इसके लिए सबसे पहले पीड़ित व्यक्ति के शरीर में उसके हृदय की स्थिति का पता लगाएं। हृदय की सही स्थिति की जानकारी इसलिए जरूरी है क्योंकि अगर हृदय के स्थान पर धोखे से किसी दूसरे अंग पर हृदय को चालू करने का प्राथमिक उपचार कर दिया जाए तो पीड़ित व्यक्ति को लाभ के स्थान पर हानि हो सकती है। आमतौर पर सामान्य व्यक्ति को हृदय की वास्तविक स्थिति का आसानी से पता नहीं चल पाता। इसलिए सबसे पहले हृदय की स्थिति का पता लगाएं और फिर निम्न उपाय करें-

•प्राथमिक उपचार करने के लिए रोगी को पीठ के बल लिटाकर उसके हृदय वाले स्थान पर अपने दोनों हाथों की हथेलियों को एक-दूसरे के ऊपर रखें। दोनों हाथों की अंगुलियों को आपस में फंसा लें।
•हथेली के निचले भाग से छाती को एक सेकेंड में एक बार दबाएं। छाती पर इतना दबाव डालें कि वह 1.5 से 5 सेंटीमीटर तक नीचे धंस जाए। छाती को दबाएं और तुरंत दबाव हटा लें, पर हथेलियों को उसी स्थान पर रहने दें। फिर लगभग एक सेकेंड बाद फिर दबाव डालें। इस प्रकार एक मिनट में लगभग 60 बार दबाव डालें लेकिन ध्यान रखें कि छाती 5 सेंटीमीटर से अधिक न दबें।
•दबाव डालते समय कोहनियों को बिल्कुल सीधा रखें उनमें जरा सा भी झुकाव न आने दें।
•यदि आप अकेले हों तो पीड़ित व्यक्ति को पहले एक बार सांस देने के बाद 5 बार हृदय पर दबाव डालें, फिर एक बार सांस देकर 5 बार दबाव डालें।
•यदि आप दो व्यक्ति हैं और प्राथमिक उपचार दे रहे हैं तो एक व्यक्ति पीड़ित को सांस दें और दूसरा व्यक्ति उसकी छाती पर हृदय के पास दबाव डालें। दोनों में अच्छा तालमेल रखकर उपचार दें। ध्यान रखें कि सांस देते समय हृदय पर दबाव न पड़ें।
•हर पांच मिनट के उपचार के बाद पीड़ित व्यक्ति की नाड़ी और सांस दोनों की जांच करते रहें।
•नाड़ी की गति स्वाभाविक होने तक दबाव डालने तथा सांस देने की क्रिया नियमित रूप से चालू रखें।
•5-6 साल के बच्चे की छाती पर एक ही हाथ का दबाव काफी होता है तथा हृदय पर दबाव डालने की गति प्रति मिनट 80 बार होनी चाहिए।
•शिशुओं की छाती पर दो अंगुलियों का दबाव काफी होता है। इनके दबाव डालने की गति प्रति मिनट 100 बार होनी चाहिए और छाती को लगभग 2 सेंटीमीटर तक ही दबाएं।
•वयस्क व्यक्ति के हृदय पर दबाव डालने के अंतराल में हाथ उसकी छाती से न हटाएं।
•छाती पर दबाव डालते समय बहुत ही सावधानी बरतने की जरूरत हैं क्योंकि ज्यादा जोर से दबाव देने से पीड़ित की पसलियां टूट सकती है।
•सांस देने तथा दबाव देने की क्रिया तब तक करते रहें जब तक पीड़ित व्यक्ति अस्पताल न पहुंच जाए। यह क्रियाएं आधे घंटे तक की जा सकती हैं।
•सांस देने और छाती पर दबाव देने की इस क्रिया को सही रूप से किया जाए तो हृदय की धड़कन फिर से शुरु हो जाती है और खून का बहाव लगभग 100 मिलीलीटर हो जाता है। इस क्रिया के द्वारा मस्तिष्क को मिलने वाले कुल खून की मात्रा में से 25 से 30 प्रतिशत मात्रा मिलने लगती है।
जानकारी- एक बात ध्यान रखें कि हृदय की धड़कन रुकने के साथ पीड़ित व्यक्ति की सांस भी रुक जाती है। ऐसी स्थिति में धड़कन शुरु करने के साथ-साथ सांस को शुरू करने की कोशिश भी करनी चाहिए।

पानी में डूबना- आमतौर पर बहुत से तैराक पानी के नीचे जाने से एकदम पहले गहरी सांस ले लेते हैं। ऐसा करने पर उनके शरीर में से कार्बन डाइऑक्साइड की काफी मात्रा बाहर निकल जाती है। सामान्य अवस्था में यह कार्बन डाइऑक्साइड उस व्यक्ति को लगातार सांस लेने के लिए बाध्य करती है। कार्बन डाइऑक्साइड की अधिक मात्रा शरीर से बाहर निकल जाने के कारण तैराक बार-बार सांस लेने की कोशिश नहीं करता और ऑक्सीजन की कमी के कारण बेहोश हो जाता है। एक बार बेहोश हो जाने के बाद वह अपनी शारीरिक क्रियाओं पर नियंत्रण नहीं रख पाता और पानी में डूब जाता है। 

          जल्दी-जल्दी डाइव लेने वाले व्यक्ति के साथ भी लगभग इसी प्रकार की क्रियाएं होती हैं। दो डाइवों के बीच के कम समय में वह कई बार गहरी सांस लेता है और निकालता है। इस प्रकार वह भी अपने शरीर से कार्बन डाइऑक्साइड की काफी मात्रा बाहर निकाल देता है जिसके कारण उसकी सांस लेने की इच्छा नहीं होती। इसीलिए सांस लेने के लिए पानी से बाहर आने की बजाए वह पानी के भीतर ही रहता है और ऑक्सीजन की कमी होने के कारण बेहोश होकर डूब जाता है। पानी में डूबने का कारण चाहे कोई भी हो लेकिन इसके कारण डूबने वाले व्यक्ति की सांस रुक जरूर जाती है। पानी में डूबने वाले व्यक्ति को सांस की रुकावट को दूर करने के लिए निम्नलिखित प्राथमिक उपचार करने से लाभ मिलता है-

          सबसे पहले पानी में डूबने वाले व्यक्ति के मुंह की जांच करके देखें कि उसके मुंह में कोई चीज फंसी तो नहीं है। अगर उसके मुंह में कोई चीज फंसी हो तो सबसे पहले उसे बाहर निकाल दें। फिर तुरंत ही पीड़ित व्यक्ति को कृत्रिम सांस देना शुरू करें। इस क्रिया को उस समय भी किया जा सकता है जब पीड़ित व्यक्ति पानी में हो लेकिन इसके लिए पीड़ित व्यक्ति का मुंह पानी की सतह से ऊपर होना चाहिए। इस तरह पानी में ही सांस देते हुए पीड़ित व्यक्ति को पानी से बाहर निकाल लाएं और जमीन पर पेट के बल लिटा दें। जमीन पर लाने के बाद सांस देना बंद कर दें और पीड़ित व्यक्ति को पेट के बल लिटाकर उसके चेहरे को एक ओर कर दें। उसके हाथ को सिर से ऊपर की ओर करके पूरी तरह फैला दें। ऐसा करने पर उसके मुंह से पानी बाहर निकलने लगेगा।

नोट- शिशुओं और बच्चों के शरीर से पानी बाहर निकालने के उन्हे पैर से पकड़कर उल्टा भी लटकाया जा सकता है।

          फेफड़ों से पूरी तरह पानी बाहर निकालने के लिए पीड़ित व्यक्ति के पेट के भाग को थोड़ा ऊंचा उठा दें ताकि पेट का सारा पानी बाहर निकल जाए। जब पेट से पूरी तरह से पानी बाहर निकल जाए तो व्यक्ति को सीधा करके पीठ के बल सीधा लिटा दें। इसके बाद सांस देने की क्रिया शुरू करें। पीड़ित व्यक्ति को तब तक सांस देते रहें जब तक उसकी सांस फिर से शुरू न हो जाए। कभी-कभी पीड़ित व्यक्ति को सामान्य अवस्था में आने में दो घंटे लग जाते हैं।

          यदि पीड़ित व्यक्ति का जबड़ा भिंच गया हो तो उसके होंठ अलग करके और उसका मुंह खोलकर दांतों के बीच से उसके मुंह में कृत्रिम सांस देने की कोशिश करें। समुद्र के खारे पानी में डूबने वाले व्यक्ति के शरीर में तरल पदार्थों की कमी हो जाती है जिसके कारण होश में आते ही वह पानी मांगता है। ऐसी स्थिति में उसे जितना पानी वह मांगे पिला देना चाहिए।

          इसके बाद उसके शरीर से सारे गीले कपड़े उतारकर उसे सूखे कपड़े पहना दें और ऊपर से गर्म कंबल आदि ओढा दें। पीड़ित व्यक्ति के सामान्य अवस्था में लौट आने पर भी उसे ज्यादा देर तक बैठने न दें। उसे चाय, कॉफी आदि पीने के लिए दिये जा सकते हैं। फिर पीड़ित व्यक्ति को स्ट्रेचर पर डालकर जल्दी से जल्दी अस्पताल ले जाएं।

सांसनली में कोई वस्तु फंस जाने पर- छोटे-छोटे बच्चों को हर चीज मुंह में डालने की आदत होती है। ऐसे में कई बार वह ऐसी चीजें मुंह में ले लेते हैं जो मुंह से उनके गले में अटक जाती है। इसके कारण उनकी सांसनली में रुकावट आ जाती है। कई बार खाना खाते समय वयस्कों की सांसनली में भी भोजन अटक जाता है जिससे उसमें रुकावट आ जाती है। सांसनली में रुकावट आने के बाद व्यक्ति बोल नहीं पाता है और सांस लेने की पूरी कोशिश करता है। ऐसा करने पर उसकी आंखें बाहर निकलने लगती है और पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन न मिल पाने के कारण चेहरा नीला हो जाता है। यदि सांसनली पूरी तरह से बंद हो जाए तो उपचार न मिलने की स्थिति में पीड़ित व्यक्ति कुछ ही देर में बेहोश हो जाता है। यहां तक की उसकी मृत्यु भी हो सकती है।

          छोटे बच्चों के गले में अगर कुछ फंस जाता है तो उसे बाहर निकालने के लिए पीड़ित बच्चे को टांगों से पकड़कर उल्टा कर दें और उसकी पीठ पर 3-4 बार जोर-जोर से थपकी दें। अगर ऐसा करने पर भी उसके गले में फंसी वस्तु बाहर न निकले तो पीड़ित बच्चे को अपने घुटनों पर उल्टा लिटाकर उसका सिर नीचे की ओर लटका दें। अब ऊपर से उसके कंधों के बीच जोर से थपकी दें। यदि ऐसा करने पर भी फंसी वस्तु बाहर न आए तो उसके गले में दो अंगुलियां डालकर उसे उल्टी करवा दें।

अगर किसी वयस्क व्यक्ति की सांसनली में कोई ग्रास आदि फंसने से उसकी सांस रुक जाती है तो उसको निकालने के लिए निम्नलिखित प्राथमिक उपचार करने से लाभ मिलता है- 

          अगर पीड़ित व्यक्ति लेटी हुई अवस्था में हो तो सबसे पहले उसे पीठ के बल सीधा करके लिटा दें। फिर उसके पैरों की तरफ मुंह करके खड़े हो जाएं और उसकी टांगों के निकट घुटनों के बल इस प्रकार बैठ जाएं कि आपका एक घुटना उसकी टांगों के एक ओर हो और दूसरा दूसरी ओर रहे। अब पीड़ित व्यक्ति के पेट पर नाभि और पसली के बीच अपने एक हाथ की हथेली रखें। फिर उसके ऊपर दूसरी हथेली रखें। अब अपनी हथेलियों को दबाकर ऊपर की ओर तेजी से झटका दें। झटके देने के बाद एक-दो सेकेंड के लिए दबाव हटा लें और फिर झटका दें। ऐसा तब तक करते रहें जब तक उसके गले में फंसी हुई वस्तु बाहर नहीं निकल जाती है।

          इन विधियों द्वारा प्राथमिक उपचार करने पर गले में फंसी वस्तु इसलिए बाहर निकल आती है कि जब सांस रुकने पर भी हमारे फेफड़ों में कुछ हवा होती है। इन क्रियाओं को करने पर वह झटके के साथ बाहर निकलती है और अपने साथ गले में अटकी वस्तु को भी मुंह में धकेल देती है।

          इस क्रिया को करने पर पीड़ित व्यक्ति को उल्टी भी आ सकती है। ऐसा होने पर उसका चेहरा एक ओर झुकाकर उल्टी करा दें।

          वयस्क व्यक्ति की सांसनली में फंसी वस्तु निकल जाने के बाद उसे सांस लेने में कठिनाई महसूस हो सकती है। इसलिए इसके तुरंत बाद उसे कृत्रिम सांस देने की तैयारी करें।

कार्बन मोनोऑक्साइड की कमी से सांस में रुकावट- सर्दी के मौसम में अक्सर लोग ठंड से बचने के लिए कमरे में कोयले की अंगीठी जलाकर दरवाजे और खिड़कियां बंद करके सो जाते हैं जो बहुत ही गंभीर स्थिति पैदा कर सकता है। ऐसा करने से सांस लेने में परेशानी होने लगती है और कुछ समय में दम घुटकर कमरा बंद करके सोने वाले व्यक्तियों की मृत्यु भी हो सकती है।

          ऐसी स्थिति अक्सर कार्बन मोनोऑक्साइड नामक जहरीली गैस के कारण पैदा होती हैं। कार्बन मोनोऑक्साइड गैस मोटर साईकिल, कार, ट्रक, स्कूटर आदि से निकलने वाली एग्जॉस्ट गैसों में मौजूद रहती है। यह गैस कोयले, लकड़ी आदि ज्वलनशील वस्तुओं के जलने के कारण पैदा होती है। इसके अलावा यह गैस कोयले की खानों में भी पैदा हो जाती है।   यह गैस सांस के साथ शरीर के अंदर जाकर घबराहट पैदा नहीं करती। इसीलिए सोते हुए व्यक्ति को इसकी उपस्थिति का पता नहीं चलता। ऑक्सीजन की तुलना में यह गैस हमारे लाल रक्तकणों के हीमेग्लोबिन के साथ तेजी से काफी ज्यादा मात्रा में मिल जाती है। ऐसा होने से हीमोग्लोबिन को ऑक्सीजन नहीं मिल पाती जिसके कारण पैदा होने वाली स्थिति किसी गंभीर दुर्घटना की सूचक होती है।          

          हवा से हल्की गैस होने के कारण कार्बन मोनोऑक्साइड जल्दी ही ऊपर उठ जाती है। लेकिन जिस स्थान पर यह गैस निरंतर पैदा होती रहती है वहां कभी-कभी आपातकालीन स्थिति पैदा हो जाती है। ऐसा होने पर सबसे पहले पीड़ित व्यक्ति को उस स्थान से दूर ले जाना बहुत जरूरी होता है। इस दौरान सबसे जरूरी है कि प्राथमिक उपचारकर्त्ता स्वयं 2-3 बार गहरी सांस लें और जितनी देर संभव हो सके सांस को रोककर रखें। इसके बाद उसे रेंगते हुए कार्बन मोनोऑक्साइड के वातावरण में घुसना चाहिए। वायु से हल्की होने के कारण फर्श के निकट इस गैस की सांद्रता अपेक्षाकृत कम होती है। पीड़ित व्यक्ति को फर्श के निकट रखते हुए जल्दी से जल्दी खुली हवा में ले जाएं। यदि पीड़ित व्यक्ति को उस कमरे से बाहर निकालना संभव न हो सके तो सभी खिड़कियां और दरवाजे खोल दें ताकि कमरे में भरी हुई गैस बाहर निकल जाए।

          खुली हवा में बाहर ले जाने के बाद तुरंत ही पीड़ित व्यक्ति सारे कपड़े ढीले कर दें और उसे कृत्रिम सांस देना शुरू करें।

        ऐसी स्थिति में पीड़ित व्यक्ति को शुद्ध ऑक्सीजन देना अधिक ज्यादा अच्छा रहता है परंतु इसकी व्यवस्था सिर्फ बड़े अस्पतालों में ही होती है। इसलिए पीड़ित व्यक्ति को जल्दी से जल्दी अस्पताल ले जाएं।

कार्बन डाइऑक्साइड- धुएं या कार्बन डाइऑक्साइड या दूसरी जहरीली गैसों वाले वातावरण में फंसे व्यक्ति का दम घुटने पर प्राथमिक उपचार देने से पहले उसे भी जल्दी से जल्दी उस वातावरण से बाहर निकालना जरूरी होता है। लेकिन ऐसा करने से पहले प्राथमिक उपचारकर्त्ता लिए कुछ सावधानियां बरतनी जरूर है जैसे-

•धुएं से भरे कमरे में घुसने से पहले उसे अपना मुंह और नाक गीले तौलिए से ढक लेना चाहिए।
•कार्बन डाइऑक्साइड से भरे कमरे में घुसने से पहले उस कमरे के सारे दरवाजे और खिड़कियां खोलने की कोशिश करनी चाहिए।
•दो-तीन बार गहरी सांस लेकर जितनी देर तक संभव हो सके सांस रोके रखना चाहिए।
•कार्बन डाइऑक्साइड हवा से भारी होती है और वह फर्श के निकट ही जमा हो जाती है। इसलिए इस गैस से भरे कमरे में झुकें नहीं बल्कि खड़े होकर ही अपनी कार्यवाही जारी रखें।

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