आइये पहले इसके नामो के बारे में जानते हैं-
हिंदी- जटामांसी, बालछड , गुजराती में भी ये ही दोनों नाम,तेल्गू में जटामांही ,पहाडी लोग भूतकेश कहते हैं और संस्कृत में तो कई सारे नाम मिलते हैं- जठी, पेशी, लोमशा, जातीला, मांसी, तपस्विनी, मिसी, मृगभक्षा, मिसिका, चक्रवर्तिनी, भूतजटा.यूनानी में इसे सुबुल हिन्दी कहते हैं.
ये पहाड़ों पर ही बर्फ में पैदा होती है. इसके रोयेंदार तने तथा जड़ ही दवा के रूप में उपयोग में आती है. जड़ों में बड़ी तीखी तेज महक होती है.ये दिखने में काले रंग की किसी साधू की जटाओं की तरह होती है.
इसमें पाए जाने वाले रासायनिक तत्वों के बारे में भी जान लेना ज्यादा अच्छा रहेगा---- इसके जड़ और भौमिक काण्ड में जटामेंसान , जटामासिक एसिड ,एक्टीनीदीन, टरपेन, एल्कोहाल , ल्यूपियाल, जटामेनसोंन और कुछ उत्पत्त तेल पाए जाते हैं.
अब इस के उपयोग के बारे में जानते हैं :-
मस्तिष्क और नाड़ियों के रोगों के लिए ये राम बाण औषधि है, ये धीमे लेकिन प्रभावशाली ढंग से काम करती है.
पागलपन , हिस्टीरिया, मिर्गी, नाडी का धीमी गति से चलना,,मन बेचैन होना, याददाश्त कम होना.,इन सारे रोगों की यही अचूक दवा है.
ये त्रिदोष को भी शांत करती है और सन्निपात के लक्षण ख़त्म करती है.
इसके सेवन से बाल काले और लम्बे होते हैं.
इसके काढ़े को रोजाना पीने से आँखों की रोशनी बढ़ती है.
चर्म रोग , सोरायसिस में भी इसका लेप फायदा पहुंचाता है.
दांतों में दर्द हो तो जटामांसी के महीन पावडर से मंजन कीजिए.
नारियों के मोनोपाज के समय तो ये सच्ची साथी की तरह काम करती है.
इसका शरबत दिल को मजबूत बनाता है, और शरीर में कहीं भी जमे हुए कफ को बाहर निकालता है.
मासिक धर्म के समय होने वाले कष्ट को जटामांसी का काढा ख़त्म करता है.
इसे पानी में पीस कर जहां लेप कर देंगे वहाँ का दर्द ख़त्म हो जाएगा ,विशेषतः सर का और हृदय का.
इसको खाने या पीने से मूत्रनली के रोग, पाचननली के रोग, श्वासनली के रोग, गले के रोग, आँख के रोग,दिमाग के रोग, हैजा, शरीर में मौजूद विष नष्ट होते हैं.
अगर पेट फूला हो तो जटामांसी को सिरके में पीस कर नमक मिलाकर लेप करो तो पेट की सूजन कम होकर पेट सपाट हो जाता है.
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